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स्वस्थ मनुष्य के हाथ से ही राजसी कर्म सहजता से संभव-मनुस्मृति


                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।

                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

 

——————

 

अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।

 

स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।

 

                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।

 

विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।

 

सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।

 

                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी है।

                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।

                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

 

 

                        हमारे दर्शन के अनुसार पूर्णतः स्वस्थ होने पर ही किसी मनुष्य को राजसी कर्म करना चाहिये। ऐसे में जिन लोगों पर राज्य का भार है उनको प्रजा हित के लिये अधिक ही परिश्रम करना होता है इसलिये उनका पूर्णतः स्वस्थ होना आवश्यक है।  आधुनिक लोकतंत्र ने पूरे विश्व में राज्य व्यवस्थाओं में इस नीति का पालन नहीं किया जा रहा है। आज तो सभी देशों में यही देखा जाता है कि चुनाव में कौन जीत सकता है? चुनाव जीतने की योग्यता और क्षमता ही राज्यपद पाने का एक आधार बन गयी है।  ऐसे में अनेक देशों के राज्य प्रमुख शासन में आने के बाद जनता में अपनी लोकप्रियता खो देते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पद की अवधि पांच या छह साल होती है उसमें राज्य पद पर प्रतिष्ठित होने पर व्यक्ति की चिंतायें प्रजा हित से अधिक अपने चुनाव के लिये चंदा देने वालों का उधार चुकाने या फिर अगले चुनाव में फिर अपना पद बरबकरार रहने की होती है।  कुछ समय विपक्षियों का सामना करने तो बाकी समय जनता के सामने नये वादे करते रहने में लग जाता है।

                        अनेक देशों के राज्य प्रमुख शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से अस्वस्थ होने के बावजूद सत्ता रस पीते रहते हैं। राज्य के अधिकारी भी अपनी नौकरी चलाते हुए केवल राज्य प्रमुख की कुर्सी बचाये रखने में अपना हित समझते हैं। विश्व प्रसिद्ध चिंत्तक कार्लमार्क्स ने अपने पूंजी नामक पुस्तक में इन पूंजीपतियों के हाथ लग चुकी व्यवस्थाओं की चर्चा बहुत की है।  यह अलग बात है कि उसके अनुयायियों ने भी अपने शासित राष्ट्रों में शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक दृष्टि से बीमार लोगों को उच्च पदों पर बैठाये रखा और बेबस जनता तानाशाही की वजह से उनको ढोती रही।  वामपंथी व्यवस्था में बौद्धिकों को वैचारिक मध्यस्थ बन कर मजे लूटने की सुविधा मिलती है इसलिये वह जनहित की बातें बहुत करते हैं पर अपने शिखर पुरुषों की शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता को निजी विषय बताते हैं।  मजे की बात यही है कि यही वामपंथी बौद्धिक मध्यस्था मनुस्मृति का जमकर विरोध करते हैं।

मनुस्मृति में कहा गया है कि

 

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अमात्यंमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्भवम्।

 

स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नृणाम्।।

 

                        हिन्दी में भावार्थ-जब राज्य प्रमुख अपने खराब स्वास्थ्य की वजह से प्रजाहित के कार्यों का निरीक्षण करने में असमर्थ हो तब उसे अपना कार्यभार किसी बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, सभ्य तथा शिष्ट पुरुष को सौंप देना चाहिये।

 

विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्धियन्ते दस्युभिः प्रजाः।

 

सम्पतश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति।।

 

                        हिन्दी में भावार्थ-उस राजा या राज्य प्रमुख को जीवित रहते हुए भी मृत समझना चाहिये जिसके अधिकारियों के सामने ही डाकुओं से लूटी जाती प्रजा हाहाकर मदद मांगती है पर वह उसे बचाते ही नहंी है।

                        सामान्य सिद्धांत तो यही है कि अस्वथ्यता की स्थिति में राज्य प्रमुख किसी गुणी आदमी को अपना पदभार सौप दे पर होता यह है कि वामपंथी विचारक शिखर पर बैठे पुरुष को अपने अनुकूल पाते हैं तो वह उसकी जगह किसी दूसरे को स्वीकार नहंी करते। दूसरी बात यह है कि आजकल के राज्य प्रमुखों में इतनी मानवीय चतुराई तो होती है कि वह अपने बाद के दावेदारों को आपस में लड़ाये रखते है ताकि कोई उसकी जगह कोई दूसरा नहीं ले सके। अनेक जगह तो राज्य प्रमुख इस तरह की व्यवस्था कर देते हैं कि उनके बाद उनके परिवार के सदस्यों को ही जगह मिले। वामपंथियों के सबसे बड़े गढ़ चीन में भी अब शासन में परिवारवाद आ गया है।  वामपंथियों ने शायद इसलिये ही हमेशा मनुस्मृति का विरोध किया है ताकि उसकी सच्चाई से आम लोग अवगत न हों और उनका छद्म समाज सुधार का अभियान चलता रहे।

                        हम आजकल पूरी विश्व अर्थव्यवस्था चरमराने की बात करते हैं। उसका मुख्य कारण यही है कि अनेक महत्वपूर्ण देशों का शासन पुराने राजनीतिक सिद्धांतों की अनदेखी कर चलाया जा रहा है। स्थिति यह है कि तानाशाही व्यवस्था हो या लोकतांत्रिक सत्य कहने का अर्थ अपने लिये शत्रुओं का निर्माण करना होता है। अपनी आलोचना सहन करने के लिये पर्याप्त प्राणशक्ति बहुत कम लोगों में रह गयी है। इसका मुख्य कारण शारीरिक, मानसिक तथा वैचारिक अस्वस्थता ही है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

अपने अध्यात्म दर्शन को स्वाध्याय से ही समझना संभव-हिंदी चिन्तन लेख


                        भारत में  व्यवसायिक संतों को इतने सारे भक्त मिल जाते हैं तो इस पर किसी को आश्चर्य चकित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हमारे देश के  परंपरागत मानस प्रवृत्ति यही है कि अध्यात्म का ज्ञान और मन को बहलाने का विषय एक ही जगह उपलब्ध होने पर लोग ज्यादा खुश होते हैं।  भारतीय जनमानस की यह प्रवृत्ति रही है कि वह धार्मिक कार्यक्रमों में भी अपनी अध्यात्म की भूख शांत करना चाहता है तो मन बहलाने को भी उत्सुक रहता है। पहले भारत के बृहद शहरों की बजाय गांवों के आधार पर समाज केंद्रित था।  वहां लोगों को सीमित क्षेत्र में ही कार्य करने के साथ ही पर्यटन के साधन ही उपलब्ध थे।  यही कारण है कि पौराणिक कथानकों के सुनाने के लिये उनके पास कथाकार आते रहे जिनको संत का दर्जा इसलिये मिला क्योंकि उनका विषय कहीं न कहीं अध्यात्म से जुड़ा रहा।

                        यह प्रवृत्ति आज भी है।  चाहे कितनी भी अच्छी कहानी या फिल्म हो अगर वह अध्यात्म रूप से संदेश नहीं देती तो दर्शक उसे श्रेष्ठता का दर्जा नहीं देता। हम अपने यहां भी प्रगतिशील लेखकों का समूह देखते हैं जो यहां के पाठकों से हमेशा निराश रहा है।  दरअसल आधुनिक लेखकों की चाहत रही है कि वह अपने लेखन से एक नये समाज का सृजन करें पर उनकी रचनायें समाज के किसी सत्य को उभारती तो हैं पर कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करती जिससे आम जनमानस प्रभावित नहीं होता।  अनेक फिल्में शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये बनी पर भारतीय जनमानस में वही स्थापित हो सकीं जिनमें कहंी न कहीं धार्मिक पुट था।  यही स्थिति संतों की रही है जो अध्यात्म के साथ मनोरंजन करते हैं उन्हें अधिक भक्त मिल जाते हैं। अनेक संत तो चुटकुल सुनाकर ही ंसंदेश देते हैं।  तय बात है कि यह कला केवल पेशेवर को ही आ सकती है।

                        अब समाज शहरों में स्थापित हो गया है। यहां के गांवों में भी अब पाश्चात्य संस्कृति पांव पसार चुकी है पर जनमानस की प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आया। यही कारण है कि अध्यात्म ज्ञान के नाम पर पेशेवर संतों की लोकप्रियता बढ़ रही है।  जब भारत में टीवी ने जनमानस में जगह बनायी तब पेशेवर संतों को अपने यहां भक्तों के टोटे पड़ने लगे थे। ऐसे में उन्होंने टीवी की तरफ रुख किया।  बात अगर टीवी की करें तो बुनियाद और हम लोग जैसे शुद्ध सामाजिक धारावाहिकों ने लोकप्रियता पायी पर लोग आज भी रामायण और महाभारत का नाम याद करते हैं। सामाजिक धारवाहिकों के लेखक भीष्म साहनी का नाम आम जनमानस में स्थापित तक नहीं है जबकि महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास तथा कविवर तुलसीदास का नाम शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे याद न हो।  प्रगतिशील लेखकों के लिये यह स्थिति निराशाजनक होती है।  यही कारण है कि वह आज भी समाज में पढ़े लिखे को विकसित और अपढ़ को पिछड़ा मानते हैं।  यह अलग बात है कि हम जैसे अध्यात्मिकवादी लेखक यह मानते हैं कि मनुष्य के मूल स्वभाव का अक्षर शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता।  भारतीय जनमानस में अध्यात्म का विषय स्वभाविक रूप से होता है और वह सांसरिक विषयों के हर रंग में उसे देखना चाहता है। यही कारण है कि कोई कहानी, कविता, फिल्म या तस्वीर अगर उसके अध्यात्म को नहीं छूती तो वह उसे अधिक मान्यता नहीं देता।  यही कारण है कि अनेक चित्रकार, फिल्मकार तथा साहित्यकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने सांसरिक विषयों पर अपनी रचनायें कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता प्राप्त की पर भारतीय जनमानस अपने जननायक के रूप में उनको जानता तक नहीं, मानना तो दूर की बात है।

                        अक्सर कुछ बुद्धिमान लोग पेशेवर संतों के पास जाने वाली भीड़ को अज्ञानी, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी कहकर चिढ़ाते हैं। यह भी कह सकते हैं कि वह स्वयं अपनी ही खीज निकालते हैं जिस पर समाज कान नहीं देता। वह लोगों से इन धार्मिक कार्यक्रमों में न जाने की बात तो कहते हैं पर इसका विकल्प नहीं बताते। अंधविश्वास से दूर रहो पर विश्वास किस पर करें, इसका बुद्धिमान लोग उत्तर नहीं दे पाते।  ऐसे बुद्धिमान समाज के चक्षु पटल पर अपना चेहरा देखने के लिये उत्सुक रहते हैं पर जब उनको निराशा होती है तो वह चिल्लाते हैं कि जो लोग हमें नहंी सुन रहे वह गंवार है।  वह भारतीय जनमानस की इस प्रवृत्ति को समझ नहीं पाये कि यहां बिना अध्यात्म यानि आदमी की आत्मा को छूए बिना उसे पाया नहीं जा सकता।  दूसरी बात यह भी कि अंधविश्वासों का विरोध आधुनिक समय में ही नहीं हुआ पहले भी हुआ है। पुराने समय में  गुरुप्रवर श्रीगुरुनानक जी, संत प्रवर कबीर और कविवर रहीम ने पूरा जीवन ही समाज के सुधार में व्यतीत किया।  हमारे देश के अनेक महानुभावों ने अंधविश्वास का विरोध किया पर साथ में अध्यात्मिक ज्ञान का विश्वास भी दिखाया।  ऐसी महान विभूतियों को भारतीय जनमानस अपने हृदय में जो स्थान देता है उसे देखकर आधुनिक लेखकों का निराश होना स्वभाविक है पर सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। सत्य ही ज्ञान है और ज्ञान ही सत्य है। मृत्यु भी सत्य है पर सत्य तो जीवन भी है। इस संसार में प्रलय आ जायेगी तो सभी नष्ट हो जायेगा ऐसा कहते हैं पर सच यह है कि कुछ न कुछ तो रहेगा ही।  पेड़ न रहे तो पत्थर रहेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि अवशेष तो हर हालत में रहेंगे। 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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भारत में खज़ाना पाने की चाहत-हिंदी चिन्तन लेख


                                                एक बार फिर जमीन में गढ़े खजाने की बात सामने आयी। उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले में डोंडिया खेड़ा गांव में एक हजार टन सोने का खजाना मिलने की संभावना बन रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरातत्व विभाग एक संत से मिले नक्शे के आधार पर यह खुदाई कर रहा है पर इसके आधार पर यह नहीं मान लेना चाहिये कि वहां खजाना मिल ही जायेगा।  बहरहाल वहां लोगों को एक अस्थाई मेला लग गया है।  लोग खजाने की खुदाई देखने आ रहे हैं पर पुलिस की जैसी व्यवस्था है उनका खुदाई के स्थान तक जाना कठिन है।  फिर भी मेला लग रहा है।  लोग पिकनिक मनाने के लिये वहां खजाना देखने आ रहे हैं। दुकाने लग गयी है। खजाना मिल भी गया तो भी सरकारी लोग उसे वहां सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं कर पायेंगे क्योंकि संभवत उन्हें ऐसा करने की अनुमति ऊपर से नहीं मिलेगी

                        परिणाम का हमें इंतजार है पर फिलहाल यह देखकर हैरानी हो रही है कि एक खजाना जो अभी दिख नहीं रहा वहां लोग अपने ख्वाबों को साथ लेकर लोग मेला लगाने पहुंच गये हैं।  हम बात कर रहे हैं भीड़ की। भारत में किसी भी तरह कहीं भी भीड़ जुटानी हो तो किसी चमत्कार का प्रचार कर दीजिये।  अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि आखिर कथित संतों और तांत्रिकों के पास लोग जाते क्यों है? जवाब है कि लोग मेहनत के बिना कुछ पाना चाहते हैं।  ऐसा नहीं है कि लोग अज्ञानी है मगर लालच उन्हें अक्ल का अंधा बना देती है।  लोग कहते हैं कि भारत में अंधविश्वास बहुत है पर हम इसे नहीं मानते। उल्टा हमारा मानना है कि भारत के हर आदमी में ज्ञान है यह अलग बात है कि लोभ और लालच उस पर पर्दा डाल देती है।  भगवान के प्रति जो विश्वास है वह लालच के कारण अंधविश्वास में बदल जाता है लोग जानते हैं कि इस तरह कुछ होगा नहीं पर सोचते हैं कि चलो अजमाने में हर्ज क्या है?

