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यूं हादसे होते रहेंगे-हिंदी व्यंग्य कविता


दौलत का जश्न जो सरेआम मनायेंगे

उनके लुंटने के खतरे कभी कम नहीं होंगे,

अपनी ताकत कमजोर पर जो  हमेशा दिखायेंगे,

उनकी हार  के खतरे कभी कम नहीं होंगे,

जिस्म की नुमाइश से जो ज़माने के जज़्बात भड़कायेंगे

उन पर घाव होने के खतरे कभी कम नहीं होंगे।

कहें दीपक बापू

साहुकारों की इज्जत सामान दिखाने से नहीं

दरियादिली  से बढ़ती है,

बाहुबल से बेबसों को बचाने वालों पर

दुनियां मरती है,

नंगा जिस्म कभी सुहाता नहीं

कपड़ो से ही उसकी शान बढ़ती है,

अपनी अपनी सोच है अपना अपना नजरिया

बचते बचाते चलो,

हादसे बहुत होने लगे हैं

किसी के सहलाने से अपने घावों के दर्द कम नहीं होंगे

———————-

लेखक और कवि-दीपक राज कुकरेजा “भारतदीप”

ग्वालियर, मध्यप्रदेश 

Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior, Madhya pradesh

कवि, लेखक एवं संपादक-दीपक ‘भारतदीप’ग्वालियर
jpoet, Writer and editor-Deepak ‘Bharatdeep’,Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com
 

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सेवा से सिंहासन की तरफ-हिंदी व्यंग्य कविता


स्वयंभू समाज सेवकों का

जमावड़ा है इस देश में,

कल्याण और सेवा का ठेका लेते है

काली नीयत वाले वह लोग

घूमते हैं जो धवल वेश में,

जिनका अपने कमीशन से ही है वास्ता,

बताते हैं  बेबसों के घर पहुंचाने का रास्ता,

सभी नीयत के साफ होते

स्वर्ग जमीन पर आ गया होता,

न तरसता कोई रोटी को

न कोई बिना छत के सोता।

कहें दीपक बापू

सिंहासन की सीढ़ियां चढ़ने में

जो लोग कतराते हैं,

गरीब, बेबस और बीमार की लाचारी पर

अपनी किस्मत अजमाते हैं,

न लगायें हल्दी न फिटकरी

अपनी छवि का रंग चोखा कर जाते हैं,

अपने घर पर चंदे से करवाते सजावट,

प्रचार में चमक जाते फटाफट,

स्वयंसेवक की पदवी नाम के आगे सजाते,

अपने दयावान होने का बैंड बजवाते,

किताबों में आय और कमाई के आंकड़े

करीने से दर्ज हैं,

बेबस गरीब और लाचार

चाहे भले हमेशा अपनी मजबूरी पर रोता।

———————————

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”

Gwalior Madhya Pradesh

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com 

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राष्ट्रभाषा के शिरोमणि-हिंदी कविता


14 सितम्बर हिन्दी दिवस पर

हर बरस लगते हैं

राष्ट्रभाषा के नाम पर मेले,

वैसे हिंग्लिश में करते हैं टॉक

पूरे साल  गुरु और चेले,

एक दिन होता है हिन्दी के नाम

कहीं गुरु बैठे ऊंघते है,

कहीं चेले नाश्ते के लिये

इधर उधर सूंघते हैं,

खाते और कमाते सभी हिन्दी से

अंग्रेजी में गरियाते हैं,

पर्सनल्टी विकास के लिये

हिंग्लिश का मार्ग भी बताते हैं।

कहें दीपक बापू

हिन्दी के शिरोमणियों की

जुबां ही अटक गयी है,

सोचे हिन्दी में

बोली अंग्रेजी की राह में भटक गयी है,

दुनियां में अपना ही देश है ऐसा

जहां राष्ट्रप्रेम का नारा

जोरदार आवाज में सुनाया जाता है,

पर्दे के पीछे विदेशों में भ्रमण का दाम

यूं ही भुनाया जाता है,

हिन्दी शिरोमणि कर रहे हैं

दिखावे की  भारत भक्ति,

मन ही मन आत्मविभोर है

अमेरिका और ब्रिटेन की देखकर शक्ति,

यहीं है ऐसे इंसान

जो हिन्दी भाषा को रूढ़िवादी कहकर  शरमाते हैं।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

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हिंदी दिवस पर चिंत्तन लेख-इन्टरनेट पर हिंदी का महत्व बढ़ने लगा है


                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लिश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी है।ं पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहंी बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्र्रेजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीक, नहंी बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाये या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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राष्ट्रभाषा का महत्व पूछने की नहीं बल्कि देखने की जरूरत -१४ सितम्बर हिंदी दिवस


 

                        हिन्दी दिवस 14 नवंबर 2013 को है पर इस लेखक के बीस ब्लॉग इस विषय पर लिखे गये पाठों पर जमकर पढ़े जा रहे हैं।  पता नहीं कब हमने एक लेख लिख डाला था, जिसका शीर्षक था हिन्दी भाषा का का महत्व समाज कब समझेगा? उस समय इस इतने पाठक नहीं मिले थे जितने अब मिलने लगे हैं। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि इंटरनेट पर लोगों का हिन्दी मे रुझान बढ़ गया है, दूसरी यह भी कि हिन्दी दिवस के मनाये जाने का महत्व कम नहीं हुआ है।  एक तीसरी बात भी सामने आने लगी है कि लोग हिन्दी विषय पर लिखने या बोलने के लिये किताबों से अधिक इंटरनेट पर सामग्री ढूंढने में अधिक सुविधाजनक स्थिति अनुभव करने लगे हैं।  मूलतः पहले विद्वान तथा युवा वर्ग किसी विषय पर बोूलने या लिखने के लिये किताब ढूंढते थे। इसके लिये लाइब्रेरी या फिर किसी किताब की दुकान पर जाने के अलावा उनके पास अन्य कोई चारा नहीं था।  इंटरनेट के आने के बाद बहुत समय तक लोगों का  हिन्दी के विषय को लेकर यह भ्रम था कि यहां हिन्दी पर लिखा हुआ मिल ही नहीं सकता।  अब जब लोगों को हिन्दी विषय पर लिखा सहजता से मिलने लगा है तो वह किताबों से अधिक यहां अपने विषय से संबंधित सामग्री ढूंढने  लगे हैं।  ऐसे में किसी खास पर्व या अवसर पर संबंधित विषयों पर लिखे गये पाठ जमकर पढ़े जाते हैं। कम से कम एक बात तय रही कि हिन्दी अब इंटरनेट पर अपने पांव फैलाने लगी है।

                        हिन्दी ब्लॉग पर पाठकों की भीड़ का मौसम 14 सितंबर हिन्दी दिवस के अवसर पर अधिक होता है।  ऐसे में पुराने लिखे गये पाठों को लोग पढ़ते हैं।  हमने हिन्दी दिवस बहुत पाठ लिखे हैं पर उस यह सभी उस दौर के हैं जब हमें लगता था कि यहंा पाठक अधिक नहीं है और जो सीमित पाठक हैं वह व्यंजना विधा में कही बात समझ लेते हैं।  उससे भी ज्यादा कम लिखी बात को भी अपनी विद्वता से अधिक समझ लेते हैं।  कहते हैं न कि समझदार को इशारा काफी है।  इनमें कई पाठ तो भारी तकलीफ से अंग्रेजी टाईप से यूनिकोड के माध्यम से  हिन्दी में लिखे गये।  अब तो हिन्दी टाईप के टूल हैं जिससे हमें लिखने में सुविधा होती है। लिखने के बाद संपादन करना भी मौज प्रदान करता है।

                        जिस दौर में अंग्रेजी टाईप करना होता था तब भी हमने बड़े लेख लिखे पर उस समय लिखने में विचारों का तारतम्य कहीं न कहंी टूटता था।  ऐसे में हिन्दी के महत्व पर लिखे गये लेख में हमने क्या लिखा यह अब हम भी नहंी याद कर पाते।  जो लिखा था उस पर टिप्पणियां यह  आती हैं कि आपने इसमें हिन्दी का महत्व तो लिखा ही नहीं।

                        यह टिप्पणी कई बार आयी पर हम आज तक यह नहीं समझ पाये कि हिन्दी का महत्व बताने की आवश्यकता क्या आ पड़ी है? क्या हम इस देश के नहीं है? क्या हमें पता नहीं देश में लोग किस तरह के हैं?

                        ऐसे में जब आप हिन्दी का महत्व बताने के लिये कह रहे हैं तो प्रश्न उठता है कि आपका मानस  अंतर्राष्ट्रीय स्तर की तरफ तो नहीं है।  आप यह जानना चाहते हैं कि हिन्दी में विशेषाधिकार होने पर आप विदेश में कैसे सम्माजनक स्थान मिल सकता है या नहीं? दूसरा यह भी हो सकता है कि आप देश के किसी बड़े शहर के रहने वाले हैं और आपको छोटे शहरों का ज्ञान नहीं है।  हिन्दी के महत्व को जानने की जरूरत उस व्यक्ति को कतई नहीं है जिसका वर्तमान तथा भावी सरोकार इस देश से रहने वाला है।  जिनकी आंखें यहां है पर दृष्टि अमेरिका की तरफ है, जिसका दिमाग यहां है पर सोचता कनाडा के बारे में है और जिसका दिल यहा है पर ं धड़कता इंग्लैंड के लिये है, उसे हिन्दी का महत्व जानने की जरूरत नहीं है क्योंकि इस भाषा से उसे वहां कोई सम्मान या प्रेम नहीं मिलने वाला।  जिनकी आवश्यकतायें देशी हैं उन्हें बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह जानते हैं कि इस देश में रहने के लिये हिन्दी का कार्यसाधक ज्ञान होना आवश्यक है।

                        पहले तो यह समझना जरूरी है कि इस देश में हिन्दी का प्रभाव ही रहना है।  भाषा का संबंध भूमि और भावना से होता है। भूमि और भावना का संबंध भूगोल से होता है। भाषाओं का निर्माण मनुष्य से नहीं वरन् भूमि और भावना से होता है। मनुष्य तो अपनी आवश्यकता के लिये भाषा का उपयोग करता है जिससे वह प्रचलन में बढ़ती है।  हम यह भी कहते हैं कि इंग्लैंड में कभी हिन्दी राज्य नहीं कर सकती क्योंकि वहां इसके लिये कोई भूगोल नहीं है।  जिन लोगों में मन में हिन्दी और इंग्लिश का संयुक्त मोह है वह हिंग्लििश का विस्तार करने के आधिकारिक प्रयासों में लगे हैं। इसमें दो प्रकार के लोग हैं। एक तो वह युवा वर्ग तथा उसके पालक जो चाहते हैं कि उनके बच्चे विदेश में जाकर रोजगार करें।  दूसरे वह लोग जिनके पास आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक शक्तियां हैं तथा वह इधर तथा उधर दोनों तरफ अपना वर्चस्व स्थापित करने की दृष्टि से भारत में स्थित  मानव श्रम का उपयोग अपने लिये करना चाहता है।  एक तीसरा वर्ग भी है जो किराये पर बौद्धिक चिंत्तन करता है और वह चाहता है कि भारत से कुछ मनुष्य विदेश जाते रहें ताकि देश का बोझ हल्का हो और उनके बौद्धिक कौशल का  विदेश में सम्मान हो।

                        हिन्दी रोजगार की भाषा नहीं बन पायी न बनेगी।  हिन्दी लेखकों को दोयम दर्जे का माना जाता है और इसमें कोई सुधार होना संभव भी नहंी लगता।  जिन्हें लिखना है वह स्वांत सुखाय लिखें। हम यहां पर लिखते हैं तो दरअसल क्रिकेट, टीवी धारावाहिकों तथा फिल्मों से मिलने वाले मनोरंजन का वैकल्पिक उपाय ढूंढना ही उद्देश्य होता है।  एक बेकार धारावाहिक या फिल्म देखने से अच्छा यह लगता है कि उतने समय कोई लेख लिखा जाये।  हिन्दी हमारे जैसे योग तथा ज्ञान साधकों के लिये अध्यात्म की भाषा है। हम यहां लिखने का पूरा आनंद लेते हैं। पाठक उसका कितना आनंद उठाते हैं यह उनकी समस्या है।  ऐसे  फोकटिया लेखक है जो अपना साढ़े सात सौ रुपया इंटरनेट पर केवल इसलिये खर्च करता है कि उसके पास मनोरंजन का का दूसरा साधन नहीं है। बाज़ार और प्रचार समूहों के लिये हम हिन्दी के कोई आदर्श लेखक नही है क्योंकि मुफ्त में लिखने वाले हैं।  यह हमारी निराशा नहीं बल्कि अनुभव से निकला निष्कर्ष है। सीधी बात कहें तो हिन्दी का रोजगार की दृष्टि से कोई महत्व नहीं है अलबत्ता अध्यात्मिक दृष्टि से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इसी भाषा का ही महत्व रहने वाला है।

                        विश्व में भौतिकतवाद अपने चरम पर है। लोगों के पास धन, पद तथा प्रतिष्ठा का शिखर है पर फिर भी बेचैनी हैं। यही कारण है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन का व्यापार करने वालों की बनकर आयी हैं।  विश्व के अनेक देशों में भारतीय या भारतीय मूल के लोगों ने विज्ञान, साहित्य, राजनीति, कला तथा व्यापार के क्षेत्र में भारी सफलता अर्जित की है और उनके नामों को लेकर हमारे प्रचार माध्यम उछलते भी हैं। पर सच यह है कि विदेशें में बसे प्रतिष्ठित भारती  हमारे देश की पहचान नहीं बन सके हैं।  प्रचार माध्यम तो उनके नामों उछालकर एक तरह से देश के युवाओं को यह संदेश देते हैं कि तुम्हारा यहां कोई भविष्य नहीं है बल्कि बाहर जाओ तभी कुछ होगा। लोगों को आत्मनिर्भर तथा स्वतंत्र जीवन जीने की बजाय उनको विदेशियों  चाकरी के लिये यहां उकसाया जाता है।  सबसे बड़ी बात यह कि आर्थिक उन्नति को ही जीवन का सवौच्च स्तर बताने वाले इन प्रचार माध्यमों से यह अपेक्षा नहीं की जानी चाहिये कि वह अध्यात्म के उच्च स्तर का पैमाना बता सकें।

                        यहीं से हिन्दी का मार्ग प्रारंभ होता है।  जिन युवाओं ने अंग्रेंजी को अपने  भविष्य का माध्यम बनाया है उनके लिये अगर विदेश में जगह बनी तो ठीकनहीं बनी तो क्या होगा? बन भी गयी तो क्या गारंटी है कि वह रोजगार पाकर भी खुश होगा।  अध्यात्म जिसे हम आत्मा कहते हैं वह मनुष्य से अलग नहीं है। जब वह पुकारता है तो आदमी बेचैन होने लगता है। आत्मा को मारकर जीने वाले भी बहुत है पर सभी ऐसा नहीं कर सकते।  सबसे बड़ी बात तो यह है कि जो लोग अंग्रेजी के मुरीद हैं वह सोचते किस भाषा में है और बोलते किस भाषा में है यह बात समझ में नहीं आयी। हमने सुना है कि कुछ विद्यालय ऐसे हैं जहां अंग्रेजी में न बोंलने पर छात्रों को प्रताड़ित किया जाता है।  अंग्रेजी में बोलना और लिखना उन विद्यालयों का नियम है। हमें इस बात पर एतराज नहीं है पर प्रश्न यह है कि वह छात्रों के सोचने पर प्रतिबंध नहीं लगा सकते। तय बात है कि छात्र पहले हिन्दी या अन्य क्षेत्रीय भाषा में सोचते और बाद में अंग्रेजी में बोलते होंगे।  जो छात्र अंग्रेंजी में ही सोचते हैं उन्हें हिन्दी भाषा को महत्व बताने की आवश्यकता ही नहीं है पर जो सोचते हैं उन्हें यह समझना होगा कि हिन्दी उनके अध्यात्म की भाषा है जिसके बिना उनका जीवन नारकीय होगा। अतः उन्हें हिन्दी के सत्साहित्य का अध्ययन करना चाहिये। मुंबईया फिल्मों या हिंग्लिश को प्रोत्साहित करने वाले पत्र पत्रिकायें उनकी अध्यात्मिक हिन्दी भाषा की संवाहक कतई नहीं है।  भौतिक विकास से सुख मिलने की एक सीमा है पर अध्यात्म के विकास बिना मनुष्य को अपने ही अंदर कभी कभी पशुओं की तरह लाचारी का अनुभव हो सकता है। अगर आत्मा को हमेशा सुप्तावस्था में रहने की कला आती हो तो फिर उन्हें ऐसी लाचारी अनुभव नहीं होगी। 

                        हिन्दी में टाईप आना हम जैसे लेखकों के लिये सौभाग्य की बात हो सकती है पर सभी के लिये यह संभव नहीं है कि वह इसे सीखें।  हम न केवल हिन्दी भाषा की शुद्धता की बात करते हैं वरन् हिन्दी टाईप आना भी महत्वपूर्ण मानते हैं।  यह जरूरी नही है कि हमारी बात कोई माने पर हम तो कहते ही रहेंगे।  हिन्दी भाषा जब अध्यात्म की भाषा होती है तब ऐसा आत्मविश्वास आ ही जाता है कि अपनी बात कहें पर कोई सुने या नहीं, हम लिखें कोई पढ़े या नहीं और हमारी सोच का कोई मखौल उड़ाया या प्रशंसा, इन पर सोचने से ही बेपरवाह हो जाते हैं। आखिरी बात यह कि हम हिन्दी के महत्व के रूप में क्या लिखें कि सभी संतुष्ट हों, यह अभी तक नहीं सोच पाये। इस हिन्दी दिवस के अवसर पर फिलहाल इतना ही।

 

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विदुर नीति-पुरुष में उसका शील ही प्रधान का गुण


                आमतौर से हमारे समाज में यह भ्रम प्रचारित किया जाता है कि स्त्री को ही चरित्रवान होना चाहिए।  अपने चरित्र और मान की रक्षा करना उसकी ही स्वयं की जिम्मेदारी है।  कुछ लोग तो यह भी कहते है कि नारी का चरित्र और सम्मान  मिट्टी या कांच के बर्तन की तरह होता है, एक बार टूटा तो फिर नहीं बनता जबकि पुरुष का चरित्र और सम्मान पीतल के लोटे की तरह होता है एक बार खराब हुआ तो फिर मांजकर वैसी ही दशा में आ जाता है।  संभवतः यह कहावत राजसी मानसिकता के लोगों की देन है।  सात्विकत लोग इसे नहीं मानते।  ऐसा लगता है कि समाज की सच्चाईयों और मानसिकता को समझने का नजरिया अलग अलग है।  कुछ लोगों ने पुरुष की मनमानी को सहज माना है और औरत को सीमा में रहने की सलाह दी है। मगर कुछ कुछ विद्वान मानते हैं कि अंततः समस्त मनुष्य जाति के लिये ही उत्तम आचरण आवश्यक है। यही उत्तम आचरण ही वास्तविकता में धर्म है।

विदुर नीति में कहा गया है कि
——————-
जिता सभा वस्त्रवता मिष्ठाशा गोमाता जिता।
अध्वा जितो यानवता सर्व शीलवता जितम्।।

   हिन्दी में भावार्थ-अच्छे कपड़े पहनने वाला सभा, गाय पालने वाला मीठे स्वाद की इच्छा और सवारी करने वाला मार्ग को जिस तरह जीतने वाला मार्ग को जीत लेता है उसी तरह शीलवान पुरुष समाज पर विजय पा लेता है।

शीलं प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्यति।
न तस्य जीवितेनार्थो न धनेन न बन्धुभिः।।

   हिन्दी में भावार्थ-किसी पुरुष में शील ही प्रधान है। जिसका शील नष्ट हो जाता है इस संसार में उसका जीवन, धन और परिवार से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

        दरअसल जिन राजसी मानसिकता वाले लोगों ने पुरुष को श्रेष्ठ माना है उनको पता नहीं कि हम जिस धर्म की रक्षा की बात करते हैं उसमें पुरुष की शक्ति का सर्वाधिक उपयोग होता है।  वह शक्ति तभी अक्षुण्ण रह सकती है जब आचरण और विचारों में पवित्रता हो। पवित्र आचरण की प्रवृत्ति भी बाल्यकाल में माता पिता के प्रयासों से ही निर्मित हो सकती है।  जो पुरुष शीलवान नहीं है वह अंततः समाज के साथ ही अपने परिवार के लिये संकट का कारण बनता है।  समाज के लोग कलुषित आचरण वाले लोगों से दूरी बनाते है।  डर के मारे में वह सामने कुछ नहीं कहें पर अधर्म और अपवित्र आचरण वाले पुरुष की निंदा सभी करते हैं। अंतः यह भ्रम कभी नहीं पालना चाहिए कि पुरुष का आचरण कोई चर्चा का विषय नहीं है या उसकी प्रतिष्ठा अमरत्तव लिये हुए है।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर

writer and editor-Deepak Raj Kukreja ‘Bharatdeep’, Gwalior

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इन्टरनेट पर वीडियो जारी करने का दिलचस्प अनुभव-हिंदी लेख


    अभी हाल ही में होली का पर्व निकल गया।  दरअसल अपने कंप्यूटर पर 11 हजार रुपये खर्च उसका नवीनीकरण कराया।  उसमें वीडियो कैमरे की सुविधा जुड़ जाने  पर हमारे मन में कुछ नया करने का विचार  बस यूं ही आ गया।  दरअसल हमारे मन में अपने दृष्टिकोण से रचनात्मकता का भाव और दूसरों की दृष्टि से आत्ममुग्धता की ऐसी प्रवृत्ति है कि कुछ नया करने का अवसर आने पर भी हम अपनी लेखकीय भडास से दूर नहीं जा पाते हैं।  यह इस कदर है कि पहले जब कागज कहीं किसी भी स्थान पर हाथ में आता तो उस पर कविता या लेख लिखने बैठ जाते थे।  अब कंप्यूटर पर बैठते है तो कहीं न कहीं कुछ लिखने लग ही   जाते हैं।  जब वीडियो कैमरा लगा तो उसके साथ जुड़कर  कुछ नया करने का विचार आया।  तब भी हमारी यही प्रवृत्ति साथ आयी।  चूंकि कोई व्यवसायिक अनुभव नहीं है इसलिये कैमरा चलाकर बैठ जाते हैं और अपनी कविता या चिंत्तन डाल ही देते हैं।  हालांकि यह हमारी रचनात्मकता के विस्तार का रूप स्वयं को भी कतई नहीं लगता।  कुछ पुरानी कवितायें और चिंत्तन डालने में  कुछ समय व्यय हुआ।  अपनी रचना का वीडियो देखकर खुशी हुई   तो इस बात का पछतावा भी हुआ कि हमने उस दौरान ब्लॉग पर कुछ नया नहीं लिखा।

फेसबुक पर दो तीन निजी मित्र भी सक्रिय हैं। उन्होंने कभी हमारी रचनाओं पर  पंसद का बटन नहीं दबाया पर वीडियो पर यह काम कर हमें उपकृत करने के साथ ही  उन्होंने हमारे मस्तिष्क में  प्रश्न चिन्ह भी उपस्थित कर ही  दिया।  वह हमारा लिखा कभी नहीं पढ़ते और न यह वीडियो पूरा का पूरा उन्होंने सुना-यह उनसे बातचीत करने पर पता चला।  उन्होंने हमारे  चेहरे को देखकर यह कार्य किया जिससे वह नियमित रूप से देखा ही करते हैं।  उनके इस प्रयास से लगा कि हमारे अपने लोगों के लिये   शब्दों से अधिक चेहरा महत्वपूर्ण है।  इंटरनेट पर हमारी पहचान भी अपने शब्दों से ही बनी है और वीडियो पर वैसी सफलता संदिग्ध दिखती है।  जैसे जैसे हमारे मुख से शब्द निकलते हैं लोगों के कान से निकलकर बाहर हो जाते हैं।  शब्द अपनी जगह स्थिर रहते है। उन्हें कभी भी पढ़ा जा सकता है। जबकि वीडियो में सुनने और गुनने का प्रयास करना पड़ता हैं

हां, यह विचार तो आया है कि कुछ हास्य कवितायें लिखकर यहां आजमायेंगे।  एक अनुभव तो हो गया है कि लिखना और बोलना अलग अलग विधायें हैं।  हम उस ढंग से नहीं सुना पाते जिस ढंग से पेशेवर हास्य कवि या गद्यकार सुनाते हैं। हमारे चेहरे के हाव भाव  स्वयं को ही रूखे लगते है।  वाणी में उतार चढ़ाव नहीं आ पाता। ऐसा लगता है कि अपनी वाणी से शब्द फैंक रहे हैं।  प्रयोग के बाद हमने अपना चिंत्तन सुना।  लगा नहीं कि कोई बीस मिनट का धैर्य धारण कर उसे सुन पायेगा।  बोलते समय अनेक वाक्य बिखरे हुए थे।  ऐसे में विचार आया कि  वाणी को पेशेवर बनाने के प्रयास करने की  बजाय सहज भाव से बातचीत करते हुए अपनी बात कहें।  अपने स्वाभाविक ढंग से बात करें।  एक बात निश्चित है कि अपने वीडियो जारी करने से हम बाज नहीं आयेंगे।  अभी  तो बैठने का यही सैट चलेगा। फिर अगर विचार बना तो बाहर से कहीं रिकार्ड कर वीडियो डालेंगे।  अभी रिकार्डिंग की कोई पेशवर व्यवस्था नहीं है इसलिये जैसा आयेगा वैसे ही चलेंगें।

इस बात की पूरी संभावना है कि अभ्यास करते करते ऐसी स्थिति आ ही जायेगी कि हमारा पूरा का पूरा विडियो लोग सुनना चाहेंगे। वैसे हम अपने हाथ ही लिखकर ही वीडियो रिकार्डिंग के समय पढ़ें तो रोचक रहेगा।  सच बात तो यह है कि हम तो यह भी मानते हैं कि कंप्यूटर पर सीधे लिखने की बजाय अगर पहले किसी कागज पर लिखने के बाद  यहां टाईप करें तो शायद बेहतर रचना बनती है।  जब कोई भौतिक उपलब्धि न हो तो इतनी मेहनत होती नहीं है और न ही समय मिलता है।  अगर लिखने का अंधा शौक  न होता तो शायद इतना लिख नहीं पाते।  बहरहाल लिख रहे हैं पर जैसा लिखते हैं वैसा बोलकर वीडियो पर जारी करेंगे तो निश्चित रूप से लोग सुनेंगे इसमें संदेह नहीं है।  अभी जो वीडियो जारी हुए हैं उनमें वैसा प्रभाव नहीं है जैसा अपेक्षित है। इसका कारण यह है कि हमने अभी इन वीडियो में  वैसे विषय शामिल नहीं कर पाये जिसके बेहतर होने की  अपेक्षा हम स्वयं भी करते हैं।  विचार तो यह है कि वीडियो पर हास्य कवितायें और हास्य व्यंग्य जारी करें तो शायद अधिक सफलता मिले।  बहरहाल वीडियो जारी करना हमारे लिये एक रोचक अनुभव है।

इस लेख का वीडियो लिंक यह है

बहरहाल इस रविवार पर बस इतना ही।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप

ग्वालियर मध्य प्रदेश
Writer and poet-Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”
Gwalior Madhyapradesh

वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro

 

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ज़जबातों के बंटी दुनियां-हिन्दी कविता


कहीं रौशनी इतनी ज्यादा
उसे अंधेरों की तलाश है
कहीं अंधेरे घर खड़े हैं
उसके इंतजार में।
बाहर से दुनियां एक गेंद की तरह लगती जरूर
अंदर बंटी  नफरत और प्यार मे।
कहें दीपक बापू
जिन चीजों में दिल लगता है
महंगी मिलती बाज़ार में
अपने घाव सहलाने के लिये क्यों हमदर्द ढूंढे
अमीर हो गये बहुत लोग
जज़्बातों के व्यापार में।
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
ग्वालियर मध्यप्रदेश
writer and poet-Deepak Raj kurkeja “Bharatdeep”
Gwalior Madhya Pradesh
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर

http://rajlekh.blogspot.com 

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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-अपना सम्मान बढ़ाने के लिये झूठ बोलना पाप


         आधुनिक समाज में प्रचार तंत्र का बोलबाला है। फिल्म हो या टीवी इनमें अपना चेहरा देखने और दिखाने के लिये लोगों के मन में भारी इच्छा रहती है।  यही कारण है कि लोग अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये तमाम तरह के पाखंड करते हैं।  हमारे देश में लोग धर्मभीरु हैं इसलिये अनेक पाखंडी धार्मिक पहचान वाले वस्त्र पहनकर उनके मन पर प्रभाव डालते हैं। अनेक गुरु बन गये हैं तो उनके शिष्य भी यही काम कर रहे हैं।  कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इसे बिडाल वृत्ति कहा गया है। मूल रूप से धर्म अत्यंत निजी विषय हैं।  दूसरी बात यह है कि सांसरिक विषयों में लिप्त लोगों से यह अपेक्षा तो करना ही नहीं चाहिये कि वह धर्माचरण का उदाहरण प्रस्तुत करें।  सार्वजनिक स्थानों पर धर्म की चर्चा करना एक तरह से उसका बाजारीकरण करना है।  इससे कथित धर्म प्रचारकों को धन तथा प्रतिष्ठा मिलती है।  सच्चा धार्मिक आदमी तो त्यागी होता है। उसकी लिप्पता न धन में होती है न प्रतिष्ठा पाने में उसका मोह होता है।  उसकी प्रमाणिकता उसके मौन में होती है न कि जगह जगह जाकर यह बताने कि वह धर्म का पालन कर रहा है तो दूसरे भी करें।

कौटिल्य का अर्थशास्त्र में कहा गया है
———————
अधोदृष्टिनैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः।
शठो मिथ्याविलीतश्च बक्रवतवरो द्विजः।।

         हिन्दी में भावार्थ-उस द्विज को बक वृत्ति का माना गया है जो असत्य भाव तथा अविनीत हो तथा जिसकी नजर हमेशा दूसरों को धन संपत्ति पर लगी रहती हो जो हमेशा बुरे कर्म करता है सदैव अपना ही कल्याण की  सोचता हो और हमेशा अपने स्वार्थ के लिये तत्पर रहता है।

धर्मध्वजी सदा लुब्धश्छाद्मिका  को लोकदम्भका।
बैडालवृत्तिको ज्ञेयो हिंस्त्र सर्वाभिसन्धकः।।

      हिन्दी में भावार्थ-अपनी प्रतिष्ठा के लिये धर्म का पाखंड, दूसरों के धन कर हरण करने की इच्छा हिंसा तथा सदैव दूसरों को भड़काने के काम करने वाला ‘बिडाल वृत्ति’ का कहा जाता है।

         जैसे जैसे विश्व में धन का प्रभाव बढ़ रहा है धर्म के ध्वजवाहकों की सेना भी बढ़ती जा रही है।  इनमें कितने त्यागी और ज्ञानी हैं इसका आंकलन करना जरूरी है।  अध्यात्मिक और धर्म ज्ञानी कभी अपने मुख से ब्रह्म ज्ञान का बखान नहंी करते। उनका आचरण ही ऐसा होता है कि वह समाज के लिये एक उदाहरण बन जाता है।  उनका व्यक्तित्व और कृतित्व ही धर्म की पोथी का निर्माण करता है।  अगर उनसे आग्रह किया जाये तो वह संक्षिप्त शब्दों में ही अध्यात्मिक ज्ञान बता देते हैं।  जबकि आजकल पेशेवर ज्ञान  प्रवचक घंटों भाषण करने के बादी श्रोताओं को न तो धर्म का अर्थ समझा पाते हैं न उनके शिष्य कभी उनके मार्ग का अनुसरण करते हैं। यही कारण है कि इतने सारे धर्मोदेशक होते हुए भी हमारा समाज भटकाव की राह पर है।

 

दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप’’

ग्वालियर मध्यप्रदेश

Deepak Raj Kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

संकलक, लेखक और संपादक-दीपक राज कुकरेजा ‘भारतदीप’,ग्वालियर 

 

 

फेसबुक बन सकती है ठेसबुक-हिंदी लेख चिंत्तन


        कम से कम आधुनिक तकनीकी से जुड़ने का सौभाग्य हमें मिला इसके लिये परमात्मा का धन्यवाद अवश्य अर्जित करना चाहिए। अंतर्जाल इंटरनेट अनेक बार गजब का अनुभव कराता है।  सभी अनुभवों की चर्चा करना तो संभव नहीं है पर फेसबुक के माध्यम से ऐसे लोगों को तलाशना अच्छा लगता है जिन्हें हमने बिसारा या उन्होंने ही याद करना छोड़ दिया है।  हम जैसे लेखकों के लिये फेसबुक केवल चंद मित्रों और प्रशंसकों से जुड़े होने का एक माध्यम भर है जबकि ब्लॉग पर लिखने के पर  ही असली आनंद मिलता है। यह ब्लॉग एक तरह से अपनी पत्रिका लगती है।  यहां लिखकर स्वयंभू लेखक, कवि और संपादक होने की अनुभूति होती है। यह आत्ममुग्धता की स्थिति है पर लिखने के लिये प्रेरणा मिलती है तो वह बुरी भी नहीं है।  शुरुआत में फेसबुक से जुड़ना ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं लगा।  अलबत्ता ब्लॉग मित्रों को देखकर अपना खाता बना लिया।  जान पहचान की बालक बालिकाओं ने अपनी फेसबुकीय रुचि के बारे में बताया फिर भी अधिक दिलचस्पी नहीं जागी।  एक बार दूसरे शहर गये तो वहां एक बालक ने लेपटॉप पर अपने फेसबुक से हमारा खाता जोड़ दिया।  तय बात है कि उसके संपर्क के अनेक लोगों में हमारी दिलचस्पी भी थी।  इनमें लेखक कोई नहीं है पर फेसबुक पर सक्रिय होने के लिये उसकी कोई आवश्यकता भी नहीं होती। इधर से उधर फोटो उठाकर अपने यहां लगाने के लिये बस एक बटन दबाना है।  लोग अपनी मनपसंद की सामग्री इसी तरह लगाकर खेल रहे हैं।  अपने फोटो एल्बम लगाकर एक दूसरे को प्रोत्साहित करते हैं।

    ऐसे में भूले बिसरे लोगों को ढूंढने का प्रयास करना हम जैसे लेखकों के लिये दिलचस्प होता है।  यह दिलचस्पी तब आनंददायक होती है जब आप ऐसे लोगों का खाता ढूंढ लेते हैं जिनके साथ कभी आपने अपने खूबसूरत पल गुजारे पर अब हालातों ने आपसे अलग कर दिया।  आम आदमी की याद्दाश्त कमजोर होती है इसलिये समय, हालत और स्वार्थों की पूर्ति के स्त्रोत बदलते ही वह अपनी आंखों में प्रिय लगने वाले चेहरों को भी बदल देता है।  कर्ण को प्रिय लगने वाले स्वर भी बदल जाते हैं।  लेखक होता तो आम आदमी है पर वह अपनी याद्दाश्त नहीं खोता।  दौर बदलने के साथ वह अपनी यादों को जिंदा रखता है।  यह उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है।  वरना वह नित नयी रचनायें नहंी कर सकता।

              फेसबुक में हमने ऐसे अनेक खाते ढूंढे हैं जिनके स्वामी हमसे दूर हो गये। जब मिलते हैं तो तपाक से मिलते हैं।  नहीं मिलते तो पता नहीं उनको याद भी आती कि नहीं।  एक प्रियजन का खाता ढूंढ रहे थे पर उसने बनाया ही नहीं था।  तीन चार साल में तीन मुलाकतें हुई। आखिरी मुलाकात छह महीने पहले हुई थी।  वह पढ़े लिखे हैं  फेसबुक खाता कभी खोलेंगे यह सोचना मूर्खता थी। एक संभावना थी कि उनके परिवार के नयी पीढ़ी के सदस्य उन्हें इस काम के लिये प्रेरित कर सकते हैं।  हमने महीना भर पहले  एक दो बार ऐसे ही प्रयास किया कि शायद उनका खाता बन गया हो। कल अचानक फिर ख्याल आया तो उनका खाता फोटो सहित दिख गया।  हम कभी उनकी फोटो तो कभी उनकी गोदी में बैठी छह महीने की पोती की तरफ देखते थे।  उनके पूरे परिवार के सदस्यों के फेसबुक खाते देख लिये।  उनके फेसबुक से होते हुए हमने कई ऐसे करीबी लोगों के खाते भी देखे जिनको जानते हैं पर कोई औपचारिक संपर्क नहीं है।

       पहले विचार किया कि उनका फेसबुक मित्र बनने का संदेश भेजा जाये पर फिर लगा कि उनकी गतिविधियों पर हम नज़र रखे हुए हैं इससे वह खुलकर दूसरों से सपंर्क रखते समय प्रभावित हो सकते हैं।  सबसे बड़ी बात यह कि हम उनके फेसबुक पर उनके फोटो के साथ ही प्रोफाईल पर उनके मन का अध्ययन कर रहे थे।  पहली बार लगा कि फेसबुक एक तरह से वाईस स्टोरेज भी है।   हमने पहले भी कुछ ऐसे करीबी लोगों की फेसबुक देखी थी पर उस समय ऐसी बातें दिमाग में नहीं आयी अब  आने लगी थी।  सभी का फेसबुक कुछ बोल रहा था।  चेहरे की मुस्काने रहस्य छिपाती लग रही थीं।  वैसे भी हम नहीं चाहते कि हम किसी के व्यक्तिगत जीवन में हस्तक्षेप करें पर फेसबुक की मूक भाषा अगर कुछ कहती है तो उसे अनदेखा करना हमारे लिये संभव भी नहीं है।  फोटो एल्बम क्या कह रहे हैं?  जो नाम बार बार जुबान पर है वह फेसबुक पर क्यों नहीं है?  जिसका नाम दिल में होने का दावा है वह फेस कहीं करीब क्यों नहीं दिखाई देता?

              एक बात तय रही कि एक लेखक होने के नाते हम ब्लॉग का महत्व कभी कर ही नहीं सकते पर ऐसा भी लगने लगा है कि फेसबुक पर कुछ कहानियां हमारा इंतजार कर रही हैं। यहा कहानियां अंततः ब्लॉगों की शोभा बढ़ायेंगी।  यही कारण है कि फेसबुक पर उन लोगों को दूर ही रखना होगा क्योकि अंततः ब्लॉगों से रचनायें वहीं आयेंगी और वह हमारे नायक नायिकाऐं इसका हिस्सा होंगी।  फेस टु फेस यानि सामना होने पर फेसबुक की बात ही क्या इंटरनेट से अनजान होने का दावा भी प्रस्तुत करना होगा।  आखिरी बात फेसबुक पर जो संपर्क रखते हैं उनका प्रिय होना प्रमाणित है पर जो रोज नहीं मिलते पर उनमें से किसी के सामने खाताधारक अगर यह दावा करता है कि वह उसका प्रिय है तो प्रमाण स्वरूप उसका फेसबुक का पता जरूर मांगना चाहिये  यह देखने के लिये उसके एल्बम में कहीं स्वयं का फोटो है कि नहीं। यह अलग बात है कि जब दावा करने पर अपना फोटो न दिखे तो यह फेसबुक ठेसबुक भी बन सकती है।

लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,

ग्वालियर मध्यप्रदेश

writer and poet-Deepak raj kukreja “Bharatdeep”

Gwalior Madhyapradesh

लेखक और संपादक-दीपक “भारतदीप”,ग्वालियर

poet, writer and editor-Deepak ‘BharatDeep’,Gwalior

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मुस्कराहट पर ताला-हिंदी कविता


जिंदा कौम होने का अहसास-हिंदी कविता 
———————
जिंदगी में कभी शरीर कभी दिल पर
हादसों से घाव हो ही जाते हैं,
क्यों उनको याद कर जलाते हो खून अपना
दर्दों में जीने की आदत में
हम अपनी मुस्कराहट पर ताला लगाते हैं।
कहें दीपक बापू
बेबसी और लाचारी में
जीने के आदी हो गये हैं सभी,
या आराम की सोच से फुर्सत नहीं मिलती कभी,
शायद इसलिये जिंदा लोगों के दिल का हाल जानकर
उनके मुश्किलों हल करने से अधिक
मरने वालों की याद में
मोमबत्तियां जलाकर
अपनी जिंदा कौम होने का अहसास जताते हैं।
—————
लेखक एवं कवि-दीपक राज कुकरेजा ‘‘भारतदीप,
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हवास के पुतले-हिंदी व्यंग्य कविता


काला हो या सफेद धन

दान देने से पवित्र हो जाता है,

वैसे भी मुफ्तखोरों को बांटने वाला

देवता नज़र आता है।

कहें दीपक बापू

सारे ज़माने की नजर में

नजरिया हो गया कमजोर

भ्रष्ट भी खिलाये रोटी

इष्ट वह हो जाता है,

———-

अगर रोटी से ही पेट भरता

तो यह इतन लोग भूख न रहते,

मुश्किल यह है कि जिनके पेट भरे है,

किसी दूसरे का खाना नहीं सहते।

कहें दीपक बापू

हवस के पुतलों के मुंह में भरा है सोना

—————————————– 

लेखक एवं कवि- दीपक राज कुकरेजा,‘‘भारतदीप’’,

ग्वालियर, मध्यप्रदेश

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poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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गति से बढ़ते खतरे-हिन्दी आलेख


                   देश में विदेश से तेज गाड़ियां चलाने वालों को सतर्कता से चलाने की सलाह देने की बजाय उन्हें यह समझाने की आवश्यकता है कि यहां सड़कों पर गरीब भी विचरते हैं। संदर्भ है कि दिल्ली में एक 309 किलोमीटर तक चलने वाली गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने का, जिसमें चालक अमीर परिवार के एक युवक की मौत हो गयी तो उसकी टक्कर से एक साइकिल चालक गंभीर रूप से घायल होकर अस्पताल में दाखिल है! उस पर टीवी चैनल वाले दुःखी हैं। एक चैनल वाले ने बताया कि कैसे उस विदेशी गाड़ी के भारत आगमन पर उसकी विशेषताओं का वर्णन उसने किया था। तय बात है कि यह वर्णन प्रायोजित रहा होगा और नवधनाढ्यों को प्रभावित करने के लिये उसे रचा गया होगा। वैसे चैनल वालों का दुःख कार के दुर्घटनाग्रस्त होने पर अधिक लग रहा था कार चालक या साइकिल सवार के लिये नहीं।
                 अब उस गाड़ी के दुर्घटनाग्रस्त होने का कारण पहले सड़क के विभाजक और बाद में बिजली के खंभे से टकराना बताया गया है। बाहर तेज रफ्तार ने इस देश के एक युवक की मौत दर्दनाक है। अब डेढ़ करोड़ (कुछ इसे ढाई करोड़ की भी बता रहे हैं) की कार कबाड़े में बदल गयी तो इसमें दोष किसका है? उस गरीब साइकिल वाले-हमारे यहां साइकिल अब गरीबी का प्रतीक हो गयी है-का भी नहीं है जो अपने काम से कहीं जा रहा होगा। कार चालक और साइकिल सवार दोनों ही उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं जो अपने प्रयासों से कुछ अर्जन करते हैं और यकीनन यह उनके परिवारों के लिये कष्टदायक है।
             मूल बात महंगी और तेज दौड़ने वाली गाड़ियों की है। पश्चिमी देशों में गरीब या गरीबी नहीं है यह सोचना गलत है पर जनसंख्या में गरीबी का अनुपात हमारे यहां आज भी अधिक है। न्युयार्क, लंदन, पेरिस और बर्लिन की सड़कों पर इस तरह गरीब संभवतः सायकल नहीं चलाते होंगे। वहां की सड़कें भी इतनी संकड़ी नहीं होती होंगी। हमने तो सुना है कि हम जिन विकसित देशों की राह पर चल रहे हैं वहां अखबार और दूध बांटने वाले भी कार में चलते हैं। कहीं कहीं तो दूध की पाईप लाईने पानी की तरह लगी हैं। अपने यहां ऐसा कहां है। सुबह दूध देने वाले अधिकतर साइकिल पर चलते हैं-यह अलग बात है कि कुछ लोग अब मोटर साइकिल पर करने लगे हैं-अखबार साइकिल पर बांटा जाता है। दूध वाले तो अधिक कमाई का प्रबंध कर सकते हैं पर अखबार वालों के लिये यह संभव नहीं है। फिर सब्जी, फल तथा चादरें बेचने वाले भी बिचारे साइकिल चलाते हैं। कई जगह तो महिलायें और पुरुष अपने काम के लिये एकदम सुबह पैदल ही घर से निकलते हैं-यहां हम पार्क की सैर करने वालों की बात नहीं कर रहे।
            अधिक क्या कहें। आस्ट्रेलिया हमसे बड़ा देश है पर उसकी जितनी आबादी है उतनी तो हमारे यहां हर साल बढ़ जाती है। मतलब हम वहां जैसी आजादी अपनी सड़कों पर नहीं प्राप्त कर सकते। देश आर्थिक रूप से तरक्की कर रहा है पर इसका विश्लेषण करना होगा कि उसमें सत्यता कितनी है। किसी के पास पहले सौ रुपये थे और अब दस हजार है तो यह विकास दिखता है पर हमें उसके खर्च का अनुपात भी देखना होगा। पहले सौ रुपये से घर चल जाता था और अब दस हजार खर्च कर भी कोई खुश नहीं है। आजादी के समय अपने देश की जनसंख्या 36 करोड़ थी। उस समय अगर अमीर एक करोड़ होंगे तो अब 121 करोड़ की जनसंख्या पांच करोड़ से ज्यादा नहीं होंगे। याद रखने की बात यह है कि आजादी से पहले 35 करोड़ गरीब लोग थे तो अब 116 करोड़ हैं। सड़कंे तो उतनी ही हैं। कई जगह तो यह सुनने को मिलते हैं कि अतिक्रमण के चलते वह सिकुड़ गयी हैं। ऐसे में रफ्तार के खतरे बहुत हैं, चाहे वह विकास के हों या विनाश के।
वि, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
poet,writer and editor-Deepak Bharatdeep, Gwaliro
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मोबाइल प्रेम (इश्क़) और वेलेंटाइन डे-हास्य कविता (mobil love and valentien day-hindi hasya kavita or comedy poem)


माशुका ने आशिक से कहा
“इस वेलेंटाइन डे पर
मुझे नया मोबाइल लाकर देना,
देखना नए मॉडल का हो
किसी अच्छी दुकान से लेना,
पिछली बार वेलेंटाइन डे पर
जो तुमने यह मोबाइल दिया था,
लगता है फुटपाथ से लिया था,
मेरी चेतावनी अपने ध्यान में रखना,
वरना पड़ेगा मज़ा चखना।”

सुनकर सकपकाया आशिक
फी रूआँसा होकर बोला
“लगता है यह वेलेंटाइन डे
मेरे शुभ को अशुभ करने आया है,
मैं तुम्हारा पहला प्यार हूँ
यह तुमने मेरे प्रेम पत्र के जवाब में बताया है,
हमारी प्रेम की पींगे केवल चार माह पुरानी है,
अभी तो मेरी पहले गिफ्ट तुम्हारे पास आनी है,
यह पिछले साल के आशिक का तोहफा
तुम्हें मेरा कैसे नज़र आया,
उस मासूम को तुमने कैसे भुलाया,
अच्छा हुआ तुमने मुझे बता दिया
अब मुझे तुमसे कोई संबंध नहीं रखना।”
कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://rajlekh.blogspot.com

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फेस बुक पर भाषा और संवाद की समस्या-हिन्दी लेख


        फेसबुक पर आज की पीढ़ी ही नहीं बल्कि पुराने लोग भी सक्रिय हैं पर उनमें अधिकतर लेखक नहीं है इसलिये हिन्दी साहित्य की परंपराओं के ज्ञान का उनमें अभाव है। ऐसे में नयी पीढ़ी के लोगों से यह अपेक्षा तो करना कठिन है कि वह उन्हें समझ सकें खासतौर से जब वह स्वरचनाकर्म से अधिक कट पेस्ट यानि किसी का पाठ उठाकर अपने पृष्ठ पर रखने के आदी हों। हमारे प्रचार माध्यमों ने तो नयी पीढ़ी में यह बात स्थापित कर दी है कि ब्लॉग, ट्विटर या फेसबुक पर केवल आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, फिल्म, टीवी तथा कला क्षेत्र के शिखर पुरुष ही लिखते हैं और उनकी ही परवाह करना चाहिए। आम लेखक तो फोकटिया हैं और उनकी कोई बात सम्मानीय या पठनीय नहीं है।
       यही कारण कि फेसबुक तथा ब्लॉग पर जब हमने अपनी रचनायें बिना नाम के देखीं तो वहां प्रतिकूल टिप्पणियां लिखीं। ऐसा लगता है कि बजाय प्रतिकूल टिप्पणियां करने के साथ उनको यह बात समझाना चाहिए कि हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता में साभार रचनायें लेने की परंपरा है। उसमें लेखक का नाम अवश्य दिया जाता है। जिन टीवी चैनलों के पास किसी खास समाचार का दृश्यव्य प्रसारण नहीं है वह दूसरे से साभार लेते हैं। हालांकि यह उदाहरण समझाने के लिये पर्याप्त या उचित नहीं है। हिन्दी टीवी चैनल साभार प्रसारण लेते हैं पर वह या तो विदेशी चैनल का या फिर देश का अंग्रेजी चैनल हो। मतलब यह कि हिन्दी वाले की हिन्दी से सोतिया डाह तो रहती ही है। यह बात इंटरनेट पर भी दिखाई देती है जब चोरी के पाठ प्रकाशित होते दिखते हैं।
         बहरहाल फेसबुक पर एक वेबसाईट संचालिका ने हमसे अपने पाठ प्रकाशित करने की अनुमति मांगी तो हमने उसे सहर्ष नाम प्रकाशित करने की शर्त पर दी। उसने ऐसा किया भी! उसकी इस क्रिया पर हमें कोई आपत्ति नहीं है। दरअसल उसने भ्रष्टाचार पर उस कविता को ही लिया जो कि हमारी इस विषय पर लिखी गयी सबसे हिट कविता है। इसी कविता ने एक नहीं दो ब्लॉग को हिट बना रखा है। हमें यह देखकर हैरानी हो रही है कि केवल ब्लॉग को नियमित या अपडेट बनाये रखने के लिये लिखी गयीं कविताओं ने अधिक पाठक जुटायें हैं बनिस्बत उन बड़े लेखों के जो बड़े मनोयोग से लिखे गये। इसका कारण यह भी है कि नयी पीढ़ी के युवा ज्यादा समय खराब करने के थोड़े समय में अधिक पढ़ना चाहता है। वह कहानी भी कविता में पढ़ना चाहता है। अगर विषय गंभीर हो तो एक लघु कथा लिखने से काम चल सकता है पर हास्य हो तो कविता ही ठीक जमती है।
          हमें इंटरनेट पर सक्रियता से जहां खुशी मिली वहीं इस बात का दुःख भी होने लगा है कि नयी पीढ़ी भाषा के लिहाज से तोतली हो रही है। रोमन लिपि में अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण प्रसन्नता नहीं दे सकता। हैरानी की बात है कि हिन्दी टूलों की उपलब्धता के चलते यह हो रहा है। खासतौर से जब यह जीमेल पर ही उपलब्ध हो और प्रयोक्ता उसके उपयोग में असमर्थ हों। लड़के लड़कियां अगर यह सोच रहे हैं कि वह अभिव्यक्त होकर कोई बड़ा नाम करेंगे तो वह गलतफहमी में हैं। फेसबुक पर लिखने के बाद प्रतिक्रियायें मिल जाती हैं पर कालांतर में वह भी बोरियत लगने लगेगी। फेसबुक पर तो यह आशा करना ही बेकार है कि कोई अपने अभिव्यक्त होने की लंबी पारी खेल सकता है। इससे अच्छा तो यह है कि ब्लॉगर या वर्डप्रेस पर ब्लॉग लिखकर प्रयास करना श्रेयस्कर है। फेसबुक में केवल अपने समूहों से जुड़े हुए लोग ही साथी होते हैं जबकि ब्लॉग एक सार्वजनिक पत्रिका की तरह उपयोग में लाये जा सकते हैं। जिन युवक युवतियों में मन में हिन्दी लिखने का आनंद प्राप्त करने की इच्छा है वह फेसबुक के साथ ही ब्लॉग जरूर बनायें। कुछ समय तक उनको टिप्पणियां मिलेंगी पर बाद में बंद हो जायेंगी मगर सर्च इंजिनों में वह हमेशा जीवंत बना रहेगा। ऐसे में अगर केवल अपने अंदर बैठे लेखक को जिंदा रखने के लिये एकांत यात्रा करनी होगी। हालांकि ब्लॉग पर फेसबुक की तरह लिखना अधिक परिणामदायक नहीं रहेगा ऐसे में हिन्दी टूलों के साथ प्रभावी हिन्दी का भी ज्ञान रखना होगा। वह केवल पुराने लेखकों की रचनाओं से मिल सकता है। नये लेखकों ने तो अंग्रेजी का मिश्रण करना प्रारंभ कर दिया है।      
              फेसबुक पर पिछले एक दो महीने से हम अधिक सक्रिय रहे हैं। वहां अपने ब्लॉग के लिंक देखने अक्सर जाना होता है। अनेक महानुभावों ने संपर्क किया है। उनसे चैट में भाषा का तोतलापन अखरता है। हम आपसी संवाद पर अपने साथियों पर कोई आक्षेप नहीं कर रहे पर इतना तय है कि यह रोमन लिपि में लिखना या पढ़ना हमको तोतलापन लगता है। चूंकि लेखक हमेशा भावुक होता है इसलिये हमारे लिये वार्तालाप के समय टिप्पणियां करना ठीक नहीं लगता। यह सही है कि ऐसे संवाद के समय शीघ्रता होती है इसलिये कही दूसरी जगह से कट पेस्ट करने में देरी करना अच्छा नहीं लगता है पर अभ्यास हो जाये तो कुछ भी असहज नहीं है। हिन्दी तो फिर भी सरलता से लिखी जाती है पर चीनी लिखने में कठिन है मगर फिर भी चीन के नागरिक उसमें लिखते हुए संकोच नहीं करते। हमारा उद्देश्य आक्षेप करना नहीं बल्कि नयी पीढ़ी के लोगों को यह समझाना है कि भाषा की कमी उनकी अभिव्यक्ति को कमजोर बनाने के साथ विचार को क्षणिक आवेग के रूप में प्रकट करती है। सबसे बड़ी बात आत्मीयता का वैसा संबंध वह कभी नहीं बना सकती जैसे कि हमारे अपने साथ ब्लॉग लेखकों के साथ प्रभावी हिन्दी के कारण बने।
संकलक, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप,ग्वालियर 
athor and editor-Deepak  Bharatdeep, Gwalior
http://zeedipak.blogspot.com

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