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कबीरदास दर्शन-धर्म का जानकार सभी का कल्याण करता है (kabirdas darshan-dharma ka jankar sabhi ka kalyan karta hai)


फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्।
न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति।।
हिन्दी में भावार्थ-
निर्मली का वृक्ष जल को शुद्ध करता है भले ही उसकी जानकारी सभी को नहीं है। उसका नाम लेने से जल शुद्ध नहीं होता बल्कि वह स्वयं उपस्थित होकर जल शुद्ध करता है। उसी प्रकार धर्म की जानकारी होना ही पर्याप्त नहीं बल्कि उसे अन्य जीवों का कल्याण कर प्रमाणित करना चाहिए। नाम लेने से आदमी धार्मिक नहीं हो जाता।
दुषितोऽपि चरेद्धर्म यत्रतत्राश्रमे रतः।
समः सर्वेषु भूतेशु न लिंगे धर्मकारणम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे घर में हो या आश्रम में शास्त्रों के ज्ञाता को चाहिए कि सामान्य प्राणियों के दोषों से ग्रसित होने पर भी सभी को समान दृष्टि से देखे। वह धर्म का अनुसरण करते हुए अपना व्यवहार हमेशा शुद्ध रखे पर उसका प्रदर्शन न करे-अभिप्राय यह है कि धर्म का वह पालन करे पर और उसका दिखावा करने से दूर रहे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हमारे समाज में धर्म का दिखावा करने वालों की संख्या बहुत है पर उस अमल कितने लोग करते हैं यह केवल ज्ञानी लोग ही देख पाते हैं। अगर समूचे भारतीय समाज पर दृष्टिपात करें

तो पूजा, पाठ, तीर्थयात्रा, सत्संग तथा दान करने वाले लोगों की संख्या बहुत दिखाई देती है पर फिर नैतिक और सामाजिक आचरण में निरंतर गिरावट होती दिख रही है। लोग धार्मिक पुस्तकों के ज्ञान की चर्चा करते हुए एक दूसरे को सिखाते खूब हैं पर सीखता कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। लोग दान करते हैं पर कामना के भाव से-उनका उद्देश्य समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है या फिर प्राप्तकर्ता के कथित आशीर्वाद की चाहत उनके मन में होती है और इसी कारण कारण कुपात्र को भी दान देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि धर्म का दिखावा कोई धार्मिक व्यक्ति होने का प्रमाण नहीं है।
उसी तरह धर्म के रक्षा के नाम पर विश्व में अनेक लोग तथा संगठन बन गये हैं-उनका उद्देश्य केवल अपने लिये धन तथा प्रतिष्ठा अर्जित करना होता है न कि वास्तव में सामाजिक कल्याण करना। धर्म नितांत एक निजी विषय है न कि अपने मुंह से कहकर सुनाने का। जिस व्यक्ति को यह प्रमाणित करना है कि वह धार्मिक प्रवृत्ति का है उसे चाहिये कि वह दूसरों की सहायता कर उसे प्रमाण करे। कुछ लोग धर्म के नाम हिंसा को उचित ठहराने का प्रयास करते हैं। अपने घर की रक्षा करने की कर्तव्य क्षमता तक उनमें होती नहीं और धर्म के नाम पर धन और अस्त्र शस्त्र के संचय में लगकर वह हिंसा के व्यापारी बन जाते हैं- राम तथा बगल में छुरी रखने वालों की पहचान इसी तरह की जा सकती है कि कौन आदमी वास्तव में किसका भला करता है और कौन कितना उसकी आड़ में अपना व्यापार करता है। सच्चा धामिक व्यक्ति वही है रो अपने करम तथा व्यवहार से दूसरों को शान्ति तथा सुख प्रदान करता है। इसके विपरीत पाखंडी लोग धर्मं कि बातें बहुत करते हैं पर उनके हाथ से किसी की भला हो यह संभव नहीं होता क्योंकि उनकी ऐसी नीयत भी नहीं होती।

