Category Archives: hindi vichar

यमुना की तरक्की में तबाही की उम्मीद-हिन्दी आलेख (yamuna ki tarakki men tabahi ki ummeed-hindi alekh)


दिल्ली में आयी बाढ़ के हृदय विदारक दृश्य देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना नदी अपने साथ की गयी छेड़छाड़ का बदला ले रही है-प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस का कहना भी है कि जब इंसान अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं करता तब प्रकृति स्वयं यह काम करती है-और उससे हुई तबाही से आम गरीब इंसान बहुत तकलीफ में आ गया है जिसे सहानुभूति के साथ धन के साथ अन्न की सहायता की आवश्यकता है, मगर टीवी चैनलों पर खबरों को देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना विकास कर रही है जिससे तबाही की उम्मीद पूरी हो रही है।
हिन्दी से रोटी कमाने वाले इन समाचार चैनलों को पता ही नहीं कि दिल्ली के आगे भी कहीं देश बसता है और कई जगह उनकी वाणी से हिन्दी की चिंदी करने की कोशिशें चर्चा का विषय है। हरियाणा के बांध से यमुना में पानी छोड़ने से दिल्ली का संकट बढ़ रहा है और उसमें खतरे या खौफ की जगह उम्मीदें केवल हिन्दी समाचार चैनलों के संवाददाताओं के साथ उद्घोषक ही देख सकते हैं क्योंकि उनके अपने भावविहीन चेहरों और रूखी वाणी से श्रोता और दर्शक प्रभावित नहीं होते इसलिये उनको हिन्दी से अलग उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग कर अपनी उपयोगिता साबित करना होती है। उम्मीद उर्दू शब्द है जिसका विपरीत शब्द खतरा या खौफ होता है। हिन्दी में आशा और आशंका शब्द इसके समानार्थी हैं। हैरानी तब होती है जब नदी का जलस्तर सामान्य ऊंचाई से अधिक होने की संभावना होती है तब आशंका की बजाय यही संवाददाता और उद्घोषक आशा शब्द का उपयोग करते हैं।
एक तरह से यह शब्द फैंकना है। संभव है दिल्ली या बड़े नगरों के लोग अब उम्मीद खौफ और आशंका आशा के अंतर को नहीं जानते हों पर भारत के छोटे शहरों में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इसे समझते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे पूरे देश का प्रभामंडल दिल्ली और बड़े शहरों के इर्दगिर्द सिमट गया है और यही कारण है कि छोटे शहरों के लोग संचार और प्रचार माध्यमों के लिये एक महत्वपूर्ण नहीं रहे पर यह उनके लिये ऐसे है जैसे शुतुरमुर्ग संकट देखकर रेत में मुंह छिपा लेता है। इन्ही छोटे शहरों पर ही इन प्रचार माध्यमों की ज़िदगी निर्भर करती है क्योंकि अभी भी देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहीं रहता है।
इन्हीं टीवी चैनलों की भाषा देखकर यह कहना पड़ता है कि यमुना तो अपना विकास कर रही है। इस पर तो खुश होना चाहिए। सभी कहते हैं कि यमुना का पानी कम होने के साथ ही गंदा भी हो गया है। उसके किनारे बसे शहरों की सीवर लाईनें वहीं जाकर अपना कचरा विसर्जित करती हैं। अब हालत यह है कि दिल्ली में वह सब लाईनें बंद कर दी गयी हैं जो यमुना में पानी लाती हैं। तय बात कि वह कोई अच्छा पानी नहीं लाती। उफनती यमुना नदी अपने पानी के साथ वह कचड़ा भी उन शहरों को सधन्यवाद वापस कर रही है जहां के लोग बरसों से उस पर प्रसाद की तरह चढ़ाते हैं। यमुना और गंगा दैवीय नदियां मानी जाती हैं और भारतीय धार्मिक बंधु कभी भी उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करते। जब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब भी वह उफन रही थी पर जब देख कि भगवान पधारे हैं तो उनको मार्ग दिया।
यमुना को लेकर एक दूसरी भी कहानी है। एक बार दुर्वासा ऋषि यमुना किनारे एक स्थान पर पधारे। श्रीकृष्ण जी का गांव दूसरे किनारे था। उन्होंने गांव के लोगों को अपने और शिष्यों के लिये खाना लाने का संदेश भेजा। गोपियां खाना लेकर चलीं तो पाया कि यमुना उफन रही है। लौटकर वह श्रीकृष्णजी के पास आयीं और उनको बताया तो वह बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी नारी का स्पर्श न किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियां श्रीकृष्णजी को बहुत मानती थीं। वह उनकी बात सुनकर चली गयी पर आपस में कह रही थीं कि ‘अब नहीं मिलता रास्ता! यह कृष्ण तो रोज हमारे साथ खेलता और नृत्य करता है और यमुना नदी ने यह सब देखा है तब कैसे इतना बड़ा झूठ मान लेगी।’
यमुना किनारे आकर गोपियेां ने श्रीकृष्ण जी की बात दोहराई तो देखा कि यमुना उनके लिये मार्ग बना रही है। वह हैरान रह गयी। उन्होंने खाना जाकर दुर्वासा जी को खिलाया। वह प्रसन्न हुए। गोपियां भी वापस लौटीं तो देखा कि यमुना ने उनका मार्ग फिर बंद कर दिया है। वह लौटकर दुर्वासाजी के पास आयीं और अपनी समस्या उनके सामने रखी। दुर्वासा जी हंसकर बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर दुर्वासा ने जीवन पर अन्न का दाना भी न खाया हो तो हमें जाने का मार्ग प्रदान करो।’
गोपियां वापस चलीं। वह आपस में बात कर रही थीं कि ‘श्रीकृष्ण तो अभी बालक हैं इसलिये उनका झूठ चल गया पर यह दुर्वासाजी का झूठ कैसे चलेगा? यह तो बड़े हैं। अभी इतना सारा भोजन कर रहे थें और दावा यह कि जीवन भर अन्न का दाना नहीं खाया।’
गोपियां यमुना किनारे आयीं और दुर्वासा की बात दोहराई। यमुना ने फिर अपना मार्ग उनको प्रदान किया।
दरअसल इन कहानियों की रचना के पीछे उद्देश्य यही है कि मनुष्य दैहिक रूप से अनेक कर्म करता है पर आत्मिक रूप से उनमें लिप्त नहीं होता तो वह योगी हो जाता है। वह कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का अंतर जानता है इसलिये ही दृष्टा भाव से जीते हुए जीता है तो उसको अनेक प्रकार की सिद्धिया स्वतः मिल जाती हैं।
जिन लोगों ने गंगा बहुत पहले देखी हो उनको याद होगा कि हर की पौड़ी में सिक्का डाला जाता तो वह जाकर तली में दिखता था। अब यह संभव नहीं रहा। निश्चित रूप से यह मनुष्य की कारिस्तानी है। जंगल और पहाड़ों को खोदकर विकास दर बढ़ाने का लक्ष्य देखने वाले पश्चिमी प्रशंसक बुद्धिजीवियों को समझाना कठिन है। चीन के विकास का गुणगान करने वाले उसके यहां हुई तबाही का आंकलन नहीं करते। आर्थिक विकास करते समय अध्यात्मिक विकास को केवल पौगापंथियों का विषय मानने वाले शीर्ष पुरुषों से यह अपेक्षा तो अब करना ही बेकार है कि वह नदियों और पर्वतों का छिपा आर्थिक महत्व समझें जिसके कारण उनका देवी देवता का दर्जा पुराने मनीषियों ने दिया। अब यहां ऋषि, तपस्वी और मनस्वी महान पुरुषों की जगह बुद्धिजीवियों का महत्व बढ़ा है जो कि कभी अमेरिका तो कभी चीन को देखकर अपना चिंतन करते हैं। यह दोनों देश भी इस समय प्राकृतिक और पर्यावरण से उत्पन्न विकट संकटों का सामना कर रहे हैं।
बात टीवी चैनलों की भाषा की चल रही थी। ऐसा लगता है कि वहां करने वाले बौद्धिक कर्मी भारी तनाव में काम करते हैं। उन पर प्रतिदिन सनसनी के सहारे अपने चैनलों की वरीयता बढ़ाने का दबाव है इसलिये उनको हादसों की आशंका में अपने प्रदर्शन के परिणाममूलक होने की उम्मीद दिखाई देती है। अब यह कहना कठिन है कि वह भाषा नहीं जानते या भावावेश में सच बात कह जाते हैं कि ‘नदी का जलस्तर बढ़ने की उम्मीद है।’ वैसे पहली बात ही सही लगती है पर यह बात उनको बतायेगा कौन? उनके साथ कम करने वाले तथा अन्य सहधर्मी मित्र भी तो वैसे ही होंगे।
अब बात करें पूरे देश में आयी बाढ़ की! अनेक जगह विकराल बाढ़ आयी है। इसमें अधिकतर संकट मजदूर, श्रमिक तथा गरीब परिवारों पर ही आता है। हानि तो मध्यम और उच्च तबके के लोगों की भी होती है पर वह उनके उबरने की संभावनाऐं रहती हैं। उबरता तो गरीब भी है पर भारी तकलीफ से। ऐसे में उन इलाकों के बाढ़ से अप्रभावित धनी और मध्यम वर्गीय लोग पीड़ितों के लिये आगे आयें तो अच्छा ही रहेगा। एक आदमी केवल एक ही आदमी या परिवार की सहायता का संकल्प ले तो भी बुरा नहीं है। अगर कोई इलाका पूरा डूब गया है तो पड़ौसी इलाके के लोग यह संकल्प लें। मदद प्रत्यक्ष करें चंदा वगैरह देने से कोई लाभ नहीं है। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके घर में अन्न के साथ अन्य वस्तुऐं भी फालतू या कबाड़ में पड़ी रहती हैं जो कि गरीब लोगों के लिये महत्वपूर्ण होती है। अनेक लोग अन्न का भी संचय करते हैं। यहां दरियादिली दिखाने के लिये नहीं कहा जा रहा बल्कि एक आदमी एक की मदद को भी तैयार रहे तो यह देश अनेक संकटों से जूझ सकता है। सामान्य स्थिति में अनेक लोग ऐसे हैं जो गरीबों का सहायता करते हैं पर असामान्य हालत हों तो स्थापित व्यक्तियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। सरकार की मदद आयेगी तब आयेगी। उस मदद से भला होगा तब होगा मगर समाज और प्रदेशों में सामाजिक समरसता का भाव रखने के लिये ऐसे छोटे प्रयासों की आवश्यकता है जो कि एक शक्तिशाजी समाज के निर्माण में सहायक होते हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य संदेश-अपनी तारीफ खुद कभी न करें (apni tarif khud na karen-chankya niti in hindi)


अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचानेे या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बिना प्रमाण के साधुओं और संतों को खिलाफ दुष्प्रचार करना अनुचित-हिन्दी लेख


माया का खेल बहुत विचित्र है। आम आदमी ही क्या बड़े बड़े ज्ञानी संत भी उसके प्रभाव से बच नहीं पाते। इस देह के साथ माया का खेल जन्म के साथ ही शुरु होता है और पूरे जीवन चलता रहता है। जिनको ज्ञान और भक्ति का शिखर मिलता है वह भी माया का आशीर्वाद चाहते हैं और वह उन्हें आम आदमी की बनिस्बत कुछ अधिक सहजता से प्राप्त हो जाता है और आम आदमी इसके लिये जूझता रहता है। माया का एक रूप यह भी है कि जो उसके पीछे भागता है उसके वह आगे चलती है और जो उससे भागता है या परवाह नहीं करता उसके पीछे जाती है। हमारे अध्यात्मिक विद्वान कहते हैं कि माया तो संतों की दासी होती है-अभिप्राय यह है कि आम आदमी पर शासन करती है पर ज्ञानी संतों की सेवा का सुख पाने के लिये उनके पीछे भी जाती है। अब यह भी उसका खेल है कि जिसके पास माया का भंडार है उसके विरोधी और शत्रु बहुत होते हैं और भले ही संतों की सेवा करती है पर वहां उसकी उपस्थिति गुरुओं के शिष्यों को लुभाती है तो विरोधियों की चिढ़ाती भी है।
हमारे देश में धाार्मिक संतों की एक बहुत बड़ी महान परंपरा रही है और इनमें से कुछ संत जहां माया की सूरत तक नहीं देखते वहीं कुछ सेवा स्वीकार कर लेते हैं। इनमें से भी कुुछ लोग ऐसा चक्कर में फंसते हैं सेविका को ही स्वामिनी बना लेते हैं। अब यह तो अलग से विश्लेषण का विषय होता है कि कौन संत है और ढोंगी! अलबत्ता कुछ संतों पर जब निरंतर आक्षेप किये जाते हैं और उनका कोई आधार नहीं मिलता तब यह संदेह होता है कि कुछ ताकतें ऐसी हैं जो बाकायदा भारतीय धर्मों को बदनाम करने में तुली हैं।
हमारे देश में इस समय अनेक संत सक्रियता से उस धार्मिक वैचारिक धारा के प्रवाह को आगे बढ़ा रहे हैं जो हमारे हमारे पौराणिक ऋषियों, मुनियों और तपस्वियों ने अपने अनुसंधान, तपस्या और यज्ञ से प्रवाहित की थी। इनमें योगाचार्य श्री रामदेव और भागवत विशारद संत प्रवर श्री आशाराम बापू का नाम प्रमुख रूप से लिया जाता है। एक योगविद्या को आगे बढ़ा रहे हैं दूसरे ब्रह्मज्ञान का प्रचार कर रहे हैं। देखने में यह आ रहा है कि इन दोनों संतों के साथ अन्य पर भी आये दिन प्रचार माध्यमों में शाब्दिक हमले होते रहते हैं। इन महान संतों को अपने विरुद्ध चल रहे दुष्प्रचार का सामना करने के लिये जिस तरह जूझना पड़ता है उससे उनके भक्तों के मन में जो कष्ट पहुंचता है पर उससे कोई नहीं देखना चाहता।
हम यहां संत प्रवर आसाराम बापू जी की बात करें। हिन्दू धर्म के पुरोधा संत आसाराम बापू का जन्म सिंध प्रात में हुआ था। महान संत श्रीलीलाशाह को वह अपना गुरु मानते हैं। संत आसाराम बापू को हम जब बोलते देखते हैं तो इस बात का अंदाज नहीं लगता कि उनके लहजे में सिंधी, सिंधु तथा सिंधुत्व का पुट भी रहता है। सच बात तो यह है कि जिन लोगों ने पुराने सिंधी बुजुर्गों को देखा है उन्हें संत प्रवर आसाराम बापू का अनेक बार मस्तमौला जैसा किया व्यवहार आश्चर्य में नहीं डालता। हिन्दी, हिन्दू तथा हिन्दुत्व के प्रचारक के रूप में उनका योगदान उल्लेखनीय है और उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ इसका एक प्रमाण है। इस पत्रिका को देखकर यह कहा जा सकता है कि इससे हिन्दी की सेवा हो रही है। सिंध में अनेक संत हुए हैं जिनमें शाह कलंदर और संत कंवरराम का नाम आता है पर ऐसे भी कई संत हुए हैं जिनका नाम अब भारत की नयी पीढ़ी के सिंधी भाषी नहीं जानते। विभाजन के समय सिंध से आये बुजुर्ग बताते हैं कि सिंध में एक मस्तमौला संत हुए हैं जो मारते थे और जिसे यह सौभाग्य प्राप्त होता उसकी मनोकामना पूरी हो जाती थी। लोग उनके पास जाते थे, पर सभी से ऐसा व्यवहार नहीं करते थे। जिस पर दिल आता उसी पर ही बरसते थे और उसका कल्याण हो जाता-संभवत वह इतना ही मारते होंगे कि आदमी घायल न हो या उसके अस्पताल जाने की नौबत न आये।
संत कंवर राम जब मौज में आते थे तब नृत्य करते थे। बताते हैं कि जब भारत विभाजन के समय वह भारत रेल से आ रहे थे तब आतिताईयों ने उनको नाचने के लिये कहा। वह नाचे पर जब रुके तो उनको मार दिया गया-पता नहीं यह सच है कि नहीं पर जो सिंधी बुजुर्ग बताते हैं उसके आधार पर उनकी यही कहानी है।
कभी कभी संत प्रवर आसाराम जी का व्यवहार उन्हीं मस्तमौला संतों जैसा दिखता है। संभव है कि उनमें बचपन की ही अपनी उस पुरानी सिंधु संस्कृति के तत्व मौजूद हों। यहां कुछ लोग आपत्ति कर सकते हैं कि किसी संत को इस तरह का व्यवहार नहीं करना चाहिये । इस लेखक जैसे अध्यात्मिक प्रेमियों को भी कुछ देर आघात पहुंचता है पर फिर संतों की मौज की सोचकर चुप हो जाते हैं। यहां यह स्पष्ट कर दें कि एक आम आदमी से हम ऐसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं कर सकते और न इसके समर्थक हैं। संतों की बात कुछ अलग हैं। अगर कुछ लोगों को इस पर आपत्ति हो तो वह इसे देश की सांस्कारिक भिन्नता समझ लें कि एक के लिये बात बुरी पर उपेक्षा करने लायक है पर दूसरे के लिये नहीं-उनको यह स्वाभावगत भिन्नता स्वीकारनी ही होगी क्योंकि हम लोग आम आदमी के रूप में कुछ करने लायक स्थिति में नहंी होते।
संत आसाराम जी के आश्रम के विस्तारों पर अनेक लोग दुःखी होते दिखते हैं। अनेक लोग उन पर अतिक्रमण के आरोप लगाते है। उनके आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में उनका उत्तर भी दिया जाता है पर व्यवसायिक प्रचार माध्यम संभवता प्रतिस्पर्धी मानते हुए उनको प्रकाशित नहीं करते-इसका कारण यह है कि उनके प्रकाशनों ने पत्र पत्रिकाओं से ग्राहक यकीनन छीने होंगे। स्वाभाविक रूप से अनेक धार्मिक कार्यक्रम सरकारी या सार्वजनिक जमीन पर होते हैं। यह कोई अतिक्रमण नहीं होता। आश्रम द्वारा प्रकाशित ‘ऋषि प्रसाद’ में यही बात बताई गयी है।
संत आसाराम बापू के आश्रम द्वारा अनेक विद्यालय और चिकित्सालय भी चलाये जाते हैं। आश्रम द्वारा विक्रय की जाने वाली दवाईयों से अनेक लोगों को स्वास्थ्य लाभ होता है-इस लेखक ने ऐसे अनेक लोगों को देखा है जो उनकी दवाओं से स्वस्थ रहते हैं। जहां तक विवादों का सवाल है तो जमीनों आदि के विवाद तो होते ही रहते हैं-हमें लोगों की यह बात नहीं जमती कि संतों को आश्रमों की जरूरत क्या है? इसका जवाब यही है कि संत होकर बताओ तो जाने। जिस संत के पास करोड़ों की संख्या में भक्त हों तो यह माया उसकी सेवा तो करेगी ही।

