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भारत के आम हिन्दू में तत्वज्ञान रहता ही है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            अभी हाल ही में एक फिल्म से हमारे देश के धार्मिक संगठनों के लिये हास्यास्पद स्थिति का निर्माण किया।  इस फिल्म के विरोध अभियान चलाते समय में रणनीति तथा धरातल के सत्य का उनको ज्ञान नहीं था-यह बात साफ प्रतीत होती है।  एक सामान्य फिल्म जो तीन दिन में दम तोड़ देती एक निरर्थक विरोध अभियान ने उसने इतिहास के सबसे अधिक राजस्व कमाने वाली फिल्म बना दिया।  अगर हिन्दू धर्म की रक्षा का अभियान इन कथित लोगों को युद्ध स्तर पर चलाना है तो नीतियां भी व्यवहारिक अपनाना चाहिए। बिना रणनीति के कोई रण नहीं जीता जा सकता।  कम से कम उन्हें इस विषय में चाणक्य और विदुर नीति का अध्ययन तो अवश्य करना चाहिये।

      जब कोई सेनापति युद्ध के लिये जब निकलता है तो अपने अस्त्र शस्त्र के भंडार के साथ ही अपने सैनिकों के पराक्रम की व्यापकता और सीमा दोनों का ही अध्ययन कर लेता है।  इतना ही नहीं वह अपनी प्रजा की मानसिकता का भी विचार करता है।  हमारे भारत में कथित धर्म रक्षक हवा में ही शब्द बाण छोड़कर आत्ममुग्ध हो जाते हैं।  उन्हें न तो अपने समाज के संपूर्ण विचारों का ज्ञान है न यह जानते हैं कि आर्थिक, सामाजिक तथा पारिवारिक कारणों से वह मध्यम वर्ग कितने भारी तनाव में सांस ले रहा है जो धर्म के लिये बौद्धिकता का दान देता है। उसी तरह उस निम्न वर्ग के लिये अपने अस्तित्व का संघर्ष अत्यंत जटिल हो गया है जो धर्म की रक्षा के लिये अपना श्रम दान करता है।  पैसा दान करने वाला उच्च वर्ग भी अब अपने सात्विक लक्ष्य पाने की बजाय स्वार्थवश ही करता है।  सामाजिक तथा आर्थिक विषयों में तीनों वर्ग समन्वय स्थापित नहीं कर पा रहे-बल्कि कहीं कहीं वैमनस्य की भावना भी बढ़ रही है।

      ऐसे में फिल्म को लेकर कथित धर्म रक्षकों का अभियान न केवल टांय टांय फिस्स हुआ वरन् उससे फिल्म बनाने वालों को कमाई अधिक ही हो गयी।  उससे भी अधिक अब हंसी महिलाओं को चार बच्चे पैदा करने की प्रेरणा देने पर उड़ रही है। जिस तरह महिलाओं को एक वस्तु मानकर यह बात कही गयी है वह अत्यंत अपमानजनक है।  इन लोगों का एक तरह से इसी तरह की मान्यता है कि महिलायें तो केवल बच्चे पैदा करने की मशीन है। इससे ज्यादा उसका महत्व नहीं है।

      चार बच्चे पैदा करने की प्रेरणा के लिये विचित्र बातें कही जा रही हैं।

      1-चार बच्चे इसलिये पैदा करो क्योंकि दूसरे समूह के लोग चालीस कर रहे हैं।

      2-एक बच्चा सीमा पर भेज दो। एक संतों को दे दो। दो अपने पास रख लो।

      निहायत ही हास्यास्पद तर्क हैं। पहली बात तो यह कि बच्चे से आशय इनका लड़के से ही है।  क्या यह मानते हैं कि इनकी राय पर चलने वाली औरते केवल लड़के को ही जन्म देंगी? क्या गर्भवती होने पर वह भ्रुण परीक्षण कराने जायेंगी।  क्या जब तक चार लड़के जन्म लें तब तक लड़कियों का जन्म उनको स्वीकार्य होगा? इससे तो बच्चों की संख्या आठ से दस तक जा सकती है।  आज स्वास्थ्य का जो स्तर है उसमें यह संभव नहीं लगता।  इस तरह तो कन्या भ्रुण हत्या को प्रोत्साहन मिलेगा?। हमें मालुम है कि देश की सामान्य महिलायें समझदार हैं और इस तरह के बयानवीरों की असलियत जानती हैं।  दूसरी बात यह कि सीमा पर जाने का मतलब सेना में भर्ती होने से ही है।  उस पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि देश में बेरोजगारी इतनी है कि किसी स्थान विशेष पर चार या पांच सौ सैनिकों की भर्ती के लिये शिविर लगता है तो वहां चालीस से पचास हजार लड़के भर्ती होने के लिये आ जाते हैं।  अनेक जगह तो भीड़ बेकाबू होने से उपद्रव भी हो चुके हैं।  पहले तो इस देश के युवकों को पूरी तरह भर्ती करा लें जो मौजूद हैं।  संतों को देने का सवाल एकदम अधार्मिक है।  कहीं भी किसी जगह इस तरह का संदेश नहीं है।

      हम यहां यह स्पष्ट कर दें कि भारत की विश्व में पहचान श्रीमद्भागवत गीता के कारण अधिक है।  उसमें जो अध्यात्मिक ज्ञान है वह आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पूर्व काल में था।  धार्मिक वस्त्र पहनकर स्वयं को विद्वान समझने वाले लोगों को अपने अध्यात्मिक ज्ञान के बारे में कितना पता है यह तो पता नहीं पर इतना तय है कि उनमें अपने समाज को लेकर आत्मविश्वास की भारी कमी है। वह शायद नहीं जानते कि भारत का आम हिन्दू अध्यात्मिक रूप से ज्ञानी है।

प्रस्तुत है इस पर एक कविता

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सच्चाई यह है कि
संख्या बल से
युद्ध नहीं जीते जाते।

पराक्रमियों का संरक्षण
समाज अगर न पा सके
शांति से दिन नहीं बीते जाते।

कहें दीपक बापू बुद्धि के वीरों पर
दो गुणा दो बराबर चार का सिद्धांत
असर नहीं करता
एक और ग्यारह की योजना से
करते किला फतह,
भीड़ बढ़ाकर नहीं चाहते कलह,
अपनी सोच से बढ़ते आगे
बांटते हैं वह सभी को प्रसन्नता
स्वयं भी सुख पीते जाते।

———————

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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श्रीमद्भागवत गीता के सैद्धांतिक सूत्रों का व्यवहार में परीक्षण आवश्यक-हिन्दी चिंत्तन लेख


            श्रीमद्भागवत्गीता ग्रंथ की रचना के 5151 वर्ष पूरे हो गये हैं ऐसा कुछ विद्वानों ने बताया है। कम से कम एक बात तो समाज ने मान ली कि भगवान श्रीकृष्ण का लीलाकाल इससे अधिक पुराना नहीं।  इधर कुछ ज्योतिष और खगोल शास्त्रियों ने भी मिलकर भगवान श्रीराम के लीला काल को सात हजार वर्ष पुराना प्रमाणित करने का प्रयास किया है।  यह भी माना जा रहा है कि भारत श्रीलंका के बीच निर्मित रामसेतु  भी स्वाभाविक रूप से बना है।  भारतीय अध्यात्म के दो महानायकों के बारे में खोज चलना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। रामायण में जहां भगवान श्री राम ने सामाजिक मर्यादा का ज्ञान कराया तो महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण ने जीवन के रहस्यों से परिचय कराया।  यह अलग बात है कि भगवान श्रीराम और कृष्ण के प्रति आस्था दिखाकर अपने लिये अर्थसिद्ध करने वाले ठेकेदारों की हमारे देश में कमी नहीं है।

            आजकल हमारे देश में विश्व गुरु के रूप में पुनः प्रतिष्ठत करने का नारा चल रहा है।  हमारी दृष्टि से तो रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत तथा श्रीमद्भागवत गीता तथा प्राचीन ग्रंथों   की उपस्थिति तथा उनकी वैश्विक स्वीकार्यता के कारण हमें यह श्रेय वैसे भी मिलता है।  यह अलग बात है कि हमने स्वयं ही पाश्चात्य में सृजित संस्कृति, साहित्य और साधनों को अपना इष्ट मानकर उनसे विरक्ति कर ली है पर इसके बावजूद हमारा विश्व गुरु का पद बना हुआ है।  जरूरत हमें अपनी पुरानी राह चलने की है।  श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार हमें विज्ञान का भी ज्ञाता होना ही चाहिये। केवल ज्ञान के शब्दकोष के सहारे जीवन गुजारना से नीरसता आती है।  हमने नये विज्ञान पर अपनी पूरी बुद्धि निछावर कर दी है और ज्ञान को धारण करने का संकल्प त्याग ही दिया है।

            श्रीगीता के ज्ञान साधकों के लिये यह ग्रंथ ही वास्तविक गुरू होता है। कुछ लोग मानते  हैं कि पाश्चात्य सभ्यता-जिसे हम अंग्रेजी भी कहते हैं- अत्यंत व्यापक दृष्टिकोण वाली है और उसने भारत में आकर समाज सुधार किया है। हमारा विचार इससे विपरीत है।  हमारा मानना है कि जब यहां परिवहन के साधन सीमित थे तब भी लोग मध्य एशिया तक यहां से गये और वहां ये आये।  उस समय कोई परिवहन के तीव्रगति वाले साधन नहीं थे तब भी लोगों का भ्रमण बिना वीजा और पासपोर्ट के होता था।  भारत में पुर्तगााली, फ्रांसिसी और अंग्रेजों के आने के बाद संकीर्णता ही बढ़ी है हमारा ऐसा मानना है।  मनुष्य का मन आकाश में उड़ने को करता है। नहीं उड़ पाता तो दूर तक जाने की इच्छा तो होती है।  पाश्चात्य सभ्यता के प्रभाव से हुआ यह कि अब अमृतसर से लाहौर और मुंबई से कराची जाने जाने के लिये वीजा और पासपोर्ट चाहिये जबकि कभी उन्मुक्त भाव से आना जाना हो सकता था।

