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इस हिन्दी ब्लाग ने पार की एक लाख पाठक संख्या पार-हिन्दी संपादकीय (A Hindi blog-editorial)


इस ब्लाग ने भी आज एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार कर ली। गूगल पेज रैकिंग में चार अंक प्राप्त तथा एक लाख पाठक/पाठ पठन संख्या पार करने वाला इस लेखक का यह पांचवां ब्लाग है। यह संख्या कोई अधिक मायने रखती क्योंकि हिन्दी भाषियों की संख्या को देखते हुए लगभग तीन वर्ष में इतनी संख्या पार करना कोई अधिक महत्व का नहीं है। न ही इस संख्या को देखते हुए ऐसा कहा जा सकता है कि हिन्दी ने अंतर्जाल पर कोई कीर्तिमान बनाया है पर अगर कोई स्वतंत्र, मौलिक तथा शौकिया लेखक है तो उसके लिये यह एक छोटी उपलब्धि मानी जा सकती है। इस लेखक के अनेक ब्लाग हैं पर इससे पूर्व के चार ब्लाग बहुत पहले ही इस संख्या को पार कर चुके हैं पर कोई ऐसा ब्लाग नहीं है जो अभी एक दिन में हजार की संख्या पार कर चुका है अलबत्ता सभी ब्लाग पर मिलाकर 2500 से तीन हजार तक पाठक/पाठ पठन संख्या पार हो जाती है।
प्रारंभ में इस ब्लाग को अन्य ब्लाग से अधिक बढ़त मिली थी पर बाद में अपने ही साथी ब्लाग की वजह से इसे पिछड़ना भी पड़ा। इसकी वजह यह थी कि इस लेखक ने वर्डप्रेस की बजाय ब्लाग स्पॉट के ब्लाग पर ही अधिक ध्यान दिया जबकि वास्तविकता यह है कि वर्डप्रेस के ब्लाग ही अधिक चल रहे हैं। कभी कभी लगता है कि वर्डप्रेस के ब्लाग पर लिखा जाये पर मुश्किल यह है कि ब्लाग स्पॉट के ब्लाग कुछ अधिक आकर्षक हैं दूसरे उन पर अपने पाठ रखने में अधिक कठिनाई नहीं होती इसलिये उन पर पाठ रखना अधिक सुविधाजनक लगता है। चूंकि यह लेखक शौकिया है और यहां लिखने से कोई धन नहीं मिलता इसलिये अंतर्जाल पर निरंतर लिखने के लिये मनोबल बनाये रखना कठिन होता है। दूसरी बात यह है कि पाठक संख्या में घनात्मक वृद्धि अधिक प्रेरणा नहीं देती। इसके लिये जरूरी है कि गुणात्मक वृद्धि होना। एक बात निश्चित है कि देश में ढेर सारे इंटरनेट कनेक्शन हैं पर उनमें हिन्दी के प्रति सद्भाव अधिक नहीं दिखता है। संभव है कि अभी इंटरनेट पर अच्छे लिखने को नहीं मिलता हो।
दूसरी बात यह है कि दृश्यव्य, श्रव्य तथा प्रकाशन माध्यम अपनी तयशुदा नीति के तहत ब्लाग लेखकों के यहां से विषय लेते हैं पर उनके नाम का उल्लेख करने की बजाय उनके रचनाकार अपना नाम करते हैं।
दूसरी बात यह कि अंतर्जाल पर फिल्मी अभिनेता, अभिनेत्रियां, खिलाड़ी तथा अन्य प्रसिद्ध हस्तियों के ब्लाग है और उनका प्रचार इस तरह होता है जैसे कि लिखना अब केवल बड़े लोगों का काम रह गया है।
एक सुपर स्टार के घर के बाहर से मैट्रो ट्रेन निकलने वाली है। निकलने वाली क्या, अभी तो चंद विशेषज्ञ उनके घर के सामने थोड़ा बहुत निरीक्षण करते दिखे। अभी योजना बनेगी। पता नहीं कितने बरस में पटरी बिछेगी। उस सुपर स्टार की आयु पैंसठ से ऊपर है और संभव है कि पटरियां बिछने में बीस साल और लग जायें। संभव है सुपर स्टार कहीं अन्यत्र मकान बना लें। कहने का अभिप्राय है कि अभी जंगल में मोर नाचने वाला नहीं पर उन्होंने अपनी निजी जिंदगी में दखल पर अपने ब्लाग पर लिख दिया। सारे प्रचार माध्यमों ने उस पर चिल्लपों मचाई। तत्काल उन सुपर स्टार ने ट्विटर पर अपना स्पष्टीकरण दिया कि ‘हम मैट्रों के विरोधी नहीं है। मैं तो केवल अपनी बात ऐसे ही रख रहा था।’
वह ट्विटर भी प्रचार माध्यामों में चर्चित हुआ। इससे संदेश यही जाता है कि इंटरनेट केवल बड़े लोगों का भौंपू है। ऐसे में आम लेखक के लिये अपनी पहचान का संकट बन जाता है। वह चाहे कितना भी लिखे पर उससे पहले यह पूछा जाता है कि ‘तुम हो क्या?’
किसी आम लेखक की निजी जिंदगी उतनी ही उतार चढ़ाव भरी होती है जितनी कि अन्य आम लोगों की। मगर वह फिर भी लिखता है पर अपनी व्यथा को भी तभी कागज पर लाता है जब वह समग्र समाज की लगती है वरना वह उससे जूझते हुए भी उसका उल्लेख नहीं करता। लेखक कभी बड़ा या छोटा नहीं होता मगर अब उसमें खास और आम का अंतर दिखाई देता है और यह सब ब्लाग पर भी दिखाई देता है।
आखिरी बात यह है कि जो वास्तव में लेखक है वह अपने निज अस्तित्व से विचलित नहीं होता और न पहचान के लिये तरसता है क्योंकि समाज की चेतना जहां विलुप्त हो गयी है वहां समस्या पाठक बढ़ाने की नहीं है बल्कि जो हैं उनसे ही निरंतर संवाद बनाये रखना है। जब लेखक लिखता है तब वह अध्यात्म के अधिक निकट होता है और ऐसे में समाज से जुड़ा उसका निज अस्तित्व गौण हो जाता है और अंदर तक पहुंचने वाला लेखन तभी संभव हो पाता है। इस अवसर पर मित्र ब्लाग लेखकों और पाठकों का आभार।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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यह आलेख इस ब्लाग ‘दीपक भारतदीप का चिंतन’पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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यमुना की तरक्की में तबाही की उम्मीद-हिन्दी आलेख (yamuna ki tarakki men tabahi ki ummeed-hindi alekh)


