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राष्ट्रभाषा का महत्व पूछने की नहीं बल्कि देखने की जरूरत -१४ सितम्बर हिंदी दिवस


 

                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी हैं। पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहीं बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्रेंजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीकनहीं बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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हिन्दू धर्म संदेश-इज्जतदार लोग किसी को अनावश्यक परेशान नहीं करते (hindu dharma sandesh-izzatdar log kise ko parshan nahin karte)


             दैहिक रूप से मनुष्य सभी एक जैसे होते हैं। उनमें भी कोई गेहुए तो कोई काले या कोई गोरे रंग का होता है। इससे उसकी पहचान नहीं होती वरन् उसका आचरण, व्यवहार और विचार ही उसके आंतरिक रूप का प्रमाण होते है। सभी गोरे अच्छे हों यह जरूरी नहीं उसी तरह सभी काले बुरे हों यह समझना भी बेकार है। गेहुए रंग के लोग भी सामान्य स्वभाव के हों यह भी आवश्यक नहीं है। कहने का अभिप्राय यह है कि मनुष्य की जाति, धर्म, क्षेत्र अथवा भाषा के आधार पर उसकी पहचान स्थाई नही होती। मनुष्यों में भी कुछ पशु हैं तो कुछ तामसी प्रवृत्ति के हैं। कुल, पद, धन और बाहुबल के दम पर अनेक लोग आमजन के साथ हिंसा कर अपनी शक्ति को प्रमाणित करते हैं। उन्हें इस बात से संतोष नहीं होता कि वह शक्तिशाली वर्ग के हैं वरन् कमजोर पर अनाचार कर वह संतोष प्राप्त करते हैं। ऐसे लोग नीच होते हैं।
कौटिल्य के अर्थशास्त्र में कहा गया है कि
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नहि स्वसुखमन्विच्छन् पीडयेत् कृपणं नृपः।
कृषणः पीडयमानोहि मन्युना हन्ति पार्थिवम्।।
        ‘‘राज्य प्रमुख अथवा राजा को चाहिए कि वह अपने सुख के लिये कभी प्रजाजन को पीड़ा न दे। पीड़ित हुआ आम जन राजा को भी नष्ट कर सकता है।’’
कोहि नाम कुले जातः सुखलेशेन लोभितः।’’
अल्पसाराणि भूतानि पीडयेदिविचारम्।।
        बलशाली और कुलीन पुरुष कभी भी अपने से अल्प बलवान पुरुष को बिना विचारे कभी पीड़ित नहीं करते। ऐसा करने वाला निश्चय ही अधम होता है।’’
          जिन लोगों के पास राजपद, धन और शक्ति है उनको यह समझना चाहिए कि परमात्मा ने उनको यह वैभव आमजन की सेवा के लिये दिया है। प्राचीन समय में अनेक राजा लोगों ने प्रजाजनों के हित के लिये इसी विचार को ध्यान में रखकर काम किया। जहां तक हो सकता था अनेक महान राजा प्रजाजनों के हित के लिये काम किया और प्रसिद्धि पाई इसलिये भगवान के बाद दूसरा दर्जा दिया गया। इतिहास में अनेक महान राजाओं के नाम दर्ज हैं। मगर अब जिस तरह पूरे विश्व में हालात हैं उसे देखकर तो ऐसा लगता है कि आर्थिक, सामाजिक, राजनीति, तथा धार्मिक क्षेत्रों में तामस प्रवृत्तियों वाले लोग हावी हैं। यही कारण है कि प्रजाजनों का ख्याल कम रखा जाता है। सच बात तो यह है कि राजनीतिक कर्म ऐसा माना गया है जिसे करने के लिये उसके शास्त्र का अध्ययन करना अनिवार्य नहीं है। यही कारण है कि राजपद पाने का लक्ष्य रखकर अनेक लोग राजनीति में आते हैं पर प्रजाजनों के हित की बात सोचते नहीं है। उनको लगता है कि राजपद पाना ही राजनीति शास्त्र का लक्ष्य है तब क्यों उसका अध्ययन किया जाये।
           यही कारण है कि हम आज पूरे विश्व में जनअसंतोष के स्वर उठते देख रहे हैं। अनेक देशों हिंसा हो रही है। आतंकवाद बढ़ रहा है। अपराधियों और पूंजीपतियों का गठजोड राजपद पर बैठे लोगों पर हावी हो गया है। राजपद पर बैठे लोग भले ही प्रजाजनों के हित की सोचें पर कर नहीं सकते क्योंकि उनको राजनीति शास्त्र का ज्ञान नहीं होता जिससे कोई काम नहीं कर पाते। राजपदों पर बैठे लोग और उनके परिवार के सदस्य अपनी सुविधा के लिये प्रजाजनों को आहत करने के किसी भी हद तक चले जाते हैं। बात भले ही धर्म करें पर उनकी गति अधम की ही होती है। अतः वर्तमान युवा पीढ़ी के जो लोग राजनीति में सक्रिय होना चाहते हैं उनको कौटिल्य के अर्थशास्त्र का अध्ययन अवश्य करना चाहिए।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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पतंजलि योग दर्शन-हृदय जब चोरी के भाव से पूरी तरह रहित हो तो रत्न प्रकट हो जाता है


              श्रीमद्भागवत गीता में बताया गया है कि इस संसार के सारे पदार्थ परमात्मा के संकल्प के आधार पर स्थित पर वह उनमें नहीं है। यहां इस बात को स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि इस संसार के देहधारी जीव के संकल्प से गहरा संबंध है क्योंकि वह अंततः उसी परमात्मा का अंश हैं। इसलिये जीव भले ही इस संसार और भौतिक पदार्थों को धारण करे वह उसमें अपना भाव लिप्त न करे। हम अगर योग साधना और ध्यान करने के साथ श्रीमद्भावगत गीता का अध्ययन करें तो धीरे धीरे यह बात समझ में आने लगेगी कि यह संसार की प्रकृति और इसमें स्थित समस्त पदार्थ न बुरे हैं न अच्छे, बल्कि वह हमारे संकल्प के अनुसार कभी प्रतिकूल तो कभी अनुकूल होते हैं। इसलिये हम अपने हृदय के अंदर अहिंसा, त्याग, तथा परोपकार के संकल्प धारण करें तो यह सारा संसार और पदार्थ हमारे अनुकूल हो जायेंगे। 
पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है कि
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अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः।
           ‘‘हृदय में अहिंसा का भाव जब स्थिर रूप से प्रतिष्ठत हो जाता है तब उस योगी के निकट सब प्राणी वैर का त्याग कर देते हैं।
अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम्।
‘‘हृदय जब चोरी के भाव से पूरी तरह रहित हो जाता है तब उस योगी के समक्ष सब प्रकार के रत्न प्रकट हो जाता है।’’
          अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यह संसार बिना चालफरेब के चल नहीं सकता। यह लोगों की मानसिक विलासिता और बौद्धिक आलस्य को दर्शाता है। एक तरह से यह मानसिक विकारों से ग्रसित लोगों का अध्यात्मिक दर्शन से परे एक बेहूदा तर्क है। हम यह तो नहीं कहेंगे कि सारा समाज ही मानसिक विकारों से ग्रसित है पर अधिकतर लोग इस मत के अनुयायी हैं कि जैसे दूसरे लोग चल रहे हैं वैसे ही हम भी चलें। कुछ लोग ऐसे जरूर हैं जो इस सत्य को जानते हैं और अपने देह, हृदय तथा मस्तिष्क से विकारों की निकासी कर अपना संकल्प शुद्ध रखते हुए अपना जीवन शान्ति  से जीते हैं। ऐसे लोगों संख्या में नगण्य होते हैं पर समाज के लिये वही प्रेरणास्त्रोत होते हैं।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 
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संत कबीर के दोहे-धन संपदा के संग्रह में आदमी जीवन नष्ट कर देता है


           प्रकृति में उत्पन्न समस्त जीवों में मनुष्य सबसे अधिक बुद्धिमान माना गया है और विचित्र बात यह है कि जहां अन्य जीव सीमित आवश्यकताओं के कारण अपना जीवन सामान्य रूप से गुजार लेते हैं जबकि मनुष्य असीम लालच और लोभ को अपने मन में स्थान देता है और सदैव संकट बुलाता है। संत कबीर दास जी ने अपने संदेशों में इसी तरफ इंगित किया है।
       कबीरा औंधी खोपड़ी, कबहूं धापै नाहिं
       तीन लोक की सम्पदा, कब आवै घर माहिं
          संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि मनुष्य की खोपड़ी उल्टी होती है क्योंकि वह कभी भी धन प्राप्ति से थकता नहीं है। वह अपना पूरा जीवन इस आशा में नष्ट कर देता है कि तीनों लोकों की संपदा उसके घर कब आयेगी।
            इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीवन जिसके पास बुद्धि में विवेक है इसलिये वह कुछ नया निर्माण कर सकता है। अपनी बुद्धि की वह से ही वह अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता है। सच तो यह कि परमात्मा ने उसे इस संसार पर राज्य करने के लिए ही बुद्धि दी है पर लालच और लोभ के वश में आदमी अपनी बुद्धि गुलाम रख देता है। वह कभी भी धन प्राप्ति के कार्य से थकता नहीं है। अगर हजार रुपये होता है तो दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख की चाहत करते हुए उसकी लालच का क्रम बढ़ जाता है। कई बार तो ऐसे लोग भी देखने में आ जाते है जिनके पेट में दर्द अपने खाने से नहीं दूसरे को खाते देखने से उठ खड़ा होता है।
         अनेक धनी लोग जिनको चिकित्सकों ने मधुमेह की वजह से खाने पर नियंत्रण रखने को कहा होता है वह गरीबों को खाता देख दुःखी होकर कहते भी हैं‘देखो गरीब होकर खा कैसे रहा है’। इतना ही नहीं कई जगह ऐसे अमीर हैं पर निर्धन लोगों की झग्गियों को उजाड़ कर वहां अपने महल खड़े करना चाहते हैं। आदमी एक तरह से विकास का गुलाम बन गया है। भक्ति भाव से पर आदमी बस माया के चक्कर लगाता है और वह परे होती चली जाती है। सौ रुपया पाया तो हजार का मोह आया, हजार से दस हजार, दस हजार से लाख और लाख से दस लाख के बढ़ते क्रम में आदमी चलता जाता है और कहता जाता है कि अभी मेरे पास कुछ नहीं है दूसरे के पास अधिक है। मतलब वह माया की सीढियां चढ़ता जाता है और वह दूर होती जाती है। इस तरह आदमी अपना पूरा जीवन नष्ट कर देता है।
       आजकल तो जिसे देखो उस पर विकास का भूत चढ़ा हुआ है। कहते हैं कि इस देश में शिक्षा की कमी है पर जिन्होने शिक्षा प्राप्त की है तो इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि उन्होंने ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है। इसलिये शिक्षित आदमी तो और भी माया के चक्कर में पड़ जाता है और उसे तो बस विकास की पड़ी होती है पर उसका स्वरूप उसे भी पता नहीं होता। लोगों ने केवल भौतिक उपलब्धियों को ही सबकुछ मान लिया है और अध्यात्म से दूर हो गये हैं उसी का परिणाम है कि सामाजिक वैमनस्य तथा मानसिक तनाव बढ़ रहा है। अत: जितना हो सके उतना ही अपनी पर नियंत्रण रख्नना चाहिये।  मनुष्य को अपनी बुद्धि तथा मन को लेकर हमेशा आत्ममंथन करना चाहिए ताकि वह स्वयं भी अपने कर्म पर नियंत्रण रख सके 

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर
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पानी के आचमन से शरीर पवित्र होता है-हिन्दू धार्मिक चिंत्तन (pani ke achman se sharir paivtra hota hai-hindu dharmik lekh)


          वायु तथा जल को न केवल जीवन का आधार माना गया है कि बल्कि उनको ओषधि भी कहा जाता है। जिस तरह प्रातः प्राणायाम से शुद्ध वायु के प्रवेश से शरीर और मन के आंतरिक विकार बाहर निकलते हैं उसी तरह नहाने के दौरान जल के उपयोग से बाहरी अंगों पर शुद्धता आती है। आधुनिक विज्ञान जल की उपयोगिता को लेकर अनेक अनुंसधान कर चुका है। हालांकि हमारे अध्यात्मिक ग्रंथों में भी इस विषय पर अनेक बातें कही गयी है।
          मनु स्मृति में कहा गया है कि
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            कृत्वा मूत्रं पूरीपं वा खान्याचान्त उपस्पृशेत्।
            वेदमध्येध्माणश्च अन्नमश्नंश्च सर्वदा
       “मल मूत्र करने के बाद व्यक्ति को सदैव हाथ धोकर आचमन करने के साथ ही पानी का स्पर्श आंखों पर करना चाहिए। सदैव वेद पढ़ने तथा भोजन करने से पहले भी हाथ धोकर आचमन करना चाहिए।”
                आजकल कंप्यूटर का उपयोग बढ़ता जा रहा है पर उससे होने वाली हानियों से रोकने और बचने के उपाय बहुत कम  लोग जानते हैं। कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ कहते हैं कि कंप्यूटर का उपयोग करने वालों को बीस मिनट से अधिक उस पर काम करने के बाद दो मिनट आंखें बंद रखना चाहिए। इसके अलावा कंप्यूटर से उठकर बाहर आसमान में ताकना चाहिए ताकि आंखों के उन सूक्ष्म तंतुओं का विस्तार होता है जो काम के दौरान सिकुड़ जाते है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कही गयी है कि कंप्यूटर पर काम करने वालों को अपनी आंखों में पानी की छींटें मारते रहना चाहिए। कंप्यूटर पर काम करते हुए आंखों में जल सूखने लगता है और आंखों में छींटे मारने से वहां ताजगी आती है। मनृस्मृति में भी कहा गया है कि वेद आदि का अध्ययन करने से पहले और बाद दोनों ही समय आंखों में जल का प्रवेश कराना चाहिए। यही बात हम कंप्यूटर पर काम करते समय भी लागू कर सकते हैं। ऐसे प्रयासों से बहुत सीमा तक कंप्यूटर से होने वाली हानियों से बचा जा सकता है।
लेखक संकलक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा  ‘भारतदीप’,ग्वालियर
Editor and writer-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’
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पतंजलि योग साहित्य-मनुष्य चित्त सहकारिता के भाव वाला


पतंललि योग विज्ञान भारतीय अध्यात्म का एक महत्वपूर्ण भाग है। आज जब पूरा विश्व भारत के इस विज्ञान पर चमत्कृत तब हमारे देश के लोग उसे भूलकर इस मायावी संसार के आकर्षण में अपना जीवन नष्ट कर रहे हैं। यह संसार भोगने के लिये ही है पर इस तरह कि हमारी देह और आत्मा की मर्यादा बनी रहे। अतः इस पर विचार करना आवश्यक है।
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तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।
हिन्दी में भावार्थ-
वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।


द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्
हिन्दी में भावार्थ-
द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।

विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।
हिन्दी में भावार्थ-
उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।
तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यंः।
हिन्दी में भावार्थ-
उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है। इसलिए ही हमारे अध्यात्मा में ध्यान का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
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पतंजलि योग सूत्र-चित्त और आत्मा के भेद को समझने वाला ही योगी (chitta aur atama ka bhed-patanjali yoga saootra)


तदंसख्येयवासनाभिश्चिन्नमपि परार्थ संहृत्यकारित्वात।

हिन्दी में भावार्थ-वह चित्त असंख्येय वासनाओं से चित्रित होने पर भी दूसरे के लिए है क्योंकि वह सहकारिता के भाव से काम करने वाला है।

द्रष्टृदृश्यघोपरक्तं चितं सर्वार्थम्

हिन्दी में भावार्थ- द्रष्टा और दृश्य-इन दो रंगों से रंगा चित्त सभी अर्थवाला हो जाता है।

विशेषंषर्शिन आत्मभावभावनविनिवृत्तिः।।

हिन्दी में भावार्थ-चित्त और आत्मा के भेद को प्रत्यक्ष करने वाले योगी की आत्माभावविषयक भावना सर्वथा निवृत्त हो जाती है।
तदा विवेनिम्नं कैवल्यप्राग्भारं चित्तम्।

हिन्दी में भावार्थ-उस समय चित्त विवेक की तरफ झुककर कैवल्य के अभिमुख हो जाता है।

तच्छिद्रेषु प्रत्ययान्राणि संसकारेभ्यंः।

हिन्दी में भावार्थ-उसके अंतराल में दूसरे पदार्थों का ज्ञान पूर्वसंस्कारों से होता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-महर्षि पतंजलि का योग सूत्र संस्कृत में है और उसके हिन्दी अनुवाद का अर्थ इतना किल्ष्ट होता है कि सीधी भाषा में बहुत कम विद्वान उसकी व्याख्या कर पाते हैं। हम यहां सीधी सादी भाषा में कहें तो हमारा चित्त या बुद्धि इस देह के कारण है और उसे आत्मा समझना अज्ञान का प्रमाण है। हमारे मन और बुद्धि में विचारों का क्रम आता जाता है जो केवल सांसरिक विषयों से संबंधित होता है। अध्यात्मिक विषयों के लिये हमें अपने अंदर संकल्प धारण करना पड़ता है और जब हम आत्मा और मन का अंतर समझ लेंगे तो दृष्टा की तरह जीने का आनंद ले पायेंगे।
एक तो संसार का दृश्य है और दूसरा वह दृष्टा आत्मा है जिसके बीच में यह देह स्थित है। पंच तत्वों से बनी इस देह की मन, बुद्धि तथा अहंकार की प्रकृतियों को अहंता, ममता और वासना की भावनायें बांधे रहती हैं। हम दृष्टा हैं पर कर्तापन का अहंकार कभी यह बात समझने नहीं देता। तत्वज्ञान के अभाव मनुष्य को दूसरा चतुर मायावी मनुष्य चाहे जब जहां हांक कर ले जाता है। इस संसार दो प्रकार के मनुष्य है एक वह जो शासक हैं दूसरे जो शासित हैं। निश्चित रूप से शासक चतुर मायावी मनुष्यों की संख्या कम और शासित होने वाले लोगों की संख्या अधिक है पर अगर तत्वज्ञान को जो समझ लें तो वह न तो शासक बनता है न शासित। योगी बनकर अपना जीवन आंनद से व्यतीत करता है।
एक बात दूसरी यह भी है इस विश्व में मनुष्य मन के चलने के दो ही मार्ग हैं-सहज योग और असहज योग। योग तो हर मनुष्य कर रहा है पर जो बिना ज्ञान के चलते हैं वह सांसरिक विषयों में चक्कर में अपना जीवन तबाह कर लेते हैं और जो ज्ञानी हैं वह उसे संवारते रहते हुए सुख अनुभव करते हैं। अतः आत्मा और चित्त का भेद समझना जरूरी है।
दूसरी बात हम समाधि या ध्यान के विषय में यह भी समझ लें कि जब हम उसमें लीन होने का प्रयास करते हैं तब हमारे अंदर विषयों का घेर आने लगता है। उनसे विचलित नहीं होना चाहिए क्योंकि यह उन विषयों से उत्पन्न विकार हैं जो उस समय भस्म होने आते हैं। जब वह पूरी तरह से भस्म होते हैं तब ध्यान आसानी से लग जाता है। ध्यान से जो मन को शांति मिलती है उससे बुद्धि में तीक्ष्णता आती है और प्रसन्न हो जाता है। इसलिए ही हमारे अध्यात्मा में ध्यान का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
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हिन्दू धार्मिक विचार-पराक्रमी लोग अपना लक्ष्य बीच में नहीं छोड़ते (hindu dharmik vichar-apna lakshya)


 रत्नैर्महाहैंस्तुतुषुर्न देवा न भेजिरेभीमविषेण भीतिम्।
सुधा विना न प्रययुर्विरामं न निश्चिततार्थाद्विरमन्ति धीराः।।
हिन्दी में भावार्थ-
समुद्र मंथन करने से देवता लोग अनमोल रत्न पाकर भी प्रसन्न नहीं हुए। भयंकर विष भी निकला पर उनको उससे भय नहीं हुआ और न ही वह विचलित हुए। जब तक अमृत नहीं मिला तब तक वह समुद्र मंथन के कार्य पर डटे रहे। धीर, गंभीर और विद्वान पुरुष जब तक अपना लक्ष्य नहीं प्राप्त हो तब अपना कार्य बीच में नहीं छोड़ते
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-वैसे तो जीवन में अपना लक्ष्य तक करना बहुत कठिन है क्योंकि लोग अपने विवेक से कुछ नया करने की बजाय दूसरे की उपलब्धियों को देखकर ही अपना काम प्रारंभ करते हैं। अगर तय कर लिया तो फिर उस पर निरंतर चलना कठिन है।  होता यह है कि दूसरे की उपलब्धि देखकर वैसे बनने की तो कोई भी ठान लेता है पर उसने अपने लक्ष्य पाने में क्या पापड़ बेले यह किसी को नहीं दिखाई देता।  उसने लक्ष्य प्राप्ति के लिये कितना परिश्रम करते हुए अपमान और तिरस्कार सहा होगा यह वही जानते है।  जिन्होंने  बड़ी उपलब्धि प्राप्त की है उसके पीछे उनका धीरज और एकाग्रता बहुत बड़ा योगदान होता है।

इसके अलावा एक बात यह भी है कि बहुत कम लोगों में धीरज होता है। आज कल संक्षिप्त मार्ग से उपलब्धि प्राप्त करने की परंपरा चल पड़ी है। अगर किसी युवक को धीरज या शांति से काम करने का उपदेश दें तो वह यही कहते हैं कि‘आजकल तो फटाफट का जमाना है।’
वह लगे रहते हैं फटाफट उपलब्धि प्राप्त करने में  पर वह कभी लक्ष्य प्राप्त नहीं कर पाते।  अनेक युवक इसी तरह अपराध मार्ग पर चले जाते हैं।  उसके परिणाम बुरे होते हैं।
जिनको अपना जीवन सात्विक ढंग से शांतिपूर्वक बिताना है उनको समुद्र मंथन के अध्यात्मिक धार्मिक उदाहरण से प्रेरणा लेना चाहिये। एक बात याद रखें कि हर काम पूरा होने का एक समय होता है। इसलिये विधिपूर्वक अपना काम करते रहें तो वह पूरा होगा। यदि उसके पूरा होने से पहले ही हमने अपने अंदर संशय पाल लिये तो उसका पूर्ण होना संदिग्ध होगा।

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भगवान श्रीकृष्ण और श्रीमदभागवत गीता-जन्माष्टमी पर विशेष हिन्दी लेख (bhagwan shri krishna and shri madbhagavat gita)


आज सारे देश में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी मनायी जा रही है। भगवान श्रीकृष्ण जी हमारे ‘अध्यात्मिक दर्शन’ के सबसे बड़े आधार स्तंभ हैं। इस अवसर पर उनकी बालक्रीड़ाओं और प्रेमलीलाओं को लेकर तमाम तरह की चर्चाऐं होती हैं। वृंदावन के बांकेबिहारी मंदिर में ढेर सारी भीड़ जुटती है। लोग आते जाते ‘राधे राधे’ कहते हुए उनके मंदिरों में दर्शनों के लिये जाते हैं। अनेक संत तो भगवान श्रीकृष्ण की बालक्रीडाओं और प्रेमलीलाओं के प्रसंग को सुनाकर भक्तों को भाव विभोर करते हैं।
इस प्रसन्नता पूर्ण वातावरण में बहुत कम ऐसे लोग हैं जो श्रीकृष्ण के महाभारत युद्ध के दौरान उनके उस स्वरूप का स्मरण करते हों जिसमें उनकी लीला से श्री मदभागवत गीता एक अलौकिक और अभौतिक अमृत के रूप में प्रकट हुई। समुद्र मंथन में निकला अमृत तो देवता पी गये और इस कारण दैत्यों से उनका बैर बंध गया जो आज भी जारी सा लगता है। अनेक लोग दैत्यों को उनका फल न मिलने के कारण देवताओं को मनुवादी और पूंजीवादी भी बता देते हैं। मगर श्री गीता में जो अमृत प्रकट हुआ हुआ वह न पीने योग्य है न ही खाने योग्य, उसका स्वाद तो पढ़कर उसे धारण करने पर ही अनुभव किया जा सकता है। इसके लिये अपने अंदर बस संकल्प और विश्वास होना चाहिए।
भगवान श्रीकृष्ण का राधा के साथ आत्मीय संबंध था पर वह केवल प्रेम का नहीं  बल्कि निष्काम प्रेम का प्रतीक था। भले ही कुछ विद्वान इस प्रेम का उपयोग अपने लिये बड़े सुविधाजनक ढंग से समाज को निर्देशित करते हुए प्रेमभाव को दैहिक सीमाओं तक ही समेट देते हैं पर जिन्होंने श्रीमद्भागवत गीता को पढ़ने साथ ही उसे समझने का प्रयत्न किया है वही इस बात को जानते हैं कि प्रेम न केवल देह तक ही सीमित न मनुष्य रूप तक, बल्कि वह आत्मा की गहराई में रहने वाला ऐसा भाव है जो कामनाओं से रहित एक अनुभूति है। उससे मनुष्य की अध्यात्मिक शक्ति बढ़ती है न कि दैहिक वासनायें। भगवान श्रीकृष्ण की बालक्रीड़ाओं तथा प्रेमलीलाओं का बखान ज्ञानी लोगों को रोमांचित करता है पर वहीं तक ही सीमित नहीं रखता क्योंकि महाभारत का युद्ध और उसमें प्रकट हुई श्रीगीता ही वह ग्रंथ है श्रीकृष्ण के रूप का सर्वश्रेष्ठ दर्शन कराती है जो कि भारतीय अध्यात्म दर्शन का वर्तमन में मुख्य केंद्र बिंदु है।
महाभारत युद्ध के मैदान में खड़े श्री अर्जुन को श्रीगीता का रहस्य बताते हुए एक बार भी भगवान श्रीकृष्ण ने अपने साथ दैहिक रूप से जुड़े किसी व्यक्ति का नाम नहीं लिया न राधा का, न रुकमणी का न सत्यभामा का। यहां तक कि अपने हाथ से गोवर्धन पर्वत उठाने की घटना का भी स्मरण नहीं किया जिससे उनको बाल्यकाल में कीर्ति मिल गयी थी। उस समय भगवान श्रीकृष्ण केवल धर्म की स्थापना का वह काम कर रहे थे जिसके लिये वह अवतरित हुए थे वह चमत्कारी लीलाओं के माध्यम से अपने भक्त बनाने की बजाये लोगों को धर्म पालन के प्रेरित करना चाहते थे। जिस वृंदावन में उन्होंने बाल कीड़ाओं और प्रेमलीलाओं से अपने आसपास के लोगों को रोमांचित किया वहां से एक बार वह निकले तो फिर नहीं लौटे बल्कि जीवन पर धर्म स्थापना के लिये द्वारका में रहकर जूझते रहे। महाभारत में स्वयं हथियार न उठाने की प्रतिज्ञा कर ‘अहिंसा’ के सिद्धांत की जो स्थापना की उसका कोई सानी आज तक नहीं मिलता। इस अहिंसा का संदेश कोई कायर नहीं वीर और योद्धा ही दे सकता है।
ज्ञानी लोगों को लिये वृंदावन अत्यंत रोमांचक स्थान होता है पर श्रीकृष्ण के सम्पूर्ण स्वरूप में आस्था के कारण उनका चिंतन केवल वहीं तक नहीं सिमटता क्योंकि वह जानते हैं कि धर्म स्थापना का काम तो उन्होंने वहां से निकलने के बाद ही किया था। कंस वध के बाद उन्होंने पांडवों की सहायता से उस समय के दुष्ट राजाओं का संहार किया पर स्वयं कहीं हथियार का प्रयोग नहीं किया। स्पष्टतः वह यही संदेश दे रहे थे कि सारे काम केवल भगवान के भरोसे नहीं छोड़े जाने चाहिए। युद्ध जिनका विषय हो वही उसें संलिप्त हों और यह भी कि राज्य का काम धर्म स्थापना नहीं बल्कि वह समाज में लोगों द्वारा स्वयं किया जाना चाहिए। वृंदावन से जाकर द्वारिका में बसने के बावजूद उन्होंने धर्म स्थापना का काम नहंी छोड़ा। केवल परिवार में बैठकर मस्ती नहीं की बल्कि समाज के लिये ऐसा काम किया जो आज भी नवीनतम लगता है। श्रीमद्भागवत गीता ज्ञान का वह वह समंदर जो बाहर से सूक्ष्म लगता है पर उसके अंदर विराट खजाना है।
श्रीगीता में निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया जैसे शब्द बहुत सीमित दिखते हैं पर उनका भाव इतना गहरा है कि जो इनको समझ ले उसका तो पूरा ही जीवन आनंदमय हो जाये। निष्कर्ष यह है कि श्री कृष्ण जी का चरित्र केवल बालक्रीडा़ओं और प्रेमलीला तक ही सीमित नहीं है बल्कि जीवन जीने का एक ऐसा तरीका इसमें बताया गया है जो कहीं नहीं मिलता। यही कारण है कि भारत के पुराने मनीषियों ने महाभारत से श्रीमद्भागवत गीता को प्रथक कर उसे समाज के सामने प्रस्तुत किया।
श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर अपने मित्र ब्लाग लेखकों तथा पाठकों को हार्दिक बधाई। 
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लेखक संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,Gwalior
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आखिर धर्म प्रचार की जरुरत क्या है-हिन्दी लेख


आखिर कुछ कथित पवित्र लोग धर्म प्रचार क्यों करते हैं? यह समझ में नहीं आता! धर्म का संबंध निज आचरण से है। सामान्यतः दूसरे पर दया करना, मीठी वाणी में सभी से चर्चा करना तथा सभी के प्रति समान भाव रखने के साथ ही सर्वशक्तिमान की भक्ति तथा उसके गुणों की पर विचार करना ही धार्मिक आचरण की परिधि में आता है। जब धर्म अपने आचरण से दृश्यव्य है तो फिर उसे दूसरे लोगों को बताने की आवश्यकता क्या है? सामान्य मनुष्य की चिंतन क्षमता कम होती है क्योंकि वह अपनी दिनचर्या में लिप्त रहता है पर उसकी चेतना मृत नही होती। किसी अच्छे व्यक्ति से मिलने पर उसके अंदर सकारात्मक भाव पैदा होता है तो निम्न कोटि का व्यक्ति उसके अंदर नकारात्मक विचार पैदा कर देता है। तब सवाल यह उठता है कि कथित पवित्र लोग अपने आचरण से अपने प्रमाणि करने की बजाय किसी धर्म का नाम लेकर प्रचार क्यों करते हैं?
स्पष्टतः धर्म प्रचार ऐसे लोग करते हैं जिनका आचरण दृश्यव्य नहीं  है या वह उसे दिखाना नहीं चाहते क्योंकि वह स्वयं किसी सांसरिक क्रिया में दैहिक रूप से लिप्त नहीं होते पर उनका मन उसमें बिंधा रहता है। अगर उनका आचरण दृश्यव्य हो जाये तो शायद ही कोई  उनकी धर्म सभाओं में जाये। फिर जिनको धर्म प्रचार का काम सौंपा जाता है उनको सांसरिक कार्य से प्रत्यक्षः मुक्ति दी जाती है या वह ले लेते हैं। जब आदमी सांसरिक कर्म करता है तो कुछ न कुछ ऊंच नीच होता रहता है ऐसे में धर्म प्रचारक की छबि पर दाग का खतरा बना जाता है यही कारण है कि हर धर्म प्रचारक सर्वशक्तिमान के अपने कथित रूप के नाम से बने दरबार में ही आवास बनाते हैं। उनके आवास सामान्य नहीं महलों की तरह होते हैं। अनेक जगह उनको राज्य से करों में रियायत के साथ ही कानूनी संरक्षण भी मिलता है। एक तरह से धर्म प्रचारक तथा उनके आवास समाज से पृथक एक अलग समाज बना लेते है। उनका दायरा बहुत सीमित होता है पर अपने अपने सर्वशक्तिमान के रूपों को मानने वाले भक्तों को अपना ही स्थाई अनुयायी मान लेते हैं तब उनकी शाक्ति विशाल लगती है जो केवल एक प्रचार भ्रम है।
उनका दावा होता है कि ‘हमारे इतने लोग हैं। हमारे सर्वशक्तिमान के स्वरूप को मानने वालों की संख्या बढ़ रही है। हमारी विचारधारा के लोगों की संख्या बहुत अधिक हो रही है।
इधर सर्वशक्तिमान के विभिन्न रूपों को मानने वाले लोगों के मन की थाह लें तो इन धर्मप्रचारकों की वहां कोई औकात नहीं दिखती। मगर राज्य और समाज के शिखर पुरुष अपनी ताकत बनाये रखने के लिये इन्हीं धर्म प्रचारकों को भीड़ पर नियंत्रित करने का ठेका देते हैं ताकि आम इंसान किसी प्रकार की विद्रोहात्मक स्थिति न पैदा करे।
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निरंकार है। वह एक है कि अनेक! वह गोरा है या काला! लंबा है या नाटा! वह सुंदर है या असुंदर! इस विषय में प्रमाणिक रूप से कोई नहीं  जानता। साफ कहें तो वह तो अनंत है! मतलब यह कि धर्म प्रचारकों का यह कहना कि वह एक है अपने आप में ही उनके अज्ञान का प्रमाण है। ऐसे में लंबी चौड़ी बहसें होती हैं। कहीं झगड़े होते हैं तो कहंी एकता के लिये अभियान चलते हैं। इस तरह धर्म प्रचारक आम इंसानों की भीड़ की मानसिक रूप से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इसके लिये उनको राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों के -फिल्म, खेल, कला तथा धार्मिक-शिखर पुरुषों से संरक्षण मिलता है। वह सर्वशक्तिमान के बाद इस धरती पर दूसरी बड़ी शक्ति होने का दावा करते हुए कहते हैं कि ‘हम धर्म प्रचारक हैं।’’
धर्म प्रचार आज से नहीं  बरसों से एक व्यवसाय है। मुश्किल यह है कि हर जीव एक ऐसी देह है जिसे आत्मा धारण करती है और मनुष्य में बुद्धि कुछ अधिक है इसलिये वह सब कुछ पाकर भी शांत नहीं बैठता और उसे अध्यात्मिक शंाति की आवश्यकता पड़ती है और यह धर्म प्रचारक उसे अपने अपने हिसाब से प्रवचन देखकर शांत करना चाहते हैं और वह इनके जाल में फंसता है।
अध्यात्म यानि क्या? अध्यात्म वही आत्मा है जिसे इस देह ने धारण किया है। फिर उसे हम केवल आत्मा क्यों नहीं कहते। आत्मा का अगर स्थिर भाव हो तो उसे आत्मा कहा जाये पर उसके भाव का विस्तार होता है इसलिये उसके साथ अधि शब्द जोड़ा जाता है। यह आत्मा कुछ ऐसा देखना चाहता है जो कोई नहंी देख पाता, वह ऐसी चीज पाना चाहता है जिसे कोई नहीं पा सकता। वह ऐसा कुछ करना चाहता है जो कोई नहंी करना चाहता। वह शांति और सुख का सर्वोच्च शिखर छूना चाहता है जो केवल परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान से ही संभव है। यहीं से शुरु होती है धर्म प्रचारकों की धांधलियां। वह सामान्य जन में भ्रम पैदा करते हैं ताकि उसका अध्यात्म भाव उनका बंधक हो जाये।
किसी गरीब को देखेंगे तो कहेंगे कि ‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान सब देगा।’
किसी बीमार को देखेंगे तो  कहेंगे-‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान बीमारी ठीक कर देगा।’
किसी परेशान को देखेंगे तो कहेंगे कि-‘विश्वास करो कि सर्वशक्तिमान सब समस्या हल कर देगा।’’
इस देह में फंसे मन को वह गोल गोल इस देह के आसपास ही घुमाते हैं। आदमी की बुद्धि के केंद्र में स्थापित देह के मोह का वह बहुत सटीक इस्तेमाल करते हैं।
यह धर्म प्रचारक अव्वल दर्जे के अज्ञानी और लालची हैं-उनको मूर्ख कहना ठीक नहीं क्योंकि वह तो आम इंसान को मूर्ख बनाते हैं। सांसरिक कर्म में जो कोई अपना स्थापित नहीं  कर पाता वह धर्म प्रचारक बन जाता है।
जब कोई आदमी अपने धर्म प्रचारक होने का दावा करे तो समझ लीजिए कि वह व्यापार कर रहा है। दरअसल हमें अपने मन की शांति के लिए अध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता होती है न कि धर्म के नाम पर मनोरंजन की। इस संसार में जो समस्यायें हैं वह भौतिकता की वजह से हैं। देह है तो बहुत सारी परेशानियां रहेंगी। अगर कोई मर गया तो वह मर गया पर उसको स्वर्ग दिलाने के लिये कर्मकांडों के नाम पर खर्च करने से भी परेशानी होती है मगर लोग करते हैं यह सोचकर कि न करने पर समाज आक्षेप करेगा। दूसरे लोग कहेंगे कि ‘बड़ा अधर्मी आदमी है अपने मरे हुए आत्मीय को स्वर्ग नहीं भिजवा रहा। खर्च से डरता है।’
इस तरह कर्मकांडों से धर्म को जोड़ा गया है जबकि सच यह है कि इनका उस अध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है जो हमारा आधार है। दुनियां में बहुत सारे धर्म हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान की खान केवल भारतीय दर्शन में ही है जो संसार के आवश्यक कर्म करते हुए शांति और सफलता से जीवन जीने की राह दिखाता है। वह केवल अध्ययन, मनन और चिंतन से प्राप्त होता है और उसके लिये चाहिए एकांत! शोरशराबे में ज्ञान केवल चीख बनकर रह जाता है। फिर ज्ञान के लिये गुरु के पास जाना पड़ता है। ऐसा गुरु ढूंढना पड़ता है जो ज्ञान बेचने की बजाय उसके आधार पर अपना जीवन निर्वाह करते हुए संसारिक कार्य में निर्लिप्त भाव से से रहता है न कि धर्म प्रचारक बनकर अपने लिये शिष्य ढूंढता है। जब शिक्षित नहीं थे तब संत लोग ज्ञान बांटते थे पर जब अक्षर ज्ञान बढ़ गया है तब यही काम श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही कबीर, रहीम, तुलसी, मीरा तथा अन्य महान संतों की वाणी का अध्ययन कर किया जा सकता है। उसके लिये किसी पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है। एक बात याद रखें अपना ज्ञान तब तक दूसरे को न सुनायें जब तक वह इसके लिये आग्रह न करें क्योंकि एसा करते हुए धीरे धीरे उन धर्म प्रचारकों की श्रेणी में आ जायेंगे जो से कोरे हैं और धार्मिक कर्मकांडों को ही स्वर्ग का रास्ता बताते हैं और मोक्ष के नाम से तो उनको भय लगने लगता है।

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धर्म प्रचार एक व्यवसायिक ढोंग-हिन्दी साहित्यक लेख (dharma pracha A tred-hindi literature article)


आखिर कुछ कथित पवित्र लोग धर्म प्रचार क्यों करते हैं? यह समझ में नहीं आता! धर्म का संबंध निज आचरण से है। सामान्यतः दूसरे पर दया करना, मीठी वाणी में सभी से चर्चा करना तथा सभी के प्रति समान भाव रखने के साथ ही सर्वशक्तिमान की भक्ति तथा उसके गुणों की पर विचार करना ही धार्मिक आचरण की परिधि में आता है। जब धर्म अपने आचरण से दृश्यव्य है तो फिर उसे दूसरे लोगों को बताने की आवश्यकता क्या है? सामान्य मनुष्य की चिंतन क्षमता कम होती है क्योंकि वह अपनी दिनचर्या में लिप्त रहता है पर उसकी चेतना मृत नही होती। किसी अच्छे व्यक्ति से मिलने पर उसके अंदर सकारात्मक भाव पैदा होता है तो निम्न कोटि का व्यक्ति उसके अंदर नकारात्मक विचार पैदा कर देता है। तब सवाल यह उठता है कि कथित पवित्र लोग अपने आचरण से अपने प्रमाणि करने की बजाय किसी धर्म का नाम लेकर प्रचार क्यों करते हैं?
स्पष्टतः धर्म प्रचार ऐसे लोग करते हैं जिनका आचरण दृश्यव्य नहीं  है या वह उसे दिखाना नहीं चाहते क्योंकि वह स्वयं किसी सांसरिक क्रिया में दैहिक रूप से लिप्त नहीं होते पर उनका मन उसमें बिंधा रहता है। अगर उनका आचरण दृश्यव्य हो जाये तो शायद ही कोई  उनकी धर्म सभाओं में जाये। फिर जिनको धर्म प्रचार का काम सौंपा जाता है उनको सांसरिक कार्य से प्रत्यक्षः मुक्ति दी जाती है या वह ले लेते हैं। जब आदमी सांसरिक कर्म करता है तो कुछ न कुछ ऊंच नीच होता रहता है ऐसे में धर्म प्रचारक की छबि पर दाग का खतरा बना जाता है यही कारण है कि हर धर्म प्रचारक सर्वशक्तिमान के अपने कथित रूप के नाम से बने दरबार में ही आवास बनाते हैं। उनके आवास सामान्य नहीं महलों की तरह होते हैं। अनेक जगह उनको राज्य से करों में रियायत के साथ ही कानूनी संरक्षण भी मिलता है। एक तरह से धर्म प्रचारक तथा उनके आवास समाज से पृथक एक अलग समाज बना लेते है। उनका दायरा बहुत सीमित होता है पर अपने अपने सर्वशक्तिमान के रूपों को मानने वाले भक्तों को अपना ही स्थाई अनुयायी मान लेते हैं तब उनकी शाक्ति विशाल लगती है जो केवल एक प्रचार भ्रम है।
उनका दावा होता है कि ‘हमारे इतने लोग हैं। हमारे सर्वशक्तिमान के स्वरूप को मानने वालों की संख्या बढ़ रही है। हमारी विचारधारा के लोगों की संख्या बहुत अधिक हो रही है।
इधर सर्वशक्तिमान के विभिन्न रूपों को मानने वाले लोगों के मन की थाह लें तो इन धर्मप्रचारकों की वहां कोई औकात नहीं दिखती। मगर राज्य और समाज के शिखर पुरुष अपनी ताकत बनाये रखने के लिये इन्हीं धर्म प्रचारकों को भीड़ पर नियंत्रित करने का ठेका देते हैं ताकि आम इंसान किसी प्रकार की विद्रोहात्मक स्थिति न पैदा करे।
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निरंकार है। वह एक है कि अनेक! वह गोरा है या काला! लंबा है या नाटा! वह सुंदर है या असुंदर! इस विषय में प्रमाणिक रूप से कोई नहीं  जानता। साफ कहें तो वह तो अनंत है! मतलब यह कि धर्म प्रचारकों का यह कहना कि वह एक है अपने आप में ही उनके अज्ञान का प्रमाण है। ऐसे में लंबी चौड़ी बहसें होती हैं। कहीं झगड़े होते हैं तो कहंी एकता के लिये अभियान चलते हैं। इस तरह धर्म प्रचारक आम इंसानों की भीड़ की मानसिक रूप से नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। इसके लिये उनको राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, तथा अन्य प्रतिष्ठित क्षेत्रों के -फिल्म, खेल, कला तथा धार्मिक-शिखर पुरुषों से संरक्षण मिलता है। वह सर्वशक्तिमान के बाद इस धरती पर दूसरी बड़ी शक्ति होने का दावा करते हुए कहते हैं कि ‘हम धर्म प्रचारक हैं।’’
धर्म प्रचार आज से नहीं  बरसों से एक व्यवसाय है। मुश्किल यह है कि हर जीव एक ऐसी देह है जिसे आत्मा धारण करती है और मनुष्य में बुद्धि कुछ अधिक है इसलिये वह सब कुछ पाकर भी शांत नहीं बैठता और उसे अध्यात्मिक शंाति की आवश्यकता पड़ती है और यह धर्म प्रचारक उसे अपने अपने हिसाब से प्रवचन देखकर शांत करना चाहते हैं और वह इनके जाल में फंसता है।
अध्यात्म यानि क्या? अध्यात्म वही आत्मा है जिसे इस देह ने धारण किया है। फिर उसे हम केवल आत्मा क्यों नहीं कहते। आत्मा का अगर स्थिर भाव हो तो उसे आत्मा कहा जाये पर उसके भाव का विस्तार होता है इसलिये उसके साथ अधि शब्द जोड़ा जाता है। यह आत्मा कुछ ऐसा देखना चाहता है जो कोई नहंी देख पाता, वह ऐसी चीज पाना चाहता है जिसे कोई नहीं पा सकता। वह ऐसा कुछ करना चाहता है जो कोई नहंी करना चाहता। वह शांति और सुख का सर्वोच्च शिखर छूना चाहता है जो केवल परमात्मा की भक्ति तथा ज्ञान से ही संभव है। यहीं से शुरु होती है धर्म प्रचारकों की धांधलियां। वह सामान्य जन में भ्रम पैदा करते हैं ताकि उसका अध्यात्म भाव उनका बंधक हो जाये।
किसी गरीब को देखेंगे तो कहेंगे कि ‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान सब देगा।’
किसी बीमार को देखेंगे तो  कहेंगे-‘विश्वास करो सर्वशक्तिमान बीमारी ठीक कर देगा।’
किसी परेशान को देखेंगे तो कहेंगे कि-‘विश्वास करो कि सर्वशक्तिमान सब समस्या हल कर देगा।’’
इस देह में फंसे मन को वह गोल गोल इस देह के आसपास ही घुमाते हैं। आदमी की बुद्धि के केंद्र में स्थापित देह के मोह का वह बहुत सटीक इस्तेमाल करते हैं।
यह धर्म प्रचारक अव्वल दर्जे के अज्ञानी और लालची हैं-उनको मूर्ख कहना ठीक नहीं क्योंकि वह तो आम इंसान को मूर्ख बनाते हैं। सांसरिक कर्म में जो कोई अपना स्थापित नहीं  कर पाता वह धर्म प्रचारक बन जाता है।
जब कोई आदमी अपने धर्म प्रचारक होने का दावा करे तो समझ लीजिए कि वह व्यापार कर रहा है। दरअसल हमें अपने मन की शांति के लिए अध्यात्मिक ज्ञान की आवश्यकता होती है न कि धर्म के नाम पर मनोरंजन की। इस संसार में जो समस्यायें हैं वह भौतिकता की वजह से हैं। देह है तो बहुत सारी परेशानियां रहेंगी। अगर कोई मर गया तो वह मर गया पर उसको स्वर्ग दिलाने के लिये कर्मकांडों के नाम पर खर्च करने से भी परेशानी होती है मगर लोग करते हैं यह सोचकर कि न करने पर समाज आक्षेप करेगा। दूसरे लोग कहेंगे कि ‘बड़ा अधर्मी आदमी है अपने मरे हुए आत्मीय को स्वर्ग नहीं भिजवा रहा। खर्च से डरता है।’
इस तरह कर्मकांडों से धर्म को जोड़ा गया है जबकि सच यह है कि इनका उस अध्यात्म से कोई लेना देना नहीं है जो हमारा आधार है। दुनियां में बहुत सारे धर्म हैं पर अध्यात्मिक ज्ञान की खान केवल भारतीय दर्शन में ही है जो संसार के आवश्यक कर्म करते हुए शांति और सफलता से जीवन जीने की राह दिखाता है। वह केवल अध्ययन, मनन और चिंतन से प्राप्त होता है और उसके लिये चाहिए एकांत! शोरशराबे में ज्ञान केवल चीख बनकर रह जाता है। फिर ज्ञान के लिये गुरु के पास जाना पड़ता है। ऐसा गुरु ढूंढना पड़ता है जो ज्ञान बेचने की बजाय उसके आधार पर अपना जीवन निर्वाह करते हुए संसारिक कार्य में निर्लिप्त भाव से से रहता है न कि धर्म प्रचारक बनकर अपने लिये शिष्य ढूंढता है। जब शिक्षित नहीं थे तब संत लोग ज्ञान बांटते थे पर जब अक्षर ज्ञान बढ़ गया है तब यही काम श्रीमद्भागवत गीता के साथ ही कबीर, रहीम, तुलसी, मीरा तथा अन्य महान संतों की वाणी का अध्ययन कर किया जा सकता है। उसके लिये किसी पर आश्रित होने की आवश्यकता नहीं है। एक बात याद रखें अपना ज्ञान तब तक दूसरे को न सुनायें जब तक वह इसके लिये आग्रह न करें क्योंकि एसा करते हुए धीरे धीरे उन धर्म प्रचारकों की श्रेणी में आ जायेंगे जो से कोरे हैं और धार्मिक कर्मकांडों को ही स्वर्ग का रास्ता बताते हैं और मोक्ष के नाम से तो उनको भय लगने लगता है।

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हिन्दू धर्म संदेश-नालायक से दया और धनी से धन की आशा न करें


भर्तृहरि महाराज का कहना है कि
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असन्तो नाम्यथ्र्याः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः प्रियान्याच्या वृत्तिर्मलिनमुसुभंगेऽप्यसुकरं।
चिपद्युच्चैः स्थेयं पदमनृविधेयं च महतां सत्तां केनाद्दिष्टं विषमममसिधाराव्रतमिदम्?
हिंदी में भावार्थ-
दुष्ट लोगों से दया के लिये प्रार्थना और अमीर मित्रों से याचना न कर केवल सत्य आचरण से ही जीवन पथ पर आगे बढ़ना चाहिये-ऐसे विचार का प्रतिपादन सज्जन लोगों के लिये किसने किया? मृत्यु के समक्ष भी उच्च विचारों की रक्षा की जाती है और महापुरुषों के मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जीवन के अनेक नियम हैं जिनमें यह भी है कि जो व्यक्ति दुष्ट प्रवृत्ति का है उससे दया की याचना करने का कोई अर्थ नहीं है। उससे अपनी दुष्टता का प्रदर्शन करना ही है। दया दिखाने पर हो सकता है वह कुछ देर अपने दुष्कर्म से रुक जाये पर फिर उसे उसी मार्ग पर जाना है। अतः दुष्ट प्रकृति के लोगों का प्रतिकार करने का सामर्थ्य हमेशा अपने पास रखना चाहिये या फिर उस स्थान से ही चले जाना चाहिये जहां वह निवास करते है।
उसी तरह अपने धनी मित्र से किसी प्रकार की याचना कर अपने संबंध बिगाड़ने की आशंकायें पैदा करना व्यर्थ है। धन एक माया का रूप है और वह सभी को भ्रम, लालच और लोभ की प्रवृत्तियों के कारण अपने बंधन में जकड़े रहती है। अतः अपने धन बंधु-बांधवों और मित्रों से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह याचना करने पर आर्थिक सहायता देंगे। जहां तक आर्थिक सहायता का प्रश्न है तो जिसके मन में यह उदार भाव होता है वह बिना मंागे ही करता है और जिसका हृदय संकीर्ण मानसिकता वाला है उससे कितना भी आग्रह करें वह आर्थिक सहायता नहीं करेगा।
जीवन में अपने आत्म सम्मान की रक्षा के लिये जरूरी है कि उसके कुछ नियमों को समझा जाये। महापुरुष द्वारा ने अपने अनुभवों से जो सत्य का मार्ग दिखाया है उस पर चलकर ही सामान्य मनुष्य जीवन में स्वस्थ और प्रसन्न रह सकता है। उससे पृथक चलना अपने आपको ही शारीरिक और मानसिक कष्ट देना है।
किसी दुष्ट आदमी से दया की याचना कर अपने आपको ही अपमानित करना है। उससे तो अच्छा है कि उसके साथ रण किया जाये या उपेक्षा कर उससे दूर हो जायें। उसी तरह मित्र से धन मांगना एक तरह से दीवार खड़ी करना है। हर किसी को धन का मोह होता है और संभव है कि मित्र से धन मांगें तो उसे अच्छा न लगे। वैसे सच्चा मित्र तो वही है जो समय पड़ने पर स्वयं ही धन देने का प्रस्ताव करे
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पतंजलि योग सूत्र-श्वास की गति को रोकना फिर छोड़ना ही प्राणयाम


स्थिरसुखमासनम्।
हिन्दी में भावार्थ.
स्थिर होकर सुख से बैठने का नाम आसन है।
प्रयत्नशैथिल्यानन्तसमापतिभ्याम्।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन के समय प्रयत्न रहित होने के साथ परमात्मा का स्मरण करने से ही वह सिद्ध होता है।
ततोद्वन्द्वानभिघातः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसनों से सांसरिक द्वंद्वों का आघात नहीं लगता।
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।
हिन्दी में भावार्थ-
आसन की सिद्धि हो जाने पर श्वास ग्रहण करने और छोड़ने की गति रुक जाती है उसे प्राणायाम कहा जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-योग साधना कोई सामान्य व्यायाम नहीं है बल्कि ऐसी कला है जिसे जीवन में हमेशा ही आनंद का अनुभव किया जा सकता है। सबसे पहली बात तो यह है कि हम सुखपूर्वक अपने मन और इंद्रियों का निग्रह कर बैठ सकें वही आसन है। इस दौरान अपने हाथ से कोई प्रयत्न न कर केवल परमात्मा का स्मरण करना चाहिये। उस समय अपनी श्वास को आते जाते एक दृष्टा की तरह देखें न कि कर्ता के रूप में स्थित हों। बीच बीच में उसे रोकें और फिर छोड़ें। इस प्राणायाम कहा जाता है। यह प्राणायाम मन और बुद्धि के विकारों को निकालने में सहायक होता है। इससे इतनी सिद्धि मिल जाती है कि आदमी गर्मीए सर्दी तथा वर्षा से उत्पन्न शारीरिक द्वंद्वों से दूर हो जाता है। इतना ही नहीं संसार में आने वाले अनेक मानसिक कष्टों को वह स्वाभाविक रूप से लेता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वह दुःख और सुख के भाव से परमानन्द भाव को प्राप्त होता है।
इस संसार में दो ही मार्ग हैं जिन पर इंसान चलता है। एक तो है सहज योग का दूसरा असहज योग। हर इंसान योग करता है। एक वह हैं जो सांसरिक पदार्थों में मन को फंसाकर कष्ट उठाते हैं दूसरे उन पदार्थों से जुड़कर भी उनमें लिप्त नहीं होते। इसलिये कहा जाता है कि योग जीवन जीने की एक कला है और यह भी अन्य कलाओं की तरह अभ्यास करने पर ही प्राप्त होती है। जो सतत योगाभ्यास करते हैं उनके चेहरे और वाणी में तेज स्वत: आता है और उससे दूसरे लोग प्रभावित होते हैं। इसके अलावा जीवन में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में सहजता का अनुभव होता  है।

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हिन्दू धर्म संदेश-पैसे का अकल से कोई रिश्ता नहीं


महात्मा विदुर कहते हैं कि
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न बुद्धिर्धनलाभाय न जाह्यमसद्धये।
लोकपर्यावृतांत प्राज्ञो जानाति नेतरः।।
हिंदी में भावार्थ-
धन केवल बुद्धि से ही प्राप्त होता है या मूर्खता के कारण आदमी दरिद्र रहता है, ऐसा कोई नियम नहीं है। इस संसार के नियमों को केवल विद्वान पुरुष ही जानते हैं।
असंविभागो दुष्टात्मा कृतघ्नो निरपत्रपः।
तादृंनारिधपो लोके वर्जनीवो नारधिपः।।
हिंदी में भावार्थ-
अपने व्यक्ति अपने आश्रितों में अपनी धन संपत्ति को ठीक से बंटवारा नहीं करे तो दुष्ट कृतघ्न और निर्लज्ज है उसे इस लोक में त्याग देना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिन लोगों के पास धन नहीं है या अल्पमात्रा में है उन्हें धनवान लोग मूर्ख और अज्ञानी मानते हैं। अक्सर धनवाल लोग कहते हैं कि ‘अक्ल की कमी के कारण लोग गरीब होते हैं।’
उनका यह तर्क गलत और बेहूदा है। अगर ऐसा है तो अनेक धनवान गरीब क्यों हो जाते हैं? जिनके पास धन और संपत्ति विपुल मात्रा में वह अपने व्यवसाय में हानि उठाने या अपने बच्चों की गलत संगत के कारण उनके द्वारा किये जा रहे अपव्यय के से संकटग्रस्त हो जाने से निर्धनता को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके बारे में क्या यह कहना चाहिये कि ‘वह अक्ल के कारण ही अमीर हुए और अब उसके न रहने से गरीब हो गये।’ या ‘अब धन नहीं है तो उनके पास अक्ल भी नहीं होगी।’
कहने का तात्पर्य है कि यह धारणा भ्रांत है कि बुद्धि या अक्ल के कारण कोई अमीर या गरीब बनता है। संसार का अपना एक चक्र है। शाश्वत सत्य कभी नहीं बदलता पर माया तो महाठगिनी है। आज इस घर में सुशोभित है तो कल वह किसी दूसरे दरवाजे पर जायेगी। लक्ष्मी के नाम का एक पर्यायवाची शब्द ‘चंचला’ भी है। वह हमेशा भ्रमण करती हैं। अतः हमेशा ही अमीरों को बुद्धिमान और गरीबों को बुद्धिहीन मानने वालों को अपने विचार बदलना चाहिए। इस तरह के सोच ने ही समाज में जो वैमनस्य फैलाया है उसे अब दूर करने की आवश्यकता है। जिस तरह आज चारों तरफ हिंसक संघर्ष का वातावरण दिख रहा है उसके पीछे ऐसी ही सोच जिम्मेदार है।

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हिन्दू धर्म दर्शन-भोजन करते समय मन में अच्छा भाव रखें


पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चेतकुत्सयन्
दृष्टवा हृध्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः।।
हिंदी में भावार्थ-
मनुष्य को जैसा भोजन मिले उसे देखकर प्रसन्नता हासिल करना चाहिए। उसे ईश्वर प्रदत्त मानकर गुण दोष न निकालते हुए उदरस्थ करें। भोजन करते हुए अपनी झूठन न छोड़ें। यह कामना करें कि ऐसा अन्न हमेशा ही मिलता रहे।
पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्ज च यच्छाति।
अपूजितं च तद्भुक्तमूभयं नाशयेदिदम्।।
हिंदी में भावार्थ-
सदाशयता से ग्रहण किया भोजन बल और वीर्य में वृद्धि करता है जब निंदा करते हुए उदरस्थ करने से उसके तत्व नष्ट होते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिनको भोजन आराम से मिलता है उनको उसका महत्व नहीं पता इसलिये वह उसे ऐसे करते हैं जैसे कि उसकी उनको परवाह ही नहीं है। भोजन करते समय उनको यह अहंकार आता है कि यह तो हमारा अधिकार ही है और हमारे लिये बना है। सच तो यह है कि भोजन का महत्व वही लोग जानते हैं जिनको यह नसीब में पर्याप्त मात्रा में नहीं होता। स्वादिष्ट भोजन की चाह आदमी को अंधा बना देती है। अनेक बार ऐसा समय आता है जब वह सब्जी के कारण भोजन नहीं करता या उसे त्याग देता है। भोजन करते समय उसकी निंदा करेंगे। शादी विवाह में तो अब यह भी होने लगा है कि लोग भोजन थाली में भरकर लेते हैं पर उसमें से ढेर सारा झूठन में छोड़े देते हैं। सार्वजनिक अवसरों पर ऐसे भोजन की बरबादी देखी जा सकती है।
यह समझ लेना चाहिये कि भोजन तो ईश्वरीय कृपा से मिलता है। यह सही है कि दाने दाने पर लिखा है खाने वाले का नाम, पर यह भी नहीं भूलना कि अपने कर्म और भाव से भी भाग्य का निर्माण होता है। अगर हम भोजन करते हुए अहंकार पालेंगे तो संभव है कि दानों पर लिखा हमारा नाम मिट भी जाये। अपनी गृहिणी को कभी भी सब्जी आदि को लेकर ताना नहीं देना चाहिये। यह भगवान की कृपा समझें कि एक ऐसी गृहिणी आपके साथ है जो अपने हाथ से खाना बनाकर देती है वरना तो अनेक लोग घर के खाने के लिये तरस जाते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि खाते हुए अपना भाव सौम्य और सरल रखना चाहिए तभी भोजन के तत्व संपूर्ण रूप से काम करते हैं अगर मन में क्लेश या अप्रसन्नता है तो फिर खाना न खाना बराबर है। एक बात निश्चित है कि अगर तनाव में खाना खाया तो समझ लीजिये केवल पेट भरा पर उससे मिलने वाली ऊर्जा निरर्थक हो जाती है। आपने अक्सर सुना होगा कि जिनको दिमागी तनाव रहता है उन्हीं को उच्च रक्तचाप और मधुमेह की शिकायत होती है।
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