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जांच किये बिना किसी को मित्र न बनायें-हिन्दी लेख (mitrata divas or friendship day par vishesh hindi likh)


देश में पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत कथित सभ्रांत समाज आज मित्रता दिवस मना रहा है। आजकल पश्चिमी फैशन के आधार पर मातृ दिवस, पितृ दिवस, इष्ट दिवस, तथा प्रेम दिवस भी मनाये जाने लगे हैं। अब यह कहना कठिन है कि यह पश्चिमी फैशन का प्रतीक है या ईसाई सभ्यता का! संभवत हमारे प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक मजबूरियों के चलते इसे किसी धर्म से जोड़ने से बचते हुए इसे फैशन और कथित नयी सभ्यता का प्रतीक बताते हैं ताकि उनको विज्ञापन प्रदान करने वाले बाज़ार के उत्पाद खरीदने के लिये ग्राहक जुटाये जा सकें।
भारतीय समाज बहुत भावना प्रधान है इसलिये यहां विचारधारा भी फैशन बनाकर बेची जाती है। रिश्तों के लेकर पूर्वी समाज बहुत भावुक होता है इसलिये यहां के बाज़ार ने सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के नाम पर लोगों की जेब ढीली करने के लिये-चीन, जापान, मलेशिया, पाकिस्तान तथा भारत भी इसमें शामिल हैं-ऐसे रिश्तों का हर साल भुनाने के लिये अनेक तरह के प्रायोजित प्रयास हर जारी कर लिये हैं। समाचार पत्र पत्रिकायें, टीवी चैनल तथा रेडियो-जो कि अंततः बाज़ार के भौंपू की तरह काम करते हैं-इसके लिये बाकायदा उनकी सहायता करते हैं क्योंकि अंततः विज्ञापन का आधार तो उत्पादों के बिकना ही है।
पश्चिमी समाज हमेशा दिग्भ्रमित रहा है-इसका प्रमाण यह है कि वहां भारतीय अध्यात्म के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है-इसलिये वहां उन रिश्तों को पवित्र बनाने के प्रयास हमेशा किय जाते रहे हैं क्योंकि वहां इन रिश्तों की पवित्रता और अनिवार्यता समझाने के लिये कोई अध्यात्मिक प्रयास नहीं हुए हैं जिनको पूर्वी समाज अपने धर्म के आधार पर सामाजिक और पारिवारिक जीवन के प्रतिदिन का भाग मानता है। इसे हम यूं कह सकते हैं कि भले ही आधुनिक विज्ञान की वजह से पश्चिमी समाज सभ्य कहा जाता है पर मानवीय संवेदनाओं की जहां तक बात है पूर्वी समाज पहले से ही जीवंत और सभ्य है और पश्चिमी समाज अब उससे सीख रहा है जबकि हम उनके सतही उत्सवों को अपने जीवन का भाग बनाना चाहते हैं।
मित्र की जीवन में कितनी महिमा है इसका गुणगान आज किया जा रहा है पर हमारे अध्यात्मिक संत इस बात को तो पहले ही कह गये हैं। संत कबीर कहते हैं कि
‘‘कपटी मित्र न कीजिए, पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखाय के, पीछे धक्का देति’’
कपटी आदमी से मित्रता कभी न कीजिये क्योंकि वह पहले पेट में घुस कर सभी भेद जान लेता है और फिर आगे की राह दिखाकर पीछे से धक्का देता है। सच बात तो यह है कि मित्र ही मनुष्य को उबारता है और डुबोता है इसलिये अपने मित्रों का संग्रह करते समय उनके व्यवहार के आधार पर पहले अपनी राय अवश्य अवश्य करना चाहिये। ऐसे अनेक लोग हैं जो प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र नहीं कहे जा सकते। आजकल के युवाओं को तो मित्र की पहचान ही नहीं है। साथ साथ इधर उधर घूमना, पिकनिक मनाना, शराब पीना या शैक्षणिक विषयों का अध्ययन करना मित्र का प्रमाण नहीं है। ऐसे अनेक युवक शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि ‘अमुक के साथ हम रोज पढ़ते थे पर वह हमसे नोट्स लेता पर अपने नोट्स देता नहीं था’।
ऐसे अनेक युवक युवतियां जब अपने मित्र से हताश होते हैं तो उनका हृदय टूट जाता है। इतना ही नहीं उनको सारी दुनियां ही दुश्मन नज़र आती है जबकि इस रंगरंगीली बड़ी दुनियां में ऐसा भी देखा जाता है कि संकट पड़ने पर अज़नबी भी सहायता कर जाते हैं चाहे भले ही अपने मुंह फेर जाते हों। इसलिये किसी एक से धोखा खाने पर सारी दुनियां को ही गलत कभी नहीं समझना चाहिए। इससे बचने का यही उपाय यही है कि सोच समझकर ही मित्र बनायें। अगर किसी व्यक्ति की आदत ही दूसरे को धोखा देने की हो तो फिर उससे मित्र धर्म के निर्वहन की आशा करना ही व्यर्थ है। इस विषय में संत कबीरदास जी का कहना है कि
‘कबीर तहां न जाईय, जहां न चोखा चीत।
परपूटा औगुन घना, मुहड़े ऊपर मीत।
ऐसे व्यक्ति या समूह के पास ही न जायें जिनमें निर्मल चित्त का अभाव हो। ऐसे व्यक्ति सामने मित्र बनते हैं पर पीठ पीछे अवगुणों का बखान कर बदनाम करते हैं। जिनसे हम मित्रता करते हैं उनसे सामान्य वार्तालाप में हम ऐसी अनेक बातें कह जाते हैं जो घर परिवार के लिये महत्वपूर्ण होती हैं और जिनके बाहर आने से संकट खड़ा होता है। कथित मित्र इसका लाभ उठाते हैं। अगर अपराधिक इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि अपराध और धोखे का शिकार आदमी मित्रों की वजह से ही होता है।
अतः प्रतिदिन कार्यालय, व्यवसायिक स्थान तथा शैक्षणिक स्थानों पर मिलने वाले लोग मित्र नहीं होते इसलिये उनसे सामान्य व्यवहार और वार्तालाप तो अवश्य करना चाहिये पर मन में उनको बिना परखे मित्र नहीं मानना चाहिए।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मुस्कराहट-हिन्दी शायरी


चमक रहे हैं उनके चेहरे,
लगे हैं उनके घर के बाहर पहरे,
वह मुस्करा रहे
या अपना खौफ छिपा रहे हैं।
उनकी नीयत का आभास नहीं होता
पर इधर उधार आंखें नचा रहे हैं
शायद कोई शिकार ढूंढ रहे
या अपने को बचा रहे हैं।
उनको फरिश्ता कह नहीं सकते
शैतान दिखते नहीं है,
उनकी काली करतूतों के किस्से आम हैं
उनकी टेढ़ी चालें इसकी गवाह है
जिनको जानता है पूरा ज़माना
उनको वह खुद से छिपा रहे हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य संदेश-अपनी तारीफ खुद कभी न करें (apni tarif khud na karen-chankya niti in hindi)


अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचानेे या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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प्रचार माध्यम देशनिरपेक्ष दिखने का प्रयास न करें-हिंदी लेख