दिल्ली में आयी बाढ़ के हृदय विदारक दृश्य देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना नदी अपने साथ की गयी छेड़छाड़ का बदला ले रही है-प्रसिद्ध अर्थशास्त्री माल्थस का कहना भी है कि जब इंसान अपनी जनसंख्या पर नियंत्रण नहीं करता तब प्रकृति स्वयं यह काम करती है-और उससे हुई तबाही से आम गरीब इंसान बहुत तकलीफ में आ गया है जिसे सहानुभूति के साथ धन के साथ अन्न की सहायता की आवश्यकता है, मगर टीवी चैनलों पर खबरों को देखें तो कहना पड़ता है कि यमुना विकास कर रही है जिससे तबाही की उम्मीद पूरी हो रही है।
हिन्दी से रोटी कमाने वाले इन समाचार चैनलों को पता ही नहीं कि दिल्ली के आगे भी कहीं देश बसता है और कई जगह उनकी वाणी से हिन्दी की चिंदी करने की कोशिशें चर्चा का विषय है। हरियाणा के बांध से यमुना में पानी छोड़ने से दिल्ली का संकट बढ़ रहा है और उसमें खतरे या खौफ की जगह उम्मीदें केवल हिन्दी समाचार चैनलों के संवाददाताओं के साथ उद्घोषक ही देख सकते हैं क्योंकि उनके अपने भावविहीन चेहरों और रूखी वाणी से श्रोता और दर्शक प्रभावित नहीं होते इसलिये उनको हिन्दी से अलग उर्दू और अंग्रेजी के शब्दों का उपयोग कर अपनी उपयोगिता साबित करना होती है। उम्मीद उर्दू शब्द है जिसका विपरीत शब्द खतरा या खौफ होता है। हिन्दी में आशा और आशंका शब्द इसके समानार्थी हैं। हैरानी तब होती है जब नदी का जलस्तर सामान्य ऊंचाई से अधिक होने की संभावना होती है तब आशंका की बजाय यही संवाददाता और उद्घोषक आशा शब्द का उपयोग करते हैं।
एक तरह से यह शब्द फैंकना है। संभव है दिल्ली या बड़े नगरों के लोग अब उम्मीद खौफ और आशंका आशा के अंतर को नहीं जानते हों पर भारत के छोटे शहरों में ऐसे बहुत सारे लोग हैं जो इसे समझते हैं। ऐसा लगता है कि जैसे पूरे देश का प्रभामंडल दिल्ली और बड़े शहरों के इर्दगिर्द सिमट गया है और यही कारण है कि छोटे शहरों के लोग संचार और प्रचार माध्यमों के लिये एक महत्वपूर्ण नहीं रहे पर यह उनके लिये ऐसे है जैसे शुतुरमुर्ग संकट देखकर रेत में मुंह छिपा लेता है। इन्ही छोटे शहरों पर ही इन प्रचार माध्यमों की ज़िदगी निर्भर करती है क्योंकि अभी भी देश की आबादी का एक बहुत बड़ा हिस्सा यहीं रहता है।
इन्हीं टीवी चैनलों की भाषा देखकर यह कहना पड़ता है कि यमुना तो अपना विकास कर रही है। इस पर तो खुश होना चाहिए। सभी कहते हैं कि यमुना का पानी कम होने के साथ ही गंदा भी हो गया है। उसके किनारे बसे शहरों की सीवर लाईनें वहीं जाकर अपना कचरा विसर्जित करती हैं। अब हालत यह है कि दिल्ली में वह सब लाईनें बंद कर दी गयी हैं जो यमुना में पानी लाती हैं। तय बात कि वह कोई अच्छा पानी नहीं लाती। उफनती यमुना नदी अपने पानी के साथ वह कचड़ा भी उन शहरों को सधन्यवाद वापस कर रही है जहां के लोग बरसों से उस पर प्रसाद की तरह चढ़ाते हैं। यमुना और गंगा दैवीय नदियां मानी जाती हैं और भारतीय धार्मिक बंधु कभी भी उन पर प्रतिकूल टिप्पणियां नहीं करते। जब भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ तब भी वह उफन रही थी पर जब देख कि भगवान पधारे हैं तो उनको मार्ग दिया।
यमुना को लेकर एक दूसरी भी कहानी है। एक बार दुर्वासा ऋषि यमुना किनारे एक स्थान पर पधारे। श्रीकृष्ण जी का गांव दूसरे किनारे था। उन्होंने गांव के लोगों को अपने और शिष्यों के लिये खाना लाने का संदेश भेजा। गोपियां खाना लेकर चलीं तो पाया कि यमुना उफन रही है। लौटकर वह श्रीकृष्णजी के पास आयीं और उनको बताया तो वह बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी नारी का स्पर्श न किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियां श्रीकृष्णजी को बहुत मानती थीं। वह उनकी बात सुनकर चली गयी पर आपस में कह रही थीं कि ‘अब नहीं मिलता रास्ता! यह कृष्ण तो रोज हमारे साथ खेलता और नृत्य करता है और यमुना नदी ने यह सब देखा है तब कैसे इतना बड़ा झूठ मान लेगी।’
यमुना किनारे आकर गोपियेां ने श्रीकृष्ण जी की बात दोहराई तो देखा कि यमुना उनके लिये मार्ग बना रही है। वह हैरान रह गयी। उन्होंने खाना जाकर दुर्वासा जी को खिलाया। वह प्रसन्न हुए। गोपियां भी वापस लौटीं तो देखा कि यमुना ने उनका मार्ग फिर बंद कर दिया है। वह लौटकर दुर्वासाजी के पास आयीं और अपनी समस्या उनके सामने रखी। दुर्वासा जी हंसकर बोले-‘यमुना से जाकर कह दो कि अगर दुर्वासा ने जीवन पर अन्न का दाना भी न खाया हो तो हमें जाने का मार्ग प्रदान करो।’
गोपियां वापस चलीं। वह आपस में बात कर रही थीं कि ‘श्रीकृष्ण तो अभी बालक हैं इसलिये उनका झूठ चल गया पर यह दुर्वासाजी का झूठ कैसे चलेगा? यह तो बड़े हैं। अभी इतना सारा भोजन कर रहे थें और दावा यह कि जीवन भर अन्न का दाना नहीं खाया।’
गोपियां यमुना किनारे आयीं और दुर्वासा की बात दोहराई। यमुना ने फिर अपना मार्ग उनको प्रदान किया।
दरअसल इन कहानियों की रचना के पीछे उद्देश्य यही है कि मनुष्य दैहिक रूप से अनेक कर्म करता है पर आत्मिक रूप से उनमें लिप्त नहीं होता तो वह योगी हो जाता है। वह कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म का अंतर जानता है इसलिये ही दृष्टा भाव से जीते हुए जीता है तो उसको अनेक प्रकार की सिद्धिया स्वतः मिल जाती हैं।
जिन लोगों ने गंगा बहुत पहले देखी हो उनको याद होगा कि हर की पौड़ी में सिक्का डाला जाता तो वह जाकर तली में दिखता था। अब यह संभव नहीं रहा। निश्चित रूप से यह मनुष्य की कारिस्तानी है। जंगल और पहाड़ों को खोदकर विकास दर बढ़ाने का लक्ष्य देखने वाले पश्चिमी प्रशंसक बुद्धिजीवियों को समझाना कठिन है। चीन के विकास का गुणगान करने वाले उसके यहां हुई तबाही का आंकलन नहीं करते। आर्थिक विकास करते समय अध्यात्मिक विकास को केवल पौगापंथियों का विषय मानने वाले शीर्ष पुरुषों से यह अपेक्षा तो अब करना ही बेकार है कि वह नदियों और पर्वतों का छिपा आर्थिक महत्व समझें जिसके कारण उनका देवी देवता का दर्जा पुराने मनीषियों ने दिया। अब यहां ऋषि, तपस्वी और मनस्वी महान पुरुषों की जगह बुद्धिजीवियों का महत्व बढ़ा है जो कि कभी अमेरिका तो कभी चीन को देखकर अपना चिंतन करते हैं। यह दोनों देश भी इस समय प्राकृतिक और पर्यावरण से उत्पन्न विकट संकटों का सामना कर रहे हैं।
बात टीवी चैनलों की भाषा की चल रही थी। ऐसा लगता है कि वहां करने वाले बौद्धिक कर्मी भारी तनाव में काम करते हैं। उन पर प्रतिदिन सनसनी के सहारे अपने चैनलों की वरीयता बढ़ाने का दबाव है इसलिये उनको हादसों की आशंका में अपने प्रदर्शन के परिणाममूलक होने की उम्मीद दिखाई देती है। अब यह कहना कठिन है कि वह भाषा नहीं जानते या भावावेश में सच बात कह जाते हैं कि ‘नदी का जलस्तर बढ़ने की उम्मीद है।’ वैसे पहली बात ही सही लगती है पर यह बात उनको बतायेगा कौन? उनके साथ कम करने वाले तथा अन्य सहधर्मी मित्र भी तो वैसे ही होंगे।
अब बात करें पूरे देश में आयी बाढ़ की! अनेक जगह विकराल बाढ़ आयी है। इसमें अधिकतर संकट मजदूर, श्रमिक तथा गरीब परिवारों पर ही आता है। हानि तो मध्यम और उच्च तबके के लोगों की भी होती है पर वह उनके उबरने की संभावनाऐं रहती हैं। उबरता तो गरीब भी है पर भारी तकलीफ से। ऐसे में उन इलाकों के बाढ़ से अप्रभावित धनी और मध्यम वर्गीय लोग पीड़ितों के लिये आगे आयें तो अच्छा ही रहेगा। एक आदमी केवल एक ही आदमी या परिवार की सहायता का संकल्प ले तो भी बुरा नहीं है। अगर कोई इलाका पूरा डूब गया है तो पड़ौसी इलाके के लोग यह संकल्प लें। मदद प्रत्यक्ष करें चंदा वगैरह देने से कोई लाभ नहीं है। अनेक लोग ऐसे हैं जिनके घर में अन्न के साथ अन्य वस्तुऐं भी फालतू या कबाड़ में पड़ी रहती हैं जो कि गरीब लोगों के लिये महत्वपूर्ण होती है। अनेक लोग अन्न का भी संचय करते हैं। यहां दरियादिली दिखाने के लिये नहीं कहा जा रहा बल्कि एक आदमी एक की मदद को भी तैयार रहे तो यह देश अनेक संकटों से जूझ सकता है। सामान्य स्थिति में अनेक लोग ऐसे हैं जो गरीबों का सहायता करते हैं पर असामान्य हालत हों तो स्थापित व्यक्तियों को इस तरफ ध्यान देना चाहिए। सरकार की मदद आयेगी तब आयेगी। उस मदद से भला होगा तब होगा मगर समाज और प्रदेशों में सामाजिक समरसता का भाव रखने के लिये ऐसे छोटे प्रयासों की आवश्यकता है जो कि एक शक्तिशाजी समाज के निर्माण में सहायक होते हैं।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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जांच किये बिना किसी को मित्र न बनायें-हिन्दी लेख (mitrata divas or friendship day par vishesh hindi likh)