लेखक, संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
http://anant-shabd.blogspot.com
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दौलत के महल में बसने वाले-हिन्दी व्यंग्य शायरी


अपनी खुशी पर हंसने की बजाय
दूसरे के सुख पर रोते
इसलिये इंसान कभी फरिश्ते नहीं होते।
मुखौटे लगा लेते हैं खूबसूरत लफ़्जों का
दरअसल काली नीयत लोग छिपा रहे होते।
दौलत के महल में बसने वाले
खुश दिखते हैं,

 मगर  गरीब की पल भर की खुशी पर वह भी रोते।
सोने के सिंहासन पर विराजमान
उसके छिन जाने के खौफ के साये में
जीते लोग
कभी किसी के वफादार नहीं होते।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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योग साधना को केवल व्यायाम न समझें-हिन्दू धर्म संदेश (yog sadhna no simple exercise-hindu dharm sandesh)


एक सर्वे के अनुसार 45 से 55 वर्ष की आयु के मध्य व्यायाम करने वालों में घुटने तथा शरीर के अन्य जोड़ों वाले भागों में दर्द होने की बात सामने आयी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है पर यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि भारतीय योग पद्धति का हिस्सा दैहिक आसन इस तरह के व्यायाम की श्रेणी में नहीं आते। यह व्यायाम नहीं बल्कि योगासन हैं यह अलग बात है कि इसकी कुछ क्रियायें व्यायाम जैसी लगती हैं।
इसके संबंध में एक मजेदार बात याद आ रही है। एक गैर हिन्दू धार्मिक चैनल पर एक कथित विद्वान से भारतीय योग पद्धति के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया कि ‘हमारी पवित्र किताब में भी इंसान को व्यायाम करते रहने के लिये कहा गया है।’
उन विद्वान महोदय का बयान कोई आश्चर्य जनक नहीं था क्योंकि सभी धर्मों के विद्वान हमेशा अपनी पुरानी किताबों के प्रति वफादार रहते हैं और उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह किसी भी हालत में दूसरे धर्म की किसी परंपरा की प्रशंसा करेंगे। फिर टीवी चैनलों ने भी कुछ विद्वान तय कर रखे हैं जिनके पास बहस करने के लिये आपके पास सुविधा नहीं है। बहरहाल सच बात यही है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसन कोई सामान्य व्यायाम नहीं बल्कि देह से विकार बाहर निकालने की एक प्रक्रिया है।
योगासनों में किसी भी शारीरिक क्रिया में शरीर ढीला नहीं होता। हर अंग में कसावट होती है और यह तनाव की बजाय राहत देती है इतना ही नहीं हर आसन में उसके अनुसार शरीर के चक्रों पर ध्यान भी लगाया जाता है-इस संबंध में भारतीय येाग संस्थान की पुस्तक उपयोग प्रतीत होती है। व्यायाम में जहां शरीर से ऊर्जा रस के निर्माण के साथ उसका क्षरण भी होता है पर योगासन में केवल देह मेें स्थित वात, कफ तथा पित के विकार ही निर्गमित होते। दूसरी बात यह है कि ध्यान की वजह से देह को ऐसी सुखानुभूति होती है जिसकी व्यायाम में नहीं की जाती। इसके अलावा व्यायाम जहां जमीन बैठकर या खड़े होकर किया जाता है जबकि योगसन में नीचे चटाई, दरी और चादर का बिछा होना आवश्यक है ताकि देह में निर्मित होने वाली ऊर्जा का बाहर विसर्जन न हो। योगासन के बारे में सबसे बड़ी दो बातें यह है कि एक तो वह इसमें शरीर को खींचा नहीं जाता बल्कि जहां तक सहजता अनुभव हो वहीं तक हाथ पांवों में तनाव लाया जाता है। दूसरा यह कि योगसन किसी भी आयु में प्रारंभ किया जा सकता है जबकि व्यायाम को एक आयु के बाद प्रारंभ करना खतरनाक माना जाता है। योगसन में सहजता का भाव आता है और व्यायाम में इसका अभाव साफ दिखाई दे्रता है क्योंकि उसमें शरीर के चक्रों पर ध्यान नहीं रखा जाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसनों को भारतीय या पश्चिमी पद्धति के व्यायामों से तुलना करना ही ठीक नहीं है। दोनों ही एकदम पृथक विषय है-भले ही उनकी शारीरिक क्रियाओं में कुछ साम्यता दिखती है पर अनुभूति में दोनों ही अलग हैं। दूसरी बात यह है कि भारतीय योग पद्धति में आसन केवल एक विषय है पर सभी कुछ नहीं है और यही कारण है कि इसे व्यायाम मानना गलत है। अलबत्ता कुछ विद्वान इसे सीमित दृष्टिकोण से देखते हैं उनको इस बारे में जानकारी नहीं है। कई लोग अक्सर यह शिकायत करते हैं कि वह अमुक आसन कर रहे थे तो उनकी नसें खिंच गयी दरअसल वह आसनों को व्यायाम की तरह करते हैं जबकि इसके लिये पहले किसी योग्य गुरु का सानिध्य होना आवश्यक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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भर्तृहरि शतकः कामदेव करते हैं इस विश्व में अद्भुत लीला