आखिरी बात करें उन पर लगने वाले आरोपों की। एक शंकराचार्य पर भी अपने सहायक की हत्या का आरोप लगा था। उनको जेल में डाला गया। बाद में वह बरी हो गये। इस दौरान हिन्दू धर्म को जो बदनाम किया गया वह सभी ने देखा था। उन महान शंकराचार्य को जेल में रखने की अवधि का भला कोई पश्चाताप हो सकता है,? तमाम तरह की बकवास की गयी। संत आसाराम बापू पर भी निरंतर शाब्दिक हमले हो रहे हैं। यह प्रचार माध्यम वाले बतायें कि क्या संत आसाराम जी के साथ जो लोग आज हैं वह सब बुरे हैं और कल उनमें से कोई एक बाहर आ जाये तो अच्छा हो जायेगा। आज जो व्यक्ति उन पर आरोप लगाते हुए आपको भला दिख रहा है वह कल तक उनकी सेवा में रहते हुए आपके लिये बुरा था क्या प्रचार माध्यम अब ब्रह्मा हो गये हैंे जो उनके समाचार ही निर्णय का आधार मान लिया जाये। वह कभी इस बात की संभावना पर विचार क्यों नहीं करते कि कहंी संत प्रवर आसाराम बापू के विरुद्ध षडयंत्र तो रचा नहीं जा रहा है? दूसरी बात यह है कि उनके विरुद्ध प्रचार अभियान के बावजूद उन पर कोई आक्षेप प्रमाणित नहीं हो सका है ऐसे में सवाल यह उठता है कि आप उसे किसकी वजह से जारी रखना चाहते हैं। उन्होंने प्रचार माध्यमों के लोगों के विरुद्ध गुस्सा दिखाया तो उस पर उत्तेजित होने की जरूरत नहीं है बल्कि उनके अपशब्दों को भी संतों का प्रसाद समझ लो। हालांकि वह ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि पश्चिमी शिक्षा और संस्कृति में सराबोर प्रचार माध्यमों से जुड़े लोग क्या जाने संतों की मौज क्या होती है? सच है श्रीगीता का यह वैज्ञानिक तथ्य कि ‘गुण ही गुणों में बरतते हैं’। जिन लोगों को संतों की निंदा के लिये प्रशंसा मिलती है वह उसका लोभ कैसे छोड़ सकते हैं। जिन लोगों में भारतीय अध्यात्मिकता का गुण नहीं है वह नहीं जानते कि ‘संतों की मौज’ क्या होती है?

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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योग साधना को केवल व्यायाम न समझें-हिन्दू धर्म संदेश (yog sadhna no simple exercise-hindu dharm sandesh)


एक सर्वे के अनुसार 45 से 55 वर्ष की आयु के मध्य व्यायाम करने वालों में घुटने तथा शरीर के अन्य जोड़ों वाले भागों में दर्द होने की बात सामने आयी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है पर यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि भारतीय योग पद्धति का हिस्सा दैहिक आसन इस तरह के व्यायाम की श्रेणी में नहीं आते। यह व्यायाम नहीं बल्कि योगासन हैं यह अलग बात है कि इसकी कुछ क्रियायें व्यायाम जैसी लगती हैं।
इसके संबंध में एक मजेदार बात याद आ रही है। एक गैर हिन्दू धार्मिक चैनल पर एक कथित विद्वान से भारतीय योग पद्धति के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया कि ‘हमारी पवित्र किताब में भी इंसान को व्यायाम करते रहने के लिये कहा गया है।’
उन विद्वान महोदय का बयान कोई आश्चर्य जनक नहीं था क्योंकि सभी धर्मों के विद्वान हमेशा अपनी पुरानी किताबों के प्रति वफादार रहते हैं और उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह किसी भी हालत में दूसरे धर्म की किसी परंपरा की प्रशंसा करेंगे। फिर टीवी चैनलों ने भी कुछ विद्वान तय कर रखे हैं जिनके पास बहस करने के लिये आपके पास सुविधा नहीं है। बहरहाल सच बात यही है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसन कोई सामान्य व्यायाम नहीं बल्कि देह से विकार बाहर निकालने की एक प्रक्रिया है।
योगासनों में किसी भी शारीरिक क्रिया में शरीर ढीला नहीं होता। हर अंग में कसावट होती है और यह तनाव की बजाय राहत देती है इतना ही नहीं हर आसन में उसके अनुसार शरीर के चक्रों पर ध्यान भी लगाया जाता है-इस संबंध में भारतीय येाग संस्थान की पुस्तक उपयोग प्रतीत होती है। व्यायाम में जहां शरीर से ऊर्जा रस के निर्माण के साथ उसका क्षरण भी होता है पर योगासन में केवल देह मेें स्थित वात, कफ तथा पित के विकार ही निर्गमित होते। दूसरी बात यह है कि ध्यान की वजह से देह को ऐसी सुखानुभूति होती है जिसकी व्यायाम में नहीं की जाती। इसके अलावा व्यायाम जहां जमीन बैठकर या खड़े होकर किया जाता है जबकि योगसन में नीचे चटाई, दरी और चादर का बिछा होना आवश्यक है ताकि देह में निर्मित होने वाली ऊर्जा का बाहर विसर्जन न हो। योगासन के बारे में सबसे बड़ी दो बातें यह है कि एक तो वह इसमें शरीर को खींचा नहीं जाता बल्कि जहां तक सहजता अनुभव हो वहीं तक हाथ पांवों में तनाव लाया जाता है। दूसरा यह कि योगसन किसी भी आयु में प्रारंभ किया जा सकता है जबकि व्यायाम को एक आयु के बाद प्रारंभ करना खतरनाक माना जाता है। योगसन में सहजता का भाव आता है और व्यायाम में इसका अभाव साफ दिखाई दे्रता है क्योंकि उसमें शरीर के चक्रों पर ध्यान नहीं रखा जाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसनों को भारतीय या पश्चिमी पद्धति के व्यायामों से तुलना करना ही ठीक नहीं है। दोनों ही एकदम पृथक विषय है-भले ही उनकी शारीरिक क्रियाओं में कुछ साम्यता दिखती है पर अनुभूति में दोनों ही अलग हैं। दूसरी बात यह है कि भारतीय योग पद्धति में आसन केवल एक विषय है पर सभी कुछ नहीं है और यही कारण है कि इसे व्यायाम मानना गलत है। अलबत्ता कुछ विद्वान इसे सीमित दृष्टिकोण से देखते हैं उनको इस बारे में जानकारी नहीं है। कई लोग अक्सर यह शिकायत करते हैं कि वह अमुक आसन कर रहे थे तो उनकी नसें खिंच गयी दरअसल वह आसनों को व्यायाम की तरह करते हैं जबकि इसके लिये पहले किसी योग्य गुरु का सानिध्य होना आवश्यक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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चाणक्य दर्शन-जीवन में जागरुकता आवश्यक (chankya darshan in hindi)