देश में पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत कथित सभ्रांत समाज आज मित्रता दिवस मना रहा है। आजकल पश्चिमी फैशन के आधार पर मातृ दिवस, पितृ दिवस, इष्ट दिवस, तथा प्रेम दिवस भी मनाये जाने लगे हैं। अब यह कहना कठिन है कि यह पश्चिमी फैशन का प्रतीक है या ईसाई सभ्यता का! संभवत हमारे प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक मजबूरियों के चलते इसे किसी धर्म से जोड़ने से बचते हुए इसे फैशन और कथित नयी सभ्यता का प्रतीक बताते हैं ताकि उनको विज्ञापन प्रदान करने वाले बाज़ार के उत्पाद खरीदने के लिये ग्राहक जुटाये जा सकें।
भारतीय समाज बहुत भावना प्रधान है इसलिये यहां विचारधारा भी फैशन बनाकर बेची जाती है। रिश्तों के लेकर पूर्वी समाज बहुत भावुक होता है इसलिये यहां के बाज़ार ने सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के नाम पर लोगों की जेब ढीली करने के लिये-चीन, जापान, मलेशिया, पाकिस्तान तथा भारत भी इसमें शामिल हैं-ऐसे रिश्तों का हर साल भुनाने के लिये अनेक तरह के प्रायोजित प्रयास हर जारी कर लिये हैं। समाचार पत्र पत्रिकायें, टीवी चैनल तथा रेडियो-जो कि अंततः बाज़ार के भौंपू की तरह काम करते हैं-इसके लिये बाकायदा उनकी सहायता करते हैं क्योंकि अंततः विज्ञापन का आधार तो उत्पादों के बिकना ही है।
पश्चिमी समाज हमेशा दिग्भ्रमित रहा है-इसका प्रमाण यह है कि वहां भारतीय अध्यात्म के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है-इसलिये वहां उन रिश्तों को पवित्र बनाने के प्रयास हमेशा किय जाते रहे हैं क्योंकि वहां इन रिश्तों की पवित्रता और अनिवार्यता समझाने के लिये कोई अध्यात्मिक प्रयास नहीं हुए हैं जिनको पूर्वी समाज अपने धर्म के आधार पर सामाजिक और पारिवारिक जीवन के प्रतिदिन का भाग मानता है। इसे हम यूं कह सकते हैं कि भले ही आधुनिक विज्ञान की वजह से पश्चिमी समाज सभ्य कहा जाता है पर मानवीय संवेदनाओं की जहां तक बात है पूर्वी समाज पहले से ही जीवंत और सभ्य है और पश्चिमी समाज अब उससे सीख रहा है जबकि हम उनके सतही उत्सवों को अपने जीवन का भाग बनाना चाहते हैं।
मित्र की जीवन में कितनी महिमा है इसका गुणगान आज किया जा रहा है पर हमारे अध्यात्मिक संत इस बात को तो पहले ही कह गये हैं। संत कबीर कहते हैं कि
‘‘कपटी मित्र न कीजिए, पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखाय के, पीछे धक्का देति’’
कपटी आदमी से मित्रता कभी न कीजिये क्योंकि वह पहले पेट में घुस कर सभी भेद जान लेता है और फिर आगे की राह दिखाकर पीछे से धक्का देता है। सच बात तो यह है कि मित्र ही मनुष्य को उबारता है और डुबोता है इसलिये अपने मित्रों का संग्रह करते समय उनके व्यवहार के आधार पर पहले अपनी राय अवश्य अवश्य करना चाहिये। ऐसे अनेक लोग हैं जो प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र नहीं कहे जा सकते। आजकल के युवाओं को तो मित्र की पहचान ही नहीं है। साथ साथ इधर उधर घूमना, पिकनिक मनाना, शराब पीना या शैक्षणिक विषयों का अध्ययन करना मित्र का प्रमाण नहीं है। ऐसे अनेक युवक शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि ‘अमुक के साथ हम रोज पढ़ते थे पर वह हमसे नोट्स लेता पर अपने नोट्स देता नहीं था’।
ऐसे अनेक युवक युवतियां जब अपने मित्र से हताश होते हैं तो उनका हृदय टूट जाता है। इतना ही नहीं उनको सारी दुनियां ही दुश्मन नज़र आती है जबकि इस रंगरंगीली बड़ी दुनियां में ऐसा भी देखा जाता है कि संकट पड़ने पर अज़नबी भी सहायता कर जाते हैं चाहे भले ही अपने मुंह फेर जाते हों। इसलिये किसी एक से धोखा खाने पर सारी दुनियां को ही गलत कभी नहीं समझना चाहिए। इससे बचने का यही उपाय यही है कि सोच समझकर ही मित्र बनायें। अगर किसी व्यक्ति की आदत ही दूसरे को धोखा देने की हो तो फिर उससे मित्र धर्म के निर्वहन की आशा करना ही व्यर्थ है। इस विषय में संत कबीरदास जी का कहना है कि
‘कबीर तहां न जाईय, जहां न चोखा चीत।
परपूटा औगुन घना, मुहड़े ऊपर मीत।
ऐसे व्यक्ति या समूह के पास ही न जायें जिनमें निर्मल चित्त का अभाव हो। ऐसे व्यक्ति सामने मित्र बनते हैं पर पीठ पीछे अवगुणों का बखान कर बदनाम करते हैं। जिनसे हम मित्रता करते हैं उनसे सामान्य वार्तालाप में हम ऐसी अनेक बातें कह जाते हैं जो घर परिवार के लिये महत्वपूर्ण होती हैं और जिनके बाहर आने से संकट खड़ा होता है। कथित मित्र इसका लाभ उठाते हैं। अगर अपराधिक इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि अपराध और धोखे का शिकार आदमी मित्रों की वजह से ही होता है।
अतः प्रतिदिन कार्यालय, व्यवसायिक स्थान तथा शैक्षणिक स्थानों पर मिलने वाले लोग मित्र नहीं होते इसलिये उनसे सामान्य व्यवहार और वार्तालाप तो अवश्य करना चाहिये पर मन में उनको बिना परखे मित्र नहीं मानना चाहिए।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सांख्ययोग का प्रतीक हैं बाबा प्रह्लाद जानी-हिन्दी लेख