कृशः काणः खञ्ज श्रवणरहितः पुच्छविकलो
व्रणी पूयक्लिनः कृमिकुलशतैरावुततनु
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककापालार्पिततगलः
शनीमन्वेति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः

हिंदी में भावार्थ-देह से दुर्बल, खुजली वाला, बहरा काना, पुंछ विहीन, फोड़ों से भरा, पीव और कीट कृमियों से लिपटा, भूख से व्याकुल, बूढ़ा मिट्टी के घड़े में फंसी हुई गर्दन वाला कुत्ता भी नई तथा युवा कुतिया के पीछे पीछे दुम हिलाता हुआ फिरता है। यह कामदेव की लीला है कि वह मरे हुए में भी काम भावना लाकर उसे गहरी खाई में ढकेल कर मार देते हैं।
संपादकीय व्याख्या-कामदेव की विचित्र लीला है। कोई भी कितना तपस्वी या ज्ञानी क्यों
न हो उसे अपने मन में कभी अपने भाव लाकर विचलित कर ही देते हैं। ऐसा कोई जीव इस धरती पर नहीं है जो काम वासना के आधीन हैं होता हो। सच बात तो यह है की इस जीवन का आधार ही काम देव महाराज निर्मित करते हैं। मनुष्य हो या पशु अपनी जाति की नवयौवना को देखते उत्तेजित हो जाता है। यह अलग बात है की मनुष्यों में कुछ लोग कनखियों से देखकर आह भरते हैं पर प्रदर्शित ऐसे करते हैं कि कि वह तो सामान्य दृष्टि से देख रहे है।

रहीम संदेशः समय के अनुसार फल मिलता है और झड़ जाता है


समय पाय फल होत है, समय पाय झरि जात
सदा रहै नहीं एक सौ, का रहीम पछितात?

कविवर रहीम कहते हैं कि समय चक्र तो घूमता रहता है और उसी के अनुसार मनुष्य को अपने कर्मो का फल मिलता है। समय कभी एक जैसा नहीं रहता इसलिये बुरा समय आने पर परेशान होने से कोई लाभ नहीं है।

उत्तम जाती ब्राह्मनी, देखत चित्त लुभाय
परम पाप पल में हरत, परसत वाके पास

कविवर रहीम कहते हैं कि मनुष्य की पहचान उसके उत्तम गुणों से होती है। ब्रह्मज्ञानी को देखते ही हृदय में प्रसन्नता के भावों का प्रवाह होता है। ऐसे विद्वान के सामने सिर झुकाने मात्र से ही सारे पाप धुल जाते है।

आदि रूप की परम दुति, घट घट रही समाई
लघु मति ते मो मन रसन, अस्तुति कही न जाई

कविवर रहीम कहते हैं कि आदि रूप परमात्मा का प्रकाश चारों तरफ फैला है। वह कणकण में समाया हुआ है। उसके प्रभाव करने में किसी का भी बौद्धिक ज्ञान कम पड़ जायेगा। उसकी महिमा गाने में तो शब्द भी कम पड़ जाते हैं।