प्रकाशन तथा अन्य संचार माध्यमों में विदेशी विनिवेश का अक्सर यह कहकर विरोध किया जाता है कि उनका इस देश के हितों से कोई सरोकार नहीं रहेगा। विदेशी पूंजीपति से सुजज्जित प्रचार और प्रकाशन संगठन देश के प्रति वफादारी नहीं दिखायेंगे? उस समय कुछ भोलेभाले बुद्धिजीवी देशभक्ति के भाव के कारण यह सुनकर चुप हो जाते हैं। मगर नक्सलवाद पर जिस तरह संगठित प्रचार माध्यमों का कथित निष्पक्ष रवैया है वह उनके देशभक्ति के भाव में निरपेक्षता दिखा रहा है और तब उनका यह तर्क खोखला दिखाई देता है कि विदेशी विनिवेशकों को देश के हितों से कोई सरोकार नहीं रहेगा अतः उनका आगमन प्रतिबंधित रखना चाहिये।
एक किस्सा है जिसे अधिकतर लोगों ने सुना होगा। एक लड़के द्वारा बार बार ‘शेर आया’ ‘शेर आया’ कहकर गांव के लोगों को  अनावश्यक रूप से पुकार कर एकत्रित किया जाता था। एक बार सच में शेर आया पर गांव वाले नहीं आये और वह उसे मारकर खा गया। इसे ध्यान रखना चाहिये। संगठित प्रचार माध्यमों जिस तरह कथित रूप से निष्पक्षता दिखाते हुए समाज और देश हित के प्रति निरपेक्षता दिखा रहे है उसके बाद उनको यह आशा नहीं करना चाहिये कि उनके द्वारा कभी किसी प्रसंग में सहानुभूति प्राप्त करने का अभियाना चलाया गया तो आम दर्शक या पाठक वैसे ही उपेक्षा कर सकता है जैसे कि गांव वालों ने लड़के के प्रति दिखाई थी। संगठित प्रचार माध्यम कुछ संस्थान लोगों के जज़्बातों से खेल रहे हैं और इसे हर आदमी जान चुका है। नक्सली हिंसा में सुरक्षाबल के जवानों की मौत पर जिस तरह की बातें की जाती हैं उससे लोगों में जो गुस्सा भरता है उसका अंदाजा संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय कुछ लोगों को नहीं है। वह आम आदमी तक खबर और दृष्टिकोण पहुंचाने की होड़ में इस बात को भूल जाते हैं कि उनके उपभोक्ता दर्शक और पाठकों के जज़्बात व्यवसायिक नहीं भावनात्मक होते हैं। ऐसे में किसी हिंसा के पक्ष या विपक्ष में तर्क कराने की बजाय आम आदमी की इकतरफा उग्र अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करना चाहिये-आवश्यक हो तो व्यवस्था की नाकामी का प्रश्न उठाया जाये पर कम से कम हिंसक तत्वों के ऐजेंडे को इस तरह न  प्रस्तुत  किया जाये कि जैसे कि वह नायक हों।
विश्व भर में आतंकवाद एक व्यवसाय बन चुका है। जिस संगठित प्रचार माध्यम को इस पर असहमति हो वह अपने ही समाचारों का विश्लेषण कर ले क्योंकि इस लेखक का आधार भी वही हैं। कथित रूप से जो महान बुद्धिजीवी हैं उनको यह समझायें कि वह कल्पित जन कल्याण के नाम होने वाली हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। यह सच है कि जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र के नाम पर बने समूहों मे आपसी हिंसा होती है पर इसके लिये उनके स्वरूप नहीं बल्कि शिखर पुरुषों की आपसी रंजिशें जिम्मेदार होती हैं यह अलग बात है कि वह समाज हित की आड़ में अपने आपको निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हैं।
आतंकवादियों को बड़े पैमाने पर धन मिलता है जिससे वह स्वयं ऐश करते हैं। अनेक स्थानों पर वह महिलाओं की देह से खिलवाड़ करने की खबरे छपती हैं। वह आधुनिक हथियार खरीदते है। उनके पास महंगी गाड़ियां हैं। भारत में अपराध कर विदेश भाग जाने की उनको सुविधा मिल जाती है। ऐसे हिंसक तत्वों के स्थानों पर जब शराब और जुआ के दौर चलने की खबरें इन्ही संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा दी जाती है। तब गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों तथा शोषकों के लिये उनके लड़ाई के दावे पर यकीन कैसे किया जा सकता है। आप किसी विषय पर चर्चा करते हुए निष्पक्ष रहें पर इस तरह नहीं कि देश के प्रति निरपेक्षता दिखाई दे।
इस संबठित प्रचार माध्यमों का एक तय प्रारूप है। उनहोंने आर्थिक, सामाजिक,राजनीतिक तथा सामरिक विषयों पर कुछ ऐसे विशेषज्ञों का पैनल बना रखा है जो एक निश्चित सीमा के बाहर ही अपने विषय से बाहर नहीं देख पाते। उनके पूरे विश्व में आ रहे परिवर्तनों का आभास तक नहीं है। इसलिये वह रटी रटाई बातें करते हैं। घटनाओं के स्थान तथा तारीख बदल जाती है पर उनके बयान नहीं बदलते। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आजकल इन संगठित प्रचार माध्यमों की ताकत बहुत अधिक है।
कुछ माह पहले भारत तथा पाकिस्तान के दो प्रकाशन संस्थाओं ने दोनों देशों के बीच मैत्री भाव स्थापित करने का अभियान छेड़ा था। उस समय अंतर्जाल लेखको ने संदेह व्यक्त किया था कि अब यहां पाकिस्तान के लिये प्रायोजित मैत्री अभियान शुरु होगा। कुछ समय बाद वह दिखने लगा। भले ही वह दो संस्थान हैं पर यकीनन वह इस तरह दोनों देशों के-खासतौर से भारत के-बौद्धिक वर्ग के लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से एक संदेश दे रहे थे। उसके बाद तो यहां एक तरह से पाकिस्तान के लिये सद्भाव के प्रचार का जो दौर शुरु हुआ उसमें 26/11 को मुंबई पर हुए हमले की यादें लोगों से विस्मृत करने की योजना के रूप में देखा गया। एक तो अभी शादी और तलाक का नाटक चला गया जिसमें यह बताने का प्रयास हुआ कि यह सब तो दोनों देशों के बदमाश करते हैं और आम आदमी को इससे कोई मतलब नहीं है। पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को भारत में आयोजित एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में नहीं बुलाया गया तो उस पर इन्हीं संगठित प्रचार माध्यमों ें कुछ ने तो शोक जैसा माहौल दिया। तय बात है कि इसके पीछे आर्थिक लाभ तथा सुरक्षा का कोई स्वार्थ है जिसे छिपाया जाता है, या फिर मन में यह भय है कि पाकिस्तान में रह रहे अपराधी कहीं उनकी पोल न खोल कर रख दें।
यह बातें इतना परेशान नहीं  करती अगर निरंतर जारी नक्सली हिंसा में देश के सुरक्षा कर्मियों की मौत के बाद भी देश के ही अंदर के इलाकों पर उनकी उपस्थिति पर आपत्ति नहीं दिखाई जाती। उन पर कल्पित आरोप लगाकर यही साबित करने से तो यही साबित  होता है कि कुछ लोगों की यह मजबूरी है कि वह देश निरपेक्ष दिखकर बाहर के लोगों को खुश रखें। भारत में अधिकतर समाचार पत्र पत्रिकाऐं तथा टीवी चैनलों में काम करने वाले व्यक्तित्व समझदार हैं और उनकी देशभक्ति पर शक नहीं किया जा सकता पर उनमें कुछ ऐसे हैं जिनको आत्ममंथन करना ही होगा कि कहीं  वह अनजाने में तो अपने ही देश के शत्रुओं के हाथ में नहीं खेल रहे। उनको किसी लाचारी या लालच में काम न करता हुआ दिखना है ताकि देश की आम पाठक तथा दर्शक उनकी तरफ सवाल न उछाले। सबसे बड़ी बात यह है कि उनको अपनी शक्ति का अहसास होना चाहिये कि वह अपने प्रयासों से देश को एक दिशा दे सकते हैं। उसी तरह उनके कुछ प्रसारणों तथा प्रकाशनों से देश का मनोबल गिरता हे। इसलिये वह इस बात का ध्यान रखें कि देश की रक्षा करने वाले तथा समाज का सच में हित चाहने वालें लोग उनके अनजाने में किये गये प्रयासों से आहत न हों। अपनी व्यवसायिक प्रतिष्ठा बनाने के लिये निष्पक्ष रहना आवश्यक है पर अगर वह राष्ट्रनिरपेक्ष रहने का प्रयास करेंगे तो उससे उनके उपभोक्ता दर्शक तथा    पाठक उनसे निंराश हो जायेंगे। जिसका कालांतर में उनके व्यवसायिक हितों पर ही प्रभाव पड़ेगा।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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बाज़ार प्रायोजित प्रेमलीला-हिन्दी व्यंग्य (sposord love drama-hindi comic satire article


बचपन में एक गाना सुनते थे कि ‘ऐ, मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए उनकी याद करो कुर्बानीं।’ यह गाना सुनकर वास्तव में पूरी शरीर रोमांचित हो उठता था। आज भी जब यह गाना याद आता है तो उस रोमांच की याद आती है-आशय यह है कि अब पहले रोमांच नहीं होता।
आखिर ऐसा क्या हो गया कि अब लगता है कि उस समय यह जज़्बात पैदा करने वाले गीत, संगीत या फिल्में समाज में कोई जाग्रति या देशभक्ति के लिये नहीं   बनी बल्कि उनका दोहन कर कमाई करना ही उद्देश्य था।
फिर क्रिकेट में देशभक्ति का जज़्बात जागा। जब देश जीतता तो दिल खुश होता और हारता तो मन बैठ जाता था। अब वह भी नहीं रहा। अब स्थिति यह है कि जिसे पूरा देश भारतीय क्रिकेट टीम यानि अपना प्रतिनिधि मानता है उसे अनेक अब एक भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड नामक एक क्लब की टीम ही मानते हैं जो व्यवसायिक आधार पर अपनी टीम बनाती है और आर्थित तंत्र के शिखर पुरुष उसके प्रायोजक मसीहा हैं। इसका कारण यह है कि अब देशों की सीमायें तोड़कर विदेशों से खिलाड़ी यहां बुलाकर देश के कुछ शहरों और प्रदेशों के नाम से क्लब स्तरीय टीमें बनायी जाती हैं। देश क्रिकेट पर पैसा खर्च कर रहा है, तो इस पर सट्टे खेलने और खिलाने वालों के पकड़े जाने की खबरे आती हैं जिसमें अरबों रुपये का दाव लगने की बात कही जाती है। आखिर यह पैसा भी तो इसी देश का ही है।
यह देखकर लगता है कि हम तो ठगे गये। अपना कीमती वक्त फोकट में इस बाजार और उसकी मुनादी करने वालों-संगठित प्रचार माध्यम-के इशारों पर क्रिकेट पर गंवाते रहे।
अब हो क्या रहा है। विश्व उदारीकरण के चलते बाजार देशभक्ति के भाव को खत्म कर वैश्विक जज़्बात बनाना चाहता है। भारतीय बाजार पर स्पष्टतः बाहरी नियंत्रण है। अगर पश्चिम में उसे पैसा सुरक्षित चाहिये तो मध्य एशिया में उसे भारत में ही अपने को मजबूत बनाने वाल संपर्क भी रखने हैं। अब बात करें पाकिस्तान की। पाकिस्तान एक देश नहीं बल्कि एक उपनिवेश है जिस पर पश्चिमी और मध्य एशियों के समृद्धशाली देशों का संयुक्त नियंत्रण है। स्थिति यह है कि जब देश के हालत बिगड़ते हैं तो उसकी सरकार अपनी सेना के साथ बैठक ही मध्य एशिया के देश में करती है। अगर किसी गोरे देश की टीम पाकिस्तान नहीं जाना चाहती तो वह उसका कोटा मध्य एशिया के देश में खेलकर पूरा करती है। यह क्रिकेट एक और दो नंबर के व्यवसायियों के लिये अरबों रुपये का खेल हो गया है और अरब देश तेल के अलावा इस पर भी अपनी पकड़ रखते हैं। मध्य एशिया इस समय अवैध, अपराधिक तथा दो नंबर के धंधों का केंद्र बिन्दू हैं अलबत्ता कथित रूप से अपने यहां धर्म के नाम पर कठोर कानून लागू करने का दावा करते हैं पर यह केवल दिखावा है। अलबत्ता समय समय पर आम आदमी को इसका निशाना बनाते हैं। अभी दुबई में अवैध कारोबार में लगे 17 भारतीयों को इसलिये फांसी की सजा सुनाई गयी है क्योंकि उन पर एक पाकिस्तानी की हत्या का आरोप है। इसको लेकर भारत में जो प्रतिक्रिया हुई है वह ढोंग के अलावा कुछ नहीं दिखती। दुबई को भारतीय बाजार से ही ताकत मिलती है। उसके भोंपू-संगठित प्रचार माध्यम-उनको बचाने के लिये पहल कर रहे हैं। अगर वाकई भारतीय अमीर और उनके प्रचारक इतने संवदेनशील हैं तो वह दुबई की सरकार पर सीधे दबाव क्यों नहीं डालते? पीड़ितों को कानूनी मदद के नाम वहां की अदालतों में पेश होने से कोई लाभ नहीं होगा। हद से हद आजीवन कारावास हो जायेगा। अगर भारतीय प्रचार तंत्र में ताकत है तो वह क्यों नहीं पूछता कि ‘आखिर तुम्हारे यहां यह अवैध धंधा चल कैसे रहा था, तुम तो बड़े धर्मज्ञ बनते हो।’
प्रसंगवश याद आया कि एक स्वर्गीय प्रगतिशील नाटककार की पत्नी भी वहां नाटक पेश करने गयी थी। उसमें वहां के धर्म की आलोचना शामिल थी। इसके फलस्वरूप उसे पकड़ लिया गया। पता नहीं उसके बाद क्या हुआ? उस समय यहां के लोगों ने कोई दबाव नहंी डाला। उस प्रगतिशील नाटककारा से सैद्धांतिक रूप से सहमति न भी हो पर उसके साथ हुए इस व्यवहार की निंदा की जाना चाहिये थी पर ऐसा नहीं हुआ।
एक बात तय है कि भारतीय धनाढ्य एक हो जायें तो यह मध्य एशिया के देश घुटनों के बल चलकर आयेंगे। कभी सुना है कि किसी अमेरिकी या ब्रिटेनी को को मध्य एशिया में पकड़ा गया है। इसके विपरीत यहां की आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार शक्तियां तो मध्य एशिया देशों से खौफ खाती दिखती हैं। स्थित यह है कि उनको प्रसन्न करने के लिये उनके पाकिस्तान नामक उपनिवेश से भी दोस्ताना दिखाने लगी हैं।
अभी हाल ही में भारत की एक महिला टेनिस खिलाड़ी और पाकिस्तान के बदनामशुदा क्रिकेट खिलाड़ी की शादी को लेकर जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने निष्पक्षता दिखाने की कोशिश की वह इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण बनने जा रहा है कि भारतीय बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों के लिये देशभक्ति तथा आतंकवाद एक बेचने वाला मुद्दा है और उनके प्रसारणों को देखकर कभी जज़्बात में नहीं बहना चाहिये। पाकिस्तानी दूल्हे के बारे में किसी भी एक चैनल ने यह नहीं कहा कि वह दुश्मन देश का वासी है।
उस पर प्रेम का बखान! अगर भारतीय दर्शन की बात करें तो उसमें प्रेम तो केवल अनश्वर परमात्मा से ही हो सकता है। उसके बाद भी अगर उर्दू शायरों के शारीरिक इश्क को भी माने तो वह भी पहला ही आखिरी होता है। किसी ने शादी तोड़ी तो किसी ने मंगनी-उसमें प्रेम दिखाते यह प्रचार माध्यम अपनी अज्ञानता ही दिखा रहे हैं। वैसे इस शादी होने की भूमिका में बाजार और प्रचार से जुड़े अप्रत्यक्ष प्रबंधकों की क्या भूमिका है यह तो बाद में पता चलेगा। उनकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि क्रिकेट और विज्ञापनों का मामला जुड़ा है। फिर मध्य एशिया में उनके रहने की बात है। इधर एक चित्रकार भी भारत ये पलायन कर मध्य एशिया में चला गया है। कभी कभी तो लगता है कि मध्य एशिया के देश अपने यहां प्रतिभायें पैदा नहीं कर पाने की खिसियाहट भारत से लेकर अपने यहां बसाने के लिये तो लालायित नहीं है-हालांकि यह एक मजाक वाली बात है ।
एक बात दिलचस्प यह है कि क्रिकेट खिलाड़ियों को आस्ट्रेलिया में ही प्रेमिका क्यों मिलती है? क्या वहां कोई ऐसा तत्व या स्थान मौजूद है जो क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रेमिकायें और पत्नी दिलवाता है-संभव है अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों को इच्छित जीवन साथी भी वहां मिलता हो। इसका पता लगाना चाहिये। एक भारतीय खिलाड़ी को भी वहीं प्रेमिका मिली थी जिससे उसकी शादी संभावित है। अपने देश के महान स्पिनर ने भी वहीं एक युवती से विवाह किया था। इसकी जानकारी इसलिये भी जरूरी है कि भारत में अनेक लड़के इच्छित रूप वाली लड़की पाने के लिये तरस रहे हैं इसलिये कुंवारे घूम रहे हैं। इधर कुछ लोग कह रहे हैं कि छोटे मोटे विषयों पर पढ़ने के लिये आस्ट्रेलिया जाने की क्या जरूरत है? ऐसे युवकों वहां इस बजाने जाने का अवसर मिल सकता है कि वहां सुयोग्य वधु पाने की कामना पूरी हो सकती है।
बहरहाल बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों का रवैया यह सिद्ध कर रहा है कि उनके देशभक्ति, समाज सेवा, धर्म और भाषा के संबंध में कोई स्पष्ट रवैया नहीं है और ऐसे में आम आदमी उनके अनुसार जरूर बहता रहे पर ज्ञानी लोग अपने हिसाब से मतलब ढूंढते रहेंगे। एक पाकिस्तानी दूल्हे को जिस तरह इस देश में मदद मिल रही है उससे आम लोगों में भी अनेक तरह के शक शुबहे उठेंगे। 26/11 को मुंबई में हुए हमलों में जिस तरह रेल्वे स्टेशन पर कत्लेआम किया गया उससे इस देश के लोगों का मन बहुत आहत हुआ। बाज़ार और उसके प्रचार माध्यम एक पाकिस्तानी दूल्हे पर जिस तरह फिदा हैं उससे नहीं लगता कि वह आम लोगों के जज़्बात समझ रहे हैं। कोई भारतीय लड़की किसी पाकिस्तानी से शादी करे, इसमें आपत्ति जैसा कुछ नहीं है पर जब ऐसी घटनायें हैं तब दोनों देशो में तनाव बढ़ेगा और इससे दोनों देशों के आम लोगों पर प्रभाव पड़ता है। अलबत्ता क्रिकेट और अन्य खेलों के विज्ञापन माडलों पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता क्योंकि उनको बाज़ार और प्रचार अपनी शक्ति से सहारा देता है। सीधे पाकिस्तान से नहीं तो मध्य एशिया के इधर से उधर यही बाज़ार करता है। पिछली बार जब पाकिस्तान से संबंध बिगड़े थे तब यही हुआ था। आम आदमी की ताकत नहीं थी पर अमीर लोग मध्य एशिया के रास्ते इधर से उधर आ जा रहे थे।
कहने का अभिप्राय यह है कि देशभक्ति जैसे भाव का इस बाज़ार और प्रचार तंत्र के लिये कोई तत्व नहीं है जब तक उससे उनका हित नहीं सधता हो।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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क्रिकेट, टेनिस, मनोरंजन, लेख, संपादकीय, समाज, हिन्दी साहित्य