आखिर हठयोगी प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से चिकित्सा विज्ञान हार गया। उसने मान लिया कि इस हठयोगी का यह दावा सही है कि उसने पैंसठ साल से कुछ न खाया है न पीया है। अब इसे चिकित्सा विज्ञानी ‘चमत्कार’ मान रहे हैं। मतलब यह कि बात घूम फिर कर वहीं आ गयी कि ‘यह तो चमत्कार है’, इसे हर कोई नहीं कर सकता और योग कोई अजूबा है जिसके पास सभी का जाना संभव नहीं है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ सांख्ययोग के पथिक हैं और अगर कोई कर्मयोग का पथिक है तो वह भी उतना ही चमत्कारी होगा इसमें संदेह नहीं हे।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ यकीनन एक महान योगी हैं और उन जैसा कोई विरला देखने में आता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। सुदामा के चावल के दाने भी उनके भोजन के लिये पर्याप्त थे।
प्रसंगवश मित्रता के प्रतीक के रूप में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा का नाम लिया जाता है। दोनों ने एक ही गुरु के पास शिक्षा प्राप्त की थी। पूरी दुनियां श्री सुदामा को एक गरीब और निर्धन व्यक्ति मानती है पर जिस तरह श्रीकृष्ण जी ने उनसे मित्रता निभाई उससे लगता है कि वह इस रहस्य को जानते थे कि सुदामा केवल माया की दृष्टि से ही गरीब हैं क्योंकि सहज योग ज्ञान धारण करने की वजह से उन्होंने कभी सांसरिक माया का पीछा नहीं किया। संभवत श्रीसुदामाजी ने एक दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत किया और शायर यही कारण है कि उनके पास माया नहंी रही। अलबत्ता परिवार की वजह से उसकी उनको जरूरत रही होगी और उसके अभाव में ही श्रीसुदामा को गरीब माना गया।
जो खाना न खाये, पानी न पिये उसे संसार की माया वरण करे भी कैसे? यह ‘हठयोग’ भारतीय योग विज्ञान का बहुत ऊंचा स्तर है पर चरम नहीं है। यह ऊंचा स्तर पाना भी कोई हंसीखेल नहीं तो चरम पर पहुंचने की बात ही क्या कहना?
पहले हम योग का चरम स्तर क्या है उसे समझ लें जो इस पाठ के लेखक की बुद्धि में आता है।
इस संसार में रहते हुए अपने मन, विचार, और विचारों के विकार निरंतर निकालते रहने तथा तत्व ज्ञान को धारण करना ही योग का चरम स्तर है। इसमें आप देह का खाया अपना खाया न समझें। गले की प्यास को अपनी आत्मा की न समझें। अपने हाथ से किये गये कर्म को दृष्टा की तरह देखें। संसार में सारे कार्य करें पर उनमें मन की लिप्तता का अभाव हो।
हमारे देश के कुछ संतों द्वारा प्राचीन ग्रंथों का एक प्रसंग सुनाया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण जी के गांव कहीं दुर्वासा ऋषि आये। उन्होंने उनके गांव से खाना मंगवाया। गांव वालों को पता था कि उनकी बात न मानने का अर्थ है उनको क्रोध दिलाकर शाप का भागी बनना। इसलिये गांव की गोपियां ढेर सारा भोजन लेकर उस स्थान की ओर चली जो यमुना के दूसरे पार स्थित था। किनारे पर पहुंचे कर गोपियों ने देखा कि यमुदा तो पानी से लबालब भरी हुई है। अब जायें कैसे? वह कृष्ण जी के पास आयीं। श्री कृष्ण जी ने कहा-‘तुम लोग यमुना नदी से कहो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी स्त्री को हाथ न लगाया हो तो उनकी तपस्या के फल्स्वरूप हमें रास्ता दो।’
गोपियां चली गयीं। आपस में बात कर रही थीं कि अब तो काम हो ही नहीं सकता। इन कृष्ण ने दसियों बार तो हमको छूआ होगा या हमने उनको पकड़ा होगा।
यमुना किनारे जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण जी बात दोहराई। उनके मुख से बात निकली तो यमुना वहां सूख गयी और गोपियां दुर्वासा के पास भोजन लेकर पहुंची।
दुर्वासा जी और शिष्यों ने सारा सामान डकार लिया और जमकर पानी पिया। गोपियां वहां से लौटी तो देखा यमुना फिर उफन रही थी। वह दुर्वासा के पास आयी। उन्होंने गोपियों से कहा-‘यमुना से कहो कि अगर दुर्वासा से अपने जीवन में कभी भी अन्न जल ग्रहण नहीं किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियों का मुंह उतर गया पर क्रोधी दुर्वासा के सामने वह कुछ न बोल पायीं। वहां से चलते हुए आपस में बात करते हुए बोली-यह कैसे संभव है? इतना बड़ा झूठ कैसे बोलें? इन्होंने तो इतना भोजन कर लिया कि यमुना उनकी बात सुनकर कहीं क्रोध में अधिक न उफनने लगे।
गोपियां ने यमुना किनारे आकर यही बात कहीं। यमुना सूख गयी और हतप्रभ गाोपियां उस पार कर गांव आयी।
हम इस कथा को चमत्कार के हिस्से को नज़रअंदाज भी करें ं तो इसमें यह संदेश तो दिया ही गया है कि सांसरिक वस्तुओं का उपभोग तथा उनमें लिप्तता अलग अलग विषय हैं। संकट उपभोग से नहींे लिप्तता से उत्पन्न होता है। जब कोई इच्छित वस्तु प्रापत नहीं होती तो मन व्यग्र होता है और मिलने के बाद नष्ट हो जाये तो संताप चरम पर पहुंच जाता है।
बाब प्रह्लाद जानी को सांख्ययोगी भी माना जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग तथा कर्मयोग की दोनों को समान मार्ग बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण इसी कर्मयोग की स्थापना करने के लिये अवतरित हुए थे क्योंकि संभवतः उस काल में सांख्ययोग की प्रधानता थी और कर्मयोग की कोई सैद्धांतिक अवधारणा यहां प्रचलित नहीं हो पायी थी। आशय यह था कि लोग संसार को एकदम त्याग कर वन में चले जाते थे और संसार में रहते तो इतना लिप्त रहते थे कि उनको भगवत् भक्ति का विचार भी नहीं आता। लोग या तो विवाह वगैरह न कर ब्रह्म्चारी जैसा जीवन बिताते या इतने कामनामय हो जाते कि अपना सांसरिक जीवन ही चौपट कर डालते। कर्मयोग का सिद्धांत मध्यमार्गी और श्रेष्ठ है और इसकी स्थापना का पूर्ण श्रेय भगवान श्रीकृष्ण को ही जाता है।
बाबा प्रह्लाद जानी ने कम उमर में ही इस संसार के भौतिक पदार्थों का उपयोग त्याग दिया पर प्राणवायु लेते रहे। उनको बचपन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो गया पर उनको देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि योग साधना कोई बड़ी उमर में नहीं हो सकती। अनेक लोग उनकी कहानी सुनकर यह सोच सकते हैं कि हम उन जैसा स्तर प्राप्त नहीं कर सकते तो गलती पर हैं। दुर्वासा जी भोजन और जल करते थे पर उसमें लिप्त नहीं होते थे। वह आत्मा और देह को प्रथक देखते थे। मतलब यह कि हम जब खाते तो यह नहीं सोचना चाहिये कि हम खा रहे हैं बल्कि यह देखना चाहिये कि देह इसे खा रही है।
बात अगर इससे भी आगे करें तो हम विचार करते हुए देखें कि आंख का काम है देखना तो देख रही है, कानों का काम है सुनना तो सुन रहे हैं, टांगों का काम है चलना चल रही हैं, हाथों का काम करना तो करते हैं, मस्तिष्क का काम है सोचना तो सोचता है, और नाक का काम है सांस लेना तो ले रही है। हम तो आत्मा है जो कि यह सब देख रहे हैं।
बाबा प्रह्लाद जानी ने सब त्याग दिया सभी को दिख रहा है पर जिन्होंने बहुत कुछ पाया पर उसमें लिप्त नहीं हुए वह भी कोई कम त्यागी नहीं है। ऐसे कर्मयोगी न केवल अपना बल्कि इस संसार का भी उद्धार करते हैं क्योंकि जहां निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करने की बात आई वहां आपको इस संसार में जूझना ही पड़ता है।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ भारतीय दर्शन का महान प्रतीक हैं। उनसे विज्ञान हार गया पर भारतीय योग विज्ञान में ऐसे सूत्र हैं जिनको समझा जाये तो पश्चिमी विज्ञान का पूरा किला ही ध्वस्त हो जायेगा। बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से प्रेरणा लेना चाहिये। भले ही उनके सांख्ययोग के मार्ग का अनुसरण न करें पर कर्मयोग के माध्यम से इस जीवन को सहज बनाकर जीने का प्रयास करें।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anant-shabd.blogspot.com

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‘दीपक भारतदीप की हिन्दी-पत्रिका’ पर मूल रूप से लिखा गया है। इसके अन्य कहीं भी प्रकाशन की अनुमति नहीं है।
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समाज में राष्ट्रनिरपेक्षता का भाव लाना खतरनाक-हिन्दी लेख