गूढ़मैथुनचरित्वं च काले काले संग्रहम्।
अप्रमत्तमविश्वासं पंच शिक्षेच्च वायसात्।।
हिंदी में भावार्थ-
छिपकर मैथुन करना, ढीठपना दिखाना, नियत समय पर संग्रह करना तथा सदैव प्रमादरहित होकर जागरुक रहना तथा किसी पर विश्वास न करना-यह पांच गुण कौए से सीखना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे के बोलों की तर्ज पर आजकल लोग अपनी यौन क्रीड़ाओं की खुलेआम चर्चा कर गौरव की अनभूति करते हैं। अगर कानूनी बंदिश न हो तो शायद लोग सरेआम ही वह सारे कार्य करने लगें जिनको पर्दे के पीछे करना ही उचित है।
कहा जाता है कि कौआ स्याना पक्षी है। किसी भी स्याने मनुष्य को कौआ कहकर संबोधित किया जाता है। एक तरह से कहा जाये कि लोग कौए को हिकारत की दृष्टि से देखते हैं जबकि उसी से सीखने लायक बहुत कुछ है।
जिस ढीठपन को हम कौए का दुर्गुण समझते हैं वह उसका गुण है क्योंकि वह अपने चरित्र और खानपान पर दृढ़ रहता है। समय आने पर संचय भी करता है। उसे जाल में फंसाना मुश्किल माना जाता है।
इसके विपरीत हम अपने समाज को देखें कि पश्चिम द्वारा प्रदत्त प्रमाद और विलासिता के साधनों में अपना मन फंसा कर हम अपना स्वविवेक खो बैठे हैं। कौआ प्रमाद में न फंसकर हमेशा जागरुक रहता है जबकि हमारे देश में प्रमाद का इतना बोलाबाला है कि लगता ही नहीं कि लोग सतर्क और जागरुक हैं। अपराध इसलिये नहीं बढ़े कि प्रशासन सतर्क नहीं है बल्कि लोग जागते हुए भी सुप्तावस्था में रहते हैं। यही हाल स्त्रियों के प्रति बढ़े अपराधों का है। उनके खिलाफ बढ़ती हिंसा असावधानियों के कारण अधिक है। सच बात तो यह है कि हमारा समाज अपनी कर्मण्यता और सुप्तावस्था की वजह से ही भारी संकट में फंस गया है। हमारे अंदर प्रमाद और विलासिता की जो भावना है उसकी वजह से ही विदेशी बैंकों की जमा राशि बढ़ रही है। एक तरह से हम आर्थिक गुलाम बन गये हैं।
देश में कौवों की संख्या कम होती जा रही है। ऐसा लगता है कि उनकी कमी से हमारे देश में सतर्कता और जागरुकता के गुणों की कमी हुई है। वह शायद चलते फिरते और उड़ते हुए यहां अपने गुणों का विर्सजन करते थे। संभवतः कौओं को देखकर इंसान इसलिये ही हिकारत की दृष्टि से देखते हैं क्योंकि तब उनको अपनी विलासिता और मानसिक कमजोरी का अहसास होता है। उनको लगता है कि जैसे वह उनको मीठी नींद से जगा रहा है। हां, यह भी सच है कि आदमी को सोना ही अच्छा लगता है चाहे वह शारीरिक रूप से हो या मानसिक रूप से।
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श्री गीता अतुलनीय पुस्तक-हिन्दी आलेख Shri Geeta incredible book – Hindi article


यह एक टिप्पणी जो उस ब्लाग पर नहीं रखी जा सकी जिसमें श्रीगीता के युद्ध की चर्चा करते हुए उस ब्लाग लेखक ने अपनी ही पवित्र पुस्तक में वर्णित युद्ध विषय से तुलना की थी। वह ब्लाग लेखक गैर हिन्दू धर्म-याद रहे यहां उसके लिये गैर हिन्दू शब्द उपयोग नहीं हो रहा-विचारधारा मानने वाला है। वह एक दिलचस्प आलेख था। लोग पूछेंगे कि आखिर यह टिप्पणी उस पर क्यों नहीं रखी गयी?
इसका जवाब यह है कि यहां टिप्पणी लिखने पर लोग कुछ का कुछ अर्थ समझ लेते हैं। ऐसे में दूसरे के ब्लाग पर चर्चा के लिये बड़ी टिप्पणी लिखने का अपना खतरा होता है। कहने का तात्पर्य यह है कि दूसरे के घर जाकर अपनी बात कहने से अच्छा है कि अपने घर में ही बात की जाये। फिर श्री गीता जैसे गंभीर विषय पर किसी से वाद विवाद करना भी एक तरह से मजाक लगता है। यह दुनियां का इकलौता ग्रंथ है जिसमें ज्ञान सहित विज्ञान है और इसकी तुलना किसी अन्य ग्रंथ से करना ठीक नहीं प्रतीत होता।
यह रूढ़ता या अहंकार नहीं बल्कि श्रीकृष्ण जी का आदेश है कि उनके संदेश का प्रचार केवल अपने भक्तों में ही किया जाये। दूसरी बात यह है कि श्रीगीता के संदेश को पढ़ने, सुनने और समझने के लिये जिस धीरज की आवश्यकता है वह हरेक में नहीं होता। फिर जो भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान के समक्ष जब अन्य विचारधारा को स्थापित करने के प्रयत्न कर रहे हों उनके सामने तो श्रीगीता के संदेश का प्रचार करना परेशानी का कारण भी बन जाता है।
मुख्य बात यह है कि मनुष्य का मन और स्वभाव! जिन लोगों ने तय कर लिया है कि भारतीय अध्यात्मिक ग्रंथों में अप्रासंगिक संदेशों का नकारात्मक प्रचार करेंगे उनको समझाने से अच्छा है अपनी बात उनसे कही जाये जो ऐसे प्रचार से विचलित हो जाते हैं।
श्रीगीता में मांसाहार तथा दूसरे की आजीविका छीनने का प्रयास तामसी माना गया है। इतना ही नहीं भगवान भक्ति के द्वारा स्वर्ग प्राप्त करने के मत का खंडन भी किया गया है। कहने का तात्पर्य यह है कि श्रीगीता में समग्र जीवन सहजता पूर्वक व्यतीत करने के लिये ज्ञान दिया गया है। अब लोगों को केवल युद्ध ही युद्ध दिख रहा है तो उनको समझाना मुश्किल है। श्रीगीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो मुझे जैसा भजता है वैसा ही फल उसे मिलता है। जिनको युद्ध ही युद्ध दिख रहा है उनके लिये फल भी युद्ध ही है। ऐसे में शांतिप्रिय मनुष्य के लिये यह आवश्यक है कि वह अपने सत्संगियों से ही ज्ञान चर्चा करे।

आपका लेख बहुत अच्छा लगा। आपके इस पाठ पर मैं आपके श्रीगीता संबंधी विषय का उत्तर दूंगा।
पहली बात तो यह है कि श्रीगीता में युद्ध से संबंधित सैंकड़ों श्लोक नहीं है। दूसरी बात यह है कि श्रीगीता विश्व की इकलौता ऐसा ग्रंथ है जिसमें तत्व ज्ञान के साथ ऐसा विज्ञान भी है जिससे संसार को समझा जा सकता है। इसका एक सिद्धांत हैं-‘गुण ही गुण को बरतते हैं।
श्रीकृष्ण जी जानते थे कि श्रीअर्जुन एक क्षत्रिय है और कभी न कभी अपने युद्ध कौशल के कारण यह युद्ध अवश्य करेंगे। श्रीकृष्ण यह नहीं चाहते थे कि यह युद्ध कौरवो के संपूर्ण सफाये के बिना समाप्त हो। अगर उस समय अर्जुन युद्ध नहीं करते तो वह बाद में भी इसके लिये आगे आते। वह क्षत्रिय थे और इससे दूर रहना संभव नहीं था पर श्रीकृष्ण की अनुपस्थिति में वह कुछ कौरवों को छोड़ सकते थे। इससे पूर्व विराट नगर में हुए युद्ध में अकेले अर्जुन से कौरव पराजित होकर भाग निकले और श्रीकृष्ण अब ऐसा अवसर उनको महाभारत के युद्ध में नहीं देना चाहते थे-याद रहे उनकी अनन्य भक्त द्रोपदी ने उनसे कौरवों के सर्वनाश का वरदान मांगा था। यहां यह बता दें क्षत्रिय से आशय राज्य से मान्यता प्राप्त सैनिक से है न कि हर किसी हथियार पकड़ने वाले से। साथ ही यह भी स्पष्ट कर दें कि आदमी अपने स्वाभाविक गुणों के आधार पर चले बिना रह नहीं सकता जैसे कि कुछ लोग भारतीय अध्यात्म में केवल जातिपाति और युद्ध ही ढूंढते हैं।
महाभारत युद्ध में निहत्थों और युद्ध न कर रहे व्यक्ति पर प्रहार न करने के नियम का पालन किया गया था। अभिमन्यु के शहीद होने के बाद इस नियम में ढील आ गयी। युद्ध में छिपकर वार करना भी वर्जित था।
बात नंबर दो। भगवान श्रीकृष्ण ने युद्ध का संदेश केवल अर्जुन को दिया था न कि आगे आने वाले हर भक्त को इसकी इजाजत दी या आव्हान किया। उन्होंने अर्जुन से कहा‘यह युद्ध तू मेरे लिये कर!’
वह जानते थे कि युद्ध और हिंसा अपराध है और इसका प्रायश्चित भी उन्होंने किया। युद्ध के बाद उन्होंने गांधारी का शाप ग्रहण किया जिससे उनके स्वयं के पूरे वंश का नाश हो गया। उनके पुत्र तथा परिवार में अन्य सदस्य भी न बचे। धर्म के लिऐ ऐसा निर्मोही इतिहास में हुआ हो इसका ज्ञान हमें नहीं है। फिर महाभारत के युद्ध का पाप अपने ऊपर लेेते हुए बहेलिये का बाण अपने पांव पर लेकर परमधाम गमन किया। ऐसा भी विश्व इतिहास में ऐसा कोई नहीं हुआ जिससे हिंसा और युद्ध का परिणाम स्वयं ग्रहण किया हो। वह इस युद्ध के द्वारा अपना संदेश देना चाहते थे वह भी अपने भक्तों में प्रचार के लिये न कि जबरन दूसरे को सुनाने के लिये।
उनके बाद का समाज उनके अहिंसा के संदेश के कारण ही हिंसा से दूर रहता है क्योंकि वह जानता है कि अब हिंसा के अपराध का दंड अपने ऊपर लेने के लिये कोई दूसरा नहीं है। इसके अलावा उन्होंने जो संदेश दिये उनके बारे में आपसे कहना क्या? तीन प्रकृत्ति के मनुष्य-सात्विक, राजस और तामस-इस धरती पर विचरेंगे। चार प्रकार के भक्त-आर्ती, अर्थार्थी,जिज्ञासु और ज्ञानी-भी होंगे। श्रीगीता हमारे भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान का आधार है और उसके अनुसार यह संभव नहीं है कि सभी लोग सात्विक और ज्ञानी बन जायें। ऐसी सुखद कल्पना सच्चे ज्ञानी नहीं करते। मनुष्य को ज्ञान ग्रहण कर स्वयं ही अपनी राह चलना चाहिये और दूसरे जिस प्रकार के हों उसके अनुरूप ही उनसे व्यवहार करना चाहिये न कि उनको अपने जैसा बनाने में अपनी जिंदगी बर्बाद करना चाहिये। अपनी भक्ति का अहंकार दिखाकर दूसरे को भी अपने जैसा दिखने के लिये प्रेरित या बाध्य करने वाले नष्ट हो जाते हैं।
स्पष्टतः श्रीगीता में युद्ध शब्द क्षत्रियों-राज्य से मान्यता प्राप्त सैनिकों के लिये-के लिये स्वाभाविक कर्म तो अन्य के लिये सामान्य कर्म से है। श्रीकृष्ण जी योगेश्वर थे और इसलिये उन्होंने इस बात का ध्यान रखा था कि श्री अर्जुन को युद्ध का संदेश इस तरह दिया जाये कि आगे आने वाले भक्त कर्म के रूप में ही समझें क्योंकि अहिंसा के संदेश के साथ ही उन्होंने आगे ऐसे किसी युद्ध की संभानायें समाप्त कर दीं।

अंत में यह कहना भी जरूरी है कि उनका यह पाठ पढ़कर बिल्कुल गुस्सा नहीं आया। श्रीगीता के ज्ञान की थोड़ी समझ रखने वाला व्यक्ति भी न तो दूसरे द्वारा निंदा करने पर दुःखी होता है न प्रशंसा पर फूल कर कुप्पा होता है। हां, हम इतना जरूर कहते हैं कि भई सारी दुनियां के धर्म ग्रंथ पवित्र हैं। उनका खूब आदर करो। आप चाहे किसी भी धर्म के हों अपने पवित्र किताब का खूब प्रचार करो। हमारी श्रीगीता की आलोचना करो तो भी दुःख नहीं है। प्रशंसा करो तो आपकी मर्जी! मगर तुलना करने से पहले इसका पूरा अध्ययन करना जरूरी है। दरअसल श्रीगीता का असली संदेश तो श्री अर्जुन को युद्ध करने का इसलिये दिया गया था क्योंकि उनका यह स्वाभाविक कर्म था। इसका आशय यह है कि श्रीकृष्ण हर भक्त को अपना स्वाभाविक कर्म करते भगवान भक्ति के साथ जीवन व्यतीत करने संदेश दे रहे थे। वैसे मनुष्य का स्वभाव आसानी से नहीं बदलता। जिसका जैसा स्वभाव है वैसा ही वह इस दुनियां को देखेगा भी। हां, उसमें परिवर्तन के लिये एक ही प्रयास हो सकता है वह योगासन और प्राणायम! जो लोग भारतीय अध्यात्म ज्ञान से परे हैं उनसे ऐसी अपेक्षा करना नहीं चाहिये कि वह हमारे धर्म ग्रंथों का सम्मान करें और जितना उनमें ज्ञान है उसके रहते हुए वह किसी के मोहताज भी नहीं है। श्रीगीता एक ऐसा ग्रंथ है जिसके लिये प्रशंसात्मक शब्द कहने की बजाय उसका अध्ययन किया जाना चाहिये। इसका थोड़ा अंश भी समझ पायें तो समझिये भगवान की बहुत कृपा है। हम उस ब्लाग लेखक के भी आभारी हैं जिनकी वजह से यह पाठ लिखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस लेख का आशय यह कतई नहीं है कि उससे हमारा कोई विरोध है। श्रीगीता पर लिखने की प्रेरणा देने वाले व्यक्ति का आभार व्यक्त न करना कृतघ्नता होगी। शेष फिर कभी!
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अपराध और पाप में भी लिंगभेद-आलेख (hindi article)


भारतीय समाज की भी बड़ी अजीब हालत है। अच्छाई या बुराई में भी वह जाति, धर्म, लिंग और क्षेत्र के भेद करने से बाज नहीं आता। अनेक तरह के वाद विवादों में तमाम तरह के भेद ढूंढते बुद्धिजीवियों ने शायद उन दो घटनाओं को मिलाने का शायद ही प्रयास किया हो जो सदियों पुराने लिंग भेद का एक ऐसा उदाहरण जिससे पता लगता है कि गल्तियों और अपराधों में भी किस तरह हमारे यहां भेद चलता है।
दोनों किस्से टीवी पर ही देखने को मिले थे। एक किस्सा यह था कि कहीं किसी सुनसान सड़क से पुलिस वाले अपनी गाड़ी में बैठकर निकल रहे थे। रास्ते में एक स्थान पर एक मंदिर पड़ा। जब वह उसके पास से गुजरे तो उन्हें अंदर से एक बच्चे के रोने की आवाज सुनाई दी। वह जगह सुनसान थी और इस तरह आवाज सुनाई देना उनको संदेहास्पद लगा। तब वह पूरी टीम अंदर गयी। वहां उनको एक बच्चा अच्छी चादर में लिपटा मिला। उन्होंने उसको उठाया और इधर उधर देखा पर कोई नहीं दिखाई दिया। पुलिस वालों को यह समझते देर नहीं लगी कि उस बच्चे को कोई छोड़ गया है।
अब पुलिस वालों के लिये समस्या यह थी कि उस बच्चे की असली मां को ढूंढे पर उससे पहले बच्चे की सुरक्षा करना जरूरी था। वह उसको अस्पताल ले गये। डाक्टरों ने बताया कि बच्चा पूरी तरह स्वस्थ है। मगर पुलिस वालों को समस्या यही खत्म होने वाली नहीं थी। वह सब पुरुष थे और उस बच्चे के लिये उनको एक अस्थाई मां चाहिये थी। वह भी ढूंढ निकाली और उसे बच्चा संभालने के लिये दिया और फिर शुरु हुआ उनके अन्वेषण का दौर। वह उसकी असली मां को ढूंढना चाहते थे। तय बात है कि इसके लिये उनको उन हालतों पर निगाह डालना जरूरी था जिसमें वह बच्चा मिला। ऐसी स्थिति में पुलिस वाले भी आम इंसानों जैसा सोचें तो कोई आश्चर्य नहीं होता। उन्होंने बच्चा उठाया था कोई अपराधी नहीं पकड़ा था जिससे पूछकर पता लगाते।
पुलिस का समाज से केवल इतना ही सरोकार नहीं होता कि वह इसका हिस्सा है बल्कि उसके लिये उनको समाज के आम इंसान आदतों, प्रवृत्तियों और ख्यालों को भी देखना होता है।
एक पुलिस वाले का बयान हृदयस्पर्शी लगा। उसने कहा कि -‘‘बच्चा किसी अच्छे घर का है शायद अविवाहित माता के गर्भ से पैदा हुआ है इसलिये उसे छोड़ा गया है। वरना लड़का कोई भला ऐसे कैसे छोड़ सकता है? लड़के को बहुत अच्छी चादर में रखा गया है। उसे अच्छे कपड़े पहनाये गये हैं।’;
एक जिम्मेदार पुलिस वाले के लिये यह संभव नहीं है कि वह कोई ऐसी बात कैमरे के सामने कहे जो लोगों को नागवार गुजरे। उनकी आंखों से बच्चे के भविष्य को लेकर चिंतायें साफतौर से दिखाई दे रही थी। ऐसी स्थिति में पुलिस वालों ने बच्चे की सहायता करते हुए ऐसे व्यक्तिगत प्रयास भी किये होंगे जो उनके कर्तव्य का हिस्सा नहीं होंगे। उनकी बातों से बच्चे के प्रति प्रेम साफ झलक रहा था।
पुलिस अधिकारी यह शब्द हमें मर्मस्पर्शी लगे ‘वरना लड़का कौन ऐसे छोड़ता है’। ऐसे लगा कि इन शब्दों के पीछे पूरे समाज का जो अंतद्वद्व हैं वह झलक रहा हो जिसे वह व्यक्त करना चाहते हों।
लगभग कुछ ही देर बाद एक ऐसी ही घटना दूसरे चैनल पर देखने को मिली। वहां एक नवजात लड़की का शव एक कूड़ेदान में मिला। वहां भी पुलिस वालों का कहना था कि ‘संभव है यह लड़की अविवाहित माता के गर्भ से उत्पन्न हुई हो या फिर लड़की होने के कारण उसे यहां फैंक दिया हो।’

इन दोनों घटनाओं के पुलिस क्या कर रही है या क्या करेगी-यह उनकी अपनी जिम्मेदारी है। इसके बारे में अधिक पढ़ने या सुनने को नहीं मिला। जो लड़का जीवित मिला उसके लिये वह आगे भी ठीक रहे इसके निंरतर सक्रिय रहेंगे ऐसा उनकी बातों से लग रहा था। यहां हम इन दोनों घटनाओं में समाज में व्याप्त लिंग भेद की धारणा पर दृष्टिपात करें तो तो सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि लोग गल्तियां करने पर भी लिंग भेद करते हैं।
एक मां ने अपना लड़का इसलिये ही मंदिर में छोड़ा कि वह उसके काम नहीं आया तो किसी दूसरे के काम आ जायेगा-मंदिर है तो वहां कोई न कोई धर्मप्रिय आयेगा और उस लड़के को बचा लेगा। क्या उसने अच्छी चादर में लपेटकर इसलिये मंदिर में छोड़ा कि जो उसे उठाये उसके सामने बच्चे की रक्षा के लिये तात्कालिक रूप से ढकने के लिये कपड़े की आवश्यकता न हो। क्या उसके मन में यह ख्याल था कि आखिर लड़का है किसी के काम तो आयेगा? कोई तो लड़का पाकर खुश होगा? कोई तो लड़का मिलने पर जश्न मनायेगा?
लड़की को फैंकने वाले परिवारजनों ने क्या यह सोचकर कूड़ेदान में फैंका कि लड़की भला किस काम की? हम अपना त्रास दूसरे पर क्यों डालकर अपने ऊपर पाप लें? क्या उन्होंने सोचा कि लड़की उनके लिये संकट है इसलिये उसे ऐसी जगह फैंके जहां वह बचे ही नहीं ताकि कोई उसकी मां को ढूंढने का प्रयास न करे।
कभी कभी तो लगता है कि बच्चों को गोद लेने और देने की लोगों को व्यक्तिगत आधार पर छूट देना चाहिये। जिनको बच्चा न हो उन्हें ऐसे बच्चों को गोद लेने की छूट देना चाहिये जिनसे उनके माता या पिता छुटकारा पाना चाहते हैं। दरअसल निःसंतान दंपत्ति बच्चे गोद लेना चाहते हैं पर इसके लिये जो संस्थान और कानून है उनसे जूझना भी उनको एक समस्या लगती है। ऐसे में अगर कोई उनको अपना बच्चा देना चाहे तो उनके लिये किसी प्रकार की बाध्यता नहीं होना चाहिये। कहीं अगर किसी नागरिक को बच्चा पड़ा हुआ मिल जाये तो उसे कानून के सहारे वह बच्चा रखने की अनुमति मिलना चाहिये न कि उससे बच्चा लेकर कोई अन्य कार्रवाई हो। पता नहीं ऐसा क्यों लगता है कि बिना विवाह के बच्चे पैदा करने की प्रवृत्ति तो रोकी नहीं जा सकती पर ऐसे बच्चों को निसंतान दंपत्ति को लेने के लिये अधिक कष्टदायी नियम नहीं होना चाहिये। इन दोनों घटनाओं ने लेखक को ऐसी बातें सोचने के लिये मजबूर कर दिया जो आमतौर से लोग सोचते हैं पर कहते नहीं। बहरहाल लड़के और लड़की के परिवारजनों ने लिंग भेद के आधार पर ऐसा किया या परिस्थितियों वश-यह कहना कठिन है पर समाज में जो धारणायें व्याप्त हैं उससे इन घटनाओं में देखने का प्रयास हो सकता है क्योंकि यह कोई अच्छी बात नहीं है कि कोई अपने बच्चे इस तरह पैदा कर छोड़े। खासतौर से जब लड़का मंदिर में और लड़की कुड़ेदान में छोड़ी जायेगी तब इस तरह की बातें भी उठ सकती हैं।
पश्चिमी चकाचैंध ने इस देश की आंखों को चमत्कृत तो किया है पर दिमाग के विचारों की संकीर्णता से मुक्त नहीं किया। पश्चिम में अनेक लड़कियां विवाह पूर्व गर्भ धारण कर लेती हैं पर अपना गर्भ गिरा देती हैं या फिर बच्चा पैदा करती हैं। उनका समाज उन पर कोई आक्षेप नहीं करता इसलिये ही वहां इस तरह बच्चों को फैंकने की घटनायें होने के समाचार कभी भी सुनने को नहीं मिलते।
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कबीर संदेश:ज्ञान चर्चा चौराहे पर और ध्यान एकांत में ही करो


अष्ट सिद्धि नव निधि लौं, सबही मोह की खान
त्याग मोह की वासना, कहैं कबीर सुजान

संत श्री कबीरदास का कथन है कि आठों सिद्धियां और नवों निधियां तो मोह की खान है। अतः इस मोह को त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

चर्चा करु तब चौहटे, ज्ञान करो तब दोय
ध्यान करो तब एकिला, और न दूजा कोय

संत श्री कबीरदास जी का कथन है जब ज्ञान चर्चा चौराहै पर करो पर जब उसका अध्ययन करना हो तो दो लोगों की बीच में ही ठीक है। ज्ञान के बारे में जब ध्यान, चिंतन और मनन करना हो तो उसे एकांत में ही रहे जहां कोई दूसरा व्यक्ति न हो।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हम लोग अक्सर यह कहते हैं कि अमुक संत सिद्ध है और उसकी शरण लेना चाहिए या वह तो बहुत पहुंचे हुए हैं। कई कथित संत और साधु अपने लिये बकायदा विज्ञापन करते हैं जैसे कि बहुत बड़े सिद्ध हों। यह सब ढोंग हैं। अनेक लोग मंत्रों आदि के द्वारा काम सिद्ध करने का दावा करते हैं। यह सब मोह से उपजा भ्रम है। सिद्धियां और निधियों की आड़ में अनेक लोग धंधा कर रहे हैं। सिद्धि केवल मन की शांति के रूप में ही है बाकी तो दुनियां चलती है। माया का भंडार पास में हो पर अगर मन अशांत हो तो वह भी व्यर्थ नजर आता है। इस प्रकार की मानसिक शांति लिये तत्व ज्ञान होना चाहिये। वैसे तो इसके लिये गुरु का होना जरूरी है पर न मिले तो किसी समक+क्ष व्यक्ति के साथ बैठकर स्वाध्याय करना चाहिये। उसके बाद अकेले ध्यान में बैठकर अपने द्वारा ग्रहण तत्व पर विचार करना ही ठीक है। हां, उसकी चर्चा चार लोगों के करने में कोई बुराई नहीं है। इस चर्चा से न केवल अपने दिमाग में मौजूद ज्ञान का पूर्नस्मरण हो जाता है और वह पुष्ट भी होता है।

हम जो ज्ञान प्राप्त करें उससे अपने आपको सिद्ध मान लेना मूर्खता है क्योंकि तत्व ज्ञान का रूप अत्यंत सूक्ष्म है पर उसका विस्तार इतना दिया जाता है कि लोग उसका लाभ व्यवसायिक रूप से उठाते हैं। अनेक सिद्धियों और निधियों का प्रचार इस तरह किया जाता है जैसे वह दुनियां में रह मर्ज की दवा हैं। इनसे दूर होकर अपने स्वाध्याय, ध्यान और ज्ञान से अपने मन के विकार दूर करते रहना चाहिये।
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कबीर के दोहे: भक्ति में बदलाव से संताप बढ़ता है


सौ वर्षहि भक्ति करि, एक दिन पूजै आन
सो अपराधी आत्मा, पैर चौरासी खान

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि सौ वर्ष तक अपने इष्ट या गुरु की भक्ति करने के बाद एक दिन किसी दूसरे देवी देवता की पूजा कर ली तो समझ लो कि पहले की भक्ति गड़ढे में गयी और अपनी आत्मा ही रंज होने लगती है।
कामी तिरै क्रोधी तिजै, लोभी की गति होय
सलिल भक्त संसार में, तरत न देखा कोय

कामी क्रोधी और लोभी व्यक्ति थोड़ी भक्ति करने के बाद भी इस भवसागर को तैर कर पार कर सकता है पर शराब का सेवन करने वालों की कोई गति नहीं हो सकती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक बार जिस इष्ट की आराधना करना प्रारंभ किया तो फिर उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहिये। सभी जानते हैं कि परमात्मा का एक ही है पर इंसान उसे अलग अलग स्वरूपों में पूजता है। जिस स्वरूप की पूजा करें उसमें पूर्ण रूप से विश्वास करना चाहिये। जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं पर दूसरों के कहने में आकर इष्ट का स्वरूप नहीं बदलना चाहिये। दरअसल विश्वास में बदलाव अपने अंदर मौजूद आत्मविश्वास का ही कमजोर करता है और हम अपने जीवन में आयी परेशानियों से लड़ने की क्षमता खो बैठते हैं।
अपने देश में जितना भक्तिभाव है उससे अधिक अधविश्वास है। किसी की कोई परेशानी हो तो दस लोग आते हैं कि अमुक जगह चलो वहां के पीर या बाबा तुम्हारी परेशानी दूर कर देंगे और परेशान आदमी उनके कहने पर चलने लगता है और अपने इष्ट से उसका विश्वास हटने लगता है। कालांतर में यही उसके लिये दुःखदायी होने लगता है। इस तरह अनेक प्रकार की सिद्धों की दुकानों बन गयी हैं जहां लोगों की भावनाओंं का दोहन जमकर दिया जाता है। सच बात तो यह है कि जीवन का पहिया घूमता है तो अनेक काम रुक जाते हैं और रुके हुए काम बन जाते हैं किसी सिद्ध के चक्कर लगाने से कोई काम नहीं बनता। इस तरह का भटकाव जीवन में तनाव का कारण बनता है। कोई एक काम बन गया तो दूसरे काम के लिये सिद्ध के पास भाग रहे हैं। इस तरह विश्वास में बदलाव हमारी संघर्ष की भावना का कमजोर करता है।

अपनी जिंदगी में हमेशा एक ही इष्ट पर यकीन करना चाहिये। यह मानकर चलें कि अगर कोई काम रुका है तो उनकी मर्जी से और जब समय आयेगा तो वह भी पूरा हो जायेगा। वैसे जीवन में प्रसन्न रहने का सबसे अच्छा उपाय तो निष्काम भक्ति ही है पर उसके लिये दृष्टा बनकर जीना पड़ता है। यह मानकर चलना पड़ता है कि इस तरह के उतार चढ़ाव जीवन का एक अभिन्न अंग है। साथ में निष्प्रयोजन दया भी करते रहना चाहिये यह सोचकर कि पता नहीं इस देह पर आये संकट के लिये कब कौन सहायता करने आ जाये।
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भर्तृहरि शतकः कामदेव करते हैं इस विश्व में अद्भुत लीला



कृशः काणः खञ्ज श्रवणरहितः पुच्छविकलो
व्रणी पूयक्लिनः कृमिकुलशतैरावुततनु
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककापालार्पिततगलः
शनीमन्वेति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः

हिंदी में भावार्थ-देह से दुर्बल, खुजली वाला, बहरा काना, पुंछ विहीन, फोड़ों से भरा, पीव और कीट कृमियों से लिपटा, भूख से व्याकुल, बूढ़ा मिट्टी के घड़े में फंसी हुई गर्दन वाला कुत्ता भी नई तथा युवा कुतिया के पीछे पीछे दुम हिलाता हुआ फिरता है। यह कामदेव की लीला है कि वह मरे हुए में भी काम भावना लाकर उसे गहरी खाई में ढकेल कर मार देते हैं।
संपादकीय व्याख्या-कामदेव की विचित्र लीला है। कोई भी कितना तपस्वी या ज्ञानी क्यों
न हो उसे अपने मन में कभी अपने भाव लाकर विचलित कर ही देते हैं। ऐसा कोई जीव इस धरती पर नहीं है जो काम वासना के आधीन हैं होता हो। सच बात तो यह है की इस जीवन का आधार ही काम देव महाराज निर्मित करते हैं। मनुष्य हो या पशु अपनी जाति की नवयौवना को देखते उत्तेजित हो जाता है। यह अलग बात है की मनुष्यों में कुछ लोग कनखियों से देखकर आह भरते हैं पर प्रदर्शित ऐसे करते हैं कि कि वह तो सामान्य दृष्टि से देख रहे है।

मनु स्मृति: जो कार्य हृदय को कष्ट दे उसे न करें


१.जो कार्य दूसरों के अधीन रहकर ही किये जा सकते हैं उनको पूरी तरह त्याग देना ही श्रेयस्कर है, तथा अपने अधीन सभी कार्यों का अनुष्ठान पूरे प्रयत्न करना चाहिए।

२.जो कुछ दूसरे के अधीन है, वह सब दु:ख है और जो अपने वश में है वही सुख है। यही सुख-दुख के लक्षण हैं।

३.जिस कार्य से मन की शांति तथा अंतरात्मा को प्रसन्नता प्राप्त हो, उसे करने का पूरा प्रयत्न करना चाहिऐ, परन्तु जिस कार्य से मन में अशांति होती है उसे त्याग देना ही अच्छा है।

४.परमात्मा की सता में अविश्वास रखना, वेदों की निंदा करना, देवताओं की अवज्ञा, शत्रुता-विरोध, पाखण्ड, अंहकार, क्रोध करना तथा स्वभाव में उग्रता होना ऐसे दोष हैं, जिनका त्याग करना चाहिऐ।
५.किसी के द्वारा अपराध हो जाने पर क्रोधवश उसे पीटने के लिए डंडा नहीं उठाना चाहिए, व्यक्ति को केवल अपने पुत्र या शिष्य को शिक्षित करने की मर्यादा निभाने के लिए ही उसे पीटने का अधिकार है।

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संत कबीर के दोहे: किसी की बुराई करने की बजाय दूसरे की प्रशंसा करें


संत श्री कबीरदास जी के अनुसार
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काहू का नहिं निन्दिये, चाहै जैसा होय
फिर फिर ताको बन्दिये, साधु लच्छ है सोय

किसी भी व्यक्ति का दोष देखकर भी उसकी निंदा न करें। अपना कर्तव्य तो यही है कि जो साधु और गुणी हो उसका सम्मान करें और उसकी बातों को समझें

तिनका कबहू न निंदिये, पांव तले जो होय
कबहुं उडि़ आंखों पड़े, पीर घनेरी होय

आशय यह है कि दूसरे के दोष देखकर उसकी निंदा से बचने का प्रयास करना चाहिये। तिनके तक की निंदा भी नहीं करना चाहिये। पता नहीं कब आंखों में गिरकर त्रास देने लगे।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही दूसरों की निंदा करने में लगा है। इसी प्रवृत्ति के कारण एक दूसरे से दूर हो जाते हैं। सक एक दूसरे की सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा पर आमादा हो जाते हैंं। यही कारण है कि किसी का किसी पर यकीन नहीं हैं। अगर हम किसी की यह सोचकर निंदा करते हैं कि उससे क्या डरना वह कुछ नहीं कर सकता। यह भ्रम है। इस जीवन में पता नहीं कब किसकी आवश्यकता पड़ जाये-यही सोचकर किसी की निंदा नहीं करना चाहिये। दोष सभी में होते हैं। मानव देह तो दोषों का पुतला है फिर निंदा कर दूसरे लोगों से अपना वैमनस्य क्यों बढ़ाया जाये?

बजाय दूसरों की निंदा करने के ऐसे लोगों से संपर्क रखना चाहिये जो साधु प्रवृत्ति के हों। उनके सद्गुणों की चर्चा करना चाहिये। यह तय बात है कि हम अपने मूंह से अगर किसी के लिये बुरे शब्द निकालते हैं तो उसका हमारी मानसिकता पर ही बुरा प्रभाव पड़ता है। अगर किसी के बारे मे सद्चर्चा की जाये तो उसका सकारात्मक प्रभाव दिखता है।
हमने देखा होगा कि समाज में वैमनस्य केवल इसलिए बढ़ रहा क्योंकि लोग एक दूसरे के सामने तो प्रशंसा करते हैं पर पीठ पीछे निंदा करते हैं। इससे समाज में आपसी विश्वास की कमी जो बढ़ी है उससे लोगों को मानसिक संताप तथा अकेलेपन की भावना आहत कर देती हैं जो कि स्वास्थ्य की दृष्टि से अच्छी बात नहीं है।
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संत कबीर के दोहे:दारु आदमी को पशु बना देती है


औगुन कहूं सराब का, ज्ञानवंत सुनि लेय
मानुष सों पसुवा करै, द्रव्य गांठि का देय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि शराब में ढेर सारे अवगुण हैं। ज्ञानी लोगों को यह बात समझ लेना चाहिये। शराब तो मनुष्य को एक तरह से पशु बना देती है और इसके लिये वह अपनी गांठ से पैसा भी नष्ट करता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-सैंकड़ों वर्ष पहले कबीरदास जी ने शराब के अवगुणों का वर्णन किया था। कहने को आज समाज सभ्य होता जा रहा है पर उसके रीति रिवाजों में जिस तरह तमाम तरह के व्यसन भाग बन रहे हैं उस पर किसी को चिंता नहीं है। मजे की बात यह है कि लोग धर्म के नाम पर तमाम तरह की रिवाज अपनाये हुए हैं पर उसमें शराब आदि का उपयोग धड़ल्ले से किया जाता है। कई जगह तो मूर्तियों पर ही शराब चढ़ाने की प्रथा भी शुरू की गयी है। कहने को भारतीय संस्कृति और संस्कारों का दावा तो तमाम तरह के प्रचार माध्यमों में किया जाता है पर वर्तमान में समाज किस तरह अंधा होकर दुव्र्यसनों को अपने रीति रिवाजों का हिस्सा बना बैठा है उस पर कोई ध्यान नहीं देता। सगाई, शादी, पिकनिक या कही बैठक होने पर शराब की बोतल खोलकर लोग अपनी खुशियों का इजहार करते हैं। क्रिकेट टीम जीतने पर बीयर खोलने के दृश्य कई जगह दिखाई देते हैं। हालांकि कहने वाले कहते हैं कि बीयर शराब नहीं होती पर यह अपने आप में एक व्यर्थ का तर्क है। नशा सभी में हैं और आदमी उसे जब पीता है तो वह पशु भाव को प्राप्त हो जाता हैं लज्जा और सम्मान से परे होकर वह बात करता है। शराब पीने से कई घरों की आर्थिक और सामाजिक स्थिति खराब हूई है इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है।

तमाम तरह के ऐसे लोग हैं जो अपनी जाति, भाषा और धर्म के समूहों के नेतृत्व का दावा करते हैं पर वह ऐसी बुराईयों की तरफ ध्यान नहीं देते जिससे उनके लोगों की मानसिकता विकृत हो रही है। आजकल तो समाज में शराब का सेवन इस मात्रा में बढ़ गया है लोग एक दूसरे से खुलेआम काकटेल पार्टी मांगते हैं। पहले लोग पीते थे तो छिपाते थे पर आजकल तो दिखाकर पीते हैं कि देखो हम आधुनिक हो गये हैं। शराब पीने की बढ़ती प्रवृत्ति ने समाज को अंदर से बहुत खोखला कर दिया है। समाज विज्ञानी इस बात को कहते हैं पर जिनके हाथ में समाजों का नियंत्रण है वह केवल अपने नारे लगाने और झूठा स्वाभिमान दिखाकर अपने लोगों की बुराईयों को छिपाते हैं।
सच बात तो यह है कि शराब पीना निजी मामला नहीं है। जो शराब पीते हैं उन पर विश्वास तो कतई नहीं करना चाहिये। इस पाठ के संपादक का मत तो यह है कि अगर हम स्वयं भी शराब पीयें तो हमें अपने पर ही विश्वास नहीं करना चाहिये। जब किसी से किसी काम का वादा करें तो मान लेना चाहिये कि झूठा वादा कर रहे हैं। न भी माने तो दूसरे लोग ऐसा ही समझते हैं। शराब पीने से जो मानसिक और बौद्धिक क्षति होती है उसकी अनुभूति तभी हो सकती है जब पीने वाले उसे छोड़ कर देखें।

कहने वाले कहते हैं शराब पीने से गम कहते हैं पर स्वास्थ्य विज्ञानी कहते हैं कि इसके सेवन से मनुष्य की इच्छा शक्ति में कमी आती है और वह जीवन संघर्ष से बहुत जल्दी घबड़ा जाता है।
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कबीर के दोहे: लड़ने से अधिक बांटकर खाने में चाहिए हिम्मत


कबीर तो सांचै मतै, सहै जू सनमुख वार
कायर अनी चुभाय के, पीछे झखै अपार

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहत हैं कि सच्चा वीर तो वह है जो सामने आकर लड़ता है पर जो कायर है वर पीठ पीछे से वार करता है।

तीर तुपक सों जो लड़ैं, सो तो सूरा नाहिं
सूरा सोइ सराहिये, बांटि बांटि धन खांहि

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि जो अस्त्र शस्त्र से लड़ते है। उनको वीर नहीं कहा जा सकता है। सच्चे शूरवीर तो हैं जो आपस में मिल बैठकर खाते हैं। वह जो भी कमाते हैं उसे समान रूप से आपस में बांटते हैं।

वर्तमान सन्दर्भ में संपादकीय व्याख्या-शूरवीर हमेशा उसे ही माना जाता है जो अस्त्र शस्त्र का उपयोग करता है। उनमें भी वही वीर है जो सामने से वार करता है पर जो कायर हैं वह पीठ पीछे वार करते हैं। वैसे अस्त्र शस्त्र से लड़ने में भी साहस की आवश्यकता कहां होती है। अगर अस्त्र शस्त्र हाथ में हों तो वेसे भी मनुष्य के मन में दुस्साहस आ ही जाता है और कोई भी उपयोग कर सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि हथियार रखने से क्या होता है उसे चलाने के लिये साहस भी होना चाहिये-विशेषज्ञ मानते हैं कि अगर लोहे से बना कोई हथियार मनुष्य के हाथ में हो तो उसमें आक्रामता आ ही जाती है।

असली साहस तो अपने कमाये धन का दूसरे के साथ बांटकर खाने में दिखाना चाहिये। आदमी जब धन कमाता है तो उसके प्रति उसका मोह इतना हो जाता है कि वह उसे किसी को थोड़ा देने में भी हिचकता है। मिलकर बांटने की बात तो छोडि़ये अपनी रोटी का छोटा टुकड़ा देने में भी आदमी की जान जाती है।

हमारे प्राचीन मनीषियों ने दान की महिमा को इसलिये प्रतिपादित किया कि समाज में सामाजिक समरसता का भाव रहे। हमारे अध्यात्म में इतना तक कहा गया है कि किसी को दान देते हुए आंखें नीची करना चाहिये ताकि दूसरे को हमारा अहंकार नहीं दिखाई दे और उसके अंदर अपने प्रति कुंठा भाव न उत्पन्न हो। मगर अब तो समाज कल्याण की बात राज्य के भरोसे छोड़ दी गयी है और वही लोग जन कल्याण के लिये मैदान में उतर रहे हैं जिनको उससे कुछ आर्थिक फायदा है। यह लोग कायर होते हैं क्योंकि दान और कल्याण क लिये प्राप्त धन का वह हरण करते हैं।

कलुषित तरीके से प्राप्त धन का भी वह दान करने का साहस नहीं कर पाते। अपने धन देने में सभी का हृदय कांपने लगता है। सच है कि जो दानी है वही सच्चा शूरवीर है। वह भी सच्चा वीर है जो अस्त्र शस्त्र लेकर कहकर सामने से प्रहार करता है पर आजकल तो कायरों की पूरी फौज है जो पीठ पीछे से वार करती है। चोर और डकैतों द्वारा किये गये और अपराध और निरंतर बम धमाकों की बढ़ती घटनायें इस बात का प्रमाण हैं।

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विदुर नीति:विद्वान दुर्लभ वस्तु पाने की कामना नहीं करते


1.संपूर्ण भौतिक पदार्थों की वास्तविकता का जो ज्ञान रखता है तथा सभी कार्यों को संपन्न करने का ढंग तथा उसका परिणाम जानता है वही विद्वान कहलाता है।
2.जिसकी वाणी में वार्ता करते हुए कभी बाधा नहीं आती तथा जो विचित्र ढंग से बात करता है और अपने तर्क देने में जिसे निपुणता हासिल है वही पंडित कहलाता है।
3.जिनकी बुद्धि विद्वता और ज्ञान से परिपूर्ण है वह दुर्लभ वस्तु को अपने जीवन में प्राप्त करने की कामना नहीं करते। जो वस्तु खो जाये उसका शोक नहीं करते और विपत्ति आने पर घबड़ाते नहीं हैं। ऐसे व्यक्ति को ही पण्डित कहा जाता है।
4.जो पहले पहले निश्चय कर अपना कार्य आरंभ करता है, कार्य को बीच में नहीं रोकता। अपने समय को व्यर्थ नहीं जाने देता और अपने चित्त को वश में रखता है वही पण्डित कहलाता है।
5.विद्वान पुरुष किसी भी विषय के बारे में बहुत देर तक सुनता है और तत्काल ही समझ लेता है। समझने के बाद अपने कार्य से कामना रहित होकर पुरुषार्थ करने के तैयार होता है। बिना पूछे दूसरे के विषय में व्यर्थ बात नहीं करता। इसलिये वह पण्डित कहलाता है।

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