            श्रीमद्भागवत गीता आत्म संयम रखने की ऐसी कला सिखाती है जिसे जीवन उन्मुक्त भाव से व्यतीत किया जा सकता है वरना  त्रिगुणमयी माया इस तरह फंसाये रहती है कि आदमी विषयों को छोड़ता और पकड़ता रहता है। जब मन विषयों से तंग होता है तो फिर मनोरंजन के लिये भी वही विषय चुनता है जिनसे दूर होना चाहिये। श्रीमद्भागवत गीता के ज्ञान का सैद्धांतिक अर्थ सभी जानते हैं वह उसे व्यवहार में कैसे लाया जाये यह कला सभी को नहीं आती। सीधी बात कहें तो ज्ञान होना और उसे धारण करना दो प्रथक विषय हैं।  जब तक  श्रीगीता के संदेशों का व्यवहारिक प्रयोग नहीं करेंगे तब तक तत्वज्ञान समझ में नहीं आ सकता।  जिस तरह विज्ञान के सभी छात्र सिद्धांत तो समझ लेते हैं पर व्यवहारिक प्रयोग में उनकी योग्यता परिलक्षित होती है।  इस पर गीता तो ज्ञान के साथ ही विज्ञान के संदेशों से भी भरी हुई है उसे व्यवहार में लाकर ही बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। ऐसा महान पवित्र ग्रंथ को किसी सांसरिक पुरुष की महत्व के बखान या प्रचार की सहायता की आवश्यकता नहीं होती वरन् सांसरिक विषयों में में लिप्त लोगों को ही उसके ज्ञान समझने की आवश्यकता है। श्रीमद्भागवत गीता का महत्व बखान करने का अर्थ यह कदापि नही है कि प्रचारक उसका ज्ञान भी समझते हैं।  भगवान श्रीकृष्ण ने श्री गीता के संदेशों को अपने ही भक्त में सुनाने का प्रतिबंध भी इसलिये ही लगाया हुआ है क्योंकि यह केवल उनके समझ में ही आ सकती है। 5151 वर्ष पूर्व सृजित गीता के संदेश प्रारंभ में पढ़ने पर उकताहट आ सकती है पर जब इसका ज्ञान व्यवहारिक प्रयोगों के साथ मस्तिष्क धारण करता है तब इसका हर  श्लोक रुचिकर लगता है। इतना ही नहीं अगर श्रीमद्भागवत गीता का अगर रोज अध्ययन किया जाये तो ऐसा लगता है कि हर बार नयी बात सामने आ रही है।  इसका ज्ञाता क्षेत्रज्ञ भी कहलाता है। पश्चिमी विज्ञान अभी तक प्रकृति का पूरा क्षेत्र नहीं जान  सका है पर जो श्रीगीता पढ़ लेगा वह पूरी सृष्टि का सत्य जान लेगा।  भगवान श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति के भाव तथा ज्ञान धारण करने के संकल्प के साथ पढ़ने पर ही श्रीमद्भागवत गीता का महत्व समझ में आ सकता है। तब उसका प्रचार करने की आवश्यकता ही नहीं रह जाती।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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ताकतवर भारत बनाने के लिये नशे का त्याग करो-हिन्दी चिंत्तन लेख


            भारत एक विशाल प्राकृतिक संपन्न देश है। विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से अनेक बड़े देश हैं पर उनमें प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की दृष्टि से अनेक दोष हैं। भारत में सभी प्रकार के खनिज पाये जाते हैं तो जलसंपदा भी यहां बहुत है।  उनके दोहन के लिये जनसंपदा भी कम नहंी है। अनेक देश बड़े हैं और उनकी उनके पास प्राकृत्तिक संपदा भी बहुत है पर जनसंख्या अधिक नहीं है जिससे वह उसका पूर्ण दोहन नहीं कर पाते।  अनेक देशों का क्षेत्रफल बड़ा है पर वहां जमीन में न पानी है  और न ही खनिज संपदा।  उन बड़े  देशों में संपन्नता है पर भारत जैसा अध्यात्मिक ज्ञान नहंी है। भारत विश्व मे अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण भी जाना जाता है।  यही कारण है कि भारत के विरोधी राष्ट्र उस पर शासन करने के लिये यहां भेदनीति अपनाते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान के कारण  आम भारतीय धर्मभीरु व्यक्ति  बौद्धिक रूप से दृढ़ होता है इसलिये यहां के समाज पर शासन सहज नहीं है।  यही कारण है कि यहां नये मानसिक भौतिक तथा मानसिक व्यसन निर्यात किये जाते हैं।

            कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह होता है।  यह पाश्चात्य विचाराधाराओं पर पूर्णतः सही लगता है भारत में धर्म निजी नियंत्रण बनाये रखना वाला सिद्धांत है।  भारत में विदेशी विचाराधाराओं की तरह मार्क्सवाद भी आया है।  इसके मानने वाले समाज सेवा को व्यसन की तरह करते हैं।  उन्हें भारतीय अध्यात्मिक दर्शन अफीम का तत्व लगता है।  इतना ही नहीं मार्क्स के शिष्य हर विदेशी राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक विचार को भारतीय विचाराधाराओं से  श्रेष्ठ मानते हैं।  अंग्रेंजोें ने भारत को गुलाम बनाये रखने के लिये ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई कि आज हर शिक्षार्थी नौकरी यानि गुलामी के लिये तत्पर रहता है।  उससे भी काम न चला तो क्रिकेट जैसा खेल थोप दिया। भारत की बुद्धि का हरण उन्होंने इस कदर किया कि फिल्म और क्रिकेट के नायक यहां भगवत्स्वरूप प्रचारित हो रहे हैं।  प्रचार माध्यम उनकी आड़ में ढेर सारी आय अर्जित कर रहे हैं। धर्म, अर्थ और समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय शिखर पुरुष धनार्जन के नशे में लग ेहुए हैं तो आम लोग मनोरंजन के दास हो गये हैं।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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स्फीतं त्रीणि बलं शक्यमाधातुं पानवर्त्मनि।

हृस्वप्रयासव्यायामादितिसैन्यं समुत्पतेत्।।

            हिन्दी में भावार्थ-शत्रु की सेना अगर बल में अधिक हो तो उसे मद्यपान के व्यसन में लगाकर  व्यायाम में लग होने पर उसे आक्रमण कर दें।

            अभी हाल ही में भारत में बढ़ते मादक द्रव्य पर समाचार आये थे।  चार दिन चर्चा चली पर नतीजा वही ढाक के तीन पात!  अंग्रेजों ने यहां शासन कर यह समझ लिया था कि यहां का अध्यात्मिक ज्ञान जितना प्रबल उतना ही यहा लोग मानसिक रूप से कमजोर है।  उनकी कमजोरियों पर  अनुसंधान के कारण ही यहां के ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने महान ज्ञान स्थापित किया। इस ज्ञान के रहते भारतीयों पर शासन कठिन है इसलिये उन्होंने विदेशी विचारधाराऐं यहां प्रवाहित कीं।  अंग्रेजों ने इसलिये ही अपनी शिक्षा पद्धति, खेल तथा मनोरंजन के साधन के रूप में स्थापित किया ताकि यहां से जाने के बाद भी उनका प्रभाव बना रहे।  इधर यह भी चर्चा होती रही कि फिल्मों के प्रदर्शन, क्रिकेट में सट्टे और मादक द्रव्यों से आतंकवादी संगठन पैसा अर्जित कर रहे हैं फिर भी हमारे देश के लोग मनोरंजन के दासत्व से मुक्त नहीं हो पा  रहे।  एक तरह से मद्यपान-फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्य-इस देश पर विदेशी कब्जा हो गया है। हमारा मानना है कि अगर हमारे देश के लोग कम से कम दो वर्ष फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्यों से दूर रहें तो यहां वातावरण अत्यंत सहज हो जायेगा।  भारत को व्यसनों में धकेलने वाले तब निराश हो कर चुप हो जायेंगे।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

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विवेकानंद जयंती पर सूर्य नमस्कार का आयोजन सराहनीय-हिन्दी चिंत्तन लेख


            आज विवेकानंद जयंती पर मध्य प्रदेश के विद्यालयों में सूर्य नमस्कार का आयोजन किया गया है।  यह एक अच्छा प्रयास है। सूर्य नमस्कार योगासनों में पद्मासन, वज्रासन तथा सर्वांगासन की तरह देह, मन तथा विचारों में दृढ़ तत्व स्थापित करता है।  विधि के अनुसार करने पर सूर्य नमस्कार करने वाले साधक को स्वतः ही अपने अंदर तेज के संचालन का अनुभव होता है। हमारा मानना है कि इस तरह का आयोजन प्रतीकात्मक होने के साथ ही नियमित अभ्यास का विषय होना चाहिये। सूर्य नमस्कार से तन, मन और विचारों की व्याधियों से मुक्ति मिलती है।  व्याधियों से मुक्त व्यक्ति ही समाज में सम्मान प्राप्त कर सकता है।

            वैसे तो भारत में योग विद्या के जानकार कम नहीं है पर एक शिक्षक के रूप में अपने छात्र को पारंगत करने की कला सभी को नहीं आती।  अनेक पेशेवर तथा स्वयंसेवी योग शिक्षक हमारे देश में सक्रिय हैं। भारतीय योग संस्थान इस विषय में बिना प्रचार के काम करता है और उससे जुड़े निष्काम योग शिक्षक बिना किसी लाभ के लिये न केवल स्वयं अभ्यास करते हैं वरन् अपने शिविर में अन्य लोगों को अभ्यास कराने का भी आनंद लेते हैं।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है

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युध्येताभृतमत्यर्थ तदात्वे कृतवेतन।

न व्याधितमकर्मण्यं व्याधितं परिभूयते।।

            हिन्दी में भावार्थ-युद्ध के समय वेतन देने से सेना उत्साह से युद्ध करती है।  जिनकी देह में व्याधियां है वह किसी कर्म के योग्य नहीं रहते।  व्याधि वाले मनुष्य का सम्मान भी नहीं होता।

            अनेक लोग शैक्षणिक संस्थानों में योग साधना के विषय का अभ्यास को धार्मिक नज़रिए से देखते हैं।  हमें उनसे बहस में नहीं उलझना वरन् देश में समाज को स्वास्थ्य, नैतिक, वैचारिक तथा ज्ञान की दृष्टि से गिरते स्तर से बचाने का प्रयास करना है। हम मनुष्य का भौतिक स्वरूप भले ही स्थिर देख रहे हैं पर आंतरिक दृढ़ता तथा मानसिक संवेदनाओं के अप्रकट भंडार की कमी बहुत अनुभव होने लगी है।  दैहिक व्याधियों का बढ़ता प्रकोप प्रकट है पर मानसिक कमजोरी नहीं दिख रही।  ऐसे में किसी से अन्य व्यक्ति के सम्मान की आशा करना व्यर्थ है उसे व्यक्ति से नहीं की जा सकती जिसके अंदर आत्मसम्मान का भाव ही नहीं है।  जीवन के प्रति आत्मविश्वास का अभाव सभी में दिख रहा है।

            हम जैसे नियमित योग तथा ज्ञान साधक अपने अनुभव के आधार पर योगाभ्यास को जीवन जीने की ऐसी कला मानते हैं जिसका अन्य कोई विकल्प नहीं है।  इसलिये यह अपेक्षा करते हैं कि मध्यप्रदेश के विद्यालयों मेें सूर्य नमस्कार के बाद भी छात्र घर पर इसका अभ्यास कर अपना जीवन लक्ष्य प्राप्त करने का प्रयास करेंगे। सभी को विवेकानंद जयंती तथा सूर्य नमस्कार के अभ्यास पर बधाई।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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ताकतवर राष्ट्र के लिये व्यसनों का त्याग जरूरी-हिन्दी चिंत्तन लेख


            भारत एक विशाल प्राकृतिक संपन्न देश है। विश्व में क्षेत्रफल की दृष्टि से अनेक बड़े देश हैं पर उनमें प्राकृतिक और मानवीय संसाधन की दृष्टि से अनेक दोष हैं। भारत में सभी प्रकार के खनिज पाये जाते हैं तो जलसंपदा भी यहां बहुत है।  उनके दोहन के लिये जनसंपदा भी कम नहंी है। अनेक देश बड़े हैं और उनकी उनके पास प्राकृत्तिक संपदा भी बहुत है पर जनसंख्या अधिक नहीं है जिससे वह उसका पूर्ण दोहन नहीं कर पाते।  अनेक देशों का क्षेत्रफल बड़ा है पर वहां जमीन में न पानी है  और न ही खनिज संपदा।  उन बड़े  देशों में संपन्नता है पर भारत जैसा अध्यात्मिक ज्ञान नहंी है। भारत विश्व मे अपने अध्यात्मिक ज्ञान के कारण भी जाना जाता है।  यही कारण है कि भारत के विरोधी राष्ट्र उस पर शासन करने के लिये यहां भेदनीति अपनाते हैं। अध्यात्मिक ज्ञान के कारण  आम भारतीय धर्मभीरु व्यक्ति  बौद्धिक रूप से दृढ़ होता है इसलिये यहां के समाज पर शासन सहज नहीं है।  यही कारण है कि यहां नये मानसिक भौतिक तथा मानसिक व्यसन निर्यात किये जाते हैं।

            कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म अफीम की तरह होता है।  यह पाश्चात्य विचाराधाराओं पर पूर्णतः सही लगता है भारत में धर्म निजी नियंत्रण बनाये रखना वाला सिद्धांत है।  भारत में विदेशी विचाराधाराओं की तरह मार्क्सवाद भी आया है।  इसके मानने वाले समाज सेवा को व्यसन की तरह करते हैं।  उन्हें भारतीय अध्यात्मिक दर्शन अफीम का तत्व लगता है।  इतना ही नहीं मार्क्स के शिष्य हर विदेशी राजनीतिक, धार्मिक तथा सामाजिक विचार को भारतीय विचाराधाराओं से  श्रेष्ठ मानते हैं।  अंग्रेंजोें ने भारत को गुलाम बनाये रखने के लिये ऐसी शिक्षा पद्धति अपनाई कि आज हर शिक्षार्थी नौकरी यानि गुलामी के लिये तत्पर रहता है।  उससे भी काम न चला तो क्रिकेट जैसा खेल थोप दिया। भारत की बुद्धि का हरण उन्होंने इस कदर किया कि फिल्म और क्रिकेट के नायक यहां भगवत्स्वरूप प्रचारित हो रहे हैं।  प्रचार माध्यम उनकी आड़ में ढेर सारी आय अर्जित कर रहे हैं। धर्म, अर्थ और समाज सेवा के क्षेत्र में सक्रिय शिखर पुरुष धनार्जन के नशे में लग ेहुए हैं तो आम लोग मनोरंजन के दास हो गये हैं।

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि

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स्फीतं त्रीणि बलं शक्यमाधातुं पानवर्त्मनि।

हृस्वप्रयासव्यायामादितिसैन्यं समुत्पतेत्।।

            हिन्दी में भावार्थ-शत्रु की सेना अगर बल में अधिक हो तो उसे मद्यपान के व्यसन में लगाकर  व्यायाम में लग होने पर उसे आक्रमण कर दें।

            अभी हाल ही में भारत में बढ़ते मादक द्रव्य पर समाचार आये थे।  चार दिन चर्चा चली पर नतीजा वही ढाक के तीन पात!  अंग्रेजों ने यहां शासन कर यह समझ लिया था कि यहां का अध्यात्मिक ज्ञान जितना प्रबल उतना ही यहा लोग मानसिक रूप से कमजोर है।  उनकी कमजोरियों पर  अनुसंधान के कारण ही यहां के ऋषि, मुनि और तपस्वियों ने महान ज्ञान स्थापित किया। इस ज्ञान के रहते भारतीयों पर शासन कठिन है इसलिये उन्होंने विदेशी विचारधाराऐं यहां प्रवाहित कीं।  अंग्रेजों ने इसलिये ही अपनी शिक्षा पद्धति, खेल तथा मनोरंजन के साधन के रूप में स्थापित किया ताकि यहां से जाने के बाद भी उनका प्रभाव बना रहे।  इधर यह भी चर्चा होती रही कि फिल्मों के प्रदर्शन, क्रिकेट में सट्टे और मादक द्रव्यों से आतंकवादी संगठन पैसा अर्जित कर रहे हैं फिर भी हमारे देश के लोग मनोरंजन के दासत्व से मुक्त नहीं हो पा  रहे।  एक तरह से मद्यपान-फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्य-इस देश पर विदेशी कब्जा हो गया है। हमारा मानना है कि अगर हमारे देश के लोग कम से कम दो वर्ष फिल्म, क्रिकेट और मादक द्रव्यों से दूर रहें तो यहां वातावरण अत्यंत सहज हो जायेगा।  भारत को व्यसनों में धकेलने वाले तब निराश हो कर चुप हो जायेंगे।

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महापुरुष का सम्मान विश्व रत्न के रूप में होता है-हिन्दी चिंत्तन लेख


            यह विचित्र बात है कि जब भी किसी शासकीय पुरस्कार की बात आती है विवाद प्रारंभ हो जाते हैं। देश में केंद्र तथा राज्य सरकारें साहित्य कला तथा खेल के क्षेत्र में पुरस्कार देती रहती हैं।  यह पुरस्कार सम्मानीय लोगों को उनके क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के रूप में दे दिया जाता है-सिद्धांतः ऐसा माना जाता है। यह अलग बात है कि बाद में उन पर अनेक प्रकार के विवाद प्रारंभ हो जाते हैं। हमारे यहां अनेक निजी प्रतिष्ठानों की तरफ से भी प्रदान किये जाने वाले-खासतौर से साहित्य और पत्रकारिता के पुरस्कार-विशुद्ध रूप से प्रबंध कौशल से निर्धारित होते हैं।

            सात वर्ष पूर्व हमारे अध्यात्मिक ब्लॉग पर एक बार एक ब्लॉग मित्र ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि मनुस्मृति पर लिखने के बाद यह आशा आप कभी न करें कि आपका कभी सम्मान नहीं होगा।  हमें हसंी आ गयी।  जब युवावस्था में लिखते थे तो सम्मान की चाह होती थी पर अंतर्जाल पर लिखना प्रारंभ करते समय सम्मान का मोह समाप्त हो चुका था।  हम तो यही मानकर चलते हैं कि दो लोग भी हमारा पढ़कर प्रसन्न हुए तो वही हमारा सम्मान है।  स्थानीय स्तर पर हमसे सम्मान लेने के सर्शत प्रस्ताव आये पर उनमें हमारी रुचि नहीं रही।  इधर अध्ययन चिंत्तन और मनन की सतत प्रक्रिया के साथ ही योगाभ्यास ने हमारे इस दृष्टिकोण को मजबूत कर दिया कि हमारी अपनी सोच भी कम अनोखी नहीं है।  यह लेख हम आत्मप्रवंचन के लिये नहीं लिख रहे वरन् अभी भारत रत्न के लिये श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और श्री मदन मोहल मालवीय का नाम चयनित होने पर विवाद हो रहा है।  इस पर जारी चर्चाओं में अनेक लोग कुछ ऐसे महापुरुषों को भारत रत्न न देने पर प्रश्न उठा रहे हैं जो विश्व रत्न हैं-यथा, श्रीगुरू नानक देव, संत कबीर, कविवर रहीम, संत विवेकानद आदि। इस पर केवल हंसा ही जा सकता है।

            वैसे तो श्रीअटल बिहारी वाजपेयी और स्वर्गीय मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न का विरोध करना ही नहीं चाहिये अगर करना ही है तो ऐसे महापुरुषों का नाम नहीं लेना चाहिये जिनकी छवि अध्यात्मिक रूप से इतनी उज्जवल हो कि उन्हें पूरा विश्व ही रत्न मानता है।  इस चर्चा में प्रगतिशील और जनवादी विद्वानों का दर्द सामने आ ही गया है क्योंकि उनकी दृष्टि से यह दोनों महानुभाव दक्षिणपंथियों के नायक हैं। उनके लिये सबसे ज्यादा दर्दनाक तो इनके साथ जुड़े हिन्दु तत्व जुड़ा होना है जिसे दक्षिण पंथ का पर्याय माना जाता है।  यही वजह है कि कथित प्रगतिशील और जनवादी विद्वानों में मन में यह टीस तो होगी कि आगामी पांच वर्ष उन्हें अपनी विचारधारा के लिये केंद्रीय सम्मान की आशा छोड़नी पड़ेगी। यह टीस उनके रचनाकर्म को प्रभावित कर सकती है क्योंकि निष्काम कर्म के सिद्धांत की उनको समझ नहीं है जो कि श्रीमद्भागवत गीता उनकी दृष्टि से अध्ययन के लिये वर्जित ग्रंथ है।