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चाणक्य नीतिः दिल के पास और परे होने का संबंध जज्बात से


1.राजा, अग्नि, गुरु, स्त्री इनसे निकटता खतरनाक होती है। इनसे थोड़ा परे रहकर संपर्क रखना चाहिए। अग्नि, जल, सर्प, मूर्ख, और राजा कभी भी रुष्ट होने पर मनुष्य के प्राण तक ले सकते हैं।
2.सच्चा ज्ञानी तो वही है जो प्रसंग के अनुसार वार्तालाप में अपने तर्क उचित ढंग से प्रस्तुत करता है। वह अनुकूल होने पर प्रेम करता है और अपनी शक्ति के अनुसार क्रोध प्रदर्शन करने वाला भी होता है।
3.हृदय में रहने वाला दूर रहकर भी पास है और हृदय में न रहने वाला पास रहकर भी दूर रहता है। परे और निकट के संबंध का आधार हृदय के भाव से है।
4.जल में तेल पड़ते ही कम होने के बावजूद तेल का विस्तार हो जाता है। उसी तरह दुष्ट के साथ गोपनीय विषय पर की गयी वार्ता विद्युत गति से फैल जाती है। उसी तरह सुदान की चर्चा भी विस्तार पाती है। विस्तार की शक्ति अपने पात्र के कार्य करने पर निर्भर रहती है।
5.निर्धन को पत्नी, मित्र, सेवक, भाई और परिजन सब छोड़ देते हैं।

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रहीम संदेशः मतलब के हिसाब से बदलती है लोगों की नजरें


स्वारथ रचत रहीम सब, औगनहूं जग मांहि
बड़े बड़े बैठे लखौ, पथ रथ कूबर छांहि

कविवर रहीम कहते हैं कि लोग अपने स्वार्थ के लिये दूसरे में गुण दोष निकालते हैं। जो कभी अपनी हित साधने के लिये मार्ग में रुके रथ के हरसे की टेढ़ी-मेढ़ी छाया को अशुभ कहा करते थे वही लोग उसी हरसी की छाया में बैठ कर अपने को धूप से बचाते हैं।

सर सूखै पंछी उड़ै, औरे सरन समाहि
दीन मीन बिन पंख के, कहु रहीम कहं जाहिं

कविवर रहीम कहते हैं कि तालाब का पानी सूखते ही पक्षी उड़कर दूसरे तालाब में चले जाते हैं पर उसमें रहने वाली मछली का क्या? वह तो असमर्थ होकर वहीं पड़ी रहती है। परमात्मा का ही उसे आसरा होता है।

साधु सराहै साधुता, जती जोखिता जान
रहिमन सांचे सूर को, बैरी करे बखान

सज्जन लोग ही सज्जनता की सराहना करते हैं दुष्ट नहीं। जो योगी हैं वही ज्ञान और ध्यान की सराहना करते है जबकि सामान्य जन उससे परे रहते हैं। पर जो शूरवीर हैं उनकी वीरता की प्रशंसा सभी करते हैं।