संगठित प्रचार माध्यमों की-यथा टीवी, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा रेडियो- राष्ट्रनिरपेक्षता बहुत दुःखद और चिंताजनक है। कालांतर में जब वह इसके परिणाम देखेंगे तब उनको बहुत निराशा होगी। जब इन प्रचार माध्यमों को देश हित में किसी अभियान जारी करने की आवयकता प्रतीत होगी तब पायेंगे कि उनके पाठक तथा दर्शक तो राष्ट्रनिरपेक्ष हो चुके हैं और वह उनकी देशभक्ति अभियान से प्रभावित नहीं हो रहे । जिस तरह देश के कानून की धज्जियां उड़ाने वालों तथा अपने संदिग्ध आचरण से समाज को विस्मित करने वालों के दोषों को अनदेखा कर ‘किन्तु परंतु’ शब्दों के साथ उनकी उपलब्धियां यह प्रचार माध्यम गिना रहे हैं उस पर कभी हंसी आती है तो कभी निराशा लगती है।
जिस तरह लिखने वाले सभी लेखक नहीं हो पाते उसी तरह प्रचार माध्यमों में काम करने वाले भी सभी पत्रकार नहीं कहला सकते। जिस तरह सरकारी तथा निजी कार्यालयों में पत्र लिखने वाले लेखक लिपिक ही कहलाते हैं लेखक नहीं। उसी तरह पत्रकार वही है जो समाचार, विचार तथा प्रस्तुति में अपना प्रत्यक्ष मौलिक योगदान देता है-इसके इतर जो केवल समाचार का दर्शक या पाठक के बीच पुल का काम करते हैं पत्रकार नहीं हो सकते बल्कि उनकी भूमिका लिपिक से अधिक नहीं रह जाती। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक वह अपनी प्रस्तुति में अपने प्रयास से मौलिक उपस्थिति दर्ज नहीं कराते।
संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय अनेक महानुभाव तो अब लिपिकीय या उद्घोषक से अधिक भूमिका नहीं निभाते-हालांकि उनको इसके लिये पूरी तरह जिम्मेदारी ठहराना गलत है क्योंकि उनके अधिकारी भी उनसे ऐसी ही अपेक्षा करते हैं। जब हम प्रचार कर्म में लगे लोगों के कार्यक्रमों या समाचारों की मीमांसा कर रहे हैं तो उस पूरे समूह की ही जिम्मेदारी है जो उनके प्रसारण या प्रकाशन में लगा है।
अभी क्रिकेट की एक क्लबस्तरीय प्रतियोगिता को लेकर भारत शासन के कुछ विभागों ने कानून की अवहेलना को लेकर कार्यवाही प्रारंभ की है। उसमें एक प्रसिद्ध व्यक्ति की तरफ उंगलियां उठ रही हैं जिसके कार्यालय में आयकर का छापा पड़ चुका है-बताया जाता है कि पूर्व में प्रवर्तन निदेशालय भी उनसे जानकारी मांग चुका है। इसमें कोई शक नहीं क्रिकेट की यह क्लब स्तरीय न केवल कानूनी दांव पैंचों में फंसी है बल्कि एक टीम के खेल पर तो सट्टे वालों के दबाव में खेलने का भी शक पुलिस ने जताया है। जिस व्यक्ति को इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के आयोजन का श्रेय देकर श्रेष्ठ प्रबंधक का प्रशस्ति पत्र दिया जा रहा है उस पर नियम तोड़ने का आरोप है।
अब जरा प्रचार माध्यमों की उस व्यक्ति पर राय देखिए
‘भले ही उन पर आरोप लग रहे हैं पर सच यह है कि उन्होंने क्रिकेट के साथ मनोरंजन जोड़ने जैसा बड़ा काम कर दिखाया। उसको बड़े पर्दे के लोगों को जोड़ा।’
‘उसकी वजह से नये क्रिकेटरों को अवसर मिल रहा है।’
अब ऐसे प्रचार पर क्या कहा जाये? वह किसका महिमा मंडन कर रहे हैं और कैसे? 1983 में भारत ने विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता जीती उसके बाद यहां यह खेल स्वाभाविक रूप से अधिक प्रसिद्ध हो गया। लोग खेलने वाले कम देखने वाले अधिक थे। मगर यह खेल था इसलिये आयकर से छूट मिलती रही पर जब यह मनोरंजन जोड़ा गया तो वह छूट नहीं मिल सकती-यह बात संगठित प्रचार माध्यमों में हुई चर्चाओं के आधार पर लिखी जा रही है। अब तो अनेक लोग मानने लगे हैं कि यह क्रिकेट प्रतियोगिता खेल नहीं बल्कि मनोरंजन है। मनोरंजन पर करों का हिसाब अलग है। उसमें कई जगह पहले पैसा अग्रिम रूप से कम के रूप में जमा करना पड़ता है। जो खिलाड़ी खेल रहे हैं उन पर आयकर में शायद ही छूट मिल पाये। दूसरी बात यह कि आयकर नियमों के अनुसार तो नियोक्ता को ही अपने अधीन काम करने वाले व्यक्ति को मिलने वाली देय रकम पर आयकर की राशि कटौती कर जमा करना चाहिए। क्या उनके उस ऊंचे व्यक्तित्व के स्वामी प्रबंधक ने ऐसा किया? इस प्रतियोगिता में करोड़ों की आयकर चोरी का शक किया जा रहा है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि यह मैच राष्ट्रीय यह अंतर्राष्ट्रीय खेल का हिस्सा नहीं बल्कि मनोरंजन हैं इसलिये खिलाड़ियों तथा आयोजकों से ऐसे ही कर वसूलना चाहिये जैसे मनोरंजन उद्योग से वसूला जाता है।
हैरानी की बात है कि संगठित प्रचार माध्यम कानून के प्रावधानों को लेकर अपने निष्कर्ष निकलाने से बच रहे हैं या उनको इसका आभास नहीं है कि यह प्रकरण इतना संगीन है जहां चंद नये क्रिकेट खिलाड़ियों को मौका देने जैसा या उसमें मनोरंजन शामिल करने जैसा कार्य कोई महत्व नहीं रखता। हजारों करोड़ों के करचोरी के संदेह से घिरी यह प्रतियोगिता पचास से सौ खिलाड़ियों को अवसर देने के नाम पर कोई पवित्र नहीं हो जाती। वैसे क्या इससे पहले नये खिलाड़ियों को अवसर नहीं मिलते थे। देश की राजस्व की हानि एक बहुत बड़ा अपराध है।
किसी भी देश अस्तित्व उसके संविधान से होता है जिसके अनुसार चलने के लिये सरकार को धन की आवश्यकता होती है। यह धन सरकार अपनी ही प्रजा पर अप्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कर लगाकर वसूल करती है। इस प्रतियोगिता में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन आयोजित कर रहा है बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि मनोंरजन के रूप में चलने के बावजूद इसको कृषि की तरह करमुक्त नहीं माना जा सकता है। सुनने में आया है कि करों से बचने के लिये इसमें समाज सेवा जैसे शब्द भी जोड़े जा रहे। अभी तक यह पता नहीं चल पाया कि इस प्रतियोगिता से कहीं राजकीय तौर पर कर जमा किया गया या नहीं।
कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे कोई व्यक्ति कितना भी अच्छा प्रबंधक या समाज सेवक क्यों न हो अगर वह सार्वजनिक रूप से ऐसा प्रायोजन करते हैं जो कर के दायरे में और वह उससे बचते हैं तो उनकी प्रशंसा तो कतई नहीं की जा सकती। देश में कानून का पालन होना चाहिये यह देखना हर नागरिक का दायित्व है इसलिये उसे ऐसे तत्वों की प्रशंसा कभी नहीं करना चाहिये जो नियमों को ताक पर रखते हैं। अगर ऐसा नहंी करते तो यह राष्ट्रनिरपेक्ष का भाव है जो खतरनाक है। आज कितने भी अच्छे निष्पक्ष दिखने का प्रयास करें पर जब ऐसे व्यक्तित्वों की प्रशंसा में एक भी शब्द कहते हैं तो यह निष्पक्षता नहीं बल्कि निरपेक्षता है जिसका सीधा सबंध राष्ट्र की अनदेखी करना है। यह ठीक है कि अभी तक आरोप है और उनकी जांच होनी है पर जिस तरह प्रचार माध्यम उसे अनदेखा कर रहे हैं वह कोई उचित नहीं कहा जा सकता।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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चाणक्य संदेश-अपनी तारीफ खुद कभी न करें (apni tarif khud na karen-chankya niti in hindi)


अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचानेे या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा।

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प्रचार माध्यम देशनिरपेक्ष दिखने का प्रयास न करें-हिंदी लेख