धर्म प्रचारकों का चरित्र मजबूत होना जरूरी-हिन्दी लेख (hindu dharma par lekh)


अपने आपको धर्मात्मा कहलाने की चाहत किसे नहीं होती। कई लोग तो ऐसे हैं जो धर्म के नाम पर न तो दान करते हैं न ही भक्ति उनको भाती है पर दूसरों के सामने अपने धर्मात्मा होने का बखान जरूर करते हैं। कुछ तो ऐसे हैं जो सर्वशक्तिमान के दरबार में हाजिरी लगाने ही इसलिये जाते हैं ताकि लोग देखें और उनका भक्त या धर्मात्मा समझें। सीधी बात कहें तो यह सामान्य मनुष्य की कमजोरी है कि वह सदाचारी, संत धर्मात्मा और बुद्धिमान दिखना चाहता है-यह अलग बात है कि अपने कर्म से उसे प्रमाणित करने की बजाय वह उसे अपनी वाणी या अदाओं से ही अपना उद्देश्य हल करना चाहता है। ऐसे में उन लोगों की क्या कहें जिनके पास सदाचारी, संत, धर्मात्मा और बुद्धिमान जैसे ‘विशेष उपाधियां’ एक साथ मौजूद रहती हैं।
इस समय देश के अधिकतर प्रसिद्ध संत व्यवसायिक हैं। उनके प्रवचन कार्यक्रमों में असंख्य श्रद्धालू भक्त आते हैं। इनमें कुछ समय पास करने तो कुछ ज्ञान प्राप्त करने के लिये वहां अपनी उपस्थिति दर्ज कराते हैं और जैसा कि पहले ही बताया गया है कि कुछ लोग अपनी छबि निर्माण के लिये भी वहां जाते हैं। अगर ऐसे संत प्रवचन कार्यक्रमों के अलावा कोई दूसरा काम न करें तो भी उनके साधु, संत या धर्मात्मा की उपाधि उनसे कोई छीन नहीं सकता। उनकी छबि यह है कि ज्ञानी भक्त भी उनकी वंदना न करने के बावजूद उनकी समाज को मार्गदर्शन करने के विषय में उनकी भूमिका स्वीकार करते हैं। इसके बावजूद ऐसी महान विभूतियां संतुष्ट नहीं होती। दरअसल उनका असंतोष इस बात को लेकर भड़कता है कि वह पुराने धार्मिक पात्रों की कथाओं का बोझ ढोते हैं पर स्वयं उनकी सर्वशक्तिमान जैसी छबि नहीं बन पाती। वह संत या साधु होने की छबि से ऊपर उठकर ‘सर्वशक्तिमान’ जैसी उपाधि पाना चाहते हैं। उनके अंदर जब यह भावना पनवती है तब शुरु होता है माया का तांडव। तब वह अपनी अर्जित संपत्ति से कथित रूप से दान पुण्य कर दानी की वैसी ही छबि भी पाना चाहते हैं जैसी कि धनपतियों की होती है।
बड़े बड़े ऋषि, महात्मा और संत इस माया की विकरालता की पहचान बता गये हैं। सच तो यह है कि माया संतों की दासी होती है पर शुरुआत में ही। बाद में वह संत ही उसके दास होते हैं। संतों के पास माया आयी तो वह उनकी बुद्धि भी हर लेती है-वैसे अनेक संत और साधु इससे अपने को बचाये रखने का कमाल कर चुके हैं तब भी कथित रूप से उनके अनुयायी होने का दावा करने वाले कुछ साधु और संत उस माया से संसार पर प्रभाव जमाने लगते हैं। तब यह भी पता लगता है कि किताबों से रटा हुआ उनका ज्ञान केवल सुनाने के लिये है। अनेक संत बड़े बड़े आश्रम बनवाने लगते हैं। विद्यालय खोलने लगते हैं। इतना ही नहीं दानवीर और दयालु भाव दिखाते हुए लंगर, दान और उपहार वितरण भी करने लगते हैं जो कि आम धनिक का काम है। संतों का व्यवहार धनपति की तरह हो जाता है। तब यह समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत अपने आपको इस सांसरिक झंझट में क्यों फंसा रहे हैं? धनपति मनुष्य को गरीब आदमी पर दया करना चाहिये। इसका आशय यह है कि वह अपने क्षेत्र में आने वाले गरीब लोगों के लिये रोजगार का प्रबंध करे और आवश्यक हो तो उनको दान भी करे। यह संदेश देना ही साधु और संतों का काम है। सदियों से ऐसा चलता आया है। इतना ही नहीं केवल संदेश देने और कथा करने वालों का भी यही समाज पेट पालता रहा है। यही कारण है कि समाज का एक भाग होते हुए भी साधु संत आम आदमी से ऊपर माने जाते हैं। उपदेश देने के अलावा दूसरा का न भी करें तब भी समाज के लोग उनको आदर देते हैं और उनको कभी अकर्मण्य होने का ताना नहीं देते।
मगर माया का अपना खेल है और उसे समझने वाले ज्ञानी ही उसमें नहीं फंसते। फंस जायें तो गेरुए वस्त्र पहनने वाले भी फंस जाये न फंसे तो आम जीवन जीने वाले भी बच जायें। अधिकतर आधुनिक व्यवसायिक संतों ने श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान से कितनों को संतुष्ट किया यह तो पता नहीं पर ऐसा करते हुए उन्होंने अपना विशाल आर्थिक सम्राज्य खड़ा कर लिया है-दूसरे शब्दों में कहें तो उन्होंने माया का शिखर ही खड़ा कर लिया।
माया का शिखर न कभी बेदाग होता है और न निरापद रह सकता है। आश्रम विशाल होगा तो उसमें सज्जन भक्त आयेगा तो भक्त के भेष में दुर्जन भी आयेगा। इसकी पहचान करने की शक्ति माया के तेज से आंखें ढंकी होने के कारण न तो संत कर सकते हैं ही उनके चेले। अगर विद्यालयों में हजारों बच्चे आते हैं तो उनके साथ कभी कोई दुर्घटना भी हो सकती है। कहीं भोजन बन रहा है तो उसमें कोई ऐसी चीज भी आ सकती है जो सभी को बीमार कर सकती है। कहीं दान या उपहार बंट रहा है तो भारी भीड़ भी हो सकती है जहां भगदड़ मचने पर लोग हताहत भी हो सकते हैं। तय बात है कि जहां सांसरिक कार्य है वहां संकट भी आ सकता है तब यह जिम्मा इन्हीं संतों पर आता है।
फिर यह संत ऐसे खतरे क्यों मोल लेते हैं?
दरअसल श्रीगीता का ज्ञान बहुत सुक्ष्म और संक्षिप्त है पर गुढ़ कतई नहीं है-जैसा कि कथित संत प्रचारित करते हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने इसमें यह साफ कर दिया है कि हजारों में कोई एक मुझे हृदय से भजता है और उनमें कोई एक मुझे पाता है। इस एक तरह के लोग भी हजारों में होते हैं जिनमें कोई एक मुझे प्रिय होता है। श्रीगीता का यह गणित इस संसार के मानवीय स्वभाव के सूत्र बताता है-ढूंढने वाले चाहें तो ढूंढ सकते हैं। अगर यह संत ऐसे ज्ञान बनाने या ढूंढने चलें तो इनका इतना विशाल सम्राज्य खड़ा नहीं हो सकता। ज्ञानी लोग माया का पीछा नहीं करते बल्कि जितना है उतने से ही संतुष्ट हो जाते हैं। समस्या यह भी है कि ऐसे ज्ञानी इन संतों के पास जायेंगे क्यों? गये तो फिर पैसा क्यों देंगे? कथित संतों की दृष्टि से ऐसे ज्ञानियों की महिमा यूं भी कही जा सकती है कि ‘नगा नहायेगा क्या, निचोड़ेगा क्या?’
यही कारण है कि यह व्यवसायिक संत लोकप्रियता बनाये रखने के लिये सस्ते किस्म के काम करने लगते हैं जिससे लोग प्रभावित तो होते ही हैं माया भी पास बनी रहती है-प्रत्यक्ष रूप से दासी जो ठहरी, अप्रयत्क्ष रूप से दास को बचाये रहती है। संत का काम दान देना है लेना नहीं। सच तो यह है कि कुछ ज्ञानी लोग संतों के लंगर आदि में जाना या उपहार लेना पसंद भी नहीं करते क्योंकि वह मानते हैं कि वह इसके लिये कुपात्र हैं।
कथित व्यवसायिक संत शुद्ध रूप से राजनीतिक दृष्टिकोण से चलते हैं। जिस तरह राजनीति में गरीबों, बेसहारों, और बीमारों की सेवा की बात कही जाती है वैसा ही यह लोग करते हैं। समाज के शक्तिशाली, विशिष्ट, तथा धनिक वर्ग का यह मानवीय दायित्व है कि वह बिना मांगे गरीब की आर्थिक देखभाल, बेसहारों की सहायता और बीमारों के लिये इलाज का इंतजार कराये पर जब यह संत स्वयं काम करने लगें तो यह मान लेना चाहिये कि उनको अपने भक्तों और शिष्यों पर भरोसा ही नहीं है। ‘अहम ब्रह्मा’ का भाव उनको पूरे समाज के प्रति अविश्वसीय बना देता है।
समझ में नहीं आता कि आखिर यह संत किस दिशा में जा रहे हैं? हां, अगर हम मान लें कि यह मायापति हैं और उन्हें ऐसा ही करना चाहिए। फिर भी बात यहीं खत्म भी नहीं होती। इनमें कुछ संत सर्वशक्तिमान का अवतार होने का दावा करते हैं। यह एक तरह का मजाक है। थोड़ी देर के लिये हम धार्मिक होकर विचार करें। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान के जो अवतार वर्णित हैं वह सभी सांसरिक कर्म में ‘सक्रियता’ के प्रतीक हैं और उनमें कहीं न कहीं योद्धा होने का बोध होता है। उन्होंने हर अवतार में समाज के संकटों का प्रत्यक्ष होकर निवारण किया है। दुष्टों के सामने सीधे जाकर उनका सामना किया है। कहने का तात्पर्य यह है कि कम से कम साधु और संत की सीमित भूमिका उनकी किसी भी अवतार में नहीं है। तब यह संत किस तरह दावा करते हैं कि वह अमुक स्वरूप का दूसरा अवतार हैं? न उनको अस्त्रों शस्त्रों का ज्ञान और न ही किसी दुष्ट के सामने सीधे जाकर उससे टकराने की क्षमता। मगर माया जब सिर चढ़कर बोलती है और भगवान का अवतार साबित करने के लिये वह लोग ऐसे काम करते हैं जो सामान्य लोगों को करना चाहिए।
आखिर बात ज्ञान और माया की स्थिति की। रहीम एक राज दरबार में कार्यरत थे, मगर कबीर तो एक मामूली जुलाहा थे। मीरा राजघराने की थी पर तुलसीदास तो एक सामान्य परिवार के थे। भगवान श्रीराम और श्रीसीता का जन्म राजघराने मेेें हुआ पर दोनों ने 14 बरस वन में गुजारे। भगवान श्री कृष्ण का जन्म गौपालक परिवार में हुआ और जिन्होंने जीवन संघर्ष कर धर्म की स्थापना करते हुए श्रीमद्भागवत गीता के रूप में एक अमृत ग्रंथ प्रदान किया। संत रैदास भी एक अति सामान्य परिवार के थे। श्रीगुरुनानक जी का जन्म एक व्यापारी परिवार में हुआ पर उन्होंने भारतीय अध्यात्म को अपनी ज्ञान से एक नयी दिशा दी। कहने का तात्पर्य यह है कि हमारे देश में अनेक महापुरुष हुए है पर किसके पास कितनी माया या धन था इसे इतिहास दर्ज नहीं करता बल्कि उन्होंने अध्यात्मिक दृष्टि से भारतीय धर्म और संस्कृति को कितना प्रकाशित किया इसकी व्याख्या करता है। भारतीय अध्यात्म की पहली शर्त यही है कि आपका ज्ञान और आचरण एक जैसा होना चाहिये तभी आपको मान्यता मिलेगी वरना तो बेकार की नाटकबाजी कर तात्कालिक लोकप्रियता-जो कि एक तरह से भ्रम ही है-प्राप्त कर लें पर उससे आप स्वयं इस संसार से अपना उद्धार नहीं करेंगे दूसरे का क्या करेंगे?
वैसे संतों की निंदा या आलोचना वर्जित है पर यहां यह भी बात याद रखने लायक है कि इसके लिये भी उनकी परिभाषा है वह यह कि लोगों के मानने के अलावा उनका आचरण भी वैसा ही प्रमाणिक हो। गेरुए या सफेद वस्त्र पहनने वाले हर व्यक्ति को संत, सन्यासी या साधु मान लिया जाये यह कहीं नही लिखा। ऐसे में जो संतों का चोला पहनकर धर्म का व्यापार कर रहे हैं उन पर लिखना बुरा नहीं लगता खास तौर से जब कथित साधु संत अपनी ही छबि से संतुष्ट नहीं होते।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, Gwalior
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अंतर्जातीय विवाहों से समाज में बदलाव की कितनी उम्मीद-हिंदी आलेख