चाणक्य नीतिः औरत में आदमी से अधिक शक्ति होती है


1.कोयल की मधुर वाणी उसका रूप है। वह भी कौए की तरह काली और कुरूप होती है पर उसका कर्णप्रिय स्वर मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करता है लोग उसके कुरूप होने का दुर्गुण भूल जाते हैं। वह उसके काले और भद्दे होने की उपेक्षा कर उससे प्रेम करने लगते हैं।
2.नारी में पुरुष से दोगुना भोजन करने की क्षमता होती है जबकि लज्जा चार गुना अधिक होती है। साहस छह गुना अधिक होता है।
3.नदी के तेज बहाव के कारण उसके किनारे खडे पेड़ पौधे जिस तरह नष्ट हो जाते हैं उसी तरह दूसरे के घर में रहने वाली स्त्री भी लांछित हो जाती है क्योंकि उसके लिये अपनी रक्षा करना अत्यंत कठिन होता है।
4.किसी भी पुरुष का घर स्त्री के कारण ही बसता है इसलिये नारी में कुल गुण और सहृदयता का होना आवश्यक है। जहां उसका पति के प्रति अनुराग नहीं होगा वहां जीवन की गाड़ी नहीं चल पायेगी। इसलिये स्त्री मन और वचन से सत्य बोलने, सदुव्यवहार करने और श्रेष्ठ गुणों वाली होना आवश्यक है।
5.धरती से निकलने वाला जल, पवित्र व शुद्ध होता है उसी तरह पतिव्रता नारी सदैव शुद्ध और पवित्र होती है। प्रजा के हित के संलिप्त रहने वाला राज तथा संतोष करने वाला विद्वान हमेशा पवित्र होता है।

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विदुर नीतिःक्षमाशील क्रोध रोककर अभद्रता करने वाले को नष्ट कर डालता है


1.दूसरों के अभद्र शब्द सुनकर भी स्वयं उन्हें न कहे। क्षमा करने वाला अगर अपने क्रोध को रोककर भी बदतमीजी करने वाले को नष्ट कर और उसके पुण्य भी स्वयं प्राप्त कर लेता है।
2.दूसरों से न तो अपशब्द कहे न किसी का अपमान करें, मित्रों से विरोध तथा नीच पुरुषों की सेवा न करें।सदाचार से हीन एवं अभिमानी न हो। रूखी तथा रोष भरी वाणी का परित्याग करं।
3.इस जगत में रूखी या शुष्क वाणी, बोलने वाले मनुष्य के ही मर्मस्थान हड्डी तथा प्राणों को दग्ध करती रहती है। इस कारण धर्मप्रिय लोग जलाने वाली रूखी वाणी का उपयोग कतई न करें।
4.जिसकी वाणी रूखी और शुष्क है, स्वभाव कठोर होने के साथ ही वह जो दूसरों को मर्म कटु वचन बोलकर दूसरों के मन पर आघात और मजाक उड़ाकर पीड़ा पहुंचाता है वह मनुष्यों में महादरिद्र है और वह अपने साथ दरिद्रता और मृत्यु को बांधे घूम रहा है।
5.कोई मनुष्य आग और सूर्य के समान दग्ध करने वाले तीखे वाग्बाणों से बहुत चोट पहुंचाए तो विद्वान व्यक्ति को चोट खाकर अत्यंत वेदना सहते हुए भी यह समझना कि बोलने वाला अपने ही पुण्यों को नष्ट कर रहा है।

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मनुस्मृतिः प्राणों की रक्षा के लिये सभी प्रकार के अन्न बनाये गये हैं


1.जो जिस जीव का मांस खाता है, वह उसका भक्षक होता है। मछली सभी जीवों का मांस खाती है अत: उसको खाने वाला सर्वभक्षक होता है। सर्व भक्षक बनने के पाप से बचने के लिए मछली का नही खाएं.
2.यदि घी वाले मिठाई, जो जौ-गेहूँ आदि को दूध में पकाकर बनाई गयी हो, बहुत दिनों से रखी हुई भी हो तब भी उसे खा लेना चाहिए।

  • भैंस के अतिरिक सभी वनैले पशुओं का दूध पीने योग्य नहीं होता।
    3.सभी प्रकार के अन्न प्रजापति ब्रह्माजी ने प्राणों के रक्षा के लिए ही बनाए हैं।
  • सुप्त्वा क्षुत्वा च भुक्तवा च निष्ठीव्योक्त्वाऽनतानि च।
    पीत्वाऽपोध्यध्यमाणश्च आचामेत्प्रयतोऽपि सन्।।

    हिंदी में भावार्थ-सोने, छींकने, खाने, थूकने और झूठ बोलने के बाद अपनी शुद्धि पानी पीकर करनी चाहिए। इसके बाद भी अध्ययन करने से पहले एक बार जल का आचमन करना चाहिए।
    वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-समय के साथ हमने कई पुराने संदेशों को भुला दिया है। पानी का सेवन करने से शरीर में कई प्रकार से शुद्धता आती है और तन की शुद्धता से ही मन में शुद्धता का भाव स्थापित हो पाता है। आजकल तो लोग अपने शरीर के साथ अधिक खिलवाड़ करते हैं। कंप्यूटर और टीवी में अपनी आंखों से निरंतर देखते रहते हैं इससे जो तन और मन में हानि होती है उसकी जानकारी उनको नहीं होती है। अनेक जानकार कहते हैं कि कंप्यूटर और टीवी पर एक संक्षिप्त अवधि से दृष्टिपात करने के बाद पानी पीना चाहिए और मूंह में कुल्ला भरकर आंखों में छींटे मारना चाहिए। हमारे देश में किसी भी वस्तु के उपभोग पर लोग उतारू तो हो जाते है पर उससे संबंधित सावधानियों पर ध्यान नहीं देते। कंप्यूटर पर काम करने के बाद अपनी आंखों पर पानी के छींटे मारने से जो राहत मिलती है उससे मस्तिष्क में आये तनाव से मुक्ति मिलती है। सबसे बड़ी बात यह है कि लोगों को यही पता नहीं होता कि तनाव क्या होता है? जब इस तरह पानी के छींटें मारें तब जो राहत मिलती है उस से ही पता लगता है कि कोई तनाव भी होता है।

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    संत कबीर वाणीःकमजोर का मजाक न उड़ायें


    अहं अगनि हिरदै, जरै, गुरू सों चाहै मान
    जिनको जम नयौता दिया, हो हमरे मिहमान

    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जब किसी मनुष्य में अहंकार की भावना जाग्रत होती है तो वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहता है। ऐसी प्रवृत्ति के लोग अपने देह को कष्ट देकर विपत्तियों को आमंत्रण भेजते हैं और अंततः मौत के मूंह में समा जाते हैं।

    कबीर गर्व न कीजिये, रंक न हंसिये कोय
    अजहूं नाव समुद्र में, ना जानौं क्या होय

    संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि अपनी उपलब्धियों पर अहंकार करते हुए किसी निर्धन पर हंसना नहीं चाहिए। हमारा जीवन ऐसे ही जैसे समुद्र में नाव और पता नहीं कब क्या हो जाये।

    वर्तमान संदर्भ में व्याख्या-अहंकार आदमी का सबसे बड़ा शत्रू होता है। कुछ लोग अपने गुरू से कुछ सीख लेकर जब अपने जीवन में उपलब्धियां प्राप्त कर लेते हैं तब उनमें इतना अहंकार आ जाता है कि वह अपने गुरू से भी सम्मान चाहते हैं। वैसे आजकल के गुरू भी कम नहीं है वह ऐसे ही शिष्यों को सम्मान देते हैं जिसके पास माल टाल हो। यह गुरू दिखावे के ही होते हैं और उन्होंने केवल भारतीय अध्यात्म ग्रंथों की विषय सामग्री को रट लिया होता है और जिसे सुनाकर वह अपने लिये कमाऊ शिष्य जुटाते हैं। गरीब भक्तों को वह भी ऐसे ही दुत्कारते हैं जैसे कोई आम आदमी। कहते सभी है कि अहंकार छोड़ दो पर माया के चक्कर में फंस गुरू और शिष्य इससे मुक्त नहीं हो पाते। ऐसे में यह विचार करना चाहिए कि हमारा जीवन तो ऐसे ही जैसे समुद्र के मझधार में नाव। कब क्या हो जाये पता नहीं। माया का खेल तो निराला है। खेलती वह है और मनुष्य सोचता है कि वह खेल रहा है। आज यहां तो कल वहां जाने वाली माया पर यकीन नहीं करना चाहिए। इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्ति को सम्मान देने का विचार मन में रखें तो बहुत अच्छा।

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