प्रकाशन तथा अन्य संचार माध्यमों में विदेशी विनिवेश का अक्सर यह कहकर विरोध किया जाता है कि उनका इस देश के हितों से कोई सरोकार नहीं रहेगा। विदेशी पूंजीपति से सुजज्जित प्रचार और प्रकाशन संगठन देश के प्रति वफादारी नहीं दिखायेंगे? उस समय कुछ भोलेभाले बुद्धिजीवी देशभक्ति के भाव के कारण यह सुनकर चुप हो जाते हैं। मगर नक्सलवाद पर जिस तरह संगठित प्रचार माध्यमों का कथित निष्पक्ष रवैया है वह उनके देशभक्ति के भाव में निरपेक्षता दिखा रहा है और तब उनका यह तर्क खोखला दिखाई देता है कि विदेशी विनिवेशकों को देश के हितों से कोई सरोकार नहीं रहेगा अतः उनका आगमन प्रतिबंधित रखना चाहिये।
एक किस्सा है जिसे अधिकतर लोगों ने सुना होगा। एक लड़के द्वारा बार बार ‘शेर आया’ ‘शेर आया’ कहकर गांव के लोगों को  अनावश्यक रूप से पुकार कर एकत्रित किया जाता था। एक बार सच में शेर आया पर गांव वाले नहीं आये और वह उसे मारकर खा गया। इसे ध्यान रखना चाहिये। संगठित प्रचार माध्यमों जिस तरह कथित रूप से निष्पक्षता दिखाते हुए समाज और देश हित के प्रति निरपेक्षता दिखा रहे है उसके बाद उनको यह आशा नहीं करना चाहिये कि उनके द्वारा कभी किसी प्रसंग में सहानुभूति प्राप्त करने का अभियाना चलाया गया तो आम दर्शक या पाठक वैसे ही उपेक्षा कर सकता है जैसे कि गांव वालों ने लड़के के प्रति दिखाई थी। संगठित प्रचार माध्यम कुछ संस्थान लोगों के जज़्बातों से खेल रहे हैं और इसे हर आदमी जान चुका है। नक्सली हिंसा में सुरक्षाबल के जवानों की मौत पर जिस तरह की बातें की जाती हैं उससे लोगों में जो गुस्सा भरता है उसका अंदाजा संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय कुछ लोगों को नहीं है। वह आम आदमी तक खबर और दृष्टिकोण पहुंचाने की होड़ में इस बात को भूल जाते हैं कि उनके उपभोक्ता दर्शक और पाठकों के जज़्बात व्यवसायिक नहीं भावनात्मक होते हैं। ऐसे में किसी हिंसा के पक्ष या विपक्ष में तर्क कराने की बजाय आम आदमी की इकतरफा उग्र अभिव्यक्ति का प्रदर्शन करना चाहिये-आवश्यक हो तो व्यवस्था की नाकामी का प्रश्न उठाया जाये पर कम से कम हिंसक तत्वों के ऐजेंडे को इस तरह न  प्रस्तुत  किया जाये कि जैसे कि वह नायक हों।
विश्व भर में आतंकवाद एक व्यवसाय बन चुका है। जिस संगठित प्रचार माध्यम को इस पर असहमति हो वह अपने ही समाचारों का विश्लेषण कर ले क्योंकि इस लेखक का आधार भी वही हैं। कथित रूप से जो महान बुद्धिजीवी हैं उनको यह समझायें कि वह कल्पित जन कल्याण के नाम होने वाली हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। यह सच है कि जाति, भाषा, धर्म या क्षेत्र के नाम पर बने समूहों मे आपसी हिंसा होती है पर इसके लिये उनके स्वरूप नहीं बल्कि शिखर पुरुषों की आपसी रंजिशें जिम्मेदार होती हैं यह अलग बात है कि वह समाज हित की आड़ में अपने आपको निर्दोष साबित करने का प्रयास करते हैं।
आतंकवादियों को बड़े पैमाने पर धन मिलता है जिससे वह स्वयं ऐश करते हैं। अनेक स्थानों पर वह महिलाओं की देह से खिलवाड़ करने की खबरे छपती हैं। वह आधुनिक हथियार खरीदते है। उनके पास महंगी गाड़ियां हैं। भारत में अपराध कर विदेश भाग जाने की उनको सुविधा मिल जाती है। ऐसे हिंसक तत्वों के स्थानों पर जब शराब और जुआ के दौर चलने की खबरें इन्ही संगठित प्रचार माध्यमों द्वारा दी जाती है। तब गरीबों, आदिवासियों, मजदूरों तथा शोषकों के लिये उनके लड़ाई के दावे पर यकीन कैसे किया जा सकता है। आप किसी विषय पर चर्चा करते हुए निष्पक्ष रहें पर इस तरह नहीं कि देश के प्रति निरपेक्षता दिखाई दे।
इस संबठित प्रचार माध्यमों का एक तय प्रारूप है। उनहोंने आर्थिक, सामाजिक,राजनीतिक तथा सामरिक विषयों पर कुछ ऐसे विशेषज्ञों का पैनल बना रखा है जो एक निश्चित सीमा के बाहर ही अपने विषय से बाहर नहीं देख पाते। उनके पूरे विश्व में आ रहे परिवर्तनों का आभास तक नहीं है। इसलिये वह रटी रटाई बातें करते हैं। घटनाओं के स्थान तथा तारीख बदल जाती है पर उनके बयान नहीं बदलते। इसमें कोई संदेह नहीं है कि आजकल इन संगठित प्रचार माध्यमों की ताकत बहुत अधिक है।
कुछ माह पहले भारत तथा पाकिस्तान के दो प्रकाशन संस्थाओं ने दोनों देशों के बीच मैत्री भाव स्थापित करने का अभियान छेड़ा था। उस समय अंतर्जाल लेखको ने संदेह व्यक्त किया था कि अब यहां पाकिस्तान के लिये प्रायोजित मैत्री अभियान शुरु होगा। कुछ समय बाद वह दिखने लगा। भले ही वह दो संस्थान हैं पर यकीनन वह इस तरह दोनों देशों के-खासतौर से भारत के-बौद्धिक वर्ग के लोगों को अप्रत्यक्ष रूप से एक संदेश दे रहे थे। उसके बाद तो यहां एक तरह से पाकिस्तान के लिये सद्भाव के प्रचार का जो दौर शुरु हुआ उसमें 26/11 को मुंबई पर हुए हमले की यादें लोगों से विस्मृत करने की योजना के रूप में देखा गया। एक तो अभी शादी और तलाक का नाटक चला गया जिसमें यह बताने का प्रयास हुआ कि यह सब तो दोनों देशों के बदमाश करते हैं और आम आदमी को इससे कोई मतलब नहीं है। पाकिस्तानी क्रिकेट खिलाड़ियों को भारत में आयोजित एक क्लब स्तरीय प्रतियोगिता में नहीं बुलाया गया तो उस पर इन्हीं संगठित प्रचार माध्यमों ें कुछ ने तो शोक जैसा माहौल दिया। तय बात है कि इसके पीछे आर्थिक लाभ तथा सुरक्षा का कोई स्वार्थ है जिसे छिपाया जाता है, या फिर मन में यह भय है कि पाकिस्तान में रह रहे अपराधी कहीं उनकी पोल न खोल कर रख दें।
यह बातें इतना परेशान नहीं  करती अगर निरंतर जारी नक्सली हिंसा में देश के सुरक्षा कर्मियों की मौत के बाद भी देश के ही अंदर के इलाकों पर उनकी उपस्थिति पर आपत्ति नहीं दिखाई जाती। उन पर कल्पित आरोप लगाकर यही साबित करने से तो यही साबित  होता है कि कुछ लोगों की यह मजबूरी है कि वह देश निरपेक्ष दिखकर बाहर के लोगों को खुश रखें। भारत में अधिकतर समाचार पत्र पत्रिकाऐं तथा टीवी चैनलों में काम करने वाले व्यक्तित्व समझदार हैं और उनकी देशभक्ति पर शक नहीं किया जा सकता पर उनमें कुछ ऐसे हैं जिनको आत्ममंथन करना ही होगा कि कहीं  वह अनजाने में तो अपने ही देश के शत्रुओं के हाथ में नहीं खेल रहे। उनको किसी लाचारी या लालच में काम न करता हुआ दिखना है ताकि देश की आम पाठक तथा दर्शक उनकी तरफ सवाल न उछाले। सबसे बड़ी बात यह है कि उनको अपनी शक्ति का अहसास होना चाहिये कि वह अपने प्रयासों से देश को एक दिशा दे सकते हैं। उसी तरह उनके कुछ प्रसारणों तथा प्रकाशनों से देश का मनोबल गिरता हे। इसलिये वह इस बात का ध्यान रखें कि देश की रक्षा करने वाले तथा समाज का सच में हित चाहने वालें लोग उनके अनजाने में किये गये प्रयासों से आहत न हों। अपनी व्यवसायिक प्रतिष्ठा बनाने के लिये निष्पक्ष रहना आवश्यक है पर अगर वह राष्ट्रनिरपेक्ष रहने का प्रयास करेंगे तो उससे उनके उपभोक्ता दर्शक तथा    पाठक उनसे निंराश हो जायेंगे। जिसका कालांतर में उनके व्यवसायिक हितों पर ही प्रभाव पड़ेगा।

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बाज़ार प्रायोजित प्रेमलीला-हिन्दी व्यंग्य (sposord love drama-hindi comic satire article


बचपन में एक गाना सुनते थे कि ‘ऐ, मेरे वतन के लोगों, जरा आंख में भर लो पानी, जो शहीद हुए उनकी याद करो कुर्बानीं।’ यह गाना सुनकर वास्तव में पूरी शरीर रोमांचित हो उठता था। आज भी जब यह गाना याद आता है तो उस रोमांच की याद आती है-आशय यह है कि अब पहले रोमांच नहीं होता।
आखिर ऐसा क्या हो गया कि अब लगता है कि उस समय यह जज़्बात पैदा करने वाले गीत, संगीत या फिल्में समाज में कोई जाग्रति या देशभक्ति के लिये नहीं   बनी बल्कि उनका दोहन कर कमाई करना ही उद्देश्य था।
फिर क्रिकेट में देशभक्ति का जज़्बात जागा। जब देश जीतता तो दिल खुश होता और हारता तो मन बैठ जाता था। अब वह भी नहीं रहा। अब स्थिति यह है कि जिसे पूरा देश भारतीय क्रिकेट टीम यानि अपना प्रतिनिधि मानता है उसे अनेक अब एक भारतीय क्रिकेट नियंत्रण बोर्ड नामक एक क्लब की टीम ही मानते हैं जो व्यवसायिक आधार पर अपनी टीम बनाती है और आर्थित तंत्र के शिखर पुरुष उसके प्रायोजक मसीहा हैं। इसका कारण यह है कि अब देशों की सीमायें तोड़कर विदेशों से खिलाड़ी यहां बुलाकर देश के कुछ शहरों और प्रदेशों के नाम से क्लब स्तरीय टीमें बनायी जाती हैं। देश क्रिकेट पर पैसा खर्च कर रहा है, तो इस पर सट्टे खेलने और खिलाने वालों के पकड़े जाने की खबरे आती हैं जिसमें अरबों रुपये का दाव लगने की बात कही जाती है। आखिर यह पैसा भी तो इसी देश का ही है।
यह देखकर लगता है कि हम तो ठगे गये। अपना कीमती वक्त फोकट में इस बाजार और उसकी मुनादी करने वालों-संगठित प्रचार माध्यम-के इशारों पर क्रिकेट पर गंवाते रहे।
अब हो क्या रहा है। विश्व उदारीकरण के चलते बाजार देशभक्ति के भाव को खत्म कर वैश्विक जज़्बात बनाना चाहता है। भारतीय बाजार पर स्पष्टतः बाहरी नियंत्रण है। अगर पश्चिम में उसे पैसा सुरक्षित चाहिये तो मध्य एशिया में उसे भारत में ही अपने को मजबूत बनाने वाल संपर्क भी रखने हैं। अब बात करें पाकिस्तान की। पाकिस्तान एक देश नहीं बल्कि एक उपनिवेश है जिस पर पश्चिमी और मध्य एशियों के समृद्धशाली देशों का संयुक्त नियंत्रण है। स्थिति यह है कि जब देश के हालत बिगड़ते हैं तो उसकी सरकार अपनी सेना के साथ बैठक ही मध्य एशिया के देश में करती है। अगर किसी गोरे देश की टीम पाकिस्तान नहीं जाना चाहती तो वह उसका कोटा मध्य एशिया के देश में खेलकर पूरा करती है। यह क्रिकेट एक और दो नंबर के व्यवसायियों के लिये अरबों रुपये का खेल हो गया है और अरब देश तेल के अलावा इस पर भी अपनी पकड़ रखते हैं। मध्य एशिया इस समय अवैध, अपराधिक तथा दो नंबर के धंधों का केंद्र बिन्दू हैं अलबत्ता कथित रूप से अपने यहां धर्म के नाम पर कठोर कानून लागू करने का दावा करते हैं पर यह केवल दिखावा है। अलबत्ता समय समय पर आम आदमी को इसका निशाना बनाते हैं। अभी दुबई में अवैध कारोबार में लगे 17 भारतीयों को इसलिये फांसी की सजा सुनाई गयी है क्योंकि उन पर एक पाकिस्तानी की हत्या का आरोप है। इसको लेकर भारत में जो प्रतिक्रिया हुई है वह ढोंग के अलावा कुछ नहीं दिखती। दुबई को भारतीय बाजार से ही ताकत मिलती है। उसके भोंपू-संगठित प्रचार माध्यम-उनको बचाने के लिये पहल कर रहे हैं। अगर वाकई भारतीय अमीर और उनके प्रचारक इतने संवदेनशील हैं तो वह दुबई की सरकार पर सीधे दबाव क्यों नहीं डालते? पीड़ितों को कानूनी मदद के नाम वहां की अदालतों में पेश होने से कोई लाभ नहीं होगा। हद से हद आजीवन कारावास हो जायेगा। अगर भारतीय प्रचार तंत्र में ताकत है तो वह क्यों नहीं पूछता कि ‘आखिर तुम्हारे यहां यह अवैध धंधा चल कैसे रहा था, तुम तो बड़े धर्मज्ञ बनते हो।’
प्रसंगवश याद आया कि एक स्वर्गीय प्रगतिशील नाटककार की पत्नी भी वहां नाटक पेश करने गयी थी। उसमें वहां के धर्म की आलोचना शामिल थी। इसके फलस्वरूप उसे पकड़ लिया गया। पता नहीं उसके बाद क्या हुआ? उस समय यहां के लोगों ने कोई दबाव नहंी डाला। उस प्रगतिशील नाटककारा से सैद्धांतिक रूप से सहमति न भी हो पर उसके साथ हुए इस व्यवहार की निंदा की जाना चाहिये थी पर ऐसा नहीं हुआ।
एक बात तय है कि भारतीय धनाढ्य एक हो जायें तो यह मध्य एशिया के देश घुटनों के बल चलकर आयेंगे। कभी सुना है कि किसी अमेरिकी या ब्रिटेनी को को मध्य एशिया में पकड़ा गया है। इसके विपरीत यहां की आर्थिक, सामाजिक तथा प्रचार शक्तियां तो मध्य एशिया देशों से खौफ खाती दिखती हैं। स्थित यह है कि उनको प्रसन्न करने के लिये उनके पाकिस्तान नामक उपनिवेश से भी दोस्ताना दिखाने लगी हैं।
अभी हाल ही में भारत की एक महिला टेनिस खिलाड़ी और पाकिस्तान के बदनामशुदा क्रिकेट खिलाड़ी की शादी को लेकर जिस तरह भारतीय प्रचार माध्यमों ने निष्पक्षता दिखाने की कोशिश की वह इस बात का सबसे बड़ा प्रमाण बनने जा रहा है कि भारतीय बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों के लिये देशभक्ति तथा आतंकवाद एक बेचने वाला मुद्दा है और उनके प्रसारणों को देखकर कभी जज़्बात में नहीं बहना चाहिये। पाकिस्तानी दूल्हे के बारे में किसी भी एक चैनल ने यह नहीं कहा कि वह दुश्मन देश का वासी है।
उस पर प्रेम का बखान! अगर भारतीय दर्शन की बात करें तो उसमें प्रेम तो केवल अनश्वर परमात्मा से ही हो सकता है। उसके बाद भी अगर उर्दू शायरों के शारीरिक इश्क को भी माने तो वह भी पहला ही आखिरी होता है। किसी ने शादी तोड़ी तो किसी ने मंगनी-उसमें प्रेम दिखाते यह प्रचार माध्यम अपनी अज्ञानता ही दिखा रहे हैं। वैसे इस शादी होने की भूमिका में बाजार और प्रचार से जुड़े अप्रत्यक्ष प्रबंधकों की क्या भूमिका है यह तो बाद में पता चलेगा। उनकी संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता क्योंकि क्रिकेट और विज्ञापनों का मामला जुड़ा है। फिर मध्य एशिया में उनके रहने की बात है। इधर एक चित्रकार भी भारत ये पलायन कर मध्य एशिया में चला गया है। कभी कभी तो लगता है कि मध्य एशिया के देश अपने यहां प्रतिभायें पैदा नहीं कर पाने की खिसियाहट भारत से लेकर अपने यहां बसाने के लिये तो लालायित नहीं है-हालांकि यह एक मजाक वाली बात है ।
एक बात दिलचस्प यह है कि क्रिकेट खिलाड़ियों को आस्ट्रेलिया में ही प्रेमिका क्यों मिलती है? क्या वहां कोई ऐसा तत्व या स्थान मौजूद है जो क्रिकेट खिलाड़ियों को प्रेमिकायें और पत्नी दिलवाता है-संभव है अन्य क्षेत्रों से जुड़े लोगों को इच्छित जीवन साथी भी वहां मिलता हो। इसका पता लगाना चाहिये। एक भारतीय खिलाड़ी को भी वहीं प्रेमिका मिली थी जिससे उसकी शादी संभावित है। अपने देश के महान स्पिनर ने भी वहीं एक युवती से विवाह किया था। इसकी जानकारी इसलिये भी जरूरी है कि भारत में अनेक लड़के इच्छित रूप वाली लड़की पाने के लिये तरस रहे हैं इसलिये कुंवारे घूम रहे हैं। इधर कुछ लोग कह रहे हैं कि छोटे मोटे विषयों पर पढ़ने के लिये आस्ट्रेलिया जाने की क्या जरूरत है? ऐसे युवकों वहां इस बजाने जाने का अवसर मिल सकता है कि वहां सुयोग्य वधु पाने की कामना पूरी हो सकती है।
बहरहाल बाज़ार और उसके प्रचार माध्यमों का रवैया यह सिद्ध कर रहा है कि उनके देशभक्ति, समाज सेवा, धर्म और भाषा के संबंध में कोई स्पष्ट रवैया नहीं है और ऐसे में आम आदमी उनके अनुसार जरूर बहता रहे पर ज्ञानी लोग अपने हिसाब से मतलब ढूंढते रहेंगे। एक पाकिस्तानी दूल्हे को जिस तरह इस देश में मदद मिल रही है उससे आम लोगों में भी अनेक तरह के शक शुबहे उठेंगे। 26/11 को मुंबई में हुए हमलों में जिस तरह रेल्वे स्टेशन पर कत्लेआम किया गया उससे इस देश के लोगों का मन बहुत आहत हुआ। बाज़ार और उसके प्रचार माध्यम एक पाकिस्तानी दूल्हे पर जिस तरह फिदा हैं उससे नहीं लगता कि वह आम लोगों के जज़्बात समझ रहे हैं। कोई भारतीय लड़की किसी पाकिस्तानी से शादी करे, इसमें आपत्ति जैसा कुछ नहीं है पर जब ऐसी घटनायें हैं तब दोनों देशो में तनाव बढ़ेगा और इससे दोनों देशों के आम लोगों पर प्रभाव पड़ता है। अलबत्ता क्रिकेट और अन्य खेलों के विज्ञापन माडलों पर इसका कोई असर नहीं पड़ सकता क्योंकि उनको बाज़ार और प्रचार अपनी शक्ति से सहारा देता है। सीधे पाकिस्तान से नहीं तो मध्य एशिया के इधर से उधर यही बाज़ार करता है। पिछली बार जब पाकिस्तान से संबंध बिगड़े थे तब यही हुआ था। आम आदमी की ताकत नहीं थी पर अमीर लोग मध्य एशिया के रास्ते इधर से उधर आ जा रहे थे।
कहने का अभिप्राय यह है कि देशभक्ति जैसे भाव का इस बाज़ार और प्रचार तंत्र के लिये कोई तत्व नहीं है जब तक उससे उनका हित नहीं सधता हो।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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वह दिल बदल लेते हैं-हिन्दी शायरी (vah dil badal lete hain-hindi shayri)


किसी के एक चेहरे की
एक अदा पर यकीन न किया करो
बाज़ार के सौदागरों के इशारों पर
अदाकार कभी मुखौटे तो कभी अदायें बदल लेते हैं।
तुम अपने जज़्बातों पर काबू रखो
जुबां से भले ही तारीफ करो
पर दिल मत लगाओ उनकी अदाओं में
वक्त पड़े तो वह दिल भी बदल लेते हैं।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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पतंजलि योग का संस्कार बोध


श्रुतानुमानप्रज्ञाभ्यामन्यविषया विशेषार्थत्वात्।।
तज्जः संस्कारऽप्रतिबन्धी।।
हिन्दी में भावार्थ-
सुनने अथवा अनुमान से होने बुद्धि की अपेक्षा उस बुद्धि का विषय भिन्न है क्योंकि वह विशेष अर्थ वाली है। उससे उत्पन्न होने वाला संस्कार अन्य संस्कार का बोध कराने वाला होता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-मनुष्य का बौद्धिक विकास उसके सांसरिक अनुभवों के साथ बढ़ता जाता है। बुद्धि अनेक रूपों में काम करती है या कहें कि उसके अनेक रूप हैं। मनुष्य किसी की बात सुनकर या अपने अनुमान से किसी विषय पर विचार कर निष्कर्ष पर पहुंचता है। उसी तरह उसके व्यवहार से दूसरा भी उसके व्यक्तित्व पर अपनी राय कायम करता है। इनसे अलग एक तरीका यह भी है कि जब मनुष्य अपने संस्कार का प्रदर्शन करता है तो उससे अन्य संस्कारों का भी बोध होता है। कोई मनुष्य शराब या जुआखाने में जाता है तो उसके विषय में अन्य लोग यह राय कायम करते हैं कि वह ठीक आदमी नहीं है और उसका जीवन तामसी कर्म से भरा हुआ होगा। उसके परिवार के लोग ही उससे प्रसन्न नहीं होंगे। वह सम्मान का पात्र नहीं है।
उसी तरह कोई मनुष्य मंदिर जाता है या कहीं एकांत में साधना करता है तो उसके बारे में यह राय कायम होती है कि वह भला आदमी है और अपने से संबद्ध लोग उसका सम्मान करते होंगे। उसके पास ज्ञान अवश्य होगा। कहने का अभिप्राय यह है कि अगर समाज में अपनी छबि बनानी है तो उसके लिये मनुष्य को अपने कर्म भी सात्विक रखना चाहिये। व्यसनों में लिप्त रहते हुए उसे यह आशा नहीं करना चाहिये कि लोग उसका हृदय से सम्मान करेंगे। उसी तरह किसी दूसरे मनुष्य पर अपनी राय कायम करते हुए उसकी दिनचर्या में प्रकट होने वाले संस्कारों का अध्ययन करना चाहिये। पतंजलि योग दर्शन मे इस तरह का संदेश इस बात का प्रमाण भी है कि योग केवल योगासन या प्राणायम ही नहीं है बल्कि जीवन को संपूर्णता से जीने का एक तरीका है।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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शराबखाने का रास्ता दिखाया-हिन्दी हास्य कविताएँ


उन्होंने पूछा था अपने दोस्त से
खुशियां दिलाने वाली जगह का पता
उसने शराबखाने का रास्ता दिखाया,
चलते रहे मदहोश होकर उसी रास्ते
संभाला तब उन्होने होश
जब अस्पताल जाकर
बीमारों में अपना नाम लिखाया।
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रबड़ के चार पहियों पर सजी कार
विकास का प्रतीक हो गयी है,
चलते हुए उगलती है धुआं
इंसान बन गया मैंढक
ढूंढता है जैसे अपने रहने के लिये कुआं,
ताजी हवा में सांस लेती जिंदगी
अब अतीत हो गयी है।
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हमने उनसे पूछा कदाचार के बारे में
उन्होंने जमाने भर के कसूर बताये,
भरी थी जेब उनकी भी हरे नोटों से
जो उन्होंने ‘ईमादारी की कमाई‘ जताये।
मान ली उनकी बात तब तक के लिये
जब तक उनके ‘चेहरे’
रंगे हाथ कदाचार करते पकड़े नज़र नहीं आये।
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कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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बाज़ार और ख्वाब-हिन्दी हास्य कविता (bazar aur khavab-hasya kavita in hindi)


बाजार में सजे हैं ढेर सारे ख्वाब
पैसे से ही खरीदे जायेंगे।
एक के साथ एक मुफ्त के दावे
हर शय के दाम में ही छिपे पायेंगे।
एक बार जेब से पैसा निकला
तब ख्वाब हकीकत बनेंगे
शयों के कबाड़ हो जाने पर
दर्द दुगुना बढ़ायेंगे।
इतना तेज मत दौड़ो कि
खुद ही हांफने लगें।
हवस और ख्वाबों की भूख कभी नहीं मिटती,
दौलतमंदों की चालें कभी नहीं पिटती,
अपनी औकात पहचानकर
खुली आंखों से उतने ही देखो सपने
जो पूरे होते लगें।
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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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उँगलियों का खेल-हिंदी हास्य व्यंग्य


इधर भारत में चल रही एक क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता की वजह से अपने ब्लाग पिटने लगे हैं। यह बुरी स्थिति है। क्रिकेट के एक दिवसीय या टेस्ट मैच हैं तो उसी दिन ही ब्लाग पिटते हैं जिस दिन मैच होता है पर क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता में रोज मैच होने की वजह से यह स्थिति आ जाती है कि ब्लाग की पाठक संख्या में 40 से 50 प्रतिशत गिरावट दर्ज होती है। जब भारत का कोई मैच होता है तब यह गिरावट दुःखदायी नहीं लगती क्योंकि लगता है कि बाज़ार देश प्रेम बेच रहा है और अगर कुछ लोग उसमें फंस जाते हैं तो कोई बात नहीं। सभी तो ज्ञानी ध्यानी हो नहीं सकते कि इस बात को समझें कि देशप्रेम भी अब बाजार के सौदागरों के लिये बेचने वाली चीज हो गयी है। मगर यह क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के मैचों में तो बाजार के सौदागरों पर ऐसा कोई आरोप नहीं लगाया जा सकता। वह तो शुद्ध रूप से इसे सर्कस की तरह चला रहे हैं फिर भी लोग इसमें इतने व्यस्त हो गये हैं तब लगता है कि वाकई यहां रचनात्मक कार्य करने वालों के लिये कोई जगह नहंी है पर जब बची हुई पाठक संख्या को देखते हैं तो इस बात का दर्द कम हो जाता है और यह यह सोचकर संतोष कर लेते हैं कि पूरा देश अज्ञान के अंधेरे में नहीं भटक रहा। सबसे अधिक अफसोस इस बात का है कि इस देश के लोगों का चालीस प्रतिशत से अधिक वर्ग बाज़ार और उसके द्वारा स्थापित प्रचार तंत्र के प्रचार की जद में है-हां, ब्लाग पर इतनी ही पाठक संख्या की गिरावट दर्ज की गयी है। खुशी इस बात की है कि साठ प्रतिशत भाग अभी भी स्वतंत्र रूप से सोचता है और वह क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के जाल में नहीं फंसा।
दरअसल लोग हमेशा मनोरंजन चाहते हैं और वह जो उन्हें बैठे ठाले आंखों के सामने प्रकट हो जाये या उनकी उंगली के इशारे के आदेश पर ही सामने दृश्य चले। यहां हर आदमी उंगलियों के इशारे सभी को नचाने का ख्वाब देखता है और ऐसे में उसे रिमोट, माउस तथा मोबाइल जैसे साधन खिलौने की तरह मिल गये हैं। इन पर उंगलियां दबाने से जो दबाव दिमाग पर पड़ता है और उससे शरीर पर उसका क्या दुष्प्रभाव होता है यह अब स्वास्थ्य विशेषज्ञ बताने लगे हैं। एक लड़की रोज अनेक एस. एम. एस. संदेश भेजती थी और नतीजा यह रहा कि उसकी उंगलियों ने काम करना बंद कर दिया।
इस लेखक ने कई बार देखा है कि मोबाइल, रिमोट तथा माउस पर उंगलियों दबाने से दिमाग पर काफी दबाव पड़ता है तब सोचते हैं कि पता नहीं कैसे लोग इससे इतना चिपके रहते हैं। लोग टीवी पर रिमोट से कार्यक्रम बदल कर खुश होते हैं कि आसानी से मनोंरजन मिल रहा है। कंप्यूटर पर भी जो बैठते हैं वह केवल माउस से ही काम चलाते हैं। इधर बड़े बड़े चैनल भी लोगों को एस. एम. एस. करने के लिये प्रेरित करते रहते हैं। लोग हैं कि उसमें व्यस्त हो जाते हैं। अगर हम यह कहें कि लोग एक तरह से अपनी उंगलियों के द्वारा ही अपने शरीर से खिलवाड़ कर रहे हैं तो गलत नहीं होगा। यह हमारा नहