Category Archives: अभिव्यक्ति

गुरु वही जो शिष्य के भ्रम तथा भ्रांतियां मिटाए-गुरु पूर्णिमा पर विशेष हिन्दी लेख (bhram mitae vahi guru-special hindi ariticl on guru purnima)


        आज गुरुपूर्णिमा का पावन पर्व पूरे देश में हर्षोल्लास से मनाया जा रहा है। हमारे अध्यात्म दर्शन में गुरु का बहुत महत्व है-इतना कि श्रीमद् भागवत् गीता में गुरुजनों की सेवा को धर्म का एक भाग माना गया है। शायद यही कारण है कि भारतीय जनमानस में गुरु भक्ति का भाव की इतने गहरे में पैठ है कि हर कोई अपने गुरु को भगवान के तुल्य मानता है। यह अलग बात है कि अनेक महान संत गुरु की पहचान बताकर चेताते हैं कि ढोंगियों और लालचियों को स्वीकार न करें तथा किसी को गुरु बनाने से पहले उसकी पहचान कर लेना चाहिए। भारतीय जनमानस की भलमानस का लाभ उठाकर हमेशा ही ऐसे ढोंगियों ने अपने घर भरे हैं जो ज्ञान से अधिक चमत्कारों के सहारे लोगों को मूर्ख बनाते हैं। ऐसे अनेक कथित गुरु आज अधिक सक्रिय हैं जो नाम तो श्रीगीता और भगवान श्रीकृष्ण का लेते हैं पर ज्ञान के बारे में पैदल होते हैं।
ऐसा सदियों से हो रहा है यही कारण है कि संत कबीर ने बरसों पहले कहा था कि 
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‘‘गुरु लोभी शिष लालची दोनों खेलें दांव।
दोनों बूड़े बापुरै, चढ़ि पाथर की नांव।।
           “गुरु और शिष्य लालच में आकर दांव खेलते हैं और पत्थर की नाव पर चढ़कर पानी में डूब जाते हैं।”
संत कबीर को भी हमारे अध्यात्म दर्शन का एक स्तंभ माना जाता है पर उनकी इस चेतावनी का बरसों बाद भी कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता। आजकल के गुरु निरंकार की उपासना करने का ज्ञान देने की बजाय पत्थरों की अपनी ही प्रतिमाऐं बनवाकर अपने शिष्यों से पुजवाते हैं। देखा जाये तो हमारे यहां समाधियां पूजने की कभी परंपरा नहीं रही पर गुरु परंपरा को पोषक लोग अपने ही गुरु के स्वर्गवास के बाद उनकी गद्दी पर बैठते हैं और फिर दिवंगत आत्मा के सम्मान में समाधि बनाकर अपने आश्रमों में शिष्यों के आने का क्रम बनाये रखने के लिये करते हैं।
आजकल तत्वज्ञान से परिपूर्ण तो शायद ही कोई गुरु दिखता है। अगर ऐसा होता तो वह फाईव स्टार आश्रम नहीं बनवाते। संत कबीर दास जी कहते हैं कि-
‘‘सो गुरु निसदिन बन्दिये, जासों पाया राम।
नाम बिना घट अंध हैं, ज्यों दीपक बिना धाम।।’’
           “उस गुरु की हमेशा सेवा करें जिसने राम नाम का धन पाया है क्योंकि बिना राम के नाम हृदय में अंधेरा होता है।”
                      राम का नाम भी सारे गुरु लेते हैं पर उनके हृदय में सिवाय अपने लाभों के अलावा अन्य कोई भाव नहीं होता। राम का नाम पाने का मतलब यह है कि तत्व ज्ञान हो जाना जिससे सारे भ्रम मिट जाते हैं। अज्ञानी गुरु कभी भी अपने शिष्य का संशय नहीं मिटा सकता।
संत कबीरदास जी कहते हैं कि- 
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‘‘जा गुरु से भ्रम न मिटै, भ्रान्ति न जिवकी जाय।
सौ गुरु झूठा जानिये, त्यागत देर न लाय।।’’
                “जिस गुरु की शरण में जाकर भ्रम न मिटै तथा मनुष्य को लगे कि उसकी भ्रांतियां अभी भी बनी हुई है तब उसे यह समझ लेना चाहिए कि उसका गुरु झूठा है और उसका त्याग कर देना चाहिए”
           आजकल तो संगठित धर्म प्रचारकों की बाढ़ आ गयी है। अनेक कथित गुरुओं के पास असंख्यक शिष्य हैं फिर भी देश में भ्रष्टाचार और अपराधों का बोलबाला इससे यह तो जाहिर होता है कि भारत में अध्यात्मिक ज्ञान के प्रभाव सर्वथा अभाव है। व्यवसायिक धर्म प्रचाकर गुरु की खाल ओढ़कर शिष्य रूपी भेड़ों को एक तरह से चरा रहे हैं। मजे की बात यह है कि ऐसे लोग भगवान गुरु नानक देव, संत कबीर दास, कविवर रहीम तथा भक्ति साम्राज्ञी मीरा के नाम का भी आसरा लेते हैं जिनकी तपस्या तथा त्याग से भारतीय अध्यात्म फलाफूला और विश्व में इस देश को अध्यात्म गुरु माना गया। आज के कथित गुरु इसी छबि को भुनाते हैं और विदेशों में जाकर रटा हुआ ज्ञान सुनाकर डॉलरों से जेब भरते हैं।
            आखिर गुरु और ज्ञान कैसे मिलें। वैसे तो आजकल सच्चे गुरुओं का मिलना कठिन है इसलिये स्वयं ही भगवान श्रीकृष्ण का चक्रधारी रूप मन में रखकर श्रीमद्भागवत गीता का अध्ययन करें तो स्वतः ही ज्ञान आने लगेगा। दरअसल गुरु की जरूरत ज्ञान के लिये ही है पर भक्ति के लिये केवल स्वयं के संकल्प की आवश्यकता पड़ती है। भक्ति करने पर स्वतः ज्ञान आ जाता है। ऐसे में जिनको ज्ञान पाने की ललक है वह श्रीगीता का अध्ययन भगवान श्रीकृष्ण को इष्ट मानकर करें तो यकीनन उनका कल्याण होगा। गुरुपूर्णिमा के इस पावन पर्व पर ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों बधाई देते हुए हम आशा करते हैं कि उनका भविष्य मंगलमय हो तथा उन्हें तत्व ज्ञान के साथ ही भक्ति का भी वरदान मिले।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’, ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak  Raj Kukreja ‘Bharatdeep’ Gwalior
http://dpkraj.blogspot.com

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श्रीमद्भागवत गीता का तत्वज्ञान तथा ब्रज की होली के रंग-हिन्दी चिंत्तन लेख (shri madbhawat gita ka tatvagyan tatha brij ki holi ke rang-hindi chintan lekh or thought article)


ब्रज की होली पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। होली पर अनेक गीत ऐसे रचे गये हैं जिनमें बालरूप में भगवान श्रीकृष्ण के शामिल होने की कल्पना सहज भाव से हृदय में उभरती है। गोपियों के साथ श्री कृष्ण के होली के अवसर पर रंग खेलने की बात साकार रूप में भक्ति करने वालों को बहुत सुहाती है। होली को रंगों का त्यौहार कहा गया है और तत्वज्ञानियों की दृष्टि में सांसरिक रंग मनुष्य की आंखों को मोहित करते हैं और इससे वह अंतर्मन के अमूर्त रूप का दर्शन नहीं कर पाता। वैसे जिस तरह समय के साथ आधुनिक विज्ञान के कारण मनुष्य के पास भोग विलास के ऐसे साधन उपलब्ध हो गये हैं जो आंखों के सामने रंग ही रंग लाते हैं इसलिये होली पर रंग खेलने का प्रचलन कम होता जा रहा है। फिर भी लोगों के मन में उल्लास और उत्साह का वातावरण तो रहता ही है।
बीच में ऐसा दौर आया था जब होली के अवसर पर लोग कीचड़ वगैरह फैंककर दूसरों को हानि पहुंचाते थे। इसके अलावा बुरी तरह से मजाक करने का भी सिलसिला भी चलने लगा जिसने अनेक शांतिप्रिय लोगों को इस त्यौहार से विरक्त कर दिया। हालांकि बाद में सरकारी एजेसियों ने ऐसी घटनाओं को रोकने के इंतजाम शुरु किये और उसमें वह सफल रही। अब शांतिप्रिय आदमी चाहे तो धुलेड़ी पर घर से बाहर निकला सकता है। वैसे भी बढ़ती महंगाई में महंगे रंग खरीदकर अब कोई अनजान आदमी से होली नहीं खेलना चाहता। बहरहाल उत्तर भारत में होली का त्यौहार जिस तरह सांसरिक रंगों से मनाया जाता है उसी तरह उसके अध्यात्मिक रंग भी है। कुछ लोग भक्ति भाव से भजन करते हैं तो कुछ लोगों को चिंतन करना भी रास आता है।
बात ब्रज की होली की हो तब भगवान श्रीकृष्ण की चर्चा होने पर जहां साकार उपासक प्रसन्न होते हैं वहीं निराकार तथा ज्ञानी उपासक श्रीमद्भागवद में तत्वज्ञान का रहस्य का विचार करके गद्गद् होते हैं। सच तो यह है कि एक बार वृंदावन से निकलने के बाद भगवान श्रीकृष्ण फिर वापस लौटे ही नहीं। वहां से निकलते ही उन्होंने कंस का वध कर उसकी कैद में रह रही अपनी जननी देविक तथा जनक वासुदेव को मुक्त करवाया। उस समय उनकी आयु छोटी थी इसलिये कंस के समर्थकों से दूर रखने के लिये उन्हें वृंदावन वापस नहीं लौटाया गया। उसके बाद बाणासुर के प्रकोप से अपने लोगों को बचाने के लिये वह द्वारका चले गये। फिर अपने दैहिक जीवन का पूरा समय उन्होंने वहीं बिताया। उनकी विरह में गोपियां पूरा जीवन जीती रहीं पर वह उनका बालकृष्ण तो युवक हो गया था जो अब पूरे संसार में धर्म की स्थापना के लिये उनके प्रति निष्ठुरता दिखा रहा था। वह धर्म जिसका कोई नाम नहीं था बल्कि जिसका आशय सद्आचरण और सभ्य जीवन से था। उसका संदेश देने के लिये भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी निरंतर सक्रियता बनाये रखी जिसे उनकी लीला भी कहा जाता है। श्रीमद्भागवत जैसा अनुपम ग्रंथ उनकी इन्हीं लीलाओं के बीच से निकलकर इस प्रथ्वी पर अवतरित हुआ। सारी दुनियां में विभिन्न धर्म हैं। अनेक लोग विभिन्न रूपों में परमात्मा के स्वरूप को मानते हैं। इनमें कई भगवान श्रीकृष्ण के उपासक नहीं हैं। अन्य धर्मों की बात क्या करें, हिन्दू धर्म में ही भगवान श्रीकृष्ण को न मानने वाले भी हैं। वह अन्य देवताओं या भगवान के अन्य स्वरूपों को भजते हैं। इसके बावजूद श्रीमद्भागवत को पूरी दुनियां तथा धर्मों के लोग अलौकिक और तत्वज्ञान से परिपूर्ण ग्रंथ मानते हैं। श्रीमद्भागवत गीता में ज्ञान नहीं बल्कि विज्ञान भी है। यही कारण है कि उस पर आधुनिक विज्ञानी भी शोध करते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘दैत्यों में मैं प्रह्लाद हूं।’ वह प्रहलाद जिसे उसकी बुआ होलिका मारना चाहती थी। होलिका के पास एक चादर थी। उसे वरदान था कि वह जिस पर भी डालेगी वर मर जायेगा पर उसका स्वयं का बालबांका भी नहीं होगा। उसने प्रहलाद को गोदी में लिया और वह चादर डाल दी। उसी समय हवा तेज चली और प्रहलाद पर डली चादर उड़कर होलिका पर गिरी और वह जल गयी। इसी अवसर के स्मरण में होली पर्व आयोजित किया जाता है। आमतौर से हमारा समाज देवताओं का पूजक है पर दैत्य होकर भी प्रहलाद भगवद्स्वरूप कर सके जो कि उनकी भक्ति का ही परिणाम था। जब भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘दैत्यों में मैं प्रहलाद हूं;’ तो वह इस बात का संदेश भी देते हैं कि मनुष्यों को जातीय भाव से मुक्त होना चाहिए। गुणों के आधार पर मनुष्य की पहचान करना सही है। यही कारण है कि श्रीगीता में उन्होंने ‘गुण ही गुणों को बरतते हैं’ तथा ‘इंद्रियां ही इंद्रियों में बरतती हैं’ जैसे वैज्ञानिक फार्मूल या सूत्र दिये। ऐसे में चिंतन करते हुए ब्रज की होली भूल जाती है क्योंकि तत्वज्ञानी तो प्रतिदिन होली और दिवाली मनाते हैं। उनको प्रसन्नत और आनंद प्राप्त करने के लिये अवसर या दिन का इंतजार नहीं करना पड़ता
होली के इस पावन पर्व पर भगवान श्रीकृष्ण तथा भक्ति के प्रतीक श्री प्रहलाद को कोटि कोटि नमन। इस अवसर पर अपने ब्लाग लेखक मित्रों तथा पाठकों को हार्दिक बधाई।
लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’

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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर 
poet, writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwalior

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सहज योग से असहजता की तरफ-हिन्दी व्यंग्य कविता (sahaj yog se asahjata ki taraf-hindi vyangya kavita)


हम सब भोले हैं या मूर्ख, हृदय ने प्रश्न उठाया।
पर तय है हमारे अज्ञान ने ज्ञान का सूरज उगाया।।
सभी जानते हैं कि शरीर नश्वर है जीव का,
मगर यम के हमले ने फिर भी हर बार सभी को रुलाया,
विश्व समाज के एक समान होने का सपना देखते,
जबकि तीन तरह के होंगे इंसान, श्रीगीता ने सुझाया।
खाने के लिये मरे जाते हैं सभी लोग हर समय,
भूख ने सहज योग से असहजता की तरफ बुलाया।
नये ताजे और स्वादिष्ट से पकवानों से सजाते पेट,
फिर भी ‘दिल मांगे मोर’,हर नयी चीज ने लुभाया।।
कांटों में खिलता गुलाब, कीचड़ में खिलता कमल,
यूं ही मूर्खों की करतूतों ने ज्ञानियो को सत्य सुझाया।
पाखंड, लालच और अहंकार से भरे अपने यहां के लोग
फिर भी प्रशंसनीय है, देश को विश्व गुरु जो बनाया।।
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लेखक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
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बसंत पंचमी और पतंग-हिन्दी आलेख (basant panchami aur patang-hindi lekh)


              हमारे देश में वैसे भी अपने पर्व कम नहीं पर जब से पच्छिम के पर्व संस्कृति का हिस्सा बने हैं तब से तो ऐसा लगता है जैसे रोज कोई नया पर्व मन रहा हो। इस बार की बसंत पंचमी में सर्दी का प्रकोप घेर कर बैठा है। कहीं से भी ऐसा नहीं लग रहा कि मौसम समशीतोष्ण हुआ हो, अलबत्ता लगता है कि सर्दी थोड़ा कम है पर इतनी नहीं कि उसके प्रति लापरवाही दिखाई जा सके। जरा लापरवाही शरीर को संकट में डाल सकती है।

अगर पर्व की बात करें तो बसंत को ऋतुओं का राजा कहा जाता है। यह मौसम खाने पीने और घूमने के लिये बहुत उपयुक्त माना जाता है-यानि पूरा माह आनंद के लिये उपयुक्त है। समशीतोष्ण मौसम हमेशा ही मनुष्य को आनंद प्रदान करता है। वैसे हमारे यहां भले ही सारे त्यौहार एक दिन मनते हैं पर उनके साथ जुड़े पूरे महीने का मौसम ही आनंद देने वाला होता है। ऐसा ही मौसम अक्टुबर में दिपावली के समय होता है। बसंत के बाद फाल्गुन मौसम भी मनोरंजन प्रदान करने वाला होता है जिसका होली मुख्य त्यौहार है। दिवाली से लेकर मकर सक्रांति तक आदमी का ठंड के मारे बुरा हाल होता है और ऐसे में कुछ महापुरुषों की जयंती आती हैं तब भक्त लोग कष्ट उठाते हुए भी उनको मनाते हैं क्योंकि उनका अध्यात्मिक महत्व होता है। मगर अपने देश के पारंपरिक पर्व इस बात का प्रमाण हैं कि उनका संबंध यहां के मौसम से होता है।
प्रसंगवश फरवरी 14 को ही आने वाले ‘वैलंटाईन डे’ भी आजकल अपने देश में नवधनाढ्य लोग मनाते हैं पर दरअसल मौसम के आनंद का आर्थिक दोहन करने के लिये उसका प्रचार बाजार और उसके प्रचार प्रबंधक करते हैं।
बसंत पंचमी पर अनेक जगह पतंग उड़ाकर आनंद मनाया जाता है हालांकि यह पंरपरा सभी जगह नहीं है पर कुछ हिस्सों में इसका बहुत महत्व है।
बहुत पहले उत्तर भारत में गर्मियों के दौरान बच्चे पूरी छूट्टियां पतंग उड़ाते हुए मनाते थे पर टीवी के बढ़ते प्रभाव ने उसे खत्म ही कर दिया है। इसका कारण यह भी हो सकता है कि पहले लोगों के पास स्वतंत्र एकल आवास हुआ करते थे या फिर मकान इस तरह किराये पर मिलते कि जिसमें छत का भाग अवश्य होता था। हमने कभी बसंत पंचमी पर पतंग नहीं उड़ाई पर बचपन में गर्मियों पर पतंग उड़ाना भूले नहीं हैं।
आज टीवी पर एक धारावाहिक में पंतग का दृश्य देखकर उन पलों की याद आयी। जब हम अकेले ही चरखी पकड़ कर पतंग उड़ाते और दूसरों से पैंच लड़ाते और ढील देते समय चरखी दोनों हाथ से पकड़ते थे। मांजा हमेशा सस्ता लेते थे इसलिये पतंग कट जाती थी। अनेक बाद चरखी पकड़ने वाला कोई न होने के कारण हाथों का संतुलन बिगड़ता तो पतंग फट जाती या कहीं फंस जाती। पतंग और माजा बेचने वालों को उस्ताद कहा जाता था। एक उस्ताद जिससे हम अक्सर पतंग लेते थे उससे एक दिन हमने कहा-‘मांजा अच्छा वाला दो। हमारी पतंग रोज कट जाती है।’

            उसे पता नहीं क्या सूझा। हमसे चवन्नी ले और स्टूल पर चढ़कर चरखी उतारी और उसमें से मांजा निकालकर हमको दिया। वह धागा हमने अपने चरखी के धागे में जोड़ा  । दरअसल मांजे की पूरी चरखी खरीदना सभी के बूते का नहीं होता था। इसलिये बच्चे अपनी चरखी में एक कच्चा सफेद धागा लगाते थे जो कि सस्ता मिलता था और उसमें मांजा जोड़ दिया जाता था।

बहरहाल हमने उस दिन पतंग उड़ाई और कम से कम दस पैंच यानि पतंग काटी। उस दिन आसपास के बच्चे हमें देखकर कर हैरान थे। अपने से आयु में बड़े प्रतिद्वंदियों की पंतग काटी। ऐसा मांजा फिर हमें नहीं मिला।     यह पतंग उड़ाने की आदत कब चली गयी पता ही नहीं चला। हालांकि हमें याद आ रहा है कि हमारी आदत जाते जाते गर्मियों में इतने बड़े पैमाने पर पतंग उड़ाने की परंपरा भी जाती रही। पहले क्रिकेट फिर टीवी और इंटरनेट ने पतंग उड़ाने की परंपरा को करीब करीब लुप्त ही कर दिया है।
एक बात हम मानते हैं कि परंपरागत खेलों का अपना महत्व है। पहले हम ताश खेलते थे। अब ताश खेलने वाले नहीं मिलते। शतरंज तो आजकल भी खेलते हैं क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय लोकप्रियता होने के कारण साथी खिलाड़ी मिल जाते हैं। जितना दिमागी आराम इन खेलों में है वह टीवी वगैरह से नहीं मिलता। हमारे दिमागी तनाव का मुख्य कारण यह है कि हमारा ध्यान एक ही धारा में बहता है और उसको कहीं दूसरी जगह लगाना आवश्यक है-वह भी वहां जहां दिमागी कसरत हो। टीवी में आप केवल आंखों से देखने और कानों से सुनने का काम तो ले रहे हैं पर उसके प्रत्युत्तर में आपकी कोई भूमिका नहीं है। जबकि शतरंज और ताश में ऐसा ही अवसर मिलता है। मनोरंजन से आशय केवल ग्रहण करना नहीं बल्कि अपनी इंद्रियों के साथ अभिव्यक्त होना भी है। अपनी इंद्रियों का सही उपयोग केवल योग साधना के माध्यम से ही किया जा सकता है।  इसके लिये आवश्यक है कि मन में संकल्प स्थापित किया जाये।
वैसे बसंत पंचमी पर लिखने का मन करता था पर किसी अखबार में छपने या न छपने की संभावनाओं के चलते लिखते नहीं थे पर अब जब इंटरनेट सामने है तो लिखने के लिये मन मचल उठता है। अब सुबह घर में सुबह बिजली नहीं होती। हमारे घर छोड़ने के बाद ही आती है। इधर रात आये तो पहले सोचा कुछ पढ़ लें। एक मित्र के ब्लाग पर बसंत पंचमी के बारे में पढ़ा। सोचा उसे बधाई दें पर तत्काल बिजली चली गयी। फिर एक घंटा बाद लौटी तो अपने पूर्ववत निर्णय पर अमल के लिये उस मित्र के ब्लाग पर गये और बधाई दी। तब तक इतना थक चुके थे कि कुछ लिखने का मन ही नहीं रहा। वैसे इधर सर्दी इतनी है कि बसंत के आने का आभास अभी तो नहीं लग रहा। कुछ समय बाद मौसम में परिवर्तन आयेगा यह भी सच है। बसंत पंचमी का एक दिन है पर महीना तो पूरा है। इस अवसर पर ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई। उनके लिये पूरा वर्ष मंगलमय रहे।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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बनारस (वाराणसी)में शीतला घाट पर विस्फोट दुःखद-हिन्दी लेख banaras (varanasi)mein sheela ghat par visfot-hindi lekh)


बनारस (वाराणसी) में गंगा नदी के किनारे शीतला घाट पर परंपरागत आरती के दौरान एक विस्फोट होने से अनेक दिनों से देश में अभी तक थम चुकी आतंकवादी गतिविधियों के पुनः सक्रिय होने की पुष्टि होती है। स्पष्टतः इस तरह के विस्फोट पेशेवर आतंकवादी अपने आकाओं के कहने पर करते हैं। ऐसे विस्फोटों में आम इंसान घायल होने के साथ ही मरते भी हैं। यह देखकर कितना भी आदमी कड़ा क्यों न हो उसका दिल बैठ ही जाता है।
वैसे तो आतंकवादी संगठनों के मसीहा अपने अभियान के लिये बहुत बड़ी बड़ी बातें करते हैं। अपनी जाति, भाषा, धर्म या वर्ग के लिये बड़े बड़े दुश्मनों का नाम लेते हैं। आरोप लगाते हैं कि उनके विरोधी समूहों के बड़े लोग उनके समूह के साथ अन्याय करते हैं पर जब आक्रमण करते हैं तो वह उन आम इंसानों पर हमला करते हैं जो स्वयं ही लाचार तथा कमजोर होते हैं। अपने काम में व्यस्त या राह चलने पर असावधान होते हैं। उनको लगता नहीं है कि कोई उन पर हमला करेगा। मगर प्रतीकात्मक रूप से प्रचार के लिये ऐसे विस्फोटों में वही आम आदमी निशाना बनता है जिनसे आंतकवादियों को प्रत्यक्ष कुछ प्राप्त नहीं होता, अलबत्ता अप्रत्यक्ष रूप से वह अपने प्रायोजकों को प्रसन्न करते हैं।
इन विस्फोटों का क्या मतलब हो सकता है? यह अभी पता नहीं। कुछ दिन बाद जांच एजेंसियां इसके बारे में बतायेंगी। फिर कभी कभी अपराधियों के पकड़े जाने की जानकारी भी आ सकती है। उनका भी जाति, धर्म, भाषा या वर्ग देखकर प्रचार माध्यम बतायेंगे कि शायद जल्दबाजी में सुरक्षा कर्मियों ने अपने ऊपर आये दबाव को कम करने के लिये किसी मासूम को पकड़ा है।
एक बात निश्चित है कि इस तरह के बमविस्फोटों से किसी को कुछ हासिल नहीं होता, उल्टे करने वालों के समूह बदनाम होते हैं। तब वह ऐसा क्या करते हैं?
सीधी बात यह है कि इसके पीछे कोई अर्थशास्त्र होना चाहिए। धर्म, जाति, भाषा या वर्ग के नाम पर ऐसे हमले करने का तर्क समझ में नहीं आता। अपराध विशेषज्ञ मानते हैं कि जड़, जमीन तथा जोरू के लिये ही अपराध होता है। यह जज़्बात या आस्था की बात हमारे देश में अब जोड़े जाने लगी है। आतंकवादी हमलों में बार बार आर्थिक प्रबंधकों के होने की बात कही जाती है पर आज तक कोई ऐसा आदमी पकड़ा नहीं गया जो पैसा देता है। यह पैसा कहीं न कहीं प्रशासन तथा सुरक्षा एजेंसियों का ध्यान भटकाकर अपने धंधा चलाने के लिये इन आतंकवादियों को दिया जाता है। एक बात समझ लेना चाहिए कि एक शहर में एक स्थान पर हुए विस्फोट से पूरे देश के प्रशासन को सतर्कता बरतनी पड़ती है। ऐसे में उसका ध्यान केवल सुरक्षा पर ही चला जाता है तब संभव है दूसरे धंधेबाज अपना काम कर लेते हों।
फिर आज के अर्थयुग में तो यह संभव ही नहीं है कि बिना पैसा लिये आतंकवादी अपना धंधा करते हों। अपनी जाति, धर्म, समाज, भाषा तथा वर्ग के उद्धार की बात करते हुए जो हथियार चलाने या विस्फोट करने की बात करते हैं वह सरासर झूठे हैं। उनकी मक्कारी को हम तभी समझ सकते हैं जब आत्ममंथन करें। क्या हम में से कोई ऐसा है जो बिना पैसे लिये अपने धर्म, जाति, भाषा, तथा समाज के लिये काम करे। संभव है हम किसी कला में शौक रखते हों तो भी मुफ्त में अपने दायरों के रहकर उसमें काम करते हैं। अगर कहीं उससे समाज को लाभ देने की बात आये तो धन की चाहत हम छोड़ नहीं सकते।
जब इस तरह की घटनाओं पर आम आदमी घायल होता या मरता है तो दुःख होता है। वैसे भी आजकल आम इंसान बहुत सारी परेशानियों से जूझता है। ऐसे में कुछ लोग अपने मन को नयापन देने के लिये धार्मिक तथा सार्वजनिक स्थानों पर जाते हैं। इसके लिये अपनी सामर्थ्य से पैसा भी खर्च करते हैं जो कि उन्होंने बड़ी मेहनत से जुटाया होता है। तब उनके साथ ऐसे हादसे दिल को बड़ी तकलीफ देते हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बिग बॉस और राखी का इंसाफ का समय नियमन-हिन्दी लेख (big boss aur rakhi ka insaf-hindi lekh)


आखिर सरकार ने बिग बॉस तथा राखी का इंसाफ पर अपना चाबुक चला दिया। दोनों ही कार्यक्रम रात 11 बजे से सुबह पांच बजे तक ही प्रसारित करने का प्रतिबंध लगाकर सरकार ने यह तो साबित कर दिया कि वह अनियंत्रित हो रहे प्रचार माध्यमों पर कुछ नियंत्रण करना आवश्यक समझती है। इस पर बहस होगी। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला होने जैसे जुमले सामने आयेंगे। खासतौर से भौंदू समाज की पुरानी परंपराओं का हवाला देकर रूढ़िवादियों पर हमला किया जायेगा।
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नियमन विरोधी ने कहा कि‘सरकार को बस यही नज़र आ रहा है। बाकी समस्यायें नहीं दिखती।’
विद्वान ने कहा कि ‘ सरकार का जनता के प्रति जवाबदेह होती है। आखिर दुनियां के सबसे बड़े लोकतंत्र की सरकार है।
प्रतिवादी ने कहा कि ‘काहे की सरकार, बाकी जगह तो नहीं दिखती।’
विद्वान ने कहा कि-आप ऐसी बात न करें, अगर हमारे यहां सरकार न होती या जवाबदेही से भागती तो हमारा देश अफगानिस्तान जैसा होता।’
बहरहाल बहसें जारी रहेंगी। सरकार ने इन बिग बॉस-सीजन 4 और राखी का इंसाफ पर नियंत्रण नहीं बल्कि उसके समय का नियमन किया है। अच्छा किया या बुरा इसका फैसला हम जैसे मामूली लोग नहीं कर सकते क्योंकि इस देश में बहसों के लिये ढेर सारे प्रयोजित विद्वान है। अलबत्ता आज़ादी पर हमले वालों के लिये अपने पास ढेर सारे जवाब हैं।
सबसे बड़ी बात यह कि यह सभी कार्यक्रम अभिव्यक्ति का नहीं व्यवसाय का प्रतीक हैं। मनोरंजन कर कमाने के लिये बनाये जाते हैं न कि किसी भी कला या कौशल को अभिव्यक्त रूप देने के लिये इनको प्रायोजित किया जाता है। जब कोई व्यवसाय होता है तो राज्य का काम है कि वह उसकी अच्छाई और बुराई पर नज़र रखे। नियंत्रण या नियमन जो जरूरी समझे।
इन धारावाहिकों से समस्या यह थी कि यह उस मुख्य समय में चलाये जा रहे थे जब भारत का एक वर्ग कोई कार्यक्रम देखना चाहता है। ऐसे में रिमोट पर उंगली फिराते हुए यह कार्यक्रम उसके सामने आ ही जाते हैं और चाहे अनचाहे वह इनको देखने लगता है। टीवी चैनल मनोरंजन के नाम पर उसके सामने हिंसा परोसते हैं तो वह निराश भी होता है और उसका ध्यान फिर अन्य कार्यक्रमों पर नहीं जाता। प्रचार प्रबंधक इसका लाभ किस तरह उठाया जाता है यह राखी के इंसाफ में देखने को मिला। उसके कार्यक्रम में शामिल एक युवक अवसाद में मर गया। यह खबर सभी समाचार चैनलों पर थी। ऐसे में उस दिन यह कार्यक्रम प्रसारित करने वाला टीवी चैनल पूरे दिन राखी के इंसाफ का नया कार्यक्रम प्रसारित करता रहा ताकि समाचार चैनलों की चर्चा सुनने के बाद रिामोट पर उंगलियां नचाते हुए दर्शक उसकी पकड़ में आये। वरना क्या उसके पास दूसरे कार्यक्रम नहंी थे। सुबह, शाम और रात तक वही कार्यक्रम! यह व्यवसायिक बेईमानी का मामला है न कि अभिव्यक्ति की आज़ादी का। बिग बॉस सीजन चार में फिक्सिंग की बात तो अब उसमें शामिल लोग भी कहने लगे हैं। मतलब एक तरफ आप दावा करे हैं कि यह वास्तविक प्रसारण है दूसरे उसमें पूरी तरह नाटकीयता है जिनकी पटकथा लिखी गयी है। यह झूठ व्यवसायिक ठगी का विषय है जिसकी लोकतंत्र के नाम पर इज़ाजत नहीं दी जा सकती। राखी का इंसाफ धारवाहिक किस रूप में न्याय का विषय छूता है जरा बताईये, यह तो अफवाह फैलाने जैसा विषय है जिस पर नियंत्रण करना जरूरी है।
सबसे ज्यादा दिलचस्प यह है कि यह नियमन समाचार चैनलों पर भी लागू किया गया है जो इसके अंश दिखाकर अपनी प्रसिद्ध बढ़ाते हैं। यह बात एक समाचार चैनल ने बताई पर इसे अधिक महत्व नहंी दे रहे। यह नियमन ऐसे चैनलों के लिये कैसा रहेगा यह तो बाद में पता चलेगा? हां एक बात बड़ी अज़ीब लगी। एक तरफ नियमन विरोधी कह रहे हैं कि सरकार के कदम से इन दोनों धारवाहिकों पर कोई असर नहीं पड़ेगा बल्कि उसने तो अनजाने में टी. आर. पी. बढ़ाने का काम किया है क्योंकि जिसे देखना है वह तो देखेगा।
विद्वान ने पूछा-‘फिर इस नियमन को विरोध क्यों कर रहे हो भाई।’
जवाब उसी अभिव्यक्ति की आज़ादी का। समाचार चैनलों में जब यह बहस होगी तो बार बार यही बात आयेगी क्योंकि अब उन पर भी नियमन की तलवार लटकाई गयी है। इन दोनों चैनलों की कोई समाज में छवि है इसका आभास हमें तो नहीं हुआ अलबत्ता समाचार चैनल उनके अंश बार बार हमारे सामने लाते रहे जो कि ऐसा ही है कि हलवाई से हम कचौड़ी मागें और वह समोसा पकड़ा दे। हम उसे मना कर सकते हैं पर इन प्रचार माध्यमों पर आम आदमी का नियंत्रण नहीं है इसलिये यह काम तो सरकार को ही करना है क्योंकि यह व्यवसायिक चालाकी है कि हम समाचार देखने के लिये चैनल पर जायें और मनोरंजन परोस दें। ऐसे में सरकार से ही तो आसरा है कि वह अपने देश के नागरिकों को प्रचार स्वामियों शोषण से बचाने के लिये यह व्यवस्था करे कि वह जो देखना चाहे वही देखने को मिले न कि मनोरंजन में झगड़ा और समाचारों में उनके अंश!
इन चैनलों को लोग देखना चाहते हैं, ऐसा दावा करने वालों को इसकी असलियत बहुत जल्द पता लग जायेगी। पहली बात तो यह कि आदमी चाहे कितना भी युवा और दमदार हो रात उसे थका देती है। शरीर नहीं तो दिमाग से वह उदास हो ही जाता है। वैसे भी यह कार्यक्रम थोपे गये थे। दूसरा यह कि समाचार चैनलों के अंश ही इस कार्यक्रम की प्रसिद्धि बढ़ाने में सहायक थे। वरना तो इनकी प्रसिद्धि समाज में न की बराबर है। इनकी क्या, अमिताभ बच्चन का कौन बनेगा करोड़पति भी अब वैसा चर्चित नहीं है। हैरानी इस बात की है कि स्वस्थ और मनोरंजन से सराबोर सब टीवी के किसी कार्यक्रम की चर्चा प्रचार माध्यमों में नहीं होती जबकि समाज में उनका प्रभाव दिखता है। सीधी बात कहें तो टी. आर. पी. अपने आप में एक भ्रामक प्रचार है और उसमें भी बहुत सारे धोखे हैं। अगर ऐसा न होता तो पहले देश की बदनाम हस्तियों और अब विदेश से पामेला एंडरसेन को बुलाया गया है ताकि बिग बॉस को वास्तविक रूप से लोकप्रियता मिले जिसे अभी भ्रामक टी.आर.पी. के सहारे समाचार चैनल चला रहे हैं। अंत में यह भी एक बात कहेंगे कि हम इसमें श्लीलत और अश्लीलता की चर्चा भी नहीं करेंगे क्योंकि इन कार्यक्रमों के निर्माण तथा प्रचार में होने वाली चालाकियां अधिक महत्वपूर्ण हैं।

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चाचावाद और भतीजावाद-हिंदी हास्य कविता


उदास फंदेबाज आया और बोला
‘दीपक बापू,
आज की पीढ़ी बहुत अज़ीब हो गयी है,
नैतिकता में बहुत गरीब हो गयी है,
दिवाली पर दिये थे
भतीजे को दारु के लिये
मुंह बंद रखने के भी उसे रुपये दिये,
ले आया बोतल एक सस्ती,
हम भी पीने लगे चढ़ गयी मस्ती,
बाद में पता लगा कि तीन सौ रुपये लेकर
वह दो सौ रुपये वाली बोतल लाया,
इस तरह उसने वहां भी कमाया,
समझ में नहीं आता बड़ा होकर क्या बनेगा।’’

सुनकर पहले गुस्से हुए
फिर टोपी से अपने को हवा देते हुए
कहैं दीपक बापू
‘कमबख्त अपनी दारु की आदत हमको दिखाना,
पर दूसरों से छिपाना,
वैसे चाचा के नक्श-ए-कदम तो भतीजा भी चलेगा,
वैसा ही होगा जिनके बीच पलेगा,
फिर मुंह क्यों लटकाये हो,
कमबख्त इस घटना पर खुशी की बात है
पर तुम साथ मिठाई नहीं लाये हो,
इतनी उम्र में घोटाला करना सीख गया,
आगे वह इसमें राजा बनेगा यह दीख गया,
अरे,
आजकल ईमानदार तो वह होते हैं
जिनके बेईमानी का मौका नहीं मिलता,
वरना तो टूटता है भरोसा सभी जगह,
कहीं ईमानदारी का गुल नहीं खिलता,
वैसे तुम चिंता न करो
तुम चला रहे हो भतीजावाद,
भतीजा भी चलाएगा चाचावाद,
अच्छा हुआ तुम्हें पता चल गया है,
समझ लो तुम्हारी आशाओं का दीपक जल गया है,
बड़े होते ही जनसेवा में उसे लगा लेना,
रहना उसके इर्दगिर्द स्वयं तुम
बाकी सभी को भगा देना,
यकीनन वह घोटालों में राजा बनेगा,
तब तुम्हारा भी तंबू दौलत की शान से तनेगा।
अभी सौ रुपये का विनिवेश किया है तुमने
सर्वशक्तिमान ने चाहा तो
जितनी गिनती हमको नहीं आती
उससे अधिक रुपयों में तुम्हारा धन बनेगा।
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भर्तृहरि नीति शतक-वासना के आक्रमण को झेलना कठिन (bharathari neeti shatak-vasna ka hamla)


तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- किसी मनुष्य को देवता नहीं समझना चाहिये क्योंकि पंच तत्वों से बनी इस देह में राक्षस भी रहता है। अगर कोई मनुष्य सात्विक कर्म में लिप्त है तो उसकी परीक्षा लेने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है’, और ‘इंद्रियां ही इंद्रियों बरत रहीं है’। इसका आशय यह है कि इस देह में मौजूद तत्व कब किसे अपने प्रभाव में लाकर मार्ग से भटका दें यह कहना कठिन है। इतना जरूर है कि तत्व ज्ञान इस बात को जानते हैं तो मार्ग से भटकते हैं और भटक जायें तो अपने किये पर पश्चाताप करते हैं इसके विरुद्ध अज्ञानी लोग बजाय पश्चाताप करने के अपनी झूठी सफाई देने लगते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहीं  करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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पतंजलि योग सूत्र-चित्त और आत्मा के भेद को समझने वाला ही योगी (chitta aur atama ka bhed-patanjali yoga saootra)


तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।

हिन्दी में भावार्थ-वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।

द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्

हिन्दी में भावार्थ- द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।

विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

हिन्दी में भावार्थ-उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।

तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यंः।

हिन्दी में भावार्थ-उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है। इसलिए ही हमारे अध्यात्मा में ध्यान का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
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आज दीपावली है-आलेख (Today Deepawali or diwali-hindi article)


यह प्रकाश पर्व है और इसी दिन लक्ष्मी जी की आराधना खुलकर की जाती है। वैसे तो लक्ष्मी का हर कोई भक्त है पर बाकी दिन आदमी अपने आपको निस्वार्थ और परोपकार में लीन रहने का दिखावा करता है। अवसर मिले तो अध्यात्मिक ज्ञान का भी प्रदर्शन करता है और कहता है कि ‘धन ही सभी कुछ नहीं है’। इससे भी आगे कुछ लोग जो सरस्वतीजी के भक्त होने का भी प्रतिदिन प्रदर्शन करते हैं पर उन सभी को भी ‘लक्ष्मी जी’ के प्रति भक्ति का प्रदर्शन करते हुए संकोच नहीं होता। लक्ष्मी जी की आराधना और बाह्य प्रकाश में व्यस्त समाज में बहुत लोग ऐसे भी हैं जो अंधेरों में आज भी रहेंगे और उनके लिये दीपावली एक औपाचारिकता भर है। जिनके पास लक्ष्मी जी की कृपा अधिक नहीं है-याद रखें लक्ष्मी जी की थोड़ी कृपा तो सभी पर होती है वरना आदमी जिंदा नहीं रह सकता-वह बाह्य प्रकाश करने के साथ उनकी आराधना ऊंची आवाज में करेंगे। लक्ष्मी के साथ जिनपर सरस्वती की भी थोड़ी कृपा है-जिन पर उनकी अधिक कृपा होती है लक्ष्मी जी उनसे दूर ही रहती हैं, ऐसा भी कहा जाता है- वह भी अनेक प्रकार के ज्ञान की बात करेंगे। बाह्य प्रकाश में लिप्त लोगों को आंतरिक प्रकाश की चिंता नहीं रहती जो कि एक अनिवार्य शर्त है जीवन प्रसन्नता से गुजारने की।
अब वह समय कहां रहा जब सारे पर्व परंपरागत ढंग से मनाये जाते थे? आधुनिक तकनीकी ने नये साधन उपलब्ध करा दिये हैं। इधर एक टीवी चैनल पर देखने केा मिला कि एक चीनी पिस्तौल है जो दिखती है तो खिलौना है पर उसमें पड़ी गोली किसी की जान भी ले सकती है। अब कौन वह पुराने प्रकार की पिस्तौल चलाता है जिसमें चटपटी होती थी। इससे भी अधिक बुरा तो यह है कि दीपावली के पर्व पर मिठाई खाने का मन करता था वह अब मर गया है। नकली घी, खोए, शक्कर और दूध के ठिकानों पर प्रशासन शिकंजा कस रहा है। आदमी ऐसी खबरों को देखकर परंपरागत मिठाईयों से दूर होकर अन्यत्र वस्तुओं का उपयोग कर रहा है। एक के बाद एक नकली खोआ पकड़े जाने की खबर मिठाई खाने का उत्साह खत्म कर चुकी हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि दिवाली पर्व से जुड़े भौतिक तत्वों के उपयोग में परंपरागत शैली अब नहीं रही। वैसे तो सारे पर्व ही बाजार से प्रभावित हो रहे हैं पर दिवाली तो शुद्ध रूप से धन के साथ जुड़ा है इसलिये आधुनिक बाजार को उसे अपहृत करने में देर नहीं लगी। अपने देश ही के नहीं बल्कि विदेशी बाजार को भी इससे लाभ हुआ है। सबसे अधिक चीनी बाजार को इसका लाभ मिला है। वहां के बने हुए सामान इस समय जितना बिकते हैं उतना शायद कभी नहीं उनका व्यापार होता। बधाई संदेशो के लिये टेलीफोन पर बतियाते यह एस.एम.एस. संदेश भेजे जायेंगे जिससे संबंद्ध कंपनियों को अच्छी कमाई होगी।
इसके बावजूद दीपावली केवल भौतिकता का त्यौहार नहीं है। एक दिन के बाह्री प्रकाश से मन और विचारों में छाया हुआ अंधेरा दूर नहीं हो सकता। लक्ष्मी जी तो चंचला हैं चाहे जहां चली जाती हैं और निकल आती हैं। सरस्वती की पूर्ण कृपा होने पर लक्ष्मीजी की अल्प सुविधा से काम चल सकता है पर लक्ष्मी जी की अधिकता के बावजूद अगर सरस्वती की बिल्कुल नहीं या बहुत कम कृपा है तो आदमी जीवन में हमेशा ही सबकुछ होते हुए भी कष्ट सहता है। तेल या घी के दीपक जलाने से बाहरी अंधेरा दूर हो सकता है पर मन का अंधेरा केवल ज्ञान ही दूर करना संभव है। हमारे देश के पास धन अब प्रचुर मात्रा में है पर आप देख रहे हैं कि वह किसके पास जा रहा है? हमसे धन कमाने वाले हमें ही आंखें दिखा रहे हैं। चीन इसका एक उदाहरण है। इसका सीधा मतलब यह है कि धन सभी कुछ नहीं होता बल्कि उसके साथ साहस, तर्कशक्ति और मानसिक दृढ़ता और देश के नागरिकों में आपसी विश्वास भी होना चाहिए। दीपावली के अवसर एक दूसरे को बधाईयां देते लोगों का यह समूह वास्तव में दृढ़ है या खीरे की तरह अंदर से दो फांक है? यह भी देखना चाहिये। अपने अहंकार में लगे लोग केवल इस अवसर पर अपने धन, बाहुबल, पद बल था कुल बल दिखाने में लग जाते हैं। आत्म प्रदर्शन के चलते कोई आत्म मंथन करना नहीं चाहता। नतीजा यह है कि अंदर अज्ञान का अंधेरा बढ़ता जाता है और उतना ही मन बाहर प्रकाश देखने के लिये आतुर होता है। यह आतुरता हमें धललौलुप समुदाय का गुलाम बना रही है। स्वतंत्र विचार का सर्वथा अभाव इस देश में परिलक्षित है। देश विकास कर रहा है पर फिर भी अशांति यहां है। लोग यह समझ रहे हैं कि लक्ष्मी अपने घर में स्थाई है। समाज में गरीबों, मजबूरों और परिश्रमी समुदाय के प्रति उपेक्षा का भाव जिस विद्रोह की अग्नि को प्रज्जवलित कर रहा है उसे बाहरी प्रकाश में नहीं देखा जा सकता है। उसके लिये जरूरी है कि हमारे मन में कामनाओं के साथ ज्ञान का भी वास हो ताकि अपनी संवेदना से हम दूसरों का दर्द पढ़ सकें। मनुष्य यौनि का यह लाभ है कि उसमें अन्य जीवों से अधिक विचार करने की शक्ति है पर इसके साथ यह भी जिम्मेदारी है कि वह प्रकृत्ति और अन्य जीवों की स्थिति पर विचार करते हुए अपना जीवन गुजारे। अंतर्मुखी हो पर आत्ममुग्ध न हो। यह आत्म मुग्धता उसी अंधेरे में रहती है जो आदमी अपने अंदर पालता है। इस अंधेरे से लड़ने की ताकत आध्यात्मिक ज्ञान के दीपक में ही है और इसे इस अवसर पर जलाना है।
दीपावली के इस महान पर्व पर अपने साथी ब्लाग लेखक मित्रों, पाठकों और तथा सभी देशवासियों को अपने तले अंधेरा रखने वाले इस लेखक की तरफ से बधाई। सभी के उज्जवल भविष्य की कामना है। हमारे ऋषि मुनि कहते हैं कि जो सभी का सुख चाहते हैं वही सुखी रहते हैं। हमें उनके मार्ग पर चलने का इस अवसर पर संकल्प लेना चाहिए।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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बैचेन रहने की आदत-हिन्दी कविता


लोगों की हमेशा  बेचैन रहने की 
आदत   ऐसी हो गयी है कि
जरा से सुकून मिलने पर भी
डर जाते हैं,
कहीं कम न हो जाये
दूसरों के मुकाबले
सामान जुटाने की हवस

अभ्यास बना रहे लालच का
इसलिये एक चीज़ मिलने पर
दूसरी के लिये दौड़ जाते हैं।
———
पुराने कायदों से आज़ाद होकर
दौड़ने के लिये मन तो बहुत करता है,
मगर बिना अक्ल के चले भी
तो गिरने के अंदेशे बहुत हैं,
ज़मीन पर चलने वालों के लिये खतरा कम है
हवा में उड़कर गिरने का भी डर रहता है।
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लेखक संपादक-दीपक ‘भारतदीप’,Gwalior
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भर्तृहरि-मदिरा से भरी आंखों को नहीं देखा होता तो संसार पार कर गये होते (madira bhari ankhen aur sansar-bhrutrihari neeti shatak)


तावन्महत्तवं पाण्डितयं केलीनत्वं विवेकता।
यावज्जवलति नांगेषु हतः पंचेषु पावकः।।
हिन्दी में भावार्थ-
किसी भी मनुष्य में सज्जनता, कुलीनता, तथा विवेक का भाव तभी तक रहता है जब उसके हृदय में कामदेव की ज्वाला नहीं धधकी होती। कामदेव का हमला होने पर पर सारे अच्छे भाव नष्ट हो जाते है।
संसार! तव पर्यन्तपदवी न दवीयसी।
अन्तरा दुस्तराः न स्युर्यदि ते मदिरेक्षणा।।
हिन्दी में भावार्थ-
यहां भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि ‘ओ संसार, तुझे पार पाना कोई कठिन काम नहीं था अगर मदिरा से भरी आखों में न देखा होता।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या- किसी मनुष्य को देवता नहीं समझना चाहिये क्योंकि पंच तत्वों से बनी इस देह में राक्षस भी रहता है। अगर कोई मनुष्य सात्विक कर्म में लिप्त है तो उसकी परीक्षा लेने का प्रयास भी नहीं करना चाहिए।  श्रीमद्भागवत गीता में कहा गया है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है’, और ‘इंद्रियां ही इंद्रियों बरत रहीं है’। इसका आशय यह है कि इस देह में मौजूद तत्व कब किसे अपने प्रभाव में लाकर मार्ग से भटका दें यह कहना कठिन है। इतना जरूर है कि तत्व ज्ञान इस बात को जानते हैं तो मार्ग से भटकते हैं और भटक जायें तो अपने किये पर पश्चाताप करते हैं इसके विरुद्ध अज्ञानी लोग बजाय पश्चाताप करने के अपनी झूठी सफाई देने लगते हैं।
श्रीमद्भागवत गीता में लिखा हुआ है कि ‘गुण ही गुणों में बरतते है।’ इस सूत्र में बहुत बड़ा विज्ञान दर्शन अंतर्निहित हैं। इस संसार में जितने भी देहधारी जीव हैं सभी को रोटी और काम की भूख का भाव घेरे रहता है अलबत्ता पशु पक्षी कभी इसे छिपाते नहीं पर मनुष्यों में कुछ लोग अपने को सचरित्र दिखने के लिये अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण का झूठा दावा करते है। सच तो यह है कि पंचतत्वों से बनी इस देह मे तन और मन दोनों प्रकार की भूख लगती है। भूख चाहे रोटी की हो या कामवासना की चरम पर आने पर मनुष्य की बुद्धि और विवेक को नष्ट कर देती है। मनुष्य चाहे या नहीं उसे अपनी भूख को शांत रखने का प्रयास करना पड़ता है। जो लोग दिखावा नहीं  करते वह तो सामान्य रूप से रहते हैं पर जिनको इंद्रिय विेजेता दिखना है वह ढेर सार नाटकबाजी करते हैं। देखा यह गया है कि ऐसे ही नाटकबाज धर्म के व्यापार में अधिक लिप्त हैं और उन पर ही यौन शोषण के आरोप लगते हैं क्योंकि वह स्वयं को सिद्ध दिखाने के लिये छिपकर अपनी भूख मिटाने का प्रयास करते हैं और अंतत: उनका रास्ता अपराध की ओर जाता है।
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बिज़ली कटौती और महंगाई-हिन्दी हास्य कविताऐं (power cut and mahangai-hasya kavitaen)


दादा ने पोते से कहा
‘यह रोज बिज़ली चली जाती है,
तुम निकल जाते हो बाहर खेलने
किताबें और कापियां यहां खुली रह जाती हैं।
ले आया हूं तुम्हारे लिये माटी के चिराग,
जो रौशनी करने के लिये लेते थोड़ी तेल और आग,
तुम्हारे परदादा इसी के सहारे पढ़े थे,
शिक्षा के कीर्तिमान उन्होंने गढ़े थे
मेरे और अपने पिताजी की राह
अब तुम्हारे लिए चलना संभव नहीं,
बिज़ली कटौती के घंटे बढ़ते जा रहे हैं
आपूर्ति जीरो पर न आयें कहंी,
इसलिये तुम तेल के दीपक की रौशनी में
पढ़ना सीख लो तो ही तुम्हारी भलाई है,
वरना आगे कॉलिज की भी लड़ाई है
देश की विकास भले ही बढ़ती जाये
पर बिज़ली कटौती होते होते आपूर्ति जीरो हो जायेगी
अखबारों में रोज खबर पढ़कर
स्थिति यही नज़र आती है।

—————–
महंगाई पर लिखें या
बिज़ली कटौती पर
कभी समझ में नहीं आता है,
अखबार में पढ़ते हैं विकास दर
बढ़ने के आसार
शायद महंगाई बढ़ाती होगी उसके आंकड़ें
मगर घटती बिज़ली देखकर
पुराने अंधेरों की तरफ
बढ़ता यह देश नज़र आता है।
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सर्वशक्तिमान को भूलकर
बिज़ली के सामानों में मन लगाया,
बिज़ली कटौती बन रही परंपरा
इसलिये अंधेरों से लड़ने के लिये
सर्वशक्तिमान का नाम याद आया।
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पेट्रोल रोज महंगा हो जाता,
फिर भी आदमी पैदल नहीं नज़र आता है,
लगता है
साफ कुदरती सांसों की शायद जरूरत नहीं किसी को
आरामों में इंसान शायद धरती पर जन्नत पाता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य नीति-आदमी के गुण स्वयं ही पहचाने जाते हैं


पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता, चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।

अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचाने या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा। धन आखिर आदमी प्राप्त करता ही किसलिये है? उसका लक्ष्य अपना पेट पालने के अलावा समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करना भी होता है। ऐसे में जो धन अपयश से प्राप्त हो उसका कोई महत्व नहीं रह जाता।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पतजंलि योग विज्ञान-आसन लगाकर भगवान का नाम लेना सिद्ध होता है (patanjali yog vigyan-asan aur bhagwan ka nam)


स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ.
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये। उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों। बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मीए सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है। इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग। हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है। जो सतत योगाभ्यास करते हैं उनके चेहरे और वाणी में तेज स्वत: आता है और उससे दूसरे लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा जीवन में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में सहजता का अनुभव होता  है।

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