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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देश की सामाजिक, आर्थिक तथा पारिवारिक संकटों के निवारण का एक उपाय यह भी सोचा गया है कि अंतर्जातीय विवाहों का स्वीकार्य बनाय जाये। जहां माता पिता स्वयं ही अपनी पुत्री के लिये वर ढूंढते हैं वहां अंतर्जातीय विवाह का प्रयास नहीं करते क्योकि बदनामी का भय रहता ह। पर प्रेमविवाहों को अब मान्यता मिलने लगी है कम से कम सहधर्म के आधार पर यह अब कठिन बात नहीं रही। मगर क्या इससे कोई एतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है और हम क्या अब अगले कुछ वर्षों में एक नया समाज निर्मित होते देखेंगे? अगर सब ठीक हो जाये तो अलग बात है पर अंतर्जातीय या प्रेम विवाहों से ऐसे आसार दिख नहीं रहे कि भारतीय समाज अपने अंदर कोई नई सोच विकसति करने जा रहा है। इस लेखक ने कम से कम पांच ऐसी शादियों को देखा है जो अंतर्जातीय होने के साथ ही पारिवारिक स्वीकृति के साथ धूमधाम से हुईं और जिस दहेज रूपी दानव से मुक्ति की चाहत सभी को है उसकी उपस्थिति भी वहां देखी गयी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने सोच की दिशा बदले बिना परिवर्तन की आकांक्षा सिवाय हवा में तीर चलाने के अलावा कुछ नहीं दिखाई देती।

नारियों को अपने वर की स्वतंत्रता की वकालत करने वाले विवाह के बाद की परिस्थितियों से अपनी आंखें बंद किये बैठे हैं। सच तो यह है कि लड़की माता पिता के अनुसार विवाह करे या स्वयं प्रेमविवाह उसकी हालातों में परिवर्तन नहीं देखने को मिलता-चिंतकों के लिये यही चिंता का विषय होता है।

मात्र 45 दिन में एक प्रेमविवाह करने वाली लड़की संदेहास्पद स्थिति में मौत के काल में चली जाती है-यह हत्या है या आत्महत्या इस पर विवेचना चल रही है-तब जो सवाल उठते हैं जिनकी अनदेखी करना अपनी संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण होगी और इससे इस बात की पुष्टि भी होगी कि यह देश केवल नारे और बाद पर चलता है और उनको ही चिंतन मान लिया जाता है।

लड़की पढ़ी लिखी तथा अच्छे घराने की थी। इतना ही नहीं वह अच्छी आय कमाने वाली भी थी। जाति अलग थी पर उसके पिता ने उसकी पसंद को स्वीकार करते हुए परंपरागत ढंग से विवाह करते हुए उसके अंतर्जातीय प्रेम विवाह को स्वीकृति प्रदान की। । टीवी पर दे,खी गयी इस खबर को देखकर मन भर आया। यकीनन उसके पति और उसके बीच प्रेम संबंध तो वर्षों पुराने रहे होंगे। कहा जाता है कि माता पिता लड़की को अनजान लड़के के हाथ में सौंपना या किसी लड़की को विवाह बाद प्रेम में करने सोचने की दूट मिलना दकियानूसी विचारधारा है पर क्या इन अंर्तजातीय विवाहों से वह पौंगापन समाप्त हो जाता है। पारंपरिक ढंग से शादी में दहेज लेनदेन के चलते किसी आधुनिक सोच का विकास नहीं माना जा सकता। लंबे समय के प्रेम में भी वह लड़की अपने साथी को क्या समझ पायी? एक प्रतिभाशाली लड़की का इस तरह दहेज के लिये चला जाना अत्यंत दुःखःदायी लगता है।

वैसे सजातीय विवाहों में भी कोई अच्छी स्थिति नहंी रहती पर यह आशा तो की जाती है कि प्रेम विवाह भले ही अंतर्जातीय हों पर दहेज की समस्या का हल हो पर अब उसके भी निराशाजनक परिणाम आने लगे हैं। कुछ अंतर्जातीय विवाहों में बारातियों में एक अजीब सा परायापन लगता है पर यह सोचकर सभी सहज दिखते हैं कि चलो अच्छा हुआ कि प्रेमियों ं का मिलन हुआ पर उनका इस तरह टूटना अत्यंत कष्टकारक लगता है। अंतर्जातीय विवाह टूटने के अनेक प्रसंग भी सामने आने लगे हैं और यह माता पिता की स्वीकृति से हुए थे।

इस देश की समस्या यह नहीं है कि यहां जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर समूह बने हैं। समस्या यह है कि पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण ने उनमें आपनी श्रेष्ठता का भाव पैदा किया है जिससे वैमनस्या फैल रहा हे। टीवी, फ्रिज, कूलर, मोटर साइकिल, कार, कंप्यूटर तथा अन्य आधुनिक साधनों का अनुसंधान भारत में नहीं हुआ पर दहेज जैसी पुरानी परंपरा में इनका जमकर उपयोग हो रहा है। जिस बाप को अपनी शादी में साइकिल भी नहीं मिली वह अपने बेटे की शादी में मोटर साइकिल या कार मांगता है। सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब पढ़ीलिखी महिलायें भी बात तो आधुनिकता की करती हैं पर दहेज का मामला हो तो खलनाियका को रोल अदा करते हुए जरा भी नहीं हिचकती।