                        खजानों पर लिखा गया यह तीसरा लेख है। इसका मतलब यह है कि हम भारत के खजानों पर दो लेखक पहले भी लिख चुके हैं।  यह लेख हम नहीं लिखते अगर एक पाठक ने पुराने एक लेखक पर टिप्पणी नहीं की होती।  उस पाठिका की टिप्पणी के बाद हमने अपने वही लेख पढ़ डाले। उस पाठिका का धन्यवाद! उसकी टिप्पणी ने  उन पाठों को  याद दिलाया तब हमने सोचा कि  कुछ दूसरा लिखो उससे पहले वाला पढ़ लो। प्रस्तुत हैं वही दोनों लेख।

 

सोने का खज़ाना और भारत का अध्यात्मिक ज्ञान-हिन्दी लेख (sone ka khazana aur bharat ka adhyatmik gyan-hindi lekh)

              केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ काखजाना बरामद हुआ है। यह खजाना त्रावणकोर या ट्रावनकोर के राजाओं का है।जहां तक हमारी जानकारी है भारत में इस तरह खजाना मिलने का यह पहला प्रसंगहै।

           अलबत्ता बचपन से अपने देश के लोगों को खजाने के पीछे पागल होतेदेखा हैं। कई लोग कहीं कोई खास जगह देख लेते हैं तो कहते हैं कि यहां गढ़ाखजाना होगा।अनेक लोग सिद्धों के यहां चक्कर भी इसी आशा से लगाते हैं किशायद कहीं किसी जगह गढ़े खजाने का पता बता दे। कुछ सिद्ध तो जाने ही इसलियेजाते हैं कि उनके पास गढ़े खजाने का पता बताने की क्षमता या सिद्धि है।

        ऐसे भी किस्से देखे हैं कि किसी ने पुराना मकान खरीदा और उसेबनवाना शुरु किया।भाग्य कहें या परिश्रम वह अपने व्यवसाय में अमीर हो गयातो लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि खुदाई में उनको खजाना मिला है।

         बहरहाल केरल केपद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले सोने और हीरे जवाहरात नेभले ही किसी को चौंकाया हो पर इतिहासविद् और तत्वज्ञानियों ने लिये यह कोईआश्चर्य का विषय नहीं हो सकता।

अभी हाल ही में पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा के मंदिर में तो मात्र दो सौढाई करोड़ का खजाना मिला था तब अनेक लोगों की सांसें फूल गयी थी। अब केरलके पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले खजाने ने उसके एतिहासिक महत्व पर धूल डालदी है।

          बता रहे हैं कि केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिला यह खजानातो मात्र एक कमरे का है और अभी ऐसे ही छह कमरे अन्य भी हैं।न हमने खजानादेखा है न देख पायेंगे। न पहुंचेंगे न पहुंच पायेंगे।इस खजाने का क्याहोगा यह भी नहीं पता पर जिन्होंने उसका संग्रह किया उन पर तरस आता है। यहराजाओं का खजाना है और इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपनी प्रजा के दम पर हीइसे बनाया होगा।नहीं भी बनाया होगा तो अपने उस राज्य के भौतिक या उसकेनाम का हीउपयोग किया तो होगा जो बिना प्रजा की संख्या और क्षमता के संभवनहीं है।

             राजा हो या प्रजा सोना, हीरा, जवाहरात तथा अन्य कीमती धातुओंइस देश के लिये हमेशा कौतुक का विषय रही हैं। पेट की भूख शांत करने के लियेइसका प्रत्यक्ष कतई नहीं हो सकता अलबत्ता चूंकि लोगों के लिये आकर्षण काविषय है इसलिये उसका मोल अधिक ही रहता है। हमारे देश में सोना पैदा नहींहोता।इसे बाहर से ही मंगवाया जाता है।जब हम प्राचीन व्यापार की बातकरते हैं तो यही बात सामने आती है कि जीवन उपयोगी वस्तुऐं-गेंहूं, चावल, दाल, कपास और उससे बना कपड़ा तथा अन्य आवश्यक वस्तुऐं-यहां से भेजी जाती थीजिनके बदले यह सोना और उससे बनी वस्तुओं जिनका जीवन में कोई उपयोग नहीं हैयहां आता होंगी। कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने।सोना दूर पैदा होताहै उससे देश का प्रेम है पर प्रकृति की जो अन्य देशों से अधिक कृपा है उसकीपरवाह नहीं है। हम कई बार लिख चुके हैं और आज भी लिख रहे हैं कि विश्व केप्रकृतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जलस्तर सबसे बेहतर है। जी हांवह जल जो जीवन का आधार है हमारे यह अच्छा है इसलिये गेंहूं, चावल, दाल, कपास और सब्जियों की बहुतायत होने के कारण हम उनका महत्व नहीं समझते वैसेही जैसे कहा जाता है किघर का ब्राह्मण बैल बराबर।यह बात भी कह चुके हैंकि निरुपयोगी पर आकर्षक चीजों के मोह में हमारा समाज इस तरह भ्रमित रहताहै कि उस पर हंसा ही जा सकता है।वैसे तो विश्व में सभी जगह अंधविश्वासफैला है पर हम भारतीय तो आंकठ उसमें डूबे रहे हैं। यहां इतना अज्ञान रहा हैकि हमारे महान ऋषियों को सत्य का अनुसंधान करने के अच्छे अवसर मिले हैं।कहा जाता है कि कांटों में गुलाब खिलता है तो कीचड़ में कमल मिलता है।अगरयह समाज इतना अज्ञानी नहीं होता तो सत्य की खोज करने की सोचता कौन? मूर्खोंपर शोध कर ही बुद्धिमता के तत्व खोजे जा सकते हैं। हम विश्व मेंअध्यात्मिक गुरु इसलिये बने क्योंकि सबसे ज्यादा मोहित समाज हमारा ही है।भौतिकता को पीछे इतना पागल हैं कि अध्यात्म का अर्थ भी अनेक लोग नहींजानते। इनमें वह भी लोग शामिल हैं जो दावा करते हैं कि उन्होंने ग्रंथों काअध्ययन बहुत किया है।

           कहा जाता है कि सोमनाथ का मंदिर मोहम्मद गजनबी ने लूटा था।उसमें भी ढेर सारा सोना था। कहते हैं कि बाबर भी यहां लूटने ही आया था। यहअलग बात है कि वहां यहीं बस गया यह सोचकर कि यहां तो जीवन पर सोने की डालपर बैठा जाये।बाद में उसके वंशज तो यहीं के होकर रह गये।यकीनन उस समयभारत में सोने के खजाने की चर्चा सभी जगह रही होगी। उस समय भगवान के बादसमाज में राजा का स्थान था तो राजा लोग मंदिरों में सोना रखते थे कि वहांप्रजा के असामाजिक तत्व दृष्टिपात नहीं करेंगे। उस समय मंदिरों में चोरीआदि होने की बात सामने भी नहीं आती।

इतना तय है कि अनेक राजाओं ने प्रजा को भारी शोषण किया। किसी की परवाह नहींकी। यही कारण कि कई राजाओं के पतन पर कहीं कोई प्रजा के दुःखी होने की बातसामने नहीं आती। यहां के अमीर, जमीदार, साहुकार और राजाओं ने प्रजा केछोटे लोगों को भगवान का एक अनावश्यक उत्पाद समझा।यही कारण है विदेशियोंने आकर यहां सभी का सफाया किया। राजा बदले पर प्रजा तो अपनी जगह रही। यहीकारण है यहां कहा भी जाता है कि कोउ भी नृप हो हमें का हानि।कुछ लोग इसभावयहां के लोगों की उदासीनता से उपजा समझते हैं पर हम इसे विद्रोह सेपनपा मानते हैं। खासतौर से तत्वज्ञान के सदंर्भ में हमारा मानना है कि जबआप स्वयं नहीं लड़ सकते तो उपेक्षासन कर लीजिये।

जिसके पास कुछ नहीं रहा उसे लुटने का खतरा नहीं था और जिन्होंने सोने केताज पहने गर्दने उनकी ही कटी।जिनकी जिंदगी में रोटी से अधिक कुछ नहीं आयाउन्होंने सुरक्षित जिंदगी निकाली और जिन्होंने संग्रह किया वही लुटे।

          अब यह जो भी खजाना मिला है यह तब की प्रजा के काम नहीं आया तोराजाओं के भी किस काम आया? ऐसे में हमारा ध्यान श्रीमद्भागवत् गीता केसंदेशों की तरफ जाता है। जिसमें गुण तथा कर्मविभाग का संक्षिप्त पर गुढ़वर्णन किया गया है। उस समय के आम और खास लोग मिट गये पर खजाना वहीं बनारहा। अब यह उन लोगों के हाथ लगा है जिनका न इसके संग्रह में प्रत्यक्ष याअप्रत्यक्ष कोई हाथ नहीं है। सच है माया अपना खेल खेलती है और आदमी समझताहै मैं खेल रहा हूं। वह कभी व्यापक रूप लेती है और कभी सिकुड़ जाती है। कभीयहां तो कभी वहां प्रकट होती है।सत्य स्थिर और सूक्ष्म है।सच्चा धनी तोवही है जो तत्वज्ञान को धारण करता है।वह तत्वज्ञान जिसका खजाना हमारेग्रंथों में है और लुटने को हमेशा तैयार है पर लूटने वाला कोई नहीं है।बहरहाल वह महान लोग धन्य हैं जो इसे संजोए रखने का काम करते रहे हैं इसलियेनहीं कि उसे छिपाना है बल्कि उनका उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि आनेवाली पीढ़ियों के वह काम आता रहे।

      इस विषय पर लिखे गये एक व्यंग्य को अवश्य पढ़ें

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भारत आज भी सोने की चिड़िया है-हास्य व्यंग्य(bharat aaj bhi sone di chidiya hai-hasya vyangya)

          कौन कहता है कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। अब यह क्यों नहींकहते कि भारत सोने की चिड़िया है।कम से कम देश में जिस तरह महिलाओं औरपुरुषोंके गले से चैन लूटने की घटनायें हो रही हैं उसे तो प्रमाण मिल हीजाता है। हमें तो नहीं लगता किशायद का देश कोई भी शहर हो जिसके समाचारपत्रों में चैन खिंचने या लुटने की घटना किसी दिन न छपती हो।अभी तक जिनशहरों के अखबार देखे हैं उनमें वहीं की दुर्घटना और लूट की वारदात जरूरशामिल होती है इसलिये यह मानते हैं कि दूसरी जगह भी यही होगा।

          खबरें तो चोरी की भी होती हैं पर यह एकदम मामूली अपराध तो है साथही परंपरागत भी है। मतलब उनकी उपस्थिति सामान्य मानी जाती है।वैसे तोलूट की घटनायें भी परंपरागत हैं पर एक तो वह आम नहीं होती थीं दूसरे वहकिसी सुनसान इलाके में होने की बात ही सामने आती थी। अब सरेआम हो लूट कीवारदात हो रही हैं।वह भी बाइक पर सवार होकर अपराधी आते हैं।

         हमारे देश मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखाथा कि हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने की फुरसत नहीं है। उनकामानना था कि हमसे अधिक अमीर इतनी संख्या मेंहैं कि लुटने के लिये पहलेउनका नंबर आयेगा और लुटेरे इतनी कम संख्या में है कि उनको समझ में नहीं आताकि किसे पहले लूंटें और किसे बाद में। इसलिये लूटने से पहले पूरी तरहमुखबिरी कर लेते हैं। यह बहुत पहले लिखा गया व्यंग्य था।आज भी कमोबेश यहीस्थिति है। हम ख्वामख्वाह में कहते है  कि अपराध और अपराधियों की संख्याबढ़ गयी हैं। आंकड़ें गवाह है कि देश में अमीरों की संख्या बढ़ गयी है। अब यहतय करना मुश्किल है कि इन दोनों के बढ़ने का पैमाना कितना है। अनुपात क्याहै? वैसे हमें नहीं लगता कि स्वर्गीय शरद जोशी के हाथ से व्यंग्य लिखने औरआजतक के अनुपात में कोई अंतर आया होगा।साथ ही हमारी मान्यता है कि अपराधीऔर अमीरों की संख्या इसलिये बढ़ी है क्योंकि जनसंख्या बढ़ी है। विकास की बातहम करते जरूर है पर जनसंख्या में गरीबी बढ़ी है। मतलब अपराध, अमीरी औरगरीबी तीनों समान अनुपात में ही बढ़ी होगी ऐसा हमारा अनुमान है।

          सीधी बात कहें तो चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीकठाक है। विकासबढ़ा, जनंसख्या बढ़ी, अमीर बढ़े तो अपराध भी बढ़े और गरीबी भी यथावत है। तबरोने की कोई बात नहीं है।फिर हम इस बात को इतिहास की बात क्यों मानतेहैं  कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी।हम यह क्यों गाते हैं कि कभी कभी डालपर करती थी सोने की चिड़िया बसेरा, वह भारत देश है मेरा। हम थे की जगह हैंशब्द क्यों नहीं उपयोग करते।अभी हमारे देश के संत ने परमधाम गमन किया तोउनके यहां से 98 किलो सोना और 307 किलो चांदी बरामद हुई।टीवी और अखबारोंके समाचारों के अनुसार कई ऐसे लोग पकड़े गये जिनके लाकरों से सोने की ईंटेमिली।

          वैसे तो सोना पूरे विश्व के लोगों की कमजोरी है पर भारत में इसेइतना महत्व दिया जाता है कि दस हजार रुपये गुम होने से अधिक गंभीर औरअपशकुन कामामला उतने मूल्य का सोना खोना या छिन जाना माना जाता है। बहुअगर कहीं पर्स खोकर आये तो वह सास को न बताये कि उसमें चार पांच हजार रुपयेथे। यह भी सोचे सास को क्या मालुम कि उसमें कितने रुपये थे पर अगर पांचहजार रुपये की चैन छिन जाये तो उसके लिये धर्म संकट उत्पन्न हो जाता हैक्योंकि वह सास के सामने हमेशा दिखती है और यह बात छिपाना कठिन है।

           एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के अनुसार भारत के लोगों के पास सबसेअधिक सोना है। इसमें शक भी नहीं है। भारत में सोने का आभूषण विवाह के अवसरपर बनवाये जाते हैं। इतने सारे बरसों से इतनी शादिया हुई होंगी।उस समयसोना इस देश में आया होगा। फिर गया तो होगा नहीं।अब कितना सोना लापता हैऔर कितना प्रचलन में यह शोध का विषय है पर इतना तय है कि भारत के लोगों केपास सबसे अधिक सोना होगा यह तर्क कुछ स्वाभाविकलगता है।

            भारत के लोग दूसरे तरीके से भी सबसे अधिक भाग्यशाली हैंक्योंकि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ कहते हैं कि भूजल स्तर भारत में सबसे अधिकहै। यही कारण है कि हमारा देश अन्न के लिये किसी का मुंह नहीं ताकता।हमारे ऋषि मुनि हमेशा ही इस बात को बताते आये हैं पर अज्ञान के अंधेरे मेंभटकने के आदी लोग इसे नहीं समझ पाते। कहा जाता है कि भारत का अध्यात्मिकज्ञान सत्य के अधिक निकट है। हमें लगता है कि ऋषि मुनियों के लिये तत्वज्ञान की खोज करना तथा सत्य तत्व को प्रतिष्ठित करना कोई कठिन काम नहीं रहाहोगा क्योंकि मोह माया में फंसा इतना व्यापक समाज उनको यहां मिला जो शायदअन्यत्र कहीं नहीं होगा। अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाना भलाकौनसा कठिन काम रहा होगा?

             वैसे देखा जाये तो सोना तो केवल सुनार के लिये ही है। बनना होयाबेचना वही कमाता है। लोग सोने के गहने इसलिये बनवाते हैं वक्त पर कामआयेगा पर जब बाज़ार में बेचने जाते हैं तो सुनार तमाम तरह की कटौतियां तोकाट ही लेता हैं। अगर आप आज जिस भावकोई दूसरी चीज खरीदने की बजायसोनाखरीदें  और कुछ वर्ष बाद खरीदा सोना बेचें तो पायेंगे कि अन्य चीजभी उसीअनुपात में महंगी हो गयी है।मतलब वह सोना और अन्य चीज आज भी समान मूल्यकी होती है। अंतर इतना है कि अन्य चीज पुरानी होने के कारण भाव खो देती हैऔर सोना यथावत रहता है।हालांकि उसमें पहनने के कारण उसका कुछ भाग गल भीजाता है जिससे मूल्य कम होता है पर इतना नहीं जितना अन्य चीज का।संकट मेंसोने से सहारे की उम्मीद ही आदमी को उसे रखने पर विवश कर देती है।

          जब रोज टीवी पर दिख रहा है और अखबार में छप रहा है तब भी भला कोईसोना न पहनने का विचार कर रहा है? कतई नहीं! अगर महिला सोना नहीं पहनतीउसे गरीब और घटिया समझा जाता है। सोना पहने है तो वह भले घर की मानी जातीहै। भले घर की दिखने की खातिर महिलायें जान का जोखिम उठाये घूम रही है।धनके असमान वितरण ने कथित भले और गरीब घरों में अंतर बढ़ा दिया है।वैसे कुछघर अधिक भले भी हो गये हैं क्योंकि उनकी महिलाऐं चैन छिन जाने के बाद फिरदूसरी खरीद कर पहनना शुरु देती हैं।बड़े जोश के साथ बताती हैं कि सोना चलागया तो क्या जान तो बच गयी।

        भारत में वैभव प्रदर्शन बहुत है इसलिये अपराध भी बहुत है।वैभवप्रदर्शन करने वाले यह नहीं जानते कि उनके अहंकार से लोग नाखुश हैं औरउनमें कोई अपराधी भी हो सकता है।पैसे, प्रतिष्ठा और पद के अहंकार में चूरलोग यही समझते हैं कि हम ही इस संसार में है। वैसे ही जैसे बाइक पर सवारलोग यह सोचकर सरपट दौड़ते हुए दुर्घटना का शिकार होते हैं कि हम ही इस सड़कपर चल रहे हैं या सड़क पर नहीं आसमान में उड़ रहे हैं वैसे ही वैभव केप्रदर्शन पर भी अपराध का सामना करने के लिये तैयार होना चाहिए।टीवी परचैन छीनने की सीसीटीवी में कैद दृश्य देखकर अगर कुछ नहीं सीखा तो फिर कहनाचाहिए कि पैसा अक्ल मार देता है।

        कुछ संस्थाओं ने सुझाव दिया है कि देश में अनाज की बरबादी रोकने केलिये शादी के अवसर पर बारातियों की संख्या सीमित रखने का कानून बनायाजाये।इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अनाज की बर्बादी शादी से अधिक तो उसकेभंडारण में हो रही है। अनेक जगह बरसात में हजारों टन अनाज होने के साथकहीं ढूलाई में खराब होकर दुर्गति को प्राप्त होता है और उसकी मात्रा भी कमनहीं है। हम इस विवाद में न पड़कर शादियों में बारातियों की संख्या सीमितरखने के सुझाव पर सोच रहे हैं। अगर यह कानून बन गया तो फिर इस समाज का क्याहोगा जो केवल विवाहों के अवसर के लिये अपने जीवन दांव पर लगा देता है।उसअवसर का उपयोग वह ऐसा करता है जैसे कि उसे पद्म श्री या पद्मविभूषण  मिलनेका कार्यक्रम हो रहा है।बाराती कोई इसलिये बुलाता कि उसे उनसे कोई स्नेहया प्रेम है बल्कि अपने वैभव प्रदर्शन के लिये बुलाता है। यह वैभवप्रदर्शन कुछ लोगों को चिढ़ाता है तो कुछ लोगों को अपने अपराध के लियेउपयुक्त लगता है। ऐसा भी हुआ है कि शादी के लिये रखा गया पूरा सोना चोरी होगया। सोने से जितना सामान्य आदमी का प्रेम है उतना ही डकैतों, लुटेरों औरचोरों को भी है। सौ वैभव प्रदर्शन और चोरी, लूट और डकैती का रिश्ता चलतारहेगा। पहले बैलगाड़ी और घोड़े पर आदमी चलता था तो अपराधी भी उस पर चलते थे।अब वह पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का उपयोग कर रहा है तो अपराधी भी वही कररहे हैं। जो भले आदमी की जरूरत है वही बुरे आदमी काभी सहारा है। सोना तोबस सोना है। हम इन घटनाओं को देखते हुए तो यह कहते है कि भारत आज भी सोनेकी चिड़िया है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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                                                एक बार फिर जमीन में गढ़े खजाने की बात सामने आयी। उत्तरप्रदेश के उन्नाव जिले में डोंडिया खेड़ा गांव में एक हजार टन सोने का खजाना मिलने की संभावना बन रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि पुरातत्व विभाग एक संत से मिले नक्शे के आधार पर यह खुदाई कर रहा है पर इसके आधार पर यह नहीं मान लेना चाहिये कि वहां खजाना मिल ही जायेगा।  बहरहाल वहां लोगों को एक अस्थाई मेला लग गया है।  लोग खजाने की खुदाई देखने आ रहे हैं पर पुलिस की जैसी व्यवस्था है उनका खुदाई के स्थान तक जाना कठिन है।  फिर भी मेला लग रहा है।  लोग पिकनिक मनाने के लिये वहां खजाना देखने आ रहे हैं। दुकाने लग गयी है। खजाना मिल भी गया तो भी सरकारी लोग उसे वहां सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित नहीं कर पायेंगे क्योंकि संभवत उन्हें ऐसा करने की अनुमति ऊपर से नहीं मिलेगी

                        परिणाम का हमें इंतजार है पर फिलहाल यह देखकर हैरानी हो रही है कि एक खजाना जो अभी दिख नहीं रहा वहां लोग अपने ख्वाबों को साथ लेकर लोग मेला लगाने पहुंच गये हैं।  हम बात कर रहे हैं भीड़ की। भारत में किसी भी तरह कहीं भी भीड़ जुटानी हो तो किसी चमत्कार का प्रचार कर दीजिये।  अक्सर लोग यह सवाल करते हैं कि आखिर कथित संतों और तांत्रिकों के पास लोग जाते क्यों है? जवाब है कि लोग मेहनत के बिना कुछ पाना चाहते हैं।  ऐसा नहीं है कि लोग अज्ञानी है मगर लालच उन्हें अक्ल का अंधा बना देती है।  लोग कहते हैं कि भारत में अंधविश्वास बहुत है पर हम इसे नहीं मानते। उल्टा हमारा मानना है कि भारत के हर आदमी में ज्ञान है यह अलग बात है कि लोभ और लालच उस पर पर्दा डाल देती है।  भगवान के प्रति जो विश्वास है वह लालच के कारण अंधविश्वास में बदल जाता है लोग जानते हैं कि इस तरह कुछ होगा नहीं पर सोचते हैं कि चलो अजमाने में हर्ज क्या है?

                        खजानों पर लिखा गया यह तीसरा लेख है। इसका मतलब यह है कि हम भारत के खजानों पर दो लेखक पहले भी लिख चुके हैं।  यह लेख हम नहीं लिखते अगर एक पाठक ने पुराने एक लेखक पर टिप्पणी नहीं की होती।  उस पाठिका की टिप्पणी के बाद हमने अपने वही लेख पढ़ डाले। उस पाठिका का धन्यवाद! उसकी टिप्पणी ने  उन पाठों को  याद दिलाया तब हमने सोचा कि  कुछ दूसरा लिखो उससे पहले वाला पढ़ लो। प्रस्तुत हैं वही दोनों लेख।

 

सोने का खज़ाना और भारत का अध्यात्मिक ज्ञान-हिन्दी लेख (sone ka khazana aur bharat ka adhyatmik gyan-hindi lekh)

              केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में अभी तक एक लाख करोड़ काखजाना बरामद हुआ है। यह खजाना त्रावणकोर या ट्रावनकोर के राजाओं का है।जहां तक हमारी जानकारी है भारत में इस तरह खजाना मिलने का यह पहला प्रसंगहै।

           अलबत्ता बचपन से अपने देश के लोगों को खजाने के पीछे पागल होतेदेखा हैं। कई लोग कहीं कोई खास जगह देख लेते हैं तो कहते हैं कि यहां गढ़ाखजाना होगा।अनेक लोग सिद्धों के यहां चक्कर भी इसी आशा से लगाते हैं किशायद कहीं किसी जगह गढ़े खजाने का पता बता दे। कुछ सिद्ध तो जाने ही इसलियेजाते हैं कि उनके पास गढ़े खजाने का पता बताने की क्षमता या सिद्धि है।

        ऐसे भी किस्से देखे हैं कि किसी ने पुराना मकान खरीदा और उसेबनवाना शुरु किया।भाग्य कहें या परिश्रम वह अपने व्यवसाय में अमीर हो गयातो लोगों ने यह कहना शुरु कर दिया कि खुदाई में उनको खजाना मिला है।

         बहरहाल केरल केपद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले सोने और हीरे जवाहरात नेभले ही किसी को चौंकाया हो पर इतिहासविद् और तत्वज्ञानियों ने लिये यह कोईआश्चर्य का विषय नहीं हो सकता।

अभी हाल ही में पुट्टापर्थी के सत्य सांई बाबा के मंदिर में तो मात्र दो सौढाई करोड़ का खजाना मिला था तब अनेक लोगों की सांसें फूल गयी थी। अब केरलके पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिले खजाने ने उसके एतिहासिक महत्व पर धूल डालदी है।

          बता रहे हैं कि केरल के पद्मनाभ स्वामी मंदिर में मिला यह खजानातो मात्र एक कमरे का है और अभी ऐसे ही छह कमरे अन्य भी हैं।न हमने खजानादेखा है न देख पायेंगे। न पहुंचेंगे न पहुंच पायेंगे।इस खजाने का क्याहोगा यह भी नहीं पता पर जिन्होंने उसका संग्रह किया उन पर तरस आता है। यहराजाओं का खजाना है और इसका मतलब यह है कि उन्होंने अपनी प्रजा के दम पर हीइसे बनाया होगा।नहीं भी बनाया होगा तो अपने उस राज्य के भौतिक या उसकेनाम का हीउपयोग किया तो होगा जो बिना प्रजा की संख्या और क्षमता के संभवनहीं है।

             राजा हो या प्रजा सोना, हीरा, जवाहरात तथा अन्य कीमती धातुओंइस देश के लिये हमेशा कौतुक का विषय रही हैं। पेट की भूख शांत करने के लियेइसका प्रत्यक्ष कतई नहीं हो सकता अलबत्ता चूंकि लोगों के लिये आकर्षण काविषय है इसलिये उसका मोल अधिक ही रहता है। हमारे देश में सोना पैदा नहींहोता।इसे बाहर से ही मंगवाया जाता है।जब हम प्राचीन व्यापार की बातकरते हैं तो यही बात सामने आती है कि जीवन उपयोगी वस्तुऐं-गेंहूं, चावल, दाल, कपास और उससे बना कपड़ा तथा अन्य आवश्यक वस्तुऐं-यहां से भेजी जाती थीजिनके बदले यह सोना और उससे बनी वस्तुओं जिनका जीवन में कोई उपयोग नहीं हैयहां आता होंगी। कहा जाता है कि दूर के ढोल सुहावने।सोना दूर पैदा होताहै उससे देश का प्रेम है पर प्रकृति की जो अन्य देशों से अधिक कृपा है उसकीपरवाह नहीं है। हम कई बार लिख चुके हैं और आज भी लिख रहे हैं कि विश्व केप्रकृतिक विशेषज्ञों का कहना है कि भारत में जलस्तर सबसे बेहतर है। जी हांवह जल जो जीवन का आधार है हमारे यह अच्छा है इसलिये गेंहूं, चावल, दाल, कपास और सब्जियों की बहुतायत होने के कारण हम उनका महत्व नहीं समझते वैसेही जैसे कहा जाता है किघर का ब्राह्मण बैल बराबर।यह बात भी कह चुके हैंकि निरुपयोगी पर आकर्षक चीजों के मोह में हमारा समाज इस तरह भ्रमित रहताहै कि उस पर हंसा ही जा सकता है।वैसे तो विश्व में सभी जगह अंधविश्वासफैला है पर हम भारतीय तो आंकठ उसमें डूबे रहे हैं। यहां इतना अज्ञान रहा हैकि हमारे महान ऋषियों को सत्य का अनुसंधान करने के अच्छे अवसर मिले हैं।कहा जाता है कि कांटों में गुलाब खिलता है तो कीचड़ में कमल मिलता है।अगरयह समाज इतना अज्ञानी नहीं होता तो सत्य की खोज करने की सोचता कौन? मूर्खोंपर शोध कर ही बुद्धिमता के तत्व खोजे जा सकते हैं। हम विश्व मेंअध्यात्मिक गुरु इसलिये बने क्योंकि सबसे ज्यादा मोहित समाज हमारा ही है।भौतिकता को पीछे इतना पागल हैं कि अध्यात्म का अर्थ भी अनेक लोग नहींजानते। इनमें वह भी लोग शामिल हैं जो दावा करते हैं कि उन्होंने ग्रंथों काअध्ययन बहुत किया है।

           कहा जाता है कि सोमनाथ का मंदिर मोहम्मद गजनबी ने लूटा था।उसमें भी ढेर सारा सोना था। कहते हैं कि बाबर भी यहां लूटने ही आया था। यहअलग बात है कि वहां यहीं बस गया यह सोचकर कि यहां तो जीवन पर सोने की डालपर बैठा जाये।बाद में उसके वंशज तो यहीं के होकर रह गये।यकीनन उस समयभारत में सोने के खजाने की चर्चा सभी जगह रही होगी। उस समय भगवान के बादसमाज में राजा का स्थान था तो राजा लोग मंदिरों में सोना रखते थे कि वहांप्रजा के असामाजिक तत्व दृष्टिपात नहीं करेंगे। उस समय मंदिरों में चोरीआदि होने की बात सामने भी नहीं आती।

इतना तय है कि अनेक राजाओं ने प्रजा को भारी शोषण किया। किसी की परवाह नहींकी। यही कारण कि कई राजाओं के पतन पर कहीं कोई प्रजा के दुःखी होने की बातसामने नहीं आती। यहां के अमीर, जमीदार, साहुकार और राजाओं ने प्रजा केछोटे लोगों को भगवान का एक अनावश्यक उत्पाद समझा।यही कारण है विदेशियोंने आकर यहां सभी का सफाया किया। राजा बदले पर प्रजा तो अपनी जगह रही। यहीकारण है यहां कहा भी जाता है कि कोउ भी नृप हो हमें का हानि।कुछ लोग इसभावयहां के लोगों की उदासीनता से उपजा समझते हैं पर हम इसे विद्रोह सेपनपा मानते हैं। खासतौर से तत्वज्ञान के सदंर्भ में हमारा मानना है कि जबआप स्वयं नहीं लड़ सकते तो उपेक्षासन कर लीजिये।

जिसके पास कुछ नहीं रहा उसे लुटने का खतरा नहीं था और जिन्होंने सोने केताज पहने गर्दने उनकी ही कटी।जिनकी जिंदगी में रोटी से अधिक कुछ नहीं आयाउन्होंने सुरक्षित जिंदगी निकाली और जिन्होंने संग्रह किया वही लुटे।

          अब यह जो भी खजाना मिला है यह तब की प्रजा के काम नहीं आया तोराजाओं के भी किस काम आया? ऐसे में हमारा ध्यान श्रीमद्भागवत् गीता केसंदेशों की तरफ जाता है। जिसमें गुण तथा कर्मविभाग का संक्षिप्त पर गुढ़वर्णन किया गया है। उस समय के आम और खास लोग मिट गये पर खजाना वहीं बनारहा। अब यह उन लोगों के हाथ लगा है जिनका न इसके संग्रह में प्रत्यक्ष याअप्रत्यक्ष कोई हाथ नहीं है। सच है माया अपना खेल खेलती है और आदमी समझताहै मैं खेल रहा हूं। वह कभी व्यापक रूप लेती है और कभी सिकुड़ जाती है। कभीयहां तो कभी वहां प्रकट होती है।सत्य स्थिर और सूक्ष्म है।सच्चा धनी तोवही है जो तत्वज्ञान को धारण करता है।वह तत्वज्ञान जिसका खजाना हमारेग्रंथों में है और लुटने को हमेशा तैयार है पर लूटने वाला कोई नहीं है।बहरहाल वह महान लोग धन्य हैं जो इसे संजोए रखने का काम करते रहे हैं इसलियेनहीं कि उसे छिपाना है बल्कि उनका उद्देश्य तो केवल इतना ही है कि आनेवाली पीढ़ियों के वह काम आता रहे।

      इस विषय पर लिखे गये एक व्यंग्य को अवश्य पढ़ें

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भारत आज भी सोने की चिड़िया है-हास्य व्यंग्य(bharat aaj bhi sone di chidiya hai-hasya vyangya)

          कौन कहता है कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी। अब यह क्यों नहींकहते कि भारत सोने की चिड़िया है।कम से कम देश में जिस तरह महिलाओं औरपुरुषोंके गले से चैन लूटने की घटनायें हो रही हैं उसे तो प्रमाण मिल हीजाता है। हमें तो नहीं लगता किशायद का देश कोई भी शहर हो जिसके समाचारपत्रों में चैन खिंचने या लुटने की घटना किसी दिन न छपती हो।अभी तक जिनशहरों के अखबार देखे हैं उनमें वहीं की दुर्घटना और लूट की वारदात जरूरशामिल होती है इसलिये यह मानते हैं कि दूसरी जगह भी यही होगा।

          खबरें तो चोरी की भी होती हैं पर यह एकदम मामूली अपराध तो है साथही परंपरागत भी है। मतलब उनकी उपस्थिति सामान्य मानी जाती है।वैसे तोलूट की घटनायें भी परंपरागत हैं पर एक तो वह आम नहीं होती थीं दूसरे वहकिसी सुनसान इलाके में होने की बात ही सामने आती थी। अब सरेआम हो लूट कीवारदात हो रही हैं।वह भी बाइक पर सवार होकर अपराधी आते हैं।

         हमारे देश मूर्धन्य व्यंग्यकार शरद जोशी ने एक व्यंग्य में लिखाथा कि हम इसलिये जिंदा हैं क्योंकि हमें मारने की फुरसत नहीं है। उनकामानना था कि हमसे अधिक अमीर इतनी संख्या मेंहैं कि लुटने के लिये पहलेउनका नंबर आयेगा और लुटेरे इतनी कम संख्या में है कि उनको समझ में नहीं आताकि किसे पहले लूंटें और किसे बाद में। इसलिये लूटने से पहले पूरी तरहमुखबिरी कर लेते हैं। यह बहुत पहले लिखा गया व्यंग्य था।आज भी कमोबेश यहीस्थिति है। हम ख्वामख्वाह में कहते है  कि अपराध और अपराधियों की संख्याबढ़ गयी हैं। आंकड़ें गवाह है कि देश में अमीरों की संख्या बढ़ गयी है। अब यहतय करना मुश्किल है कि इन दोनों के बढ़ने का पैमाना कितना है। अनुपात क्याहै? वैसे हमें नहीं लगता कि स्वर्गीय शरद जोशी के हाथ से व्यंग्य लिखने औरआजतक के अनुपात में कोई अंतर आया होगा।साथ ही हमारी मान्यता है कि अपराधीऔर अमीरों की संख्या इसलिये बढ़ी है क्योंकि जनसंख्या बढ़ी है। विकास की बातहम करते जरूर है पर जनसंख्या में गरीबी बढ़ी है। मतलब अपराध, अमीरी औरगरीबी तीनों समान अनुपात में ही बढ़ी होगी ऐसा हमारा अनुमान है।

          सीधी बात कहें तो चिंता की कोई बात नहीं है। सब ठीकठाक है। विकासबढ़ा, जनंसख्या बढ़ी, अमीर बढ़े तो अपराध भी बढ़े और गरीबी भी यथावत है। तबरोने की कोई बात नहीं है।फिर हम इस बात को इतिहास की बात क्यों मानतेहैं  कि भारत कभी सोने की चिड़िया थी।हम यह क्यों गाते हैं कि कभी कभी डालपर करती थी सोने की चिड़िया बसेरा, वह भारत देश है मेरा। हम थे की जगह हैंशब्द क्यों नहीं उपयोग करते।अभी हमारे देश के संत ने परमधाम गमन किया तोउनके यहां से 98 किलो सोना और 307 किलो चांदी बरामद हुई।टीवी और अखबारोंके समाचारों के अनुसार कई ऐसे लोग पकड़े गये जिनके लाकरों से सोने की ईंटेमिली।

          वैसे तो सोना पूरे विश्व के लोगों की कमजोरी है पर भारत में इसेइतना महत्व दिया जाता है कि दस हजार रुपये गुम होने से अधिक गंभीर औरअपशकुन कामामला उतने मूल्य का सोना खोना या छिन जाना माना जाता है। बहुअगर कहीं पर्स खोकर आये तो वह सास को न बताये कि उसमें चार पांच हजार रुपयेथे। यह भी सोचे सास को क्या मालुम कि उसमें कितने रुपये थे पर अगर पांचहजार रुपये की चैन छिन जाये तो उसके लिये धर्म संकट उत्पन्न हो जाता हैक्योंकि वह सास के सामने हमेशा दिखती है और यह बात छिपाना कठिन है।

           एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था के अनुसार भारत के लोगों के पास सबसेअधिक सोना है। इसमें शक भी नहीं है। भारत में सोने का आभूषण विवाह के अवसरपर बनवाये जाते हैं। इतने सारे बरसों से इतनी शादिया हुई होंगी।उस समयसोना इस देश में आया होगा। फिर गया तो होगा नहीं।अब कितना सोना लापता हैऔर कितना प्रचलन में यह शोध का विषय है पर इतना तय है कि भारत के लोगों केपास सबसे अधिक सोना होगा यह तर्क कुछ स्वाभाविकलगता है।

            भारत के लोग दूसरे तरीके से भी सबसे अधिक भाग्यशाली हैंक्योंकि अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ कहते हैं कि भूजल स्तर भारत में सबसे अधिकहै। यही कारण है कि हमारा देश अन्न के लिये किसी का मुंह नहीं ताकता।हमारे ऋषि मुनि हमेशा ही इस बात को बताते आये हैं पर अज्ञान के अंधेरे मेंभटकने के आदी लोग इसे नहीं समझ पाते। कहा जाता है कि भारत का अध्यात्मिकज्ञान सत्य के अधिक निकट है। हमें लगता है कि ऋषि मुनियों के लिये तत्वज्ञान की खोज करना तथा सत्य तत्व को प्रतिष्ठित करना कोई कठिन काम नहीं रहाहोगा क्योंकि मोह माया में फंसा इतना व्यापक समाज उनको यहां मिला जो शायदअन्यत्र कहीं नहीं होगा। अज्ञान के अंधेरे में ज्ञान का दीपक जलाना भलाकौनसा कठिन काम रहा होगा?

             वैसे देखा जाये तो सोना तो केवल सुनार के लिये ही है। बनना होयाबेचना वही कमाता है। लोग सोने के गहने इसलिये बनवाते हैं वक्त पर कामआयेगा पर जब बाज़ार में बेचने जाते हैं तो सुनार तमाम तरह की कटौतियां तोकाट ही लेता हैं। अगर आप आज जिस भावकोई दूसरी चीज खरीदने की बजायसोनाखरीदें  और कुछ वर्ष बाद खरीदा सोना बेचें तो पायेंगे कि अन्य चीजभी उसीअनुपात में महंगी हो गयी है।मतलब वह सोना और अन्य चीज आज भी समान मूल्यकी होती है। अंतर इतना है कि अन्य चीज पुरानी होने के कारण भाव खो देती हैऔर सोना यथावत रहता है।हालांकि उसमें पहनने के कारण उसका कुछ भाग गल भीजाता है जिससे मूल्य कम होता है पर इतना नहीं जितना अन्य चीज का।संकट मेंसोने से सहारे की उम्मीद ही आदमी को उसे रखने पर विवश कर देती है।

          जब रोज टीवी पर दिख रहा है और अखबार में छप रहा है तब भी भला कोईसोना न पहनने का विचार कर रहा है? कतई नहीं! अगर महिला सोना नहीं पहनतीउसे गरीब और घटिया समझा जाता है। सोना पहने है तो वह भले घर की मानी जातीहै। भले घर की दिखने की खातिर महिलायें जान का जोखिम उठाये घूम रही है।धनके असमान वितरण ने कथित भले और गरीब घरों में अंतर बढ़ा दिया है।वैसे कुछघर अधिक भले भी हो गये हैं क्योंकि उनकी महिलाऐं चैन छिन जाने के बाद फिरदूसरी खरीद कर पहनना शुरु देती हैं।बड़े जोश के साथ बताती हैं कि सोना चलागया तो क्या जान तो बच गयी।

        भारत में वैभव प्रदर्शन बहुत है इसलिये अपराध भी बहुत है।वैभवप्रदर्शन करने वाले यह नहीं जानते कि उनके अहंकार से लोग नाखुश हैं औरउनमें कोई अपराधी भी हो सकता है।पैसे, प्रतिष्ठा और पद के अहंकार में चूरलोग यही समझते हैं कि हम ही इस संसार में है। वैसे ही जैसे बाइक पर सवारलोग यह सोचकर सरपट दौड़ते हुए दुर्घटना का शिकार होते हैं कि हम ही इस सड़कपर चल रहे हैं या सड़क पर नहीं आसमान में उड़ रहे हैं वैसे ही वैभव केप्रदर्शन पर भी अपराध का सामना करने के लिये तैयार होना चाहिए।टीवी परचैन छीनने की सीसीटीवी में कैद दृश्य देखकर अगर कुछ नहीं सीखा तो फिर कहनाचाहिए कि पैसा अक्ल मार देता है।

        कुछ संस्थाओं ने सुझाव दिया है कि देश में अनाज की बरबादी रोकने केलिये शादी के अवसर पर बारातियों की संख्या सीमित रखने का कानून बनायाजाये।इस पर कुछ लोगों ने कहा कि अनाज की बर्बादी शादी से अधिक तो उसकेभंडारण में हो रही है। अनेक जगह बरसात में हजारों टन अनाज होने के साथकहीं ढूलाई में खराब होकर दुर्गति को प्राप्त होता है और उसकी मात्रा भी कमनहीं है। हम इस विवाद में न पड़कर शादियों में बारातियों की संख्या सीमितरखने के सुझाव पर सोच रहे हैं। अगर यह कानून बन गया तो फिर इस समाज का क्याहोगा जो केवल विवाहों के अवसर के लिये अपने जीवन दांव पर लगा देता है।उसअवसर का उपयोग वह ऐसा करता है जैसे कि उसे पद्म श्री या पद्मविभूषण  मिलनेका कार्यक्रम हो रहा है।बाराती कोई इसलिये बुलाता कि उसे उनसे कोई स्नेहया प्रेम है बल्कि अपने वैभव प्रदर्शन के लिये बुलाता है। यह वैभवप्रदर्शन कुछ लोगों को चिढ़ाता है तो कुछ लोगों को अपने अपराध के लियेउपयुक्त लगता है। ऐसा भी हुआ है कि शादी के लिये रखा गया पूरा सोना चोरी होगया। सोने से जितना सामान्य आदमी का प्रेम है उतना ही डकैतों, लुटेरों औरचोरों को भी है। सौ वैभव प्रदर्शन और चोरी, लूट और डकैती का रिश्ता चलतारहेगा। पहले बैलगाड़ी और घोड़े पर आदमी चलता था तो अपराधी भी उस पर चलते थे।अब वह पेट्रोल से चलने वाले वाहनों का उपयोग कर रहा है तो अपराधी भी वही कररहे हैं। जो भले आदमी की जरूरत है वही बुरे आदमी काभी सहारा है। सोना तोबस सोना है। हम इन घटनाओं को देखते हुए तो यह कहते है कि भारत आज भी सोनेकी चिड़िया है।

 

 

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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जीवन की सच्चाइयों का बदला नहीं जा सकता-हिंदी चिंत्तन आलेख


                        भारत में  व्यवसायिक संतों को इतने सारे भक्त मिल जाते हैं तो इस पर किसी को आश्चर्य चकित होने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हमारे देश के  परंपरागत मानस प्रवृत्ति यही है कि अध्यात्म का ज्ञान और मन को बहलाने का विषय एक ही जगह उपलब्ध होने पर लोग ज्यादा खुश होते हैं।  भारतीय जनमानस की यह प्रवृत्ति रही है कि वह धार्मिक कार्यक्रमों में भी अपनी अध्यात्म की भूख शांत करना चाहता है तो मन बहलाने को भी उत्सुक रहता है। पहले भारत के बृहद शहरों की बजाय गांवों के आधार पर समाज केंद्रित था।  वहां लोगों को सीमित क्षेत्र में ही कार्य करने के साथ ही पर्यटन के साधन ही उपलब्ध थे।  यही कारण है कि पौराणिक कथानकों के सुनाने के लिये उनके पास कथाकार आते रहे जिनको संत का दर्जा इसलिये मिला क्योंकि उनका विषय कहीं न कहीं अध्यात्म से जुड़ा रहा।

                        यह प्रवृत्ति आज भी है।  चाहे कितनी भी अच्छी कहानी या फिल्म हो अगर वह अध्यात्म रूप से संदेश नहीं देती तो दर्शक उसे श्रेष्ठता का दर्जा नहीं देता। हम अपने यहां भी प्रगतिशील लेखकों का समूह देखते हैं जो यहां के पाठकों से हमेशा निराश रहा है।  दरअसल आधुनिक लेखकों की चाहत रही है कि वह अपने लेखन से एक नये समाज का सृजन करें पर उनकी रचनायें समाज के किसी सत्य को उभारती तो हैं पर कोई निष्कर्ष प्रस्तुत नहीं करती जिससे आम जनमानस प्रभावित नहीं होता।  अनेक फिल्में शुद्ध रूप से मनोरंजन के लिये बनी पर भारतीय जनमानस में वही स्थापित हो सकीं जिनमें कहंी न कहीं धार्मिक पुट था।  यही स्थिति संतों की रही है जो अध्यात्म के साथ मनोरंजन करते हैं उन्हें अधिक भक्त मिल जाते हैं। अनेक संत तो चुटकुल सुनाकर ही ंसंदेश देते हैं।  तय बात है कि यह कला केवल पेशेवर को ही आ सकती है।

                        अब समाज शहरों में स्थापित हो गया है। यहां के गांवों में भी अब पाश्चात्य संस्कृति पांव पसार चुकी है पर जनमानस की प्रवृत्ति में बदलाव नहीं आया। यही कारण है कि अध्यात्म ज्ञान के नाम पर पेशेवर संतों की लोकप्रियता बढ़ रही है।  जब भारत में टीवी ने जनमानस में जगह बनायी तब पेशेवर संतों को अपने यहां भक्तों के टोटे पड़ने लगे थे। ऐसे में उन्होंने टीवी की तरफ रुख किया।  बात अगर टीवी की करें तो बुनियाद और हम लोग जैसे शुद्ध सामाजिक धारावाहिकों ने लोकप्रियता पायी पर लोग आज भी रामायण और महाभारत का नाम याद करते हैं। सामाजिक धारवाहिकों के लेखक भीष्म साहनी का नाम आम जनमानस में स्थापित तक नहीं है जबकि महर्षि बाल्मीकि, वेदव्यास तथा कविवर तुलसीदास का नाम शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति हो जिसे याद न हो।  प्रगतिशील लेखकों के लिये यह स्थिति निराशाजनक होती है।  यही कारण है कि वह आज भी समाज में पढ़े लिखे को विकसित और अपढ़ को पिछड़ा मानते हैं।  यह अलग बात है कि हम जैसे अध्यात्मिकवादी लेखक यह मानते हैं कि मनुष्य के मूल स्वभाव का अक्षर शिक्षा से कोई संबंध नहीं होता।  भारतीय जनमानस में अध्यात्म का विषय स्वभाविक रूप से होता है और वह सांसरिक विषयों के हर रंग में उसे देखना चाहता है। यही कारण है कि कोई कहानी, कविता, फिल्म या तस्वीर अगर उसके अध्यात्म को नहीं छूती तो वह उसे अधिक मान्यता नहीं देता।  यही कारण है कि अनेक चित्रकार, फिल्मकार तथा साहित्यकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने सांसरिक विषयों पर अपनी रचनायें कर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रियता प्राप्त की पर भारतीय जनमानस अपने जननायक के रूप में उनको जानता तक नहीं, मानना तो दूर की बात है।

                        अक्सर कुछ बुद्धिमान लोग पेशेवर संतों के पास जाने वाली भीड़ को अज्ञानी, अंधविश्वासी और रूढ़िवादी कहकर चिढ़ाते हैं। यह भी कह सकते हैं कि वह स्वयं अपनी ही खीज निकालते हैं जिस पर समाज कान नहीं देता। वह लोगों से इन धार्मिक कार्यक्रमों में न जाने की बात तो कहते हैं पर इसका विकल्प नहीं बताते। अंधविश्वास से दूर रहो पर विश्वास किस पर करें, इसका बुद्धिमान लोग उत्तर नहीं दे पाते।  ऐसे बुद्धिमान समाज के चक्षु पटल पर अपना चेहरा देखने के लिये उत्सुक रहते हैं पर जब उनको निराशा होती है तो वह चिल्लाते हैं कि जो लोग हमें नहंी सुन रहे वह गंवार है।  वह भारतीय जनमानस की इस प्रवृत्ति को समझ नहीं पाये कि यहां बिना अध्यात्म यानि आदमी की आत्मा को छूए बिना उसे पाया नहीं जा सकता।  दूसरी बात यह भी कि अंधविश्वासों का विरोध आधुनिक समय में ही नहीं हुआ पहले भी हुआ है। पुराने समय में  गुरुप्रवर श्रीगुरुनानक जी, संत प्रवर कबीर और कविवर रहीम ने पूरा जीवन ही समाज के सुधार में व्यतीत किया।  हमारे देश के अनेक महानुभावों ने अंधविश्वास का विरोध किया पर साथ में अध्यात्मिक ज्ञान का विश्वास भी दिखाया।  ऐसी महान विभूतियों को भारतीय जनमानस अपने हृदय में जो स्थान देता है उसे देखकर आधुनिक लेखकों का निराश होना स्वभाविक है पर सच्चाई को बदला नहीं जा सकता। सत्य ही ज्ञान है और ज्ञान ही सत्य है। मृत्यु भी सत्य है पर सत्य तो जीवन भी है। इस संसार में प्रलय आ जायेगी तो सभी नष्ट हो जायेगा ऐसा कहते हैं पर सच यह है कि कुछ न कुछ तो रहेगा ही।  पेड़ न रहे तो पत्थर रहेंगे। कहने का अभिप्राय यह है कि अवशेष तो हर हालत में रहेंगे। 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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मनुस्मृति का आधार पर सन्देश-अत्याचारी होने पर वृद्ध और बालक को भी कडा दंड देना चाहिए


                        हमारे देश में यह देखा गया है कि अनेक नाबालिग युवक बलात्कार और हत्या के आरोप में लिप्त पाये जा रहे हैं।  हमारे देश में किशोर अपराधियों के लिये अलग से कानून है पर उसकी व्याख्या अनेक आम लोगों की समझ में नहीं आती। क्या किसी युवक की आयु अट्ठारह वर्ष से तीन, चार, या छह माह से कम हो तो उसका अपराध इसलिये कम हो जाता है कि वह बालिग नहीं है। प्रकृति का ऐसा कौनसा नियम है कि अट्ठारह वर्ष होने पर व्यक्ति को पूर्ण ज्ञान हो जाता है, अगर उसकी यह आयु एक महीने या पंद्रह दिन भी कम हो तो इसका मतलब यह है कि वह पूर्ण ज्ञानी नहीं है। हास्यास्पद तो बात तब होगी जब किसी ने बालिग होने के एक दिन पहले अपराध किया हो और उस पर किशोरो के अपराध वाले कानून के तहत मुकदमा चले। दूसरी बात यह है कि बुद्धि का कौनसा पैमाना है कि यह मान लिया जाये कि मनुष्य सोलह वर्ष की आयु में कम ज्ञानी और अट्ठारह वर्ष होने पूर्ण ज्ञानी हो जाता है।

                        अभी एक मामला सामने आया जिसमें एक सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के आरोप में एक नाबालिग होने के बात सामने आयी।  हैरानी की बात यह है कि इसी नाबालिग ने ही सबसे बड़ा अपराध में बढ़चढ़कर भाग लिया था पर उसे किशोर न्याय के नियमों के अनुसार हल्की सजा दी गयी।  उसके सहअपराधियों ने स्पष्ट किया कि हमें उकसाने तथा सर्वाधिक अपराध करने में उसी का हाथ है।  जब मामला सामने आया तो पता नहीं जांच एजेंसियां उम्र का विषय क्यों लेकर बैठ गयीं? दूसरी बात यह कि उसकी आयु की जांच स्वास्थ्य विशेषज्ञों से ही कराने की बात कही गयी, पर पता नहीं वह हुई कि नहीं- कहीं पढ़ा या सुना था बाद में इस बारे में कोई खबर नहीं मिली।  हमारा मानना है कि इस प्रकरण को मनोवैज्ञानिकों के पास भी भेजा जाये। वही जांच करें कि उस कथित नाबालिग की बौद्धिक आयु क्या है? जिन लोगों का जांच और अभियोजन काम काम है उन्हें मनोविज्ञानिक आधार भी लेना चाहिये।  यह कानून में नहीं लिखा है पर यह भी कहां लिखा है कि अपराध जघन्य होने पर बौद्धिक आयु का परीक्षण नहीं होगा अथवा अपराध की प्रकृत्ति देखकर यह निर्णय नहीं होगा कि यह अपराध करना ही बालिग होने का प्रमाण है। खासतौर से तब जब नाबालिग अपराधी पर पहले भी अपराधिक प्रकरण दर्ज होने की बात सामने आती हो-यह भी कहीं हमने पढ़ा या सुना था।  एक अध्यात्मिक ज्ञान साधक होने के आधार पर हमारी यह राय है कि अपराध की प्रकृत्ति देखा जाना चाहिये।  अगर दिन या माह की कमी से अपराध की प्रकृत्ति करे कम माना जायेगा तो न्याय में विसंगतियां अवश्य आयेंगी।

मनुस्मति में कहा गया है कि

——————-

गुरुं वा बालबुद्धौ वा ब्राह्म्ण वा बहुतश्रुतम।

अतितायिनमायांन्तं हन्यादेवाविचारवन्।।

हिन्दी में भावार्थ-यदि गुरु, बालक, वृद्ध या विद्वान या बहुचर्चित मनुष्य अत्याचारी हो तो उसे मृत्युदंड दिया जाना चाहिये।     

परस्य पत्न्या पुरुषः सम्भाषां योजयन् रहः।

पूर्वामाक्षारितो दोषैः प्राप्नुयात्पूर्वसाहसम्।।

                        हिन्दी में भावार्थ-जो मनुष्य पहले से ही कुख्यात हो और परायी स्त्री से अकेेले में मिलने का प्रयास करता हो उसे भी कड़ा दंड देना चाहिये।

                        हमारे देश में पश्चिमी सभ्यता के अनुसार कानून बनते हैं। इतना ही नहीं जघन्य अपराधियों के लिये मानव अधिकारों जैसे प्रश्न उठाये जाते हैं।  यह माना जाता है कि सभी मनुष्य दैवीय प्रकृत्ति के हैं और अगर किसी से गलती हो जाये तो उसे सुधारा जा सकता है। इसके विपरीत हमारा अध्यात्मिक दर्शन मानता है कि आसुरी प्रकृत्ति के लोगों को कभी सुधारा नहीं जा सकता। भारतीय क्षेत्र की प्रकृत्ति ऐसी है कि यहां यदि आदमी दैवीय प्रकृत्ति  का है तो वह छोटे अपराध करने से भी डरता है और आसुरी है तो सिवाय अपराध के उसे कुछ नहीं सूझता।  यही कारण है कि मनुस्मृति में अपराधों के लिये कड़े दंड का प्रावधान किया गया है। दूसरी बात यह भी है कि अपराध और अत्याचार में अंतर होता है। अपराध हो तो किसी नाबालिग  पर पश्चिमी आधार पर बने कानून के अनुसार मामला चले हम इसका प्रतिवाद नहीं करते पर जब अत्याचार का मामला हो तब कम से कम हमने अध्यात्मिक दर्शन के आधार पर इसका समर्थन करना थोड़ अजीब लगता है।  हमारा यह तो मानना है कि बालिग की आयु अट्ठारह वर्ष ही रहे। किशोर कानून भी बना है तो बुरी बात नहीं है पर जघन्य अपराध के समय इस विषय की अनदेखी करते हुए अपराधियों को न्यायालय के समक्ष पेश करना चाहिये।  हमारे देश के न्यायाधीशों में इतनी विद्वता है कि वह इस बात को समझेंगे मगर उनके सामने अभियोजन पक्ष को ही मामला लाना होता है वह स्वयं कोई ऐसा आदेश नहीं दे सकते।  अगर देंगे तो तमाम तरह के विवाद खड़े कर न्यायालयों पर टिप्पणियां करने वाले कथित मानवाधिकार कार्यकर्ता भी इस देश में कम नहीं है। इन कार्यकर्ताओं का मुख्य लक्ष्य चर्चित मामलों में अपनी टांग फंसाकर प्रचार पाना होता है। यही कार्यकर्ता मनुस्मृति को भी अप्रासंगिक मानते हैं क्योंकि उनको अपने प्रसंगों के माध्यमों से प्रचार तथा लोकप्रियता मिलती है।          

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

विदुर नीति-बेकसूर को सताने वाला खुश नहीं रह सकता


             सामान्य मनुष्य को यह लगता जरूर है कि दुष्ट प्रकृति के लोग बहुत खुश रहते हैं पर यह सच नहीं होता। दूसरे को सताने वाला या अनावश्यक ही दूसरे पर  दोषारोपण करने  वाला कभी स्वयं भी सुखी नहीं रहता। जब कोई मनुष्य दूसरे पर दोषारोपण करते हुए उसके  अहित की बात सोचता है तब वह अपने अंदर भी बेचैनी का भाव लाता है।  अनेक बार देखा गया है कि जब कोई मनुष्य स्वयं  अपराध या  गलती करता है तब वह उसका दोष स्वयं न लेकर दूसरे पर मढ़ता है।  उसके झूठे दोष से पीड़ित व्यक्ति की जो आह निकलती है वह निश्चित रूप से उस पर दुष्प्रभाव डालती है। यह अलग बात है कि इस आह का दुष्प्रभाव तत्काल न दिखाई दे पर कालांतर में उसका परिणाम अवश्य प्रकट होता है।

विदुर नीति में कहा गया है कि
—————
न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प वेश्मनि।
वः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरे जनम्।।

    हिन्दी में भावार्थ-स्वयं दोषी होते हुए जो दूसरे पर दोषापरोपण करता है वह उसी तरह रात को चैन की नींद नहीं ले पाता जैसे सांप वाले घर में रहने वाला आदमी सो नहीं पाता।

येषु दृष्टेषु दोषः स्तद् योगक्षेमस्य भारत।
सदा प्रसादन तेषां देवतानामिवायरेतफ।।

       हिन्दी में भावार्थ- जिन पर दोषापरोपण करने से स्वयं के सुख में बाधा आती है उन लोगों को देवता की तरह प्रसन्न रखना चाहिये।

            सच बात तो यह है कि दूसरे पर दोषारोपण करने वाला व्यक्ति रात में उसी तरह नहीं सो पाता जैसे कि सांप वाले घर में रहने वाला नहीं सो पाता।  इतना ही नहीं जिन लोगों पर दोषारोपण करने से मन में कष्ट होता है उन्हें देवता की तरह मानते हुए  उनकी पूजा करना चािहये।  आजकल हम जो समाज के लोगों में बढ़ता मानसिक तनाव देख रहे हैं उसका कारण यह भी है कि लोग अपनी गल्तियों के लिये दूसरे पर दोष लगाते हैं।  इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि समय समय पर आत्ममंथन करते रहें।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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विदुर नीति- समाजवाद के सिद्धांत से ही राष्ट्र का भला संभव


     कहा जाता है कि हमारा देश दो हजार  वर्ष तक गुलाम रहा।  दरअसल हम इस गुलामी को राजनीतिक गुलामी तक ही सीमित मान सकते हैं। इस गुलामी का मुख्य कारण भारतीय क्षेत्र में राजसी पुरुषों की अज्ञानता को ही जिम्मेदारी माना जा सकता है। हम जब इस संसार की संरचना की बात करें तो इसके दो वह दो विषयों पर आधारित है-एक अध्यात्म तथा दूसरा सांसरिक कार्य।  सांसरिक कार्यों में भौतिकता का बोलबाला रहता है जो कि राजसी वृत्ति से ही किये जाते हैं। इसमें सात्विक प्रवृत्ति के लोग तो सांसरिक विषयों से केवल अपनी देह के पालन तक ही संबंध रखते हैं जबकि तामसी प्रवृत्ति के लोग ज्ञान के अभाव में नकारात्मक विचारों के साथ काम करते हैं। सांसरिक विषयों में प्रवीणता राजसी प्रवृत्ति के लोगों में होती है पर वह भी तब जब वह अपने कर्म की प्रकृत्ति तथा क्रिया की साधना का रूप समझें।  अगर हम दो हजार वर्ष की राजनीतिक गुलामी की बात करें तो इसके लिये देश के राजसी पुरुषों को ही जिम्मेदार ठहराया जा सकता है।

         मुश्किल यह है कि हमारे देश के लोग दिखना तो सात्विक चाहते हैं पर उनका मन लिप्त राजसी विषयों में ही रहता है। फल भी वह राजसी चाहते हैं पर अपनी प्रकृत्ति सात्विक होने का दावा करते हैं। एक बात तय रही कि एक साथ दोनों प्रकृत्तियां मनुष्य में रह नहीं सकती और न ही एक कर्म दोनों प्रकृत्तियों का हो सकता है। राजसी कर्म राजसी विधि से ही होता है और उस समय अपनी मनस्थिति भी वैसी ही रखनी पढ़ती है।  हुआ यह है कि हमारे देश में सात्विक और तामसी प्रवृत्ति के लोगों की ही जमावड़ा रहा है।  सात्विक लोग अपनी देह के पालन तक ही सांसरिक विषयों से संबंध रखते हैं और तामसी प्रवृत्ति के लोग केवल भोग की प्रकृत्ति से कार्य करते हैं। तामसी प्रकृत्ति वाले येन केन प्रकरेण धन समेटकर अपनी तिजोरी तो भरना चाहते हैं पर समाज को देना कुछ नहीं चाहते।  ऐसे राजसी प्रकृत्ति के लोग कम ही होते हैं जो इस हाथ लेना और उस हाथ देना के सिद्धांत पर चलते हैं।

विदुरनीति में कहा गया है कि

——————

सहायक बन्धना ह्यर्थाः सहायकश्चार्थबन्धनाः।

अन्योन्बन्धनावेती विनान्योन्यं न सिध्यतः।

          हिन्दी में भावार्थ-धन की प्राप्ति के लिये सहायक चाहिये हैं और सहायकों को धन चाहिये।  यह दोनों परस्पर एक दूसरे के आश्रित हैं और आपसी सहायोग से किसी कार्य की सिद्ध हो सकती है।

संक्लिष्टकर्माणमतिप्रमादं नित्यानृतं चाट्ढभक्तिं च।

विसृष्टरागं पटुमानिनं चाप्येतान् न सेवेत नराधमान् षट्।।

       हिन्दी में भावार्थ-क्लेश कर्म, अत्यंत प्रमाद, असत्य भाषण, अस्थिर भक्ति, स्नेह भाव से रहित कार्य तथा अत्यंत चतुराई में लिप्त रहने वाले व्यक्ति की सेवा न करें क्योंकि यह अधम माने जाते हैं।

       राजसी कर्म में लगे इन्ही तामसी प्रवृत्ति के लोगों की वजह से ही देश को राजनीतिक गुलामी झेलना पड़ी हैं।  हमारे देश में अनेक राजा महाराजा हुए  पर बहुत कम ऐसे रहे जिनकी लोकप्रियता जनहित के कामों की वजह से हुई हो।  अधिकतर राजाओं ने अपनी आंतरिक व्यवस्थाओं पर पेशेवर ढंग अपनाने की बजाय परंपरागत प्रणाली अपनाई।  चाटुकारिता, प्रमाद तथा अहंकार के वशीभूत राजाओं ने अपनी व्यवस्था सामंतों और ज़मीदारों के भरोसे छोड़ दी। इन जमीदारों तथा सामंतों ने भी अपने राजाओं का अनुसरण कर जनता की उपेक्षा की। राज्य प्रबंधन करने वाले लोगों का लक्ष्य केवल राजा की रक्षा करना ही रह गया ताकि उनकी श्रेष्ठ स्थिति बनी रहे। यही कारण है कि बाहरी हमलों में प्रजा का एक बहुत बड़ा वर्ग इन राजाओं के साथ नहीं रहा।

       हम आज की स्थिति देखें तो कुछ अलग नहीं लगती। राजसी कर्म में लगे शिखर पुरुष आम जनता को भले ही देशभक्ति का पाठ पढ़ाते हैं पर विदेशी देशों के प्रति आकर्षण भी जनता को दिखाते हैं।  विदेशी विनिवेश तथा तकनीकी को लाकर देश को समृद्ध करने की बात करते हैं। विश्व के राजनीतिक पटल  परं भारतीय राजसी पुरुषों की छवि दृढ मानसिकता वाली नहीं मानी जाती।  तय बात है कि कहीं न कहंी उनके व्यक्तित्व में प्रकृत्ति तथा क्रिया साधना के बीच विरोधाभास दिखाई देता है।  हमारे देश में लोकतंत्र है और वैसे ही लोग जन प्रतिनिधि बनते हैं जैसी जनता होती है।  यकीनन हमारे देश में लोगों भी वैसे ही हैं जैसे कि यहां के राजसी पुरुष।

       मुख्य बात यह है कि जो लोग यह समझते हैं कि उनका काम समाज सेवा या उस पर नियंत्रण करना है उन्हें यह भी देखना चाहिये कि उसके लिये कौनसी क्रिया साधना होना चाहिये? समाज से कुछ लेना है तो उसे कुछ देना भी होगा। इतना ही देते हुए दिखना भी होगा।  अगर उस पर नियंत्रण करना है तो अपनी निश्चय तथा विचार दृढ़ भी रहना होगा। हम यहां यह भी कह सकते हैं कि विदुर महाराज राजनीतिक व्यवस्था के साथ ही समाजवाद के उस सिद्धांत के प्रतिपादक हैं जिसके लिये हमारे देश बुद्धिमान लोग विदेशी महापुरुषों के विचारों की सहायता लेते हैं।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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राष्ट्रभाषा का महत्व पूछने की नहीं बल्कि देखने की जरूरत -१४ सितम्बर हिंदी दिवस


 

                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी हैं। पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहीं बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्रेंजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीकनहीं बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

 

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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संत कबीरदास के दोहे-दूसरों को ज्ञान देने वाले स्वयं ही अज्ञान के अंधेरे में रहते हैं


      हमारे देश में जैसे जैसे भौतिक समृद्धि के कारण जैसे जैसे विलासिता बढ़ रही है लोगों के शरीर टूट रहे हैं। कहा जाता है कि स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मन रहता है।  आलस्य, विलास तथा प्रमाद के भाव की समाज में प्रधानता हो तो लोगों के मानसिक रूप से समृद्ध होने की कल्पना करना ही निरर्थक है। स्थिति यह है कि लोगों के पास धन और विलासिता के ढेर सारे साधन है पर हार्दिक प्रसन्नता उनसे कोसों दूर रहती है। ऐसे में उनका मन उनको मनोरंजन के लिये इधर उधर दौड़ता है जिसका लाभ भारतीय धार्मिक ग्रंथों के वाचकों ने खूब उठाया है।

           वैसे तो हमारे यहां कथा और सत्संग की परंपरा अत्यंत पुरानी है पर भौतिक युग में पेशेवर धार्मिक वाचकों ने उसे मनोरंजन स्वरूप दे दिया है।  वह स्वयं ज्ञान पढ़कर दूसरों को सुनाते हैं।  मनोरंजन से ऊबे लोग उसे ही अध्यात्म का मार्ग समझते हुए  भीड़ की भेड़  बनकर ऐसे उपदेशकों को अपना गुरु बना लेते हैं।  स्थिति यह है कि लोगों को त्याग, दया और दान की प्रेरणा देने वाले यह उपदेशक अपनी कथाओं के प्रायोजन के लिये सौदेबाजी करते हैं।  यह स्वाभाविक भी है क्योंकि इन उपदेशकों को अपनी कथााओं के लिये अपने साथ ऐसे दल की व्यवस्था करनी होती है जैसे कि नाटक निर्देशक  करते हैं।  अपने साथ संगीत और नृत्य  कलाकार लेकर अपनी कथाओं के पात्रों का मंच पर नाटक की तरह प्रस्तुत कर  यह कथा वाचक खर्च भी करते हैं।  ऐसे में उनको अपने कार्यक्रमों के लिये व्यवसायिक प्रबंध कौशल का परिचय देना होता है।  देखा जाये तो अध्यात्म साधना एकांत का विषय है पर गीत संगीत तथा नृत्य के माध्यम से शोर मचाकर यह लोगों का मन वैसे ही हरते हैं जैसे कि मनोरंजन करना ही अध्यात्म हो।

संत प्रवर कबीर दास जी कहते हैं कि

——————

पण्डित और मसालची, दोनों सूझत नाहिं।

औरन को करै चांदना, आप अंधेरे माहिं।।

         सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित और मशाल दिखाने वाले दूसरों को प्रकाश दिखाते हैं, पर स्वयं अंधेरे में रहते हैं।

पण्डित केरी पोथियां, ज्यों तीतर का ज्ञान।

और सगुन बतावहीं, आपन फंद न जान।।

        सामान्य हिन्दी में भावार्थ-पण्डित पोथियों पढ़कर ज्ञानोपदेश करत हैं। उनका ज्ञान तीतर की तरह ही है जो दूसरे पक्षियों को ज्ञान देता पर स्वयं पिंजरे में रहता है।     

         हमारा अध्यात्म अत्यंत समृद्ध है। देखा जाये तो हमारे अध्यात्म का सार श्रीमद्भागवत गीता में पूर्ण रूप से समाहित है। इस छोटे पर महान ग्रंथ का अध्ययन करने पर यह साफ लगता है कि उसमें वर्णित सदेशों से  प्रथक अन्य कोई सत्य हो ही नहीं सकता। कहा भी जाता है कि जिसने श्रीगीता का अध्ययन कर लिया उसे फिर अन्य किसी ग्रंथ से कोई प्रयोजन नहीं रह जाता है। हैरानी की बात है कि अपने आपको श्रीगीता सिद्ध बताने वाले उसके संदेश भी इतने विस्तार से बताते हैं कि सामान्य भक्तों के सिर के ऊपर से निकल जाते हैं।  उससे भी ज्यादा हैरान करने वाली बात यह है कि लोग श्रीगीता के प्रवचन के समय ही प्रमाद कर अपनी बात से भक्तों को हंसाते हुए समझाते हैं।  प्रमाद राजसी कर्म का परिचायक है और स्वयं को सात्विक कहने वाले इन उपदेशकों को इससे बचना चाहिये।

      जिन लोगों को अधिक पुस्तकों से माथा पच्ची न करनी हो वह प्रातःकाल एक दो श्लोक ही गीता का पढ़ लिया करें।  उसका शाब्दिक अर्थ लेकर मन ही मन उसका चिंत्तन कर भावार्थ समझने का प्रयास करें।  आजकल सिद्ध गुरु मिलना कठिन है। कथित गुरु अपने आश्रमों के विस्तार और भक्तों के संग्रह को ही अपना लक्ष्य बनाते हें।  अतः भगवान श्रीकृष्ण को अपना गुरु मानते हुए श्रीगीता का अध्ययन करें तो यकीन मानिए स्वतः ही अध्यात्म का ऐसा ज्ञान प्राप्त होगा जो कथित बड़े संतों के लिये भी दुर्लभ है।

 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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संत नागरीदास का दर्शन-अधिक संख्या में लोग होने का कमअक्ली के चलते व्यर्थ


     अध्ययन की दृष्टि से अध्यात्म और सांसरिक विषय प्रथक प्रथक हैं।  अध्यात्म ज्ञान से संपन्न मनुष्य सहजता से आचरण करते हैं। यह उनकी स्वाभाविक चतुराई है।  जब किसी के पास अध्यात्म ज्ञान होता है उसका दृष्टिकोण सांसरिक विषयों के प्रति सीमित होता है। वह उन विषयों में रत होकर कर्म तो करते हैं पर उसमें अपने हृदय को लिप्त नहीं करते।  निष्काम करने के कारण उनकी बुद्धि में क्लेश का भाव नहीं होता जिससे वह कभी स्वयं को संकट में नहीं फंसने देते।   इसके विपरीत स्वयं को सांसरिक विषयों में चतुर समझने वाले लोग न केवल कामना के साथ कर्म करते हैं बल्कि उसका प्रचार अन्य लोगों को सामने करते हुए स्वयं के लिये चतुर होने को प्रमाण पत्र भी जुटाते हैं। दरअसल ऐसे आत्ममुग्ध लोगों की बुद्धि उनके संकट का कारण ही होती हैं। संसार के एक विषय से मुक्ति पाते हैं तो दूसरा उनके सामने आता है। दूसरे के बाद तीसरा आता है। यह क्रम अनवरत चलता है और केवल सांसरिक विषयों में लिप्त लोग कभी अपने मानसिक तनाव से मुक्ति नहीं पाते।

संत नागरी दास कहते हैं कि

——————

अधिक सयानय है जहां, सोई बुधि दुख खानि।

सर्वोपरि आनंदमय, प्रेम बाय चौरानि।

            सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-जो मनुष्य अधिक चुतराई दिखाता है उसकी बुद्धि दुख की खान होती है। इसके विपरीत जो प्रेम का मार्ग लेता है वह सर्वोच्च आनंद पाता है।

अधिक भये तो कहा भयो, बुद्धिहीन दुख रास।

साहिब बिग नर बहुत ज्यौं, कीरे दीपक पास।।

            सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-अधिक संख्या होने पर भी कुछ नहीं होता यदि किसी मनुष्य समूह में बुद्धि का अभाव है तो उससे कोई आशा नहीं करना चाहिये। परमात्मा के पास अनेक नर है जैसे दीपक के पास अनेक कीड़े होते हैं।

       अनेक बार हम देखते हैं कि अपराधियों के नाम के साथ भी चतुर या बुद्धिमान होने की संज्ञायें सुशोभित की जाती हैं।  उनकी सफलताओं का बखान किया जाता है पर सच यह है कि यही अपराधी अपने साथ प्रतिशोध लेने की आशंकाओं अथवा कानून के  शिकंजे में फंसने से डरे रहते हैं।  देखा यह भी गया है कि अनेक मानव समूह अपने संख्याबाल पर इतराते हैं क्योंकि उनको लगता है कि इनके पास ढेर सारा बाहुबल है।  समय पड़ने पर जब उनके पास संकट आता है तो वह मिट भी जाते हैं।  कहने का अभिप्राय यह है कि अपराध, अत्याचार या किसी पर आक्रमण करने को बुद्धिमानी नहीं कहा जाता क्योंकि उसमें प्रतिरोध के खतरे भी होते हैं। बुद्धिमानी तो इसमें है कि जीवन में ऐसा मार्ग चुना जो कंटक रहित होने के साथ ही सहज भी हो।

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

पतंजलि योग साहित्य-विषयों से ध्यान हटाना चौथा प्राणायाम


   हम जानते हैं कि योग साधना के आठ भाग-यम. नियम, आसन, प्राणायाम प्रत्याहार, ध्यान, धारणा और समाधि-होते हैं। इसमें प्रत्याहार के बारे में बहुत कम समझते हैं। वैसे इसे समझने के लिये अधिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है। इतना अवश्य है कि प्रत्याहार को समझने के लिये अपने हृदय में यह विश्वास धारण करना  पड़ेगा कि भारतीय योग साधना पद्धति  से प्रतिदिन अभ्यास करने पर देह के साथ ही मन और विचार के विकार भी निकालने में सहायता मिलती है।  प्रत्याहार इस योग साधना अत्यंत महत्वपूर्ण भाग होने के साथ ही चौथा प्राणायाम भी माना जाता है। जिस तरह प्राणाायाम में हम सांस को रोकते और ग्रहण करते हैं उसी तरह प्रत्याहार में अपने मस्तिष्क में विषयों का चिंत्तन भी त्यागते हैं। जिस तरह प्रातः सांसों का प्राणायाम करने से मन की शुद्धि होती है उसी तरह विषयों के प्राणायाम यानि प्रत्याहार से विचारों की शुद्धि होती है।

पतंजलि योग साहित्य में कहा गया है।

 

——————-

 

बाह्यभ्यन्तरिवषयाक्षेपी चतुर्थः।।

 

ततः क्षीयते प्रकाशावरणम्।।

 

धारणासु च योग्यता मनसः।।

 

स्वविषयासम्प्रयोगे चित्तस्वरूपानुकार इवेन्दियाणां प्रत्याहारः।

          हिन्दी में भावार्थ-बाहर अंदर के विषयों का त्याग करना चौथा प्राणायाम है। इसके अभ्यास से प्रकाश का आवरण क्षीण हो जाता है तथा धारणाओं में मन  योग्यता प्राप्त कर लेता है।  अपने विषयों से सम्बंध रहित होने पर इन्द्रियों का जो चित्त के स्वरूप एकाकार हो जाता है वह प्रत्याहार है।

         हम अपने सांसरिक विषयों से इस तरह जुड़े होते है कि उन पर चिंत्तन का क्रम चलता रहता है। एक विषय से ध्यान हटता है तो दूसरे पर चल जाता है। इस कारण हमारे मस्तिष्क को विराम नहीं मिलता।  हम चाहे जितने भी आसन कर लें या कितने भी प्रकार का प्राणायम करें जब तक अपने मस्तिष्क में विषयों से पैदा विकारों का निष्कासन नहीं करेंगे तब तक योग साधना का आनंद नहीं उठा पायेंगे।  प्रत्याहार के समय मन को एकाग्र कर लेना चाहिये। उस समय किसी भी स्थिति में किसी भी विषय का चिंत्तन दिमाग में नहीं आने देना चाहिये। अपनी दृष्टि केवल नासिका के मध्य ऊपरी भाग पर रखना चाहिये।  उस समय कोई भी ख्याल आता है तो आने दीजिये। दरअसल यह क्रम विषयों से उत्पन्न विकारों के ध्वस्त होने का होता है। धीरे धीरे मन शांत होने लगता है।  ऐसा लगता है कि वह अंधरे में चला गया है।  यह स्थिति इस बात का प्राण होती है कि विषयों से पैदा विकार जल गये हैं। उसके बाद  अपना चित्त केवल इसी अंधेरे पर रखते हुए बैठे रहें । चित्त की एकाग्रता ही धारणा के स्थिति  है जो कि  प्रत्याहार के बाद ही आती है। इसके बाद ध्यान लग पाता है।   ध्यान से पूर्व विषयों का त्याग करना ही प्रत्याहार है।  इस तरह के अभ्यास से इंद्रियों के सही स्वरूप को समझकर उन पर निंयत्रण किया जा सकता है। योग के आठ भागों को अभ्यास नहीं होगा तो जीवन में संपूर्ण आंनद का अनुभव नहीं किया जा सकता।         

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

मनु स्मृति-देवस्थानों को हानि पहुँचाने वाले को म्लेच्छ कहा जाता है


       हर मनुष्य जब कोई उपलब्धि प्राप्त करता है तो उसका श्रेय वह स्वयं को देता है पर जहां नाकामी हाथ आती है वहां दूसरों का दोष देखता है।  आत्ममंथन करने की प्रवृत्ति सामान्य मनुष्य नहीं होती  जबकि योग तथा ज्ञान साधक समय समय पर अपनी स्थिति पर विचार करते हुए कार्यक्रम बनाते हैं।   देखा तो यह जाता है कि दूसरों का काम बिगाड़ने वाले अपने पर आये संकट के लिये भाग्य को दोष देते हैं।  अपने दुष्कर्म का सही साबित करने के लिये तमाम तर्क ढूंढते हैं।  अपना पाखंड किसी को नहीं दिखता।  सबसे बड़ी बात यह कि इस संसार के अज्ञानी मनुष्य अपने दुःख  से दुःखी नहीं बल्कि  दूसरे के सुख से दुःखी और दूसरे के दुःख से सुखी होते हैं।  आत्मप्रवंचना में मनुष्य ऐसे सत्कर्मों का बखान करते हैं जो उन्होंने किये ही नहीं। ऐसे मनुष्य कभी भी मनुष्यता और पशुता का अंतर नहीं जानते।

परकार्यवहन्ता च दाम्भिकः स्वार्थसाधकः।

छली द्वेषी मृदृः क्रूरो विप्रो मार्जार उच्यते।।

       हिन्दी में भावार्थ-दूसरों के कार्य बिगाड़नेपाखंडी,अपना काम निकालने,दूसरों से छल करने,दूसरों की उन्नति देखकर मन में जलने तथा बाहर से कोमल पर अंदर से क्रूर हृदय रखने वाला मनुष्य पशु समान है।

वापी-कूप-तडागानामाराम-सुर-वेश्मनाम्।

उच्छेदने निराऽशङ्कः स विप्रो म्लेच्छ उच्यते।।

       हिन्दी में भावार्थ-बावड़ी,कुआं,तालाबों,वाटिकाओं और देवालयों में तोड़फोड़ करने वाला मनुष्य म्लेच्छ कहा जाता है।

         कुछ लोगों की आदत होती है कि वह दूसरों को हानि पहुंचाते हैं।  इतना ही नहीं अपने स्वार्थ की  पूर्ति के लिये बावड़ी,कुओं और तालाबों को समाप्त करते हैं। हमने देखा होगा कि अक्सर कहा जाता है कि नदियों,नहरों और सड़कों के किनारे अतिक्रमण हो जाता है। इतना ही नहीं कागजों पर कुऐं और बावड़ियां बन जाती हैं पर धरती पर उनका अस्तित्व होता ही नहीं है।  यह भ्रष्टाचार म्लेच्छ प्रवृत्ति का द्योतक है।  अनेक जगह हमने देखा है कि सर्वशक्तिमान के लिये स्थान बनाने के नाम पर जमीन पर अतिक्रमण कर उस पर दुकानें आदि बना दी जाती है।  वैसे तो अतिक्रमण कर धर्म के नाम पर स्थान बनाना भी एक तरह से अपराध है क्योंकि यह सर्वशक्तिमान के नाम का दुरुपयोग है। उस पर भी उनका व्यवसायिक उपयोग करना किसी भी प्रकार की आस्था को प्रमाणित नहीं करता।

   हमारा अध्यात्मिक दर्शन निरंकार परमात्मा के प्रति आस्था दिखाने का संदेश देता है। इसका वैज्ञानिक कारण भी है। निरंतर सांसरिक विषयों में उलझा मनुष्य स्वाभाविक रूप से ऊब जाता है। एक विषय से दूसरे विषय की तरफ जाता हुआ मनुष्य मन जब अध्यात्मिकता से परे होता है तब उसमें निराश तथा एकरसता का भाव आता है।  इस वजह से कुछ लोगों में विध्वंस की भावना आ जाती है। इससे बचने का यही उपाय है कि प्रातः जल्दी उठकर योग साधना, ध्यान और मंत्र का जाप कर अपने हृदय में प्रतिदिन नवीनता का भाव लाया जाये।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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रहीम के दर्शन पर आधारित चिंत्तन

तुलसीदास के दोहे-पानी अधिक मिलने पर गंगा हंसों को भगाकर बगुलों को जगह देती है


              इस संसार में तीन प्रकार के लोग होते हैं-सात्विक, राजस और तामस।  योगी और ज्ञानी इस भेद को जानते हैं इसलिये कभी अपनी स्थिति से विचलित नहीं होते।  सात्विक पुरुष तो केवल अपनी भक्ति में लीन रहते हुए जीवन बिताते हैं जबकि राजस प्रवृत्ति वाले अनेक प्रकार के उपक्रम करते हैं ताकि उनको भौतिक लाभ मिलता रहे। तामसी प्रवृत्ति के लोग जहां जीवन में आलस्य के साथ प्रमाद में समय बिताते हैं वही उनके अंदर अनेक प्रकार का वैचारिक भ्रम भी रहता है।

     हम यहां खासतौर से राजसी प्रवृत्ति के लोगों की चर्चा करना चाहेंगे। मुख्य रूप से राजस पुरुष ही संसार का संचालन करते हैं।  उनकी भूमिका समाज में  अत्यंत व्यापक होती है। इस प्रवृत्ति के लोगों में लोभ, अभिमान तथा क्रोध जैसे दुर्गुण स्वाभाविक रूप से विद्यमान होते हैं।  राजसी प्रवृत्ति के कर्मों को प्रारंभ कोई भी मनुष्य  बिना लाभ पाने की इच्छा के  नहीं करता।  यह अलग बात है कि ऐसा करने वाले अपने अंदर सात्विक प्रवृत्ति होने का दावा करते हैं।  ऐसे लोग  समाज के कल्याण और गरीब के उद्धार के कर्म में संलग्न होने का दावा इस तरह करते हैं जैसे कि परोपकार करना उनका व्यवसाय है।  उनके पास धन आता है। धन की अधिकता हमेशा ही अहंकार को जन्म देती है।  इससे कोई बच नहीं सकता।  उच्च पद, धन, और प्रतिष्ठा की उपलब्धि हमेशा ही मनुष्य को उसी तरह दिग्भ्रमित करती है जैसे कि वर्षा ऋतु में नदियों का जल धारा बाहर आकर अपने ही किनारे तोड़ते हुए वृक्षों को उजाड़ देती हैं।  परिणाम स्वरूप बाहर की गंदगी वापस लौटती धारा के साथ ही नदी के  पानी में समा जाती है।

संत प्रवर तुलसी दास जी कहते हैं कि

 

—————

 

तुलसी’ तोरत तीर तरु, बक हित हंस बिडारि।

 

विगत नलिन आनि मलिन जान, सुरसरिहु बढ़िआरि।।

 

         सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-गंगाजी में जब पानी बढ़ जाता है तब वह वृक्षों को तोड़कर हंसों को भगाने के साथ बगुलों के लिये  जगह बना देती है। उस समय गंगा कमल और भौरों से रहित और गंदे जल वाली बन जाती है।

            हमने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक तथा अन्य राजसी कर्मों में शिखर पर पहुंचे लोगों का पतन देखा होगा।  जब कोई मनुष्य राजसी शिखर पर पहुंचता है तब उसमें अहंकार आ ही जाता हैै।  पद, पैसे और प्रतिष्ठा की अधिकता किसी को नहीं पच पाती।  ऐसे लोगों से यह आशा करना ही बेकार है कि किसी के कड़वे सच को वह सहजता से सहन कर जायें।  परिणाम यह होता है कि सत्पुरुष उनसे दूर हो जाते हैं और चाटुकार और पाखंडी लोग उनकी सेवा में आ जाते हैं।  ज्ञानी और योगी लोग इसी कारण कभी भी राजसी पुरुषों के पास नहीं जाते क्योंकि वह जानते हैं कि कहीं वार्तालाप में उनके अहंकार पर आघात पहुंचा तो वह अपनी क्रूरता दिखाने से बाज नहीं आयेंगे।  यही कारण है कि राजसी पुरुषों के इर्दगिर्द झूठी प्रशंसा करने वाले लालची लोगों का जमघट हो जाता है। अंततः वही लोग उनके पतन का कारण भी बनते हैं जो केवल भौतिक साधना की खातिर उनके पास आते हैं।

 

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

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चाणक्य नीति-दुष्ट को सज्जन बनाना सहज नहीं


       मूलतः यह एक प्रकार से निराशावादी दृष्टिकोण हो सकता है पर सत्य तो सत्य ही होता है कि इस संसार में जिस व्यक्ति की जैसी प्रकृति एक बार बन गयी और अगर उसमें विकृतियां हैं तो फिर किसी भी प्रकार से उसकी बुद्धि को शुद्ध नहीं किया जा सकता।  बचपन से ही जैसी प्रवृत्तियां मनुष्य मन में स्थापित हो जाती हैं तो वह अंत तक उसके साथ ही चलती हैं।  जिनका मन बचपन से ही अध्यात्म की तरफ मुड़ जाये तो  उनके विचार और व्यवहार में शुद्धता स्वतः ही बनी रहती है पर जिसे केवल सांसरिक विषयों का ही अध्ययन कराया जाये  उसमें उन्माद, क्रोध, अहंकार तथा लोभ की प्रवृत्ति स्वतः आ जाती हैं। यह अलग बात है कि कोई अध्यात्मिक साधना की तर्फ मुड़ जाये तो वह अपने निकृष्ट प्रकृत्तियों पर स्वतः निंयत्रण कर लेता है मगर ऐसा विरले ही लोगों के साथ होता है।

आचार्य चाणक्य कहते हैं कि

 

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दुर्जनं सज्जनं कर्तृमुपायो न हि भूतले।

 

अपानं शतधा धौतं न श्रेष्ठमिन्द्रियं भवेत्।।

 

    सामान्य हिन्दी भाषा में भावार्थ-दुष्ट व्यक्ति को सज्जन बनाने के लिए इस धरती पर कोई उपाय नहीं है।  जैसे मल त्याग करने वाली इंद्रियां सौ बार धोने पर भी श्रेष्ठ इंद्रियां नहीं बन पातीं।

      दुर्जन से सज्जन बन जाने की धटनायें अपवाद स्वरूप हो जाती है।  ऐसा भी होता कि किसी स्वार्थी प्रकृति के मनुष्य के साथ कोई दुर्घटना घट जाये तब वह मानसिक रूप से टूट जाता है। यह सही है कि ऐसे में उसके व्यवहार में परिवर्तन आता है।  आमतौर से दुष्ट प्रकृति के मनुष्य  में कभी सुधार नहीं होता। पाश्चात्य विचारधाराओं के अनुसार दुष्ट व्यक्ति में सुधार हो सकता है यहां तक तो ठीक है पर वह इसे भी मानती हैं कि समूचा समूह ही भ्रंष्ट ये इष्ट बनाया जा सकता है।  यही बात भारतीय अध्यात्म से मेल नहीं खाती। किसी दुष्ट समूह में एक दो व्यक्ति सुधर जाये पर सभी सदस्य देवता नहीं बन सकते। दूसरी बात यह भी कि किसी मनुष्य में सुधार प्राकृतिक कारणों से आता है पर कोई दूसरा मनुष्य यह काम करे यह संभव नहीं है। इसलिये जिनके बारे में हमारी धारणा अच्छी नहीं है उनसे व्यवहार ही नहीं रखना चाहिये। रखें तो किसी प्रशंसा की उम्मीद करना व्यर्थ है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

दूसरों पर आरोप लगाने वाला स्वयं भी बेचैन रहता है-विदुर नीति


    सामान्य मनुष्य को यह लगता जरूर है कि दुष्ट प्रकृति के लोग बहुत खुश रहते हैं पर यह सच नहीं होता। दूसरे को सताने वाला या अनावश्यक ही दूसरे पर  दोषारोपण करने  वाला कभी स्वयं भी सुखी नहीं रहता। जब कोई मनुष्य दूसरे पर दोषारोपण करते हुए उसके  अहित की बात सोचता है तब वह अपने अंदर भी बेचैनी का भाव लाता है।  अनेक बार देखा गया है कि जब कोई मनुष्य स्वयं  अपराध या  गलती करता है तब वह उसका दोष स्वयं न लेकर दूसरे पर मढ़ता है।  उसके झूठे दोष से पीड़ित व्यक्ति की जो आह निकलती है वह निश्चित रूप से उस पर दुष्प्रभाव डालती है। यह अलग बात है कि इस आह का दुष्प्रभाव तत्काल न दिखाई दे पर कालांतर में उसका परिणाम अवश्य प्रकट होता है।

विदुर नीति में कहा गया है कि
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न च रात्रौ सुखं शेते ससर्प वेश्मनि।
वः कोपयति निर्दोषं सदोषोऽभ्यन्तरे जनम्।।

    हिन्दी में भावार्थ-स्वयं दोषी होते हुए जो दूसरे पर दोषापरोपण करता है वह उसी तरह रात को चैन की नींद नहीं ले पाता जैसे सांप वाले घर में रहने वाला आदमी सो नहीं पाता।

येषु दृष्टेषु दोषः स्तद् योगक्षेमस्य भारत।
सदा प्रसादन तेषां देवतानामिवायरेतफ।।

       हिन्दी में भावार्थ- जिन पर दोषापरोपण करने से स्वयं के सुख में बाधा आती है उन लोगों को देवता की तरह प्रसन्न रखना चाहिये।

            सच बात तो यह है कि दूसरे पर दोषारोपण करने वाला व्यक्ति रात में उसी तरह नहीं सो पाता जैसे कि सांप वाले घर में रहने वाला नहीं सो पाता।  इतना ही नहीं जिन लोगों पर दोषारोपण करने से मन में कष्ट होता है उन्हें देवता की तरह मानते हुए  उनकी पूजा करना चािहये।  आजकल हम जो समाज के लोगों में बढ़ता मानसिक तनाव देख रहे हैं उसका कारण यह भी है कि लोग अपनी गल्तियों के लिये दूसरे पर दोष लगाते हैं।  इससे बचने का एकमात्र उपाय यही है कि समय समय पर आत्ममंथन करते रहें।

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

athor and editor-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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