            माननीय श्री अटल बिहारी वाजपेयी हमारे ग्वालियर शहर में ही जन्मे हैं इस कारण उनसे हमारा स्वाभाविक लगाव है।  बाल्यकाल में हमने जिन दो नेताओं का नाम हमने सुना था उनमें एक थे स्वर्गीय प्रधान मंत्री श्री जवाहर लाल नेहरु अैार जनसंघ के नेता श्री अटल बिहारी वाजपेयी।  श्री लालकृष्ण आडवाणी के हम सहभाषी जातीय समुदाय से हैं पर उनका  नाम कम से कम दस वर्ष बाद सुना था। हमारे कुल परिवार के सभी वरिष्ठ सदस्य अटल बिहारी का नाम श्रद्धा से लेते थे।  अनेक लोगों को यह भ्रम है कि सिंधी भाषी होने के कारण इस भाषा जाति के सदस्य इन दोनों महानुभावों की पार्टी के समर्थक रहे हैं पर ऐसी सोच अज्ञान का प्रमाण ही है। यही कारण है कि हम जातिवाद के आधार पर किसी समीकरण पर विचार नहीं करते जैसा कि दूसरे लोग बताते हैं। दरअसल अटल बिहारी की भाषण शैली ऐसी रही है कि उनको किसी भी जाति या भाषा के लोग आत्मीय समझने लगते हैं और यही गुण उनको रत्न रूप प्रदान करता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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स्मृतियों और संस्कार एक ही रूप-पतंजलि योग साहित्य


            आमतौर से सामान्य भाषा में स्मृति तथा संस्कार एकरूप नहीं होते।  स्मृतियों को पुराने विषय, व्यक्ति, दृश्य अथवा अनुभूतियों के स्मरण का भंडार माना जाता है जबकि संस्कार मस्तिष्क में स्थापित मानवीय व्यवहार के स्थापित सिद्धांतों के रूप में समझा जाता है। पतंजलि योग का अध्ययन करें तो लगता है कि संस्कार स्मृति का ही एक भाग है।  जीवन व्यवहार के सिद्धांत अंततः स्मृति समूह का ही वह भाग है जो मानव मस्तिष्क को प्रभावित करते हैं।

पतंजलि  योग सूत्र  में कहा गया है

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जातिदेशकालव्यवहितानामप्यानष्यानन्तर्य स्मृतिसंस्कारयोरेकरूपत्वात्।।


     हिन्दी में भावार्थ-पतंजलि योग सूत्र के अनुसार जाति, देश काल इन तीनों से संपर्क टूटने पर भी स्वाभाविक कर्म संस्कारों में बाधा नहीं आती क्योंकि स्मृति और संस्कारों का एक ही रूप होता है।

     हमइस श्लोक में योग के संस्कारिक रूप को समझ सकते हैं। जब मनुष्य बच्चा होताहै तब उसके अपने घर परिवार, रिश्तेदारी, विद्यालय तथा पड़ौस के लोगों सेस्वाभाविक संपर्क बनते हैं।वह उनसे संसार की अनेक बातें ऐसी सीखता है जोउसके लिये नयी होती हैं। वह अपने मन और बुद्धि के तत्वों में उन्हेंस्वाभाविक रूप से इस तरह स्थापित करता है जीवन भर वह उसकी स्मृतियों मेंबनी जाती हैं।कहा भी जाता है कि बचपन में जो संस्कार मनुष्य में आ गयेफिर उनसे पीछा नहीं छूटता और न छोड़ना चाहिए क्योंकि वह कष्टकर होता है।

      यहीकारण है कि माता पिता तथा गुरुओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपनेबच्चों को अच्छी शिक्षा दें।संभव है बाल्यकाल में अनेक बच्चे उनकी शिक्षापर ध्यान न दें पर कालांतर में जब वह उनकी स्थाई स्मृति बनती है तब वहउनका मार्ग प्रशस्त करती है।इसलिये बच्चों के लालन पालन में मां कीभूमिका सदैव महत्वपूर्ण मानी गयी है क्योंकि बाल्यकाल में वही अपने बच्चेके समक्ष सबसे अधिक रहती है और इसका परिणाम यह होता है कि कोई भी मनुष्यऐसा नहीं है जो अपनी मां को भूल सके।

      इसलियेहमारे अध्यात्मिक संदेशों में अच्छी संगत के साथ ही अच्छे वातावरण में भीनिवास बनाने की बात कहीं जाती है।अक्सर लोग कहते हैं कि पास पड़ौस काप्रभाव मनुष्य पर नहीं पड़ता पर यह गलत है। अनेक बच्चे तो इसलिये ही बिगड़जाते हैं क्योंकि उनके बच्चे आसपास के गलत वातावरण को अपने अंदर स्थापित करलेते हैं।

      यही नहीं आज के अनेक माता पिता बाहर जाकर कार्य करते हैं और सोचते हैं कि उनका बच्चा उनकी तरह ही अच्छा निकलेगा तो यह भ्रम भी उनको नहीं पालना चाहिये क्योंकि किसी भी मनुष्य की प्रथम गुरु माता की कम संगत बच्चों को अनेक प्रकार के संस्कारों से वंचित कर देती है। ऐसे लोग सोचते हैं कि उनका बच्चा बड़ा होकर ठीक हो जायेगा या हम उसे संभाल लेंगे तो यह भी भ्रामक है क्योंकि जो संस्कार कच्चे दिमाग में स्मृति के रूप में स्थापित करने का है वह अगर निकल गया तो फिर अपेक्षायें करना निरर्थक है। युवा होने पर दिमाग पक्का हो जाता है और सभी जानते हैं कि पक्की मिट्टी के खिलोने नहीं बन सकते-वह तो जैसे बन गये वैसे बन गये। दरअसल हम जिससे संस्कार कहते हैं वह प्रारम्भिक काल में स्थापित स्मृतियों का विस्तार ही हैं इसलिये अगर हम अपेक्षा करते हैं कि हमारे बच्चे आगे चलकर वह काम करें जो हम स्वयं चाहते हैं तो उसकी शिक्षा पहले ही देना चाहिए। यह स्मृतियां इस तरह की होती हैं कि देश, काल तथा जाति से कम संपर्क रहने न बिल्कुल न होने पर भी बनी रहती हैं और मनुष्य अपने संस्कारों से भ्रष्ट नहीं होता है अगर किसी लोभवश वह अपना पथ छोड़ता भी है तो उसे भारी कष्ट उठाना पड़ता है और फिर अपने स्थान पर वापस आता है।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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नस्लीय गुणों को धार्मिक पहचान से ढंकने की कोशिश बेकार-पाकिस्तान के पेशावर पर आतंकवादी हमले पर हिन्दी चिंत्तन लेख


            पेशावर में सैन्य स्कूल पर हमले में घायल एक बालक ने पलंग पर सोते हुए दिये गये साक्षात्कार में कहा-‘‘मैं बदला लूंगा। उनकी पूरी नस्ल मिटा दूंगा।’

            वह बालक था जिसमें ऐसे विचार आप नहीं आ सकते।  उसके विचारों में कहीं न कहीं उसके परिवार की सोच परिलक्षित हो रही थी। तय बात है कि उसके माता पिता, दादा दादी, नाना नानी अथवा चाचा चाची में किसी विशेष नस्ल के प्रति दुराग्रह रहा होगा जो उसकी जुबान में प्रकट हो रहा था।  जब वह नस्ल मिटाने की बात कर रहा था तो वह जानता था कि वह जिन्होंने उस पर हमला किया वह किसी दूसरी नस्ल जाति, भाषा या क्षेत्र से जुड़े हैं।  भारतीय प्रचार माध्यम तथा यहां के विद्वान उसके इस वचन से दृष्टि ज्यादा देर तक नहीं रख पाये पर सच यह है कि धार्मिक विचाराधाराऐं क्षेत्र, जाति, भाषा तथा व्यवसायिक आधारों पर बने सामाजिक उपविभाजनों की सत्यता से परे नहीं ले सकीं हैं यह अब प्रमाणित हो गया है।

            मध्य एशिया में आतंकवादियों से निकाह न करने पर 150 महिलाओं को मार दिया गया।  यह खबर पाकिस्तान के पेशावर में आतंकी हमले में 141 बच्चों को मारने की घटना के तत्काल बाद हुई।  दोनों ही घटनाओं में मरने और मारने वाले एक ही धार्मिक विचाराधारा से जुड़े थे-यह तथ्य सतही बौद्धिक चिंत्तन करने वालों के लिये महत्वपूर्ण नहीं हो सकता पर तत्व ज्ञान के साधक इसमें बहुत कुछ देख सकते हैं।  कथित धार्मिक विचाराधाराऐं आकाश से प्रकट बताकर लोगों पर थोपी जाती हैं जबकि धरती पर रहने वाले सभी जीवों की मानसिकता दूसरी होती है।  हम कहते हैं कि सर्वशक्तिमान ने संसार बनाया है तो याद रखें उसने यहां विभिन्न प्रकार के जलचर, नभचर और थलचर जीवों की रचना की है। आकाश में उड़ने वाले सभी कबूतर नहीं होते वरन, कौआ, चिड़िया, गिद्द तथा उल्लू भी होते हैं। सभी धरती पर आते हैं।  जलचरों में मगरमच्छ भी होते हैं तो मछलियां भी वहां विचरती हैं। जलचर भी कभी धरती पर चले आते हैं।  थलचरों को धरती पर विचरना ही है पर उनमें भी नस्ल होती है-गोरे, काले और गेहुए रंग के चेहरे ही नस्ल की पहचान होते हैं यह आवश्यक नहीं है।  वरन् जलवायु से भी उनमें नस्लीय वैविधता आती है जिसे जानने के लिये तत्व ज्ञान और विज्ञान के सूत्रों की जरूरी है।

            दो नस्लें तो स्पष्ट रूप से ही होती हैं-असुर और दैवीय।  उसके बाद जलवायु के आधार पर विभाजन होते हैं। फिर भाषा, जाति, तथा क्षेत्र के विभाजन भी सामने आते हैं।  कृत्रिम धार्मिक विचाराधाराओं के आधार पर मनुष्य जाति को समूहबद्ध करने की योजनायें काम नहीं करतीं यह अब तय हो गया है। हम यहां धार्मिक विचारधाराओं के आधार पर समूहों को देखने की कोशिश की चर्चा कर रहे हैं जिनके आधार पर मनुष्य समाज को संचालित करने के प्रयास नाकाम हो चुके हैं।  इसके विपरीत इन धार्मिक विचाराधाराओं की रेत में आज के विद्वान शुतुरमुर्ग की तरह  नस्लीय अहंकार की वजह से चल रहे संघर्षों से मुंह छिपा रहे हैं।

            प्रचार माध्यमों में हमलावरों के घटना से पूर्व का चि़त्र देखने से पता चलता है कि वह पाकिस्तान की कथित आधुनिक सभ्रांत सभ्यता से अलग वह प्राचीन पद्धति से जीने वाले लोग हैं। कहने को वह भी पाकिस्तान की राजकीय तौर से मान्यता प्राप्त धार्मिक विचाराधारा को मानने वाले थे पर कहीं न कहीं उनके अंदर अपने साथ अन्याय, भेदभाव तथा सामान्य जीवन सुविधाओं के अभाव के प्रति एक असंतोष था जो इस हमले में रूप में प्रकट हुआ। हमलावरों के समर्थक कहते हैं कि यह वजीरिस्तान में में पाक सेना की हमले का जवाब हैं जिसमें हमारे बच्चे मर रहे हैं।  स्पष्टतः पाकिस्तान के दूर दराज के उन इलाकों पर मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की नजर नहीं गयी जहां पाकिस्तान का पंजाब में रहने वाला सभ्रांत वर्ग अपना सम्राज्य बनाये रखने के लिये अपनी शक्ति का उपयोग धर्म तथा राज्य के नाम पर कर रहा है। पाकिस्तान में एक तरह से नस्लीय युद्ध चल रहा है।  अगर बालक किसी नस्ल को मिटाने की बात कर रहा है तो कहीं न कहीं वह समूचे पाकिस्तान के सभ्रांत वर्ग मे मौजूद विचार को ही प्रकट कर रहा है जिसके अंदर नस्लीय भाव मौजूद है।

            इससे एक बात तय हो गयी कि मनुष्य की दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति उसका सबसे बड़ा ध्येय होता है। उसमें बाधा पड़ने पर उसमें नाराजगी आती है और तब वह प्रतिकूल होकर कदम उठाता ही है।  भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में मनुष्य की पहचान बताई गयी है।  यही कारण है कि विश्व में सत्य की निकट सबसे अधिक हमारी ही विचाराधारा मानी जाती है। पाकिस्तान का अस्तित्व चूंकि भारत और यहां से प्रवाहित धर्मों का विरोध पर ही टिका है इसलिये उससे किसी सार्थक बदलाव की आशा करना ही व्यर्थ है। वैसे भी पाकिस्तान एक देश नहीं वरन् विभिन्न नस्लीय समुदायों और भाषाओं के समूहों पर टिका है जिसने धार्मिक विचाराधारा के आधार पर एकरूप बनने का निरर्थक प्रयास किया है।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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इतिहास के पात्र बदलते हैं पर अध्यात्मिक प्रवृत्तिया स्थिर नहीं-हिन्दी चिंत्तन लेख


            विषयों में निर्लिप्त भाव अपनाने से आशय क्या है? हमने आज तक अनेक कथित विद्वानों को सुना पर लगता नहीं है कि वह इसे समझे जो दूसरे को समझा पायें। हमने श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन कर यह समझा है कि किसी व्यक्ति, विषय वस्तु के संपर्क में आना बुरा नहीं है वरन् निरंतर उसका स्मरण करना ही लिप्तता है। श्रीमद्भागवत गीता में गृहस्थ धर्म का पालन करने हुए भी योग प्राप्ति संभव बताई गयी है।  ऐसे में यह संभव नहीं है कि विषयों से संपर्क न रखना ही निर्लिप्त भाव माना जाये। हमारे अनुसार तो लिप्तता का आश लिपटने से है। अपने दैहिक आवश्कता की पूर्ति के बाद संबंधित विषय से विमुख होना ही निर्लिप्पता है।  मुख्य बात यह है कि हम अपनी इंद्रियों का सांसरिक विषयों से संपर्क तो  रोक नहीं सकते  पर हम अपने मस्तिष्क में निरंतर भौतिक संसार के चिंत्तन से परे रहकर निर्लिप्त रह सकते हैं।

            हमने पशु पक्षियों का जीवन देखा होगा।  पेट भरने के बाद बचे भोजन का पशु पक्षी  त्याग कर देते हैं, पर मनुष्य उसे बचाकर रख देता है-यह लिप्तता का भाव है। सिंह एक बार किसी मृग कर शिकार कर लेता है तो उसके पास चाहे कितने भी अन्य मृग विचरण करें वह उनसे मुंह फेर लेता है।  गाय को एक बार रोटी दे दी जाये तो वह उस दरवाजे का त्याग कर चली जाती है।  चिड़िया जमीन पर रखे दानों का सेवन करती है पर पेट भर जाने पर वह उसे छोड़ जाती है।  कोई भी पशु पक्षी संग्रह नहीं करता यही उसका निर्लिप्त भाव है। अनेक पशु पक्षी अपने बच्चे के युवा होने पर उसका त्याग कर देते हैं। कभी कभी तो यह लगता है कि वह बच्चे उनकी स्मृति से ही बाहर हो गये हैं।  मनुष्य ही नहीं वरन् सृष्टि के समस्त जीवों में अपनी संतान के प्रति लगाव देखा जाता है मगर अन्य जीव अधिक समय तक न संतान साथ रखते हैं न वह रहती है।  पशु पक्षियों का यही उन्मुक्त भाव निर्लिप्त भाव है।

            सांसरिक विषयों से देह के भरण पोषण से अधिक संपर्क रखना तो ठीक पर उनका निंरतर चिंत्तन करने से उपभोग के प्रति अनेक प्रकार  की अनेक नयी  कामनायें मन में पैदा होती हैं। इनमें से कई पूर्ण होती है तो कई में नाकामी हाथ आती है।  नाकामी से क्रोध और क्रोध से मूढ़ भाव पैदा होता है। मूढ़ भाव से ज्ञान शक्ति का हृास होता है और उसके बाद मनुष्य अपनी स्थिति से गिर जाता है।

            हम अक्सर यह कहते हैं कि ज्ञानी कभी पतन को प्राप्त नहीं होता पर सच यह है कि भौतिकता या माया का जाल इतना विकट है कि बड़े से बड़ा ज्ञानी भी उसमें फंस सकता है। ज्ञान किसके पास कितना है यह प्रश्न महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि यह देखना चाहिये कि उसमें धारणा शक्ति कितनी है।  जब मनुष्य सांसरिक विषयों में अत्यंत रुचि के साथ जुड़ता है तब उसके पास तत्व ज्ञान कितना भी हो धारणा शक्ति के हृास के साथ वह पतन की तरफ जाता ही है।

            अभी हाल ही में एक कथित संत ऐसे ही मायावी जाल में फंस गया।  हमने उसके प्रवचन सुने। सच बात तो यह कि उसमें ज्ञान की कोई कमी नहीं थी।  उसने अनेक प्रकार के उपाय कर बड़ा आश्रम बनाया। उस आश्रम में उसने अपने भक्तों के रहने, खाने और सत्संग के लिये बढ़िया सुविधा बनायी। ज्ञान में कमी नहीं थी पर अपनी या दूसरे की देह का चिंत्तन अंततः एक सांसरिक विषय है।  आश्रम के लिये तमाम चिंत्तायें उन संत के मन में रही होंगी। इतना ही नहीं जब भक्तों के सुविधा के लिये चिंता करेंगे तो अपने लिये भी क्या कम रखते होंगे? न्यायालय के एक प्रकरण में निंरतर उपस्थित नहीं रहे तो उनके विरुद्ध अवमानना का नया विषय उपस्थित हो गया। इधर सांसरिक विषयों में भारी उपलब्धि का अहंकार उनके मन में आने से न्यायालय की शक्ति का ज्ञान लुप्त हो गया होगा।  परिणाम यह हुआ कि न्यायालयीन आदेश पर पुलिस ने आश्रम घेरा।  उनके कथित शिष्यों ने प्रहरियों पर हमला कर दिया।  आपाधापी में छह अन्य लोग भी मर गये। अब उन कथित संत को  पुराने प्रकरण से अधिक तो नये प्रकरण भारी पड़ने वाले हैं। हमारे प्रचार माध्यम संतों के ज्ञान और कार्यों पर प्रश्न उठा रहे हैं।  यह कैसे हुआ? संत ने ही इसका जवाब भी दिया कि‘मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गयी थी?’’

            वास्तव में यह एक ऐसे ज्ञानी की स्वीक्रोक्ति है जिससे लोभ और लालच ने अपराध के मार्ग पर पहुुंचा दिया।  हमारा तो पहले से ही निष्कर्ष था कि उनके पास ज्ञान हमेशा ही रहा है पर लगता है कि सांसरिक विषयों ने उनकी धारण शक्ति को क्षीण कर दिया। इसी घटना के परिप्रेक्ष्य में हमारा यह भी निष्कर्ष है कि प्रथ्वी के भूगोल और जीव की प्रकृत्ति में कोई बदलाव नहीं होता। इतिहास बदल जाता है हम उससे भ्रमित हो जाते है।  रामायण में श्रीसीता ने श्रीराम जी को एक कथा सुनाई थी जो इससे मिलती जुलती है। सतयुग में  एक महान तपस्वी थे।  उनके तप से इंद्र व्यथित हो उठे। उनको लगा कि यह तो उनका सिंहासन ही हर लेगा।  एक दिन वह एक योगी का रूप धर कर उस तपस्वी के पास आये और उन्हें अपना फरसा हाथ में देकर बोले-हम तपस्या करने जा रहे हैं जब तक लौटकर आयें आप इसकी रक्षा करें।’’

            परोपकार में तत्पर रहने वाला वह तपस्वी प्रसन्न हो गया और इंद्र चले गये। अब तपस्वी का मन तो उस फरसे में ही रहने लगा।  स्थिति यह कि ध्यान में भी वह फरसा बसने लगा।  एक दिन जिज्ञासावश उन्होंने अपने हाथ में उठाकर देखा तो उन्हें लगा कि अपनी रक्षा के लिये यह अत्यंत उपयुक्त है। बस फिर क्या तो इस तरह के चिंत्तन में ऐसा फंसे कि  धीमे धीमे हिंसा में ही लीन हो गये और अंततः उनको उसका दंड भोगना ही पड़ा।

            हमने इन कथित संत और रामायणकालीन उस तपस्वी के जीवन में समानता देखी और यह माना कि अध्यात्मिक दर्शन की दृष्टि से प्रथ्वी का भूगोल और जीव की स्वाभाविक प्रकृत्तियां नहीं बदलती यह अलग बात है कि एतिहासिक घटनायें पात्र का नाम बदलकर प्रस्तुत होती हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

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व्यवसायिकता से धर्म नहीं चलता-हिन्दी चिंत्तन लेख


            भारतीय अध्यात्मिक दर्शन तथा धर्म को  आमजन की निष्क्रियता से अधिक कथित साधु, संतों और योगियों की अति सक्रियता ने किया है। श्रीमद्भागवत गीता के दर्शन से काम, क्रोध , लोभ, मोह तथा अहंकार छोड़ने का उपदेश देने वाले इन पेशेवर अध्यात्मिक ने जितना संसास के विषयों का उपभोग किया है उतना तो आमजन भी नहीं करते।  एक बात यह हम आपको बता दें कि श्रीमद्भागवत गीता में कोई भी चीज छोड़ने या पकड़ने को नहीं कहा गया है।  त्रिगुणमयी माया में बंधी देह के साथ मन, बुद्धि और अहंकार की प्रकृत्तियों का चक्र बताया गया है।  कर्म के भेद बताये गये हैं।  इन कर्मों की प्रकृत्तियां क्या हैं यह तो बताया गया है पर साथ ही यह स्पष्ट कर दिया है कि उनके बिना अपनी इस संसार में कोई गति नहीं है।  दूसरी बात यह कि काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार जैसे दोष इस देह के रहते छूट ही नहीं सकते। अलबत्ता तत्वज्ञान से उनके जाल में फंसकर संकट से बचने का उपाय किया जा सकता है।  भारत के कथित संत समाज, अर्थ, प्रकृत्ति तथा विज्ञान से भरे श्रीगीता के वचनों को रटते हैं पर स्वयं समझ नहीं पाते। हम अहंकार की बात बता दें। किसी व्यापारी ने दुकान खोली। वह तत्वज्ञानी है पर अपने यहां रखे सामान के स्वामी होने का बोध उसे रखना ही पड़ेगा ताकि उसके लिये वह ग्राहकों से मूल्य ले सके।  स्वामी होने का यह बोध अहं की ऐसी सीमा है जहां तक उसे जाना ही होगा।  ग्राहक से पैसा लेना और उसे वस्तु देना एक सहज सांसरिक प्रक्रिया है। जहां व्यापारी इस प्रक्र्रिया को स्वयं प्रेरणा से संपन्न समझेगा वहां से अहंकार की वह सीमा प्रारंभ होती है जो दोष पैदा करती है।    उसी तरह काम, क्रोध, लोभ तथा मोह भी त्याज्य नहीं वरन् नियंत्रण योग्य हैं।  आप पूरी गीता पढ़ लें वहां कुछ छोड़ने या पकड़ने के लिये नहीं कहा गया।  आप किस कर्म से क्या बनते हैं-इसकी पहचान श्रीगीता के अध्ययन करने पर ही हो सकती है।

            हमारे देश में अनेक व्यवसायिक संत अपने सांसरिक अपराधों की वजह से जेल यात्रा पर जाते हैं तो उनके अनुयायी विलाप करते हैं। आजकल एक संत की चर्चा है।  सरकारी नौकरी से निकाले गये यह संत आजकल अपने तीना लाख भक्तों की वजह से भगवान बने फिर रहे हैं।  पीछे भारतीय संविधान के रक्षक लगे हैं। उनके कुछ ऐसे अपराध हैं जिसकी वजह से उन्हें जेल भेजा जा सकता है। उनके हमने प्रवचन सुने।  मोह, माया, क्रोध, लोभ तथा अहंकार के जाल में आमजन की अपेक्षा अधिक बुरी तरह यह संत फंसे दिखते हैं।  उनके शिष्य अपने भगवान की रक्षा के लिये बंदूकें ताने खड़े हैं। टीवी पर पूरा दृश्य देखकर कहीं से भी भारतीय धर्म और अध्यात्म का संबंध इससे  नहीं दिखाई देता।  टीवी चैनल पर चल रही बहस में अनेक विद्वान इन संत के कृत्यों का भारतीय धर्म तथा अध्यात्म के संदर्भ में इसलिये अध्ययन कर रहे हैं क्योंकि वह प्राचीन ग्रंथों की बात करते हैं।  इस तरह के प्रवचन तो हमारे देश में कदम कदम पर करने वाले मिल जायेंगे।  अनेक लोग तो इन्हीं प्रवचनों से अपनी रोजी रोटी चलाते हैं-कुछ ज्यादा हिट हुए तो महलनुमा आश्रम बनाने के साथ ही अधिकारीनुमा शिष्य उनके संचालन में नियुक्त करते हैं।

            ऐसा सदियों से चल रहा है। अनेक लोग तो केवल इसलिये धर्म व्यवसाय में आ जाते हैं क्योंकि उन्होंने अपने समय में इसके सहारे समाज में चमक कायम करने वाले लोगों की छवि देखकर वैसा बनने का मन बनाया होता है।  धर्म का अर्थ समझने से अधिक उसे विक्रय की वस्तु बनाने की उनकी ही इच्छा होती है।  सभी सफल नहीं होते जो सफल होते हैं वह राजसी ठाठबाट से रहते हैं।  असफल लोग भी अधिक नहीं तो रोज की रोटी का इंतजाम कर ही लेते हैं। मध्यम रूप से सफल लोग सुविधायुक्त आश्रम आदि बनाकर जीवन बिता देते हैं।

            दरअसल हम यहां श्रीमद्भागवत गीता तथा गुरुग्रंथ साहिब दोनों की चर्चा करना चाहेंगें। श्रीकृष्णजी ने अपने अगले जन्म की बात कहीं नहीं कही बल्कि यह कहा कि जो इस ग्रंथ का अध्ययन करेगा वह इस संसार में सहजता से विचरण करेगा। उन्होंने गुरू सेवा की बात कहीं मगर उसके लिये जो अध्यात्मिक ज्ञान दे। वह न मिले तो श्रीगीता का अध्ययन कर भी जीवन संवारा जा सकता है।  उसी तरह सिख पंथ के  दसवें गुरू श्री गोविंद सिंह जी ने भी गुरूग्रंथ साहिब को ही  गुरु मानने की प्रेरणा दी। उन्होंने एक तरह से गुरू की दैहिक पंरपरा का समापन किया।  गुरूग्रंथ साहिब भी श्रीगीता की तरह एक दैवीय ग्रंथ है-यह भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान साधक मानते हैं।  इधर जब हम अपने देश विशेषतः पंजाब तथा हरियाणा के क्षेत्र की अध्यात्मिक तथा धार्मिक स्थिति की तरफ देखते हैं वहां दैहिक गुरु की पंरपरा बनी हुई है।  अनेक  ऐसे पंथ इसी क्षेत्र से निकलकर आये हैं जो मूलतः सिख धर्म से प्रभावित दिखते हैं पर उनके अनुयायी पवित्र ग्रंथों को गुरु मानकर चलने में असहज अनुभव करते हैं।  उन्हें लगता है कोई दैहिक गुरू उन्हें कर्ण प्रिय शब्द कहकर बहलाये।  ऐसे स्थान बनाये जिसका पर्यटन की तरह इस्तेमाल किया जा सके। सच बात तो यह है कि यह अनुयायी धर्म से अधिक उससे मन बहलाने में अधिक रुचि रखते हैं।  इसी भाव का लाभ पेशेवर संत उठाते हैं।

            इन पेशेवरों से आदर्श स्थापित करने की आशा करना उसी तरह ही व्यर्थ  जैसे किसी दुकानदार से अपनी वस्तु बिना लाभ के मिलने की करते हैं। जो लोग ऐसे गुरुओं के अनुयायी नहीं है वह धर्म के नाम पर तमाशे से दुःखी होते हैं उन्हें ऐसी घटनाओं पर अधिक नहीं सोचना चाहिये।

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दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
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शरीर धरती है जिसमें अच्छे बीज बोयें-गुरु ग्रंथ साहिब के आधार पर चिंत्तन लेख


            अनेक लोगों में अध्यात्मिक भाव है प्राकृतिक रूप से विद्यमान होता है पर कभी उनका ध्यान इस तरफ नहीं जाता।  विषयों के रसस्वादन से उत्पन्न विषरूप मानसिक तनाव और अध्यात्मिक अमृत से दूरी के बीच वह झूलते हैं।  उन्हें यह समझ में नहीं आता कि वह कैसे सुख अनुभव करें।  जीवन के सुख का सारा सामान जुटाने के बावजूद उन्हें सुख अनुभव नहीं होता। ऐसे लोगों को एकांत चिंत्तन अवश्य करना चाहिये तब उनकी ज्ञानेंद्रियां स्वतः जागत हो जाती हैं। हमारे देश में को कथायें, सत्संग और धार्मिक त्यौहार इतने होते हैं कि लोगों में श्रवण, पठन पाठन, तथा दृश्यों से उनमें ज्ञान की धारा स्वाभाविक रूप से प्रभावित होती है।  अनेक लोग मंदिरों में जाकर भी अपनी आस्था को जीवंत बनाये रखने का प्रयास करते हैं जिससे उनके अंदर अध्यात्मिक तत्व तो बना रहता है फिर भी उन्हें शांति नहीं मिलती है। आजकल तो योग साधना का प्रचार भी हो रहा है जिसके अभ्यास से लोगों में देह तथा मन में पवित्र आती है।  फिर भी ज्ञान के अभाव का दृश्य दिखाई देता है।

श्री गुरू ग्रंथ साहिब में कहा गया है कि

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इहु तनु धरती बीजु करमा करो सलिल आपाउ सारिंगपाणी।

मन किरसाणु हरि रिदै जंमाइ लै इउ पावसि पटु निरवाणी।।

            हिन्दी में भावार्थ-हमारी मनुष्य देह धरती के समान है, एक किसान की तरह इसमें  शुभ भाव के बीज बोकर परमात्मा के नाम स्मरण रूपी पानी से खेती की जाये तो जीवन धन्य हो जाता है।

विखै विकार दूसट किरखा करे इन तजि आतमै होइ धिआई।

जपु तपु संजमु होहि जब राखे कमलु विबसै मधु अजमाई।।

            हिन्दी में भावार्थ-विषय विकार तो ऐसे पौद्ये जिनमें मन लगाना व्यर्थ है उन्हें उखाड़कर जप, तप और संयम के पौद्ये हृदय में कमल की भाव रूप वृक्ष उगायें जिनसे मधुर रस टपकता है।

            इसका कारण यह है कि सामान्य जनों में उस तत्वज्ञान को धारण करने की शक्ति का अभाव है जो केवल ध्याना, धारणा और समाधि से आती है।  परमात्मा की हार्दिक भक्ति से लाभ होता है पर हृदय और आत्मा का मिलन किस तरह हो, यह ज्ञान बहुत कम लोगों हैं। किसी की कहने या स्वयं के सोचने से हार्दिक भक्ति नहीं हो पाती।  इसके लिये यह आवश्यक है कि यह बात समझ ली जाये कि संसार के विषयों से हम सदैव संपर्क नहीं रख सकते।  हमें जीवन में जो सुख सुविधायें मिलती हैं वह हमारा अध्यात्मिक लक्ष्य नहीं होती। अनेक लोगों ने आकर्षक भवन बनाये हैं।  उनमें पेड़ पौद्ये और बाग लगे होने के साथ ही फव्वारी भी होते हैं।  अगर कोई लघु श्रेणी का व्यक्ति देखे तो आह भरकर रह जाये पर इस सच को सभी जानते हैं कि ढेर सारी भौतिक उपलब्धियों के बावजूद संपन्न लोग सुख का अनुभव नहीं कर पाते।

            इसका एक ही तरीका है कि अध्यात्मिक अभ्यास के समय सांसरिक विषयों के प्रति एकदम निर्लिप्पता का भाव हृदय में लाया लाये।  कहने में सहज लगने वाली बात प्रारंभ में अत्यंत कठिन लगती है मगर निरंतर ध्यान की प्रक्रिया अपनाने के बाद धीमे धीमे ऐसा अभ्यास हो जाता है कि मनुष्य का मन भोग की बजाय योग की तरफ इस तरह प्रवृत्त होता है कि उसका जीवन चरित्र ही बदल जाता है।  मूल बात संकल्प की है। मन में कहीं बाहर से लाकर बोया नहीं जा सकता।  हम अगर निरंतर बाहरी विषयों की तरफ ध्यान लगायेंगे तो मन में भोग के बीज पैदा होंगे। वहां से मन हटाते रहे तो स्वतः ही अंतर्मन से योग के बीज मन में आयेंगे।  इसे हम ज्ञान और विज्ञान का संयुक्त सिद्धांत भी कह सकते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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नियमित संयम से विवेक का ज्ञान हो ता है-पतंजलि योग साहित्य के आधार पर हिन्दी चिंत्तन लेख


            यह मानवीय स्वभाव है कि जब वह अपने सामने किसी दृश्य, व्यक्ति या वस्तु को देखता है तो उस पर अपनी तत्काल प्रतिक्रिया देने या राय कायम करने को तत्पर हो जाता है। इस उतावली में अनेक बार मनुष्य के मन, बुद्धि तथा विचारों में भ्रम तथा तनाव के उत्पन्न होता है।  इस तरह की प्रतिक्रिया अनेक बार कष्टकर होती है और बाद में उसका पछतावा भी होता है।

            वर्तमान समय में हमारे यहां युवा वर्ग में जिस तरह रोजगार, शिक्षा तथा कला के क्षेत्र में शीघ्र सफलता प्राप्त करने के लिये सामूहिक प्रेरणा अभियान चल रहा है उसमें धीरज से सोचकर काम करने की कला का कोई स्थान ही नहीं है।  लोग अनेक तरह के सपने तो देखते हैं पर उन्हें पूरा करने की उनको उतावली भी रहती है। यही कारण है कि सामान्य लोगों में  धीरज रखने की प्रवृत्ति करीब करीब समाप्त ही हो गयी है।  जिस कारण नाकामी मिलने पर अनेक लोग भारी कष्ट के कारण मानसिक संताप भोगते हैं।

पतंजलि योग में कहा गया है कि

————–

क्षणत्तक्रमयोः संयमाद्विवेकजं ज्ञानम्।

            हिन्दी में भावार्थ-क्षण क्षण के क्रम से संयम करने पर विवेकजनित ज्ञान उत्पन्न होता है।

जातिलक्षणदेशैरन्यतानवच्छेदात्तुल्ययोस्ततः प्रतिपत्तिः।

            हिन्दी में भावार्थ-जिन विषयों का जाति, लक्षण और क्षेत्र का भेद नहीं किया जा सकता उस समय जो दो वस्तुऐं एक समान प्रतीत होती हैं उनकी पहचान विवेक ज्ञान से की जा सकती है।

            प्रकृति ने मनुष्य और पशुओं के बीच अंतर केवल विवेक शक्ति का ही रखा है।  मन, बुद्धि तथा अहंकार तो पशुओं में भी पाये जाते हैं पर अपने से संबद्ध विषय की भिन्नता, उनके  लक्षण तथा  उपयोग करने की इच्छा का निर्धारण करने की क्षमता केवल मनुष्य में ही है।  इसके लिये आवश्यक है कि जब मनुष्य के सामने कोई वस्तु, विषय या व्यक्ति दृश्यमान होता है तब उस पर संयम के साथ हर क्षण दृष्टि जमाये रखना चाहिये। यह क्रिया तब तक करना चाहिये जब तक यह तय न हो जाये कि उस दृष्यमान विषय की प्रकृत्ति, लक्षण तथा उससे संपर्क रखने का परिणाम किस तरह का हो सकता है?

            इसे हम विवेक संयम योग भी कह सकते हैं।  ऐसा अनेक बार होता है कि हमाने सामने दृश्यमान विषय के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं होती।  एक साथ दो विषय समान होने पर यह निर्णय लेना कठिन हो जाता है कि उनकी प्रकृति समान है या नहीं! अनेक अवसर पर किसी भी विषय, वस्तु तथा व्यक्ति की मूल प्रंकृत्ति, रूप तथा भाव को छिपाकर उसे हमारे सामने इस तरह प्रस्तुत किया जाता है कि वह हमें अनुकूल लगे जबकि वह भविष्य में उसके हमारे प्रतिकूल होने की आशंका होती है।

            इनसे बचने का एक ही उपाय है कि हमारे सामने जब कोई नया विषय, वस्तु या व्यक्ति आता है तो पहले उस पर बाह्य दृष्टि के साथ ही अंतदृष्टि भी लंबे क्षणों तक केंद्रित करें।  प्रतिक्रिया देने से पहले निरंतर हर क्षण संयम के साथ उस पर विचार करें। धीमे धीमे हमारा विवेक ज्ञान जाग्रत होता है  जिससे दृश्यमान विषय के बारे में वह ज्ञान स्वाभाविक रूप से  होने लगता है जो उसके पीछे छिपा रहता है। इस हर क्षण संयम रखने की प्रक्रिया को हम विवेक योग भी कह सकते हैं।

दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’’

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक ‘भारतदीप”,ग्वालियर 

poet,writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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अमृतसर के स्वर्ण मंदिर की यात्रा सुखद रही-हिन्दी चिंत्तन लेख


            आज हमारी अमृतसर से वापसी हुई।  अभी तक हमने जो भी पर्यटन, धर्म तथा अन्य भाव से यात्रायें की उनमें सबसे सुखानुभूति देने वाली थी।  इसका मुख्य कारण यह है कि बचपन से ही धर्म भीरु होने के कारण कहीं न कहीं हमारे अंदर एक ऐसा अध्यात्मिक भाव था जिसे ऐसी यात्रा में जाना ही था।  इस पर भगवान विष्णु की उपासना तथा गुरुनानक देव के प्रति आस्था का संयुक्त भाव ऐसा रहा कि कभी उसमें विरोधाभास नहीं था।  कभी ऐसा भी नहीं लगा कि दो अलग छवियां हमारा आदर्श हैं। जिंदगी के हर दौर में यह लगा कि कोई ऐसी शक्ति है जो हमें सहारा दे रही है।  कालांतर में योग तथा गीता में रुचि होने के बावजूद भी अपने बचपन के भाव कभी विलोपित नहीं हुए।  एक लेखक से चिंत्तक या दार्शनिक बन जाने पर निरंतर अभ्यास और अनुभव से यह निष्कर्ष निकाला कि अगर धर्म या अध्यात्म के प्रति बचपन से रुचि जाग्रत नहीं हुई तो बड़ी उम्र हो जाने पर भक्ति तथा ज्ञान दोनों से ही संपर्क रखना संभव नहीं है। दूसरी बात यह कि कुछ लोग भक्ति आदि में रुचि नहीं लेते यह कहते हुए कि हम तो व्यवहार में ही शुद्धता बरतते हैं इसलिये उसकी कोई जरूरत नहीं है पर सच यह है कि सांसरिक विषयों में निरंतरता से वह उकता ही जाते हैं। भगवान के प्रति भक्ति भाव न हो तो उन्हें अध्यात्मिक ज्ञान तो होना ही चाहिये। हां, यह भी सच है कि धर्म के अनुसार व्यवहार करना और अध्यात्मिक का ज्ञान होना तो अलग अलग विषय हैं।  एक मुश्किल जरूर है कि भक्ति के बिना तत्वज्ञान के प्रति झुकाव हो ही नहीं सकता। इसके लिये कोई दैहिक गुरु या होना चाहिये या फिर पवित्र गं्रथों को ही गुरु मान लेना चाहिये।

            बहरहाल अमृतसर का मंदिर बचपन से हमारे दिल में बसा था।  गुरुनानक देव जी के प्रति हमारे मन में आत्मिक श्रद्धा है पर अभी जाना अभी तक भाग्य में नहीं बंधा था।  बुलावा आया तो चल दिये। स्वर्णमंदिर में इतने सारे लोगों की श्रद्धामय उपस्थिति के बीच भजन और गुरुवाणी का स्वर हृदय में ऐसा भाव पैदा करता है जिसका वर्णन करना संभव ही नहीं है।  मस्तिष्क में आये शब्द स्वर  किसी भी गति से बाहर आ सकते हैं पर हृदय के भाव अंदर से अंदर ही जाकर ऐसा आंनद देते हैं जिसको शब्द रूप देना सहज नहीं होता।  इस पर यात्रा पर आगे भी लिखेंगे। सत् श्री अकाल! वाहि गुरु की फतह! जय श्री कृष्ण जय श्री राम!

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप 

ग्वालियर मध्य प्रदेश

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

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ज्ञानी सभी पदार्थों में परमात्मा का तत्व देखते हैं-चाणक्य नीति के आधार पर हिन्दी चिंत्तन लेख


            जकल धर्म के नाम पर समाज में  कथित एकता स्थापित करने के लिये  यह नारा दिया जाता है कि ईश्वर एक है। वैसे तो  चाहे जिस स्वरूप की आराधना करें उसमें एक ही  ईश्वर के प्रति  ही आस्था का भाव स्वीकार किया जाना चाहिये। वैसे भारतीय अध्यात्म दर्शन में भी कुछ इस तरह ही कहा गया है पर अगर हम उसमें वर्णित संदेशों का अध्ययन करें तो पता चलता है कि ईश्वर अनंत है।  उसके स्वरूप, गुण, विचार, तथा क्रियाओं को प्रत्यक्ष देखना लगभग असंभव है।  वह एक भी हो सकता है और अनेक भी।  वह अदृश्य है इसलिये उसके बारे में निश्चित रूप से कहना ठीक नहीं हैं। अन्य धर्मों के विद्वानों की क्या कहें स्वयं भारतीय धर्म के अनेक विद्वान आपस में उलझ जाते हैं।  एक वर्ग कहता है कि ईश्वर एक है और उसकी जिस रूप में आराधना की जाये अच्छा है, दूसरा कहता है कि उसकी लीला अनंत और अपरंपार है जिसे जानने की बजाय उसकी निराकार भक्ति करना ही श्रेष्ठ है।

            इस तरह के विवादों पर कोई निष्कर्ष न निकलता है न आगे संभावना है पर एक बात तय है कि ज्ञानी और साधक इस तरह की बहसों में मौन रहकर अपनी योग्यता का ही प्रमाण देते हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में स्पष्ट रूप से भक्ति तथा भक्तों के चार रूप बताये गये हैं-आर्ती, अर्थाथी, जिज्ञासु और ज्ञानी।  इसका सीधा मतलब यही है कि इस संसार में चार प्रकार के भक्त मौजूद रहेंगे और किसी पर कटाक्ष करना या किसी की भक्ति में दोष देखना अज्ञान का ही प्रमाण है।

चाणक्य नीति में कहा गया है कि

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अग्रिर्देवो द्विजातीनां मुनीनां हृदि दैवतम्।

प्रतिमा स्पल्पबुछीनां सर्वत्र समदिर्शनाम्।।

            हिन्दी में भावार्थ-द्विजाति के देव अग्नि, मुनियों का देव हृदय तथा अल्पबुद्धिमानों का देव मूर्तियों में निवास करता है पर तत्वज्ञानी समदर्शी होते हैं इसलिये उनका देव हर जगह बसता है।

            भारतीय धार्मिक परंपराओं में भी अनेक प्रकार की उपासना पद्धतियां प्रचलित हैं।  श्रीमद्भागवत गीता में भी भगवान श्रीकृष्ण ने हर उपासना पद्धति को मान्यता दी है पर यह भी माना है कि तत्वज्ञानी तो उनका ही स्वरूप है। कहने का अभिप्राय यह है कि जो वास्तव में तत्वज्ञानी है उसके लिये परमात्मा सभी जगह है।  वह किसी विशेष स्थान को सिद्ध मानकर वहां उपस्थिति देने की बाध्यता अनुभव नहीं करता यह अलग बात है कि जिज्ञासावश ज्ञानी ऐसे स्थानों पर जाते हैं। धाार्मिक बहसों में स्वयं को धार्मिक विद्वान साबित करना या जगह जगह ज्ञान बघारकर शिष्य संचय करना ज्ञानियों का स्वाभाविक कर्म कभी नहीं बन पाता।  न ही वह आश्रम बनाकर स्वयं को गुरु पद पर प्रतिष्ठत करते हैं। ज्ञानी तो श्रीमद्भागवत गीता के गुण तथा कर्म विभाग के सिद्धांतों को जानने के बाद सांसरिक विषयों में निर्लिप्त भाव से इस तरह व्यस्त होते हैं जैसे कीचड़ में कमल रहता है।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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भारत स्वच्छ अभियान की सफलता में कचरे के निष्पादन के लिये आधुनिक तकनीकी का उपयोग आवश्यक-हिन्दी चिंत्तन लेख


            भारत स्वच्छ अभियान प्रारंभ हो गया है।  प्रचार माध्यमों ने इस पर जमकर चर्चा और बहसें कर अपने विज्ञापन प्रसारण का समय बहुत अच्छे ढंग से पास किया।  अगर हम बहस में भाग लेने वाले विद्वान तथा संयोजकों के विचारों को देखें तो ऐसा लगता है कि जैसे यह पांच वर्षीय अभियान का प्रतीकात्मक प्रारंभ न होकर कोई एक दिवसीय  कार्यक्रम हो।  गांधी जयंती पर प्रारंभ इस अभियान पर स्वच्छता रखने की शपथ तो ली गयी पर आजकल कचड़ा किस प्रकृत्ति का है यह किसी ने न बताया न सुना।  जिस तरह विज्ञान ने मनुष्य जीवन के रहन सहन का रूप बदला है वैसे ही कचड़े ने भी अपना रूप बदला है। पहले कचड़ा प्राकृतिक पदार्थों से ही-पेड़ के पत्ते, पुट्ठा और कागज तथा खाने पीने के फैंके गये अवशेष-का ही होता था जबकि अब प्लास्टिक ने कचड़े को एकदम क्रूरतम रूप प्रदान कर दिया है।  मार्ग में आवारा घूमने वाले पशु खाद्य पदार्थों के अवशेषों के साथ उसमें पडी प्लस्टिक भी थैलियां भी खा जाते हैं जो अंततः उनका जीवन ही संकटमय हो जाता है।

            बहसों में कुछ लोगों महत्वपूर्ण बातें बतायीं। उनमें तो एक यह थी  जिन देशों मे ंकचड़ा उठाने और नष्ट करने के लिये आधुनिक यंत्रो का प्रयोग किया जाता है उनके शहर और गांव स्वच्छ दिखते हैं।  इन विदेशी शहरों के चित्रों या चलचित्रों में उनकी चकाचौंध देखकर हमारे देश का सामान्य नागरिक आहें भरने लगता है।  यह आरोप तो हम सभी पर है कि कचरा फैलाने में उस्ताद हैं इसलिये अगर हमें स्वच्छ भारत रखना है तो कचरा उचित जगह पर फैंके, यही शर्त पूरी कर अपनी शपथ निभा सकते हैं।  आजकल खाने पीने का सामान प्लास्टिक में बंद मिलता है।  उपयोग करो और फैंकों पर चल रही हमारी उपभोग नीति के चलते हमारी बुद्धि ऐसे मार्ग पर चल रही है जिसमें स्चच्छता के लिये हमें शपथ लेनी पड़ी है।  सार्वजनिक स्थानों पर गंदगी फैलाने से हमें बचना चाहिये। यह विचार करना चाहिये कि हम तो गंदगी फैंककर चले जायेंगे पर दूसरे की आंखों और नाक को इससे परेशानी होगी।

            यह तो नागरिकों की जिम्मेदारी वाली बात हुई।  अब आती है कचरा निष्पादन करने वाली सरकारी, अर्द्धसरकारी या फिर उन निजी कंपनियों की जिन्होंने सार्वजनिक स्थानों की सफाई का ठेका लिया है क्या वह इसके लिये तैयार हैं?  भारत में गंदगी दिखने का यह भी एक कारण है कि कचरा का निष्पादन करने के लिये मशीनों के उपयोग के अधिक उपयोग की जानकारी नहीं है। खासतौर से प्लास्टिक वाले कचरे के बढ़ते उपयोग की वजह से कचरा निष्पादन के लिये आधुनिक यंत्रों का उपयोग अत्यंत जरूरी माना जाने लगा है।  नागरिकों पर इसका जिम्मा डालना गलत होगा।  कहने का अभिप्राय यह है कि कहीं न कहीं अंततः जिम्मा राज्य कर्मियों पर आयेगा।  इसके लिये युद्धस्तर पर प्रयास करने होंगे।  वैसे प्लास्टिक का कचरा कई बार दर्दनाकर दृश्य भी पैदा करता है। अनेक बार चार पांच बच्चों के झुंड इस तरह के कचड़े को अपने कंधे पर रखे थैले में भरते देखे जा सकते हैं।  यह लोग इतने मैले कपड़े पहने रहते हैं कि आवारा कुत्ते उन पर भौंकने लगते हैं।  कुछ वीरता पूर्वक उनके बीच से निकलते हैं तो कुछ रास्ता बदल जाते हैं। रेल्वे स्टेशनों पर पानी की फैंकी गयी प्लास्टिक बोतलों को समेटकर कर उनमें फिर पानी भरने के समाचार भी आते हैं।

            कचरा उचित स्थान पर फैंकना नागरिक की जिम्मेदारी है-यह बात हम दोहराते हैं। लोग इसे अपनी आदत बना लें।  बाहर ही नहीं घर में भी किसी सामान का अवशेष फैंकना हो तो अपने घर में कचरे के डिब्बे में ही फैंकें। हमारा तो अनुभव यह है कि हम सोने, बैठने और काम करने के दौरान अगर अस्वच्छ जगह पर होते हैं तो वह उससे मानसिक कष्ट होता है पर इसे पहचान नहीं पाते।  साफ सुथरे स्थान पर सोने, बैठने और काम करने का सुख भी पता नहीं चलता।  यह भी संभव है जब ध्यान आदि जैसी  अध्यात्मिक विधा का अभ्यास के साथ ही  एकांत में आत्ममंथन करें।  बाहरी आंखों से देखें तो अंतर्मन में विचार भी करें।  एक बात तय रही है कि स्वच्छता ही स्वर्ग का पर्याय है। अपनी संवेदनशील इंद्रियों से साक्षात्कार करें तो इसका आभास सहजता से हो सकता है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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