कहने का अभिप्राय यही है कि देश की कुपरंपरायें, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास तथा अन्य कुरीतियों की भी उतनी ही पुरानी गंदी विचाराधाराएं बहती आ रही हैं जैसे कि पावन नदियां गंगा, यमुना और नर्मदा। हमने अपने लोभ लालच से इन पावन नदियों को भी गंदा कर दिया और अपनी कुत्सित विचारधाराओं को भी आधुनिकता का रूप देकर उनको अधिक भयावह बनाने लगे हैं। जिस तरह यह नदियां स्वच्छ करने के लिये अपने उद्गम स्थल से पवित्र करने की आवश्यकता है-बीच में कहीं से साफ करने की योजनाओं को कोई परिणाम नहीं निकलने वाला-वैसे ही समाज में बदलाव लाने का प्रयास तभी सफल हो सकता है जब लोगों को सोच बदलने के लिये प्रेरित किया जाये। अंतर्जातीय विवाह से नये समाज के निर्माण की बात या जाति पांत का भेद मिटने से धर्म की रक्षा की बात तब तक निरर्थक साबित होगी जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी।

कितने आश्चर्य की बात है कि लड़की जब कमाने लगती है तो लोग सोचते हैं कि उसकी शादी बिना दहेज को हो जायेगी पर माता पिता को फिर भी योग्य वर के लिये पैसा खर्च करना पड़ता है फिर भी उसके खुश रहने की गारंटी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अनेक कथित संस्कृत और आधुनिक माता पिता और उनके लड़के पाश्चात्य सभ्यता की देखादेखी कमाऊ बीवी या बहु के लिये आंखें फैलाकर प्यार के नाम पर शिकार करने के लिये घूम रहे हैं पर दहेज लेना और फिर बहू से सामान्य गृहस्थ औरत की तरह कामकाज की भी अपेक्षा करते हैं। उसे ताने देते हैं। चंद दिन पहले ही उसे प्रेम करने वाला जब पति बन जाता है तो वह उसे संकट से उबारने की बजाय उसे बढ़ाने लगता है। उस लड़की की तब क्या व्यथा होती होगी जब जीवन भर साथ निभाने का वादा करने वाला प्रेमी जब पति बनता है तब अपने माता पिता या बहिन के तानों से उसे बचाने की बजाय

उनके साथ हो जाता है। मुश्किल यही है कि हम अपने यहां पाश्चात्य आधारों पर हम अपना समाज चलाना चाहते हैं पर उसके लिये सहनशीलता हमारे अंदर तब तक ही है जब तक हमें कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जहां हमें कष्ट पहुंचता है वहां हम अपने संस्कारों का हवाला देकर अध्यात्मिक होने का प्रयास करते हैं। ऐसे विरोधाभासों से निकलने का कोई मार्ग भी नहीं दिखता क्योंकि हमारे देश के दिशा निर्देशक शादियो के स्वरूपों पर ही सोचते हैं उसके बाद चलने वाली गृहस्थी पर नहीं।

हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि अंतर्जातीय प्रेम विवाह होना ठीक नहीं या सभी का यही हाल है बल्कि इससे समाज में व्यापक सुधार की आशा करना अतिउत्साह का प्रतीक है यही आशय है। जब तक ऐसे विवाहों में दहेज और शादी के समय अनाप शनाप खर्च ये भी बचने का प्रयास करना चाहिये।

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बिना प्रमाण के साधुओं और संतों को खिलाफ दुष्प्रचार करना अनुचित-हिन्दी लेख


माया का खेल बहुत विचित्र है। आम आदमी ही क्या बड़े बड़े ज्ञानी संत भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाते। इस देह के साथ माया का खेल जन्म के साथ ही शुरु होता है और पूरे जीवन चलता रहता है। जिनको ज्ञान और भक्ति का शिखर मिलता है वह भी माया का आशीर्वाद चाहते हैं और वह उन्हें आम आदमी की बनिस्बत कुछ अधिक सहजता से प्राप्त हो जाता है और आम आदमी इसके लिये जूझता रहता है। माया का एक रूप यह भी है कि जो उसके पीछे भागता है उसके वह आगे चलती है और जो उससे भागता है या परवाह नहीं करता उसके पीछे जाती है। हमारे अध्यात्मिक विद्वान कहते हैं कि माया तो संतों की दासी होती है-अभिप्राय यह है कि आम आदमी पर शासन करती है पर ज्ञानी संतों की सेवा का सुख पाने के लिये उनके पीछे भी जाती है। अब यह भी उसका खेल है कि जिसके पास माया का भंडार है उसके विरोधी और शत्रु बहुत होते हैं और भले ही संतों की सेवा करती है पर वहां उसकी उपस्थिति गुरुओं के शिष्यों को लुभाती है तो विरोधियों की चिढ़ाती भी है।
हमारे देश में धाार्मिक संतों की एक बहुत बड़ी महान परंपरा रही है और इनमें से कुछ संत जहां माया की सूरत तक नहीं देखते वहीं कुछ सेवा स्वीकार कर लेते हैं। इनमें से भी कुुछ लोग ऐसा चक्कर में फंसते हैं सेविका को ही स्वामिनी बना लेते हैं। अब यह तो अलग से विश्लेषण का विषय होता है कि कौन संत है और ढोंगी! अलबत्ता कुछ संतों पर जब निरंतर आक्षेप किये जाते हैं और उनका कोई आधार नहीं मिलता तब यह संदेह होता है कि कुछ ताकतें ऐसी हैं जो बाकायदा भारतीय धर्मों को बदनाम करने में तुली हैं।
हमारे देश में इस समय अनेक संत सक्रियता से उस धार्मिक वैचारिक धारा के प्रवाह को आगे बढ़ा रहे हैं जो हमारे हमारे पौराणिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने अपने अनुसंधान, तपस्या और यज्ञ से प्रवाहित की थी। इनमें योगाचार्य श्री रामदेव और भागवत विशारद संत प्रवर श्री आशाराम बापू का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। एक योगविद्या को आगे बढ़ा रहे हैं दूसरे ब्रह्मज्ञान का प्रचार कर रहे हैं। देखने में यह आ रहा है कि इन दोनों संतों के साथ अन्य पर भी आये दिन प्रचार माध्यमों में शाब्दिक हमले होते रहते हैं। इन महान संतों को अपने विरुद्ध चल रहे दुष्प्रचार का सामना करने के लिये जिस तरह जूझना पड़ता है उससे उनके भक्तों के मन में जो कष्ट पहुंचता है पर उससे कोई नहीं देखना चाहता।
हम यहां संत प्रवर आसाराम बापू जी की बात करें। हिन्दू धर्म के पुरोधा संत आसाराम बापू का जन्म सिंध प्रात में हुआ था। महान संत श्रीलीलाशाह को वह अपना गुरु मानते हैं। संत आसाराम बापू को हम जब बोलते देखते हैं तो इस बात का अंदाज नहीं लगता कि उनके लहजे में सिंधी, सिंधु तथा सिंधुत्व का पुट भी रहता है। सच बात तो यह है कि जिन लोगों ने पुराने सिंधी बुजुर्गों को देखा है उन्हें संत प्रवर आसाराम बापू का अनेक बार मस्तमौला जैसा किया व्यवहार आश्चर्य में नहीं डालता। हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के प्रचारक के रूप में उनका योगदान उल्लेखनीय है और उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ इसका एक प्रमाण है। इस पत्रिका को देखकर यह कहा जा सकता है कि इससे हिन्दी की सेवा हो रही है। सिंध में अनेक संत हुए हैं जिनमें शाह कलंदर और संत कंवरराम का नाम आता है पर ऐसे भी कई संत हुए हैं जिनका नाम अब भारत की नयी पीढ़ी के सिंधी भाषी नहीं जानते। विभाजन के समय सिंध से आये बुजुर्ग बताते हैं कि सिंध में एक मस्तमौला संत हुए हैं जो मारते थे और जिसे यह सौभाग्य प्राप्त होता उसकी मनोकामना पूरी हो जाती थी। लोग उनके पास जाते थे, पर सभी से ऐसा व्यवहार नहीं करते थे। जिस पर दिल आता उसी पर ही बरसते थे और उसका कल्याण हो जाता-संभवत वह इतना ही मारते होंगे कि आदमी घायल न हो या उसके अस्पताल जाने की नौबत न आये।
संत कंवर राम जब मौज में आते थे तब नृत्य करते थे। बताते हैं कि जब भारत विभाजन के समय वह भारत रेल से आ रहे थे तब आतिताईयों ने उनको नाचने के लिये कहा। वह नाचे पर जब रुके तो उनको मार दिया गया-पता नहीं यह सच है कि नहीं पर जो सिंधी बुजुर्ग बताते हैं उसके आधार पर उनकी यही कहानी है।
कभी कभी संत प्रवर आसाराम जी का व्यवहार उन्हीं मस्तमौला संतों जैसा दिखता है। संभव है कि उनमें बचपन की ही अपनी उस पुरानी सिंधु संस्कृति के तत्व मौजूद हों। यहां कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि किसी संत को इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिये । इस लेखक जैसे अध्यात्मिक प्रेमियों को भी कुछ देर आघात पहुंचता है पर फिर संतों की मौज की सोचकर चुप हो जाते हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि एक आम आदमी से हम ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते और न इसके समर्थक हैं। संतों की बात कुछ अलग हैं। अगर कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो तो वह इसे देश की सांस्कारिक भिन्नता समझ लें कि एक के लिये बात बुरी पर उपेक्षा करने लायक है पर दूसरे के लिये नहीं-उनको यह स्वाभावगत भिन्नता स्वीकारनी ही होगी क्योंकि हम लोग आम आदमी के रूप में कुछ करने लायक स्थिति में नहंी होते।
संत आसाराम जी के आश्रम के विस्तारों पर अनेक लोग दुःखी होते दिखते हैं। अनेक लोग उन पर अतिक्रमण के आरोप लगाते है। उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में उनका उत्तर भी दिया जाता है पर व्यवसायिक प्रचार माध्यम संभवता प्रतिस्पर्धी मानते हुए उनको प्रकाशित नहीं करते-इसका कारण यह है कि उनके प्रकाशनों ने पत्र पत्रिकाओं से ग्राहक यकीनन छीने होंगे। स्वाभाविक रूप से अनेक धार्मिक कार्यक्रम सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर होते हैं। यह कोई अतिक्रमण नहीं होता। आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में यही बात बताई गयी है।
संत आसाराम बापू के आश्रम द्वारा अनेक विद्यालय और चिकित्सालय भी चलाये जाते हैं। आश्रम द्वारा विक्रय की जाने वाली दवाईयों से अनेक लोगों को स्वास्थ्य लाभ होता है-इस लेखक ने ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो उनकी दवाओं से स्वस्थ रहते हैं। जहां तक विवादों का सवाल है तो जमीनों आदि के विवाद तो होते ही रहते हैं-हमें लोगों की यह बात नहीं जमती कि संतों को आश्रमों की जरूरत क्या है? इसका जवाब यही है कि संत होकर बताओ तो जाने। जिस संत के पास करोड़ों की संख्या में भक्त हों तो यह माया उसकी सेवा तो करेगी ही।

आखिरी बात करें उन पर लगने वाले आरोपों की। एक शंकराचार्य पर भी अपने सहायक की हत्या का आरोप लगा था। उनको जेल में डाला गया। बाद में वह बरी हो गये। इस दौरान हिन्दू धर्म को जो बदनाम किया गया वह सभी ने देखा था। उन महान शंकराचार्य को जेल में रखने की अवधि का भला कोई पश्चाताप हो सकता है,? तमाम तरह की बकवास की गयी। संत आसाराम बापू पर भी निरंतर शाब्दिक हमले हो रहे हैं। यह प्रचार माध्यम वाले बतायें कि क्या संत आसाराम जी के साथ जो लोग आज हैं वह सब बुरे हैं और कल उनमें से कोई एक बाहर आ जाये तो अच्छा हो जायेगा। आज जो व्यक्ति उन पर आरोप लगाते हुए आपको भला दिख रहा है वह कल तक उनकी सेवा में रहते हुए आपके लिये बुरा था क्या प्रचार माध्यम अब ब्रह्मा हो गये हैंे जो उनके समाचार ही निर्णय का आधार मान लिया जाये। वह कभी इस बात की संभावना पर विचार क्यों नहीं करते कि कहंी संत प्रवर आसाराम बापू के विरुद्ध षडयंत्र तो रचा नहीं जा रहा है? दूसरी बात यह है कि उनके विरुद्ध प्रचार अभियान के बावजूद उन पर कोई आक्षेप प्रमाणित नहीं हो सका है ऐसे में सवाल यह उठता है कि आप उसे किसकी वजह से जारी रखना चाहते हैं। उन्होंने प्रचार माध्यमों के लोगों के विरुद्ध गुस्सा दिखाया तो उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है बल्कि उनके अपशब्दों को भी संतों का प्रसाद समझ लो। हालांकि वह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति में सराबोर प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग क्या जाने संतों की मौज क्या होती है? सच है श्रीगीता का यह वैज्ञानिक तथ्य कि ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’। जिन लोगों को संतों की निंदा के लिये प्रशंसा मिलती है वह उसका लोभ कैसे छोड़ सकते हैं। जिन लोगों में भारतीय अध्यात्मिकता का गुण नहीं है वह नहीं जानते कि ‘संतों की मौज’ क्या होती है?

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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इश्क और नंबर वन का चक्कर-हिन्दी हास्य कविता (love blogger copule and nambur one award-hindi comedy satire poem)


आशिका और माशुका ने मिलकर

अपने एकल और युगल ब्लाग पर

खूब पाठ लिखे,

कभी सप्ताह भर तो

कभी माह बाद दिखे

साल भर कर ली जैसे तैसे लिखाई।

दोनों अपने एकल ब्लाग पर दिखते थे,

साल के नंबर वन के ब्लागर का

खिताब पाने की दोनों को ललक थी

पर कहीं सामुदायिक ब्लागर पर भी

दाव चल जाये इसलिये

युगल ब्लाग भी लिखते थे,

कभी प्यार तो, कभी व्यापार पर तो,

कभी नारीवाद पर भी की खूब लिखाई।

जैसे तैसे वर्ष निकला

नव वर्ष के पहले दिन ही

सुबह आशिक ब्लागर ने

माशुका के फोन की घंटी बजाई।

नींद से उठी माशुका ने भी ली अंगड़ाई।

उधर से आशिक बोला

‘नव वर्ष की हो बधाई’,

माशुका ने बिना लाग लपेटे के कहा

‘छोड़ो सब यह बेकार की बात

यह तो ब्लाग पर ही लिखना,

अब तो नंबर वन के लिये कोशिश करते दिखना,

बहुत जगह बंटेंगे पुरस्कार

इसलिये तुम मेरा ही नाम आगे करना,

मैंने दूसरे लोगों से भी कहा है

वह भी मेरे लिये वोट जुटायेंगे

लग जाये शायद मेरे हाथ कोई इनाम

जब लोग लुटायेंगे,

वैसे तुम अपने नाम की कोशिश मत करना

क्योंकि हास्य कविताओं के कारण

तुम्हारी छवि अच्छी नहीं है

तुम्हारा मन न खराब हो

इसलिये तुम्हें यह बात नहीं बताई।’

आशिक बोला-

‘अरे, यह क्या चक्कर है

मैंने तुम्हें पास से कभी नहीं देखा

फोटो देखकर ही पहचान बनाई,

अब तुम कैसी कर रही हो चतुराई।

क्या इसी नंबर वन के लिये

तुमने यह इश्क की महिमा रचाई।

मैं लिखता रहा पाठ पर पाठ

तुमने वाह वाह की टिप्पणी सजाई।

अब आया है इनाम का मौका तो

मुझे अपनी औकात बताई।

वैसे तुमने भी क्या लिखा है

सब कूड़े जैसा दिखा है

शुक्र समझो मेरी टिप्पणियों में बसे साहित्य ने

तुम्हारे पाठ की शोभा बढ़ाई।

अब मुझे अपना हरकारा बनने के लिये

कह रहे हो

तुम ही क्यों नहीं मेरा नाम बढ़ाती

करने लगी हो मुझसे नंबर वन की लड़ाई।’

सुनकर माशुका भड़की

‘बंद करो बकवास!

तुमसे अधिक टिप्पणियां तो

मेरे ब्लाग पर आती हैं

तुम्हारी साहित्यक टिप्पणियों पर

मेरी सहेलियों ने मजाक हमेशा उड़ाई।

वैसे तुम गलतफहमी में हो

तुम जैसे कई पागल फिरते हैं अंतर्जाल पर

मैंने सभी पर नज़र लगाई।

एक नहीं सैंकड़ों मेरे नंबर वन के लिये लड़ेंगे

सभी तमाम तरह से कसीदे पढेंगे,

तुम अपना फोन बंद कर दो

भूल जाओ मुझे

तुम्हारे बाद वाले का  भी फोन आयेगा

वही मेरी नैया पार लगायेगा

तुम चाहो तो बन जाओ भाई।’

माशुका ब्लागर ने फोन पटका उधर

 इधर आशिक ब्लागर  आसमान की तरफ

आंखें कर लगभग रोता हुआ बोला

‘हे सर्वशक्तिमान यह क्या किया

इश्क  रचा तो  ठीक

पर नववर्ष की परंपरा क्या बनाई,

जिससे  इश्क में मैंने पाई विदाई।।

 


नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता मनोरंजन की दृष्टि से लिखी गयी है। इसक किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अधिक धन होने पर अनुशासहीनता हानिकारक-हिन्दू धर्म संदेश (dhan aur anushasan-hindu dharma sandesh)


धर्मार्थोश्यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानगुः।
श्रीप्राणधनदारेभ्यः क्षिप्र स परिहीयते।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर के कथनानुसार जो मनुष्य धर्म और अर्थ इंद्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही अपने ऐश्वर्य, प्राण, धन, स्त्री को अपने हाथ से गंवा बैठता है।
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणमीनश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यर्दिश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अधिक धन का स्वामी होने भी इंद्रियों पर अधिकार करने की बजाय उसके वश में हो जाने वाला भी मनुष्य ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोगों को यह लगता है कि अगर अधिक धन आ गया तो जैसे सारा संसार जीत लिया। इस भ्रम में अनेक लोग धन के कारण अनुशासहीनता पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि शीघ्र ही न केवल अपना वैभव गंवाते हैं बल्कि कहीं कहीं उनको शारीरिक हानि भी झेलनी पड़ती हैं। जीवन में दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन का होना जरूरी है। अधिक धन है तो भी समाज में सम्मान प्राप्त होता है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अनुशासनहीनता बरती जाये। ऐसे ढेर सारे उदाहरण है जिसमें अनेक धनपतियों की औलादें मदांध होकर ऐसे अपराधिक कार्य इस आशय से करती हैं कि उनके पालक धन से कानून खरीद लेंगे। ऐसा होता भी है पर उसकी एक सीमा होती है जहां उसका अतिक्रमण होता है वहां फिर सींखचों के अंदर भी जाना पड़ता है। इस समय ऐसा दौर भी है जिसमें धनपति स्वयं और उनकी औलादें समाज में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासन हीनता दिखाते हैं। धन उनकी आंखों बंद कर देता है और उनको यह ज्ञान नहीं रहता कि आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हो गये हैं जिनकी वजह से हर समाचार बहुत जल्दी ही लोगों तक पहुंचता है। भले ही यह प्रचार माध्यम भी धनपतियों के हैं पर उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये सनसनीखेज खबरों की आवश्यकता होती है और ऐसे में किसी धनी, प्रतिष्ठित या बाहुबली द्वारा किसी प्रकार के अपराध की जानकारी मिलने पर उसे जोरदार ढंग से प्रसारित भी करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अब वह समय चला गया जब धन और वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासनहीनता बरतना आवश्यक लगता था।
आदमी के पास चाहे कितना भी धन हो उसे जीवन में अनुशासन अवश्य रखना चाहिये। याद रहे धन की असीमित शक्ति है पर देह की सीमायें हैं और किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का दुष्परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है।

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इंटरनेट पर हिन्दी लिखने का अनुभव आम जगत से अलग-हिन्दी लेख (experience of hindi writing on ineternet)


अंतर्जाल पर गद्य लिखें या पद्य अंतद्र्वंद तो इस लेखक के मन में हमेशा ही रहेगा। ब्लाग पर पहले इसलिये कवितायें लिखी क्योंकि अंग्रेजी टाईप में अधिक गति नहीं थी और रोमन में हिन्दी लिखना जरूरी लग रहा था। बाद में कृतिदेव को यूनिकोड में बदलने वाला शस्त्र मिला तो खुशी हुई कि गद्य लिखेंगे। यह खुशी जल्दी काफूर भी हो गयी जब अंतर्जाल के बढ़ते तकनीकी ज्ञान से अपने पाठों की सफलता और असफलता का विवेचन किया। पता लगा कि छोटी पर मारक कविताएं अधिक सफल हैं।
प्रारंभिक दौर में लिखी गयी कवितायें और छोटी गद्य रचनाएं अभी तक पाठक जुटा रही हैं और बड़े पाठ उनसे कमतर साबित हुए। दरअसल यह लेखक उसके मित्र उस दौर के लोग हैंे जो कविताओं से थोड़ा एलर्जी रखते हैं। कविता शब्द ही उनको ऐसा लगता है जैसे कि किसी ने करंट मार दिया हो। लिखने को भले ही लिख जायें पर पढ़ने पर अगर प्रभाव न छोड़े तो समय खराब करने पर पछतावा होता है।
निजी मित्र हमेशा ही कविता लिखने के विरोधी रहे हैं। एक मित्र महाशय तो ऐसे हैं जो स्वयं ही गज़ब के गीत और गज़ल लिखते हैं और अब उन्होंने ब्लाग भी बनाया है वह हमेशा ही कविता लिखने का विरोध करते हैे। अपने ब्लाग पर आई कुछ टिप्पणियों ने हमेशा उनकी याद आयी जैसे कि उन्होंने ही टिप्पणी लिखी हो।
बहुत पहले एक बार उन्होंने हमारी गज़ल देखकर कहा था कि
‘तुम्हारी यह रचना बहुत गहरी और दिल को छू लेने वाली है पर यह गज़ल नहीं है।’
हमने कागज हमने हाथ में ले लिया और कहा‘चाहे इसने आपके दिल की कितनी भी गहराई में उतरकर प्रभाव जमाया हो पर हमें यह अफसोस है कि यह गज़ल नहीं है।’
एक बार एक कविता उनको लिखकर दिखाई तो वह बोले-‘यार, तुम जबरदस्ती तुक क्यों मिलाते हो? इसमें कोई शक नहीं है कि इसमें कथ्य दमदार है पर यह गद्यनुमा चिंतन है। इसे कविता तो कहना मुश्किल है।’
उनके पास अधिक हिन्दी का भाषा ज्ञान है और अंतर्जाल पर भी सक्रिय उन जैसा ज्ञान रखने वाले एक दो लेखक हमारी नज़र में हैं। हम पहले उनको अपने लेख और व्यंग्य दिखाते थे तो वह यही कहते थे कि तुम तो केवल गद्य लिखा करो।
ऐसा नहीं है कि वह गद्य नहीं लिखना जानते है। हमने उनके ही एक अन्य कवि मित्र की एक कविता की पुस्तक पर उनके द्वारा लिखी गयी समीक्षा पर उनसे कहा था कि‘कविता की वह पुस्तक पता नहीं कितनी दमदार है पर आपकी समीक्षा उसमें चार चांद लगायेगी।
हिन्दी और उर्दू के शब्दों का उनका ज्ञान असंदिग्ध है और कहीं परेशान होने पर उनसे चर्चा अवश्य करते हैं। वह बहुत कम लिखते हैं और हमने उनसे कहा था कि ‘ऐसा लगता है कि जिनको भाषा का ज्ञान अधिक होता है वह कम ही लिख पाते हैं।
तब उन्होंने हंसते हुए कहा था कि ‘हां, तुम अपने को धन्य समझो कि भाषा का ज्ञान कामचलाऊ है इसलिये अधिक लिख जाते हो। वैसे तुम कविताओं से जितना हो सके बचो। तुम अपने चिंतन के लिये अधिक जाने जा सकते हो।’
अल्पज्ञानी होना तब समस्या नहीं रहता जब आपको पता लग जाता है वरना दुनियां भर में अपनी मूर्खता दिखते रहते हैं। फिर ऐसे मित्र भी कम ही मिलते हैं जो आलोचना कर रास्ता बताते हैं।
उनकी कही बातें जब ब्लाग लिखने पर टिप्पणियों के रूप में भी आयी। अव्यवसायिक लेखक होने के नाते हमने उन पर कम ध्यान दिया पर जब चिंतन करते हैं तो सब ध्यान आता है। यहां हम केवल अपनी अभिव्यक्ति प्रकट करने के लिये लिख रहे हैं इसलिये कभी कभी उन पर विचार करते हैं। कवितायें लिखने का उद्देश्य केवल विषय को संजोना भर होता है ताकि उस पर कभी गद्य लिखेंगे पर अगर वह अपने स्वरूप में ही पंसद की जायें तो क्या किया जाये?
सच बात तो यह है कि छोटे अध्यात्मिक चिंतन ओर कविताओं ने इस लेखक के सभी ब्लाग/पत्रिकाओं को बहुत आगे तक पहुंचाया है। लोगों की प्रतिकियाओं का अध्ययन करें तो वह अधिक बड़े पाठों से जल्दी उकता जाते है। अगर कोई बात आपको गद्य में कहनी है तो उसके लिये विस्तार से कहना पड़ता है पर समय नहीं है तो व्यंजना विद्या में अगर उसे लिखा गया और वह प्रभावी हुआ तो पाठक उसे पकड़ लेंगे। वर्डप्रेस पर जिन पाठों ने अधिक वोट पाये हैं वह सभी कवितायें और छोटे अध्यात्मिक चिंतन ही है।
ऐसे में एक बात लगती है कि कहीं हम अपने रवैये को लेकर जिस तरह चल रहे हैं क्या वह ठीक है? व्यंजना विद्या में कही गयी बातें लेाग समझ रहे हैं तब उसके लिये विस्तार से गद्य लिखने की क्या जरूरत है? दूसरी बात यह है कि हमारे पास लिखने का समय नहीं है तो पाठक के पास भी कितना है?
दूसरी बात यह है कि कविताओं को अनदेखा करना भी ठीक नहीं है क्योंकि हो सकता है कि नये लेखक उसमें अपनी बात कुछ अनोखे ढंग से कह रहा हो। इस लेखक ने तो अपने पाठों पर इसलिये ही आलेख या कविता लिखने की परंपरा इसलिये प्रारंभ की कि शीर्षक देखकर कोई उसे खोले और कविता मिलने पर नाराज न हो। इसका उद्देश्य यह भी था कि कविता देखकर लोग कम खोलेंगे और घटिया होने पर उनका गुस्सा अभिव्यक्त नहीं होगा। आम पाठकों ने यह भ्रम तोड़ दिया है। उनके लिये महत्वपूर्ण कथ्य, तथ्य और विषय तत्व है। स्थिति यह हो गयी है कि वर्डप्रेस के ब्लाग/पत्रिकाओं के ‘पाठकों की पसंद’ का स्तंभ कविताओं की सफलता की जा कहानी कहा रहा है उससे तो यह लगता है कि नई पीढ़ी काव्य के प्रति वैसी संकीर्ण मानसिकता नहीं रखती। शर्त यही है कि कविताओं के शब्दों का मुख बाहर खुलता हो न कि एकांकी हो। कहने का तात्पर्य यही है कि अंतर्जाल पर हिन्दी का रूप कई विविधतायें लेकर आयेगा और उससे सभी को सामंजस्य बिठाना होगा।

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप
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संत कबीर के दोहे-भक्ति स्वरूप बदलना अपराध जैसा


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान

कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चौरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों में जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसों तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को कोई दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है। इतना तय है कि भगवान का रूप बदलकर उसका स्मरण करना अपने कष्ट का कारण बनता है।
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भ्रष्टाचार अंतर्राष्ट्रीय मुद्दा क्यों नहीं बनता-व्यंग्य हिन्दी लेख (on curruption-hindi article


कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन रोकने के लिये कार्बन उत्सर्जन को लेकर एक महासम्मेलन हो रहा है। पश्चिम के विकसित देश दुनियां की फिक्र बहुत करते हैं। उनके न केवल फिक्र करना चाहिये बल्कि करते हुए दिखना भी चाहिये। आखिर दुनियां के यह छह सात मुल्क ही पूरी सारे विश्व समुदाय रहनुमा बन गये हैं। गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के शिखर पुरुष हों या आम आदमी उनकी तरफ आकर्षित होकर देखता रहता है। उनकी तूती बोलती है। जैसा सम्मेलन बुलाओ। जब बुलाओ सभी देशों के प्रतिनिधि पहुंच जाते हैं। बहुत कम लोगों को पताहोगा कि यह पश्चिमी देश भले ही औपचारिक रूप से अलग अलग हों पर उनका ऐजेंडा एक ही है कि गरीब, विकासशील देशों के आर्थिक और प्राकृतिक साधनों का दोहन इस तरह किया जाये कि उनकी खुद की अमीरी और ताकत बनी रहे।
इन देशों के नागरिकों को एक दूसरे के यहां आने जाने के लिये बहुत सारी छूट है जबकि गरीब, विकासशील और एशियाई देशों के लिये ढेर सारे प्रतिबंध है।

कई बार तो ऐसा लगता है कि ब्रिटेन और अमेरिका इन देशों के नेता है तो कभी यह भी लगता है कि बाकी पश्चिमी राष्ट्र उनकी आड़ में अपनी ताकत दिखाते हैं। कम से कम डेनमार्क के प्रस्ताव से-जिसमें विकसित राष्ट्रों को कार्बन गैस उत्सर्जन के लिये तमाम छूटें देने और गरीब और विकासशील देशों पर इस आड़ में अपना फंदा कसने वाली शर्ते शामिल हैं-यही लगता है। एक दम व्यंग्य जैसा! इस प्रस्ताव को न केवल भारत ने बल्कि उसके साथ जुड़े जी 77 देशों के प्रतिनिधियों ने खारिज भी किया बल्कि यह भी बता दिया कि अगर यह प्रस्ताव दोबारा उसने रखा तो वह इस बात को भूल जाये कि कोपेनहेगन का यह सम्मेलन आगे भी जारी रहेगा।
चीन की प्रतिक्रिया थोड़ी आक्रामक हैं पर उसमें भी मजाक लगता है। उसने कहा कि ‘वह आखिरी दम तक विकासशील देशों की हितों के लिये लड़ेगा।’
चीन की सदाशयता पर हम कोई आपत्ति नहीं कर रहे पर यह कमजोर व्यक्ति या देश की प्रतिक्रिया लगती है जिसे मालुम है कि सामने वाला आखिर उसकी दम निकाल सकता है। दूसरा यह भी कि अगर उसके पास को अंतिम समय रोकेगा पर अगर पास हो गया तो वह सिर झुकाकर मान लेगा। इसकी जगह यह भी कहा जा सकता कि अगर डेनमार्क इस प्रस्ताव को दोबारा रखेगा तो उसे काली सूची में डाल दिया जायेगा, पर यह करने की ताकत किसी एशियाई देश में नहीं लगती भले ही वह इस
महाद्वीप का रहनुमा होने का दावा करता हों। यह एशियाई देशों की कमजोरी है कि वह इन पश्चिमी देशों द्वारा आयोजित सम्मेलनों में उनके प्रस्तावों पर ही विचार करते हुए समर्थन या विरोध करते हैं। अपनी तरफ से कोई नयी सोच
या समस्या वह सामने नहीं रखते। इतना ही नहीं संयुक्त राष्ट्रसंध जैसी संस्था जो कि केवल पश्चिमी देशों के वर्चस्व का बढ़ावा देती है उसकी
संस्थाओं में शामिल होकर अपने को गौरवान्वित समझते हैं। संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद पिछले कई सालों से कोई उल्लेखनीय रूप से कार्य नहीं कर पायी। अमेरिका चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेता है और अगर विवादास्पद विषय हो तो वह बिना प्र्रस्ताव के ही अपना काम करता है। इराक और अफगानिस्तान युद्ध में सुरक्षा परिषद कोई भूमिका नहीं निभा पाया। इसके पांच स्थाई
सदस्य-अमेरिका, ब्रिटेन, सोवियत संघ, फ्रांस और चीन हैं। जर्मनी, इजरायल और जापान जैसे देश इसके स्थाई सदस्य नहीं है और न इसकी परवाह करते हैं। पता नहीं अपने भारत देश के लो्ग इसका स्थाई सदस्य बनने के लिये क्यों बेताब हैं। सुनने में यह भी आया कि अगर नये स्थाई सदस्य बने होंगे तो उनके पास वीटो पावर नहीं होगा। अगर यह वीटो पावर नहीं है तो समझ लो कि स्थाई सदस्य होना या न होना बराबर है। ऐसे में सुरक्षा परिषद की स्थाई
सदस्यता भीख की तरह लेना ही बेमानी है।
बहरहाल पश्चिम के देशों की अर्थव्यस्था का वजूद अपने आंतरिक आधारों पर कम
बाह्य आधारों पर अघिक टिका है इसलिये वह अन्य देशों को ऐसे कामों में व्यस्त रखते हैं। कभी पर्यावरण पर सम्मेलन करेंगे तो कभी आतंकवाद पर! जबकि इन समस्याओं के लिये वही अधिक जिम्मेदार हैं। आप पता कर लें एशिया
के उग्रपंथियों के ठिकाने किन देशों में हैं तो पश्चिमी देशों के नाम ही सामने आयेंगे जो मानवाधिकार के पैरोकार होने का दावा करते हैं। कभी जलवायु परिवर्तन का मामला उठायेंगे तो कभी व्यापार का ताकि दूसरे देशों पर रुतवा
जमा सकें।
विश्व भर में आतंकवाद, पर्यावरण प्रदू्रषण तथा अन्य अनेक संकट हैं। इन पर विचार करना चाहिये पर यह भी देखना चाहिये कि पह किस वजह से हैं। बीमारी का इलाज करने की बात समझ में आती है पर वह किस वजह से है यह जानना भी जरूरी है। उस वजह से परे होने का उपाय करना भी जरूरी है। आतंकवाद और पर्यावरण के साथ एक विश्वव्यापी समस्या है वह है भ्रष्टाचार। अनेक विद्वान कहते हैं कि विकासशील देशों में भ्रष्टाचार चरम पर है। ऐसा नहीं है कि विकसित राष्ट्र इससे अछूते हैं पर फिर भी वह इसका विचार नहीं करते न कोई सम्मेलन करते हैं। विकासशील देशों का बहुत सारा पैसा इन देशों की बैंकों में गुप्त रूप से पहुंचता है-गाहे बगाहे इसकी चर्चा समय समय पर होती है। कुछ कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि इसी पैसे से पश्चिम के विकसित राष्ट्र अपना काम चला रहे हैं। वैसे अमेरिका में सरकारी रूप से चंदा लेना और देना वैध माना जाता है कुछ विशेषज्ञ कहते हैं कि अंततः चंदा देने वालों को कोई न कोई लाभ मिलता है। अधिक नहीं तो इतना तो मिल ही जाता है कि बाह्य व्यापार करने वाले पूंजीपति अपनी सरकार के सहारे संबंधित देशों का प्रभाव डालते है-कहीं कहीं भ्रष्टाचार को बढ़ावा भी देते हैं।
एक समय ब्रिटेन के बारे में कहा जाता था कि उसके राज्य में कभी सूर्य अस्त नहीं होता है। इसका कारण यह था कि एशियाई देशों के एक बहुत बड़े भूभाग पर उसका राज्य चलता था। धीरे धीरे वह छोटा होता गया। अलबत्ता अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा पद्धति कायम की। अंग्रेजों ने यह कल्पना भी नहीं की होगी कि वह जो शिक्षा पद्धति इन देशों में स्थापित कर रहे हैं वह सदियों से उनके लिये इस तरह गुलाम उपलब्ध करायेगी कि सब कुछ होते हुए भी यह देश कमजोर की तरह ललकारेंगे ‘आखिरी दम तक लड़ेंगे।’
चीन एक ताकतवर मुल्क हैं वह धमका भी सकता था । वह यह भी डेनमार्क से पूछ सकता था कि ‘यह प्रस्ताव तुमने रखा यह तो बाद की बात पहले यह बताओं कि इस पर सोचा भी कैसे?’
कहने का तात्पर्य यह था कि भाषा कड़क भी हो सकती है। सुनने मे यह भी आया है कि इस प्रस्ताव के पीछे ब्रिटेन की सोच काम कर रही थी। संभवतः ब्रिटेन को यह लगा होगा कि आर्थिक, सामाजिक तथा राजनीतिक रूप से वह आज भी इतना ताकतवर है कि अन्य देश स्वतंत्र जरूर हैं पर उनका विवेक तथा पैसा तो उसका गुलाम है इसलिये चाहे जैसा प्रस्ताव पास करा लेगा।
आतंकवाद, पर्यावरण प्रदूषण, मादक द्रव्य पदार्थों का व्यापार तथा अन्य अनेक ऐसी समस्यायें हैं जिनकी जड़ में भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार जब तब नहीं मिटेगा तब कोई समस्या हल नहीं होगी मगर इसके विरुद्ध कोई सम्मेलन
नहीं करेगा। ब्रिटेन तो कभी नहीं क्योंकि उसके द्वारा स्थापित व्यवस्था से ही भ्रष्टाचार पनपा है और जिसके पास भी देश तथा समाज के प्रबंध का छोटा भी अंश है वह अपने को राजा समझता है और बाकी को गुलाम। उनके लिये बैंकों में जमा अपनी राशि इष्ट देवी है जिससे बढ़ते देख वह प्रसन होते हैं। फिर जिस तरह अंग्रेजों ने इन एशियाई देशों से पैसा कमाकर अपने देश भेजा आज उनके गुलाम यही काम रहे हैं। देखा जाये जो ब्रिटेन और अमेरिका ने आज तक भी किसी परमाणु संपन्न राष्ट्र के खिलाफ युद्ध नहीं जीता पर फिर उसके चीन
जैसा प्रतिद्धंदी उसके सामने नम्र भाषा में बात करता है तब संदेह होता है। यही कारण है कि इन विकसित राष्ट्रों ने भारत के प्रस्ताव को भी उसी तरह खारिज किया जबकि वह विचारणीय था और उसमें व्यंग्य जैसा कुछ भी नहीं था। बहरहाल विकासशील देशों के भ्रष्टाचार से अमीर हुए मुल्कों से यह आशा करना ही बेकार है कि वह भ्रष्टाचार पर कभी कोई महासम्मेलन करेंगे।
‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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दूसरे से जलने के रोग का कोई उपाय नहीं- हिन्दी धर्म सन्देश


य ईर्षुः परवित्तेषु रूपे वीर्य कुलान्वये।
सुखभौभाग्यसत्कारे तस्य व्याधिनन्तकः।।
हिंदी में भावार्थ
-जो दूसरे का धन, सौंदर्य, शक्ति और प्रतिष्ठा से ईष्र्या करता है उसकी व्याधि की कोई औषधि नहीं है।
न कुलं वृत्तही प्रमाणमिति मे मतिः।
अन्तेध्वपि हि जातानां वृत्तमेव विशिष्यते।।
हिंदी में भावार्थ-
अगर प्रवृत्ति नीच हो तो ऊंचे कुल का प्रमाण भी सम्मान नहीं दिला सकता। निम्न श्रेणी के परिवार में जन्मा व्यक्ति प्रवृत्ति ऊंची का हो तो वह अवश्य विशिष्ट सम्मान का पात्र है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-ईर्ष्या का कोई इलाज नहीं है। मनुष्य में रहने वाली यह प्रवृत्ति उसका पूरा जीवन ही नरक बना देती है। मनुष्य जीवन में बहुत सारा धन कमाता और व्यय करता है पर फिर भी सुख उससे परे रहता है। सुख कोई पेड़ पर लटका फल नहीं है जो किसी के हाथ में आ जाये। वह तो एक अनुभूति है। अगर हमारे रक्तकणों में आनंद पैदा करने वाले तत्व हों तभी सुख की अनुभूति हो सकती है। इसके विपरीत लोग तो दूसरे के सुख से जले जा रहे हैं। अपनी पीड़ा से अधिक कहीं उनको दूसरे का सुख परेशान करता है। इससे कोई विरला ही मुक्त हो पाता है। ईर्ष्या और द्वेष से मनुष्य में पैदा हुआ संताप मनुष्य को बीमार बना देता है। उसके इलाज के लिये वह चिकित्सकों के पास जाता है। फिर भी उसमें सुधार नहीं होता क्योंकि ईष्र्या और द्वेष का इलाज करने वाली कोई दवा इस संसार में बनी ही नहीं है।

जो लोग जाति, भाषा, धर्म और क्षेत्र के नाम पर सम्मान पाने का मोह पालते हैं वह मूर्ख हैं। उसी तरह पैसा, पद, और प्रतिष्ठा पाने पर अगर कोई यह भ्रम पाल लेता है कि लोग उनका सम्मान करते हैं तो वह भी नहीं रखना चाहिये। लोग दिखाने के लिये अपने से अधिक धनवान का सम्मान करते हैं पर हृदय से उसी व्यक्ति को चाहते हैं जो उनसे अधिक गुणवान होता है। गुणों की पहचान ही मनुष्य की पहचान होती हैं। इसलिये अपने अंदर सद्गुणों का संचय करना चाहिए। दूसरे का सुख और वैभव देखकर अपना खून जलाने से कोई लाभ नहीं होता।

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योग साधना को केवल व्यायाम न समझें-हिन्दू धर्म संदेश (yog sadhna no simple exercise-hindu dharm sandesh)


एक सर्वे के अनुसार 45 से 55 वर्ष की आयु के मध्य व्यायाम करने वालों में घुटने तथा शरीर के अन्य जोड़ों वाले भागों में दर्द होने की बात सामने आयी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है पर यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि भारतीय योग पद्धति का हिस्सा दैहिक आसन इस तरह के व्यायाम की श्रेणी में नहीं आते। यह व्यायाम नहीं बल्कि योगासन हैं यह अलग बात है कि इसकी कुछ क्रियायें व्यायाम जैसी लगती हैं।
इसके संबंध में एक मजेदार बात याद आ रही है। एक गैर हिन्दू धार्मिक चैनल पर एक कथित विद्वान से भारतीय योग पद्धति के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया कि ‘हमारी पवित्र किताब में भी इंसान को व्यायाम करते रहने के लिये कहा गया है।’
उन विद्वान महोदय का बयान कोई आश्चर्य जनक नहीं था क्योंकि सभी धर्मों के विद्वान हमेशा अपनी पुरानी किताबों के प्रति वफादार रहते हैं और उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह किसी भी हालत में दूसरे धर्म की किसी परंपरा की प्रशंसा करेंगे। फिर टीवी चैनलों ने भी कुछ विद्वान तय कर रखे हैं जिनके पास बहस करने के लिये आपके पास सुविधा नहीं है। बहरहाल सच बात यही है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसन कोई सामान्य व्यायाम नहीं बल्कि देह से विकार बाहर निकालने की एक प्रक्रिया है।
योगासनों में किसी भी शारीरिक क्रिया में शरीर ढीला नहीं होता। हर अंग में कसावट होती है और यह तनाव की बजाय राहत देती है इतना ही नहीं हर आसन में उसके अनुसार शरीर के चक्रों पर ध्यान भी लगाया जाता है-इस संबंध में भारतीय येाग संस्थान की पुस्तक उपयोग प्रतीत होती है। व्यायाम में जहां शरीर से ऊर्जा रस के निर्माण के साथ उसका क्षरण भी होता है पर योगासन में केवल देह मेें स्थित वात, कफ तथा पित के विकार ही निर्गमित होते। दूसरी बात यह है कि ध्यान की वजह से देह को ऐसी सुखानुभूति होती है जिसकी व्यायाम में नहीं की जाती। इसके अलावा व्यायाम जहां जमीन बैठकर या खड़े होकर किया जाता है जबकि योगसन में नीचे चटाई, दरी और चादर का बिछा होना आवश्यक है ताकि देह में निर्मित होने वाली ऊर्जा का बाहर विसर्जन न हो। योगासन के बारे में सबसे बड़ी दो बातें यह है कि एक तो वह इसमें शरीर को खींचा नहीं जाता बल्कि जहां तक सहजता अनुभव हो वहीं तक हाथ पांवों में तनाव लाया जाता है। दूसरा यह कि योगसन किसी भी आयु में प्रारंभ किया जा सकता है जबकि व्यायाम को एक आयु के बाद प्रारंभ करना खतरनाक माना जाता है। योगसन में सहजता का भाव आता है और व्यायाम में इसका अभाव साफ दिखाई दे्रता है क्योंकि उसमें शरीर के चक्रों पर ध्यान नहीं रखा जाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसनों को भारतीय या पश्चिमी पद्धति के व्यायामों से तुलना करना ही ठीक नहीं है। दोनों ही एकदम पृथक विषय है-भले ही उनकी शारीरिक क्रियाओं में कुछ साम्यता दिखती है पर अनुभूति में दोनों ही अलग हैं। दूसरी बात यह है कि भारतीय योग पद्धति में आसन केवल एक विषय है पर सभी कुछ नहीं है और यही कारण है कि इसे व्यायाम मानना गलत है। अलबत्ता कुछ विद्वान इसे सीमित दृष्टिकोण से देखते हैं उनको इस बारे में जानकारी नहीं है। कई लोग अक्सर यह शिकायत करते हैं कि वह अमुक आसन कर रहे थे तो उनकी नसें खिंच गयी दरअसल वह आसनों को व्यायाम की तरह करते हैं जबकि इसके लिये पहले किसी योग्य गुरु का सानिध्य होना आवश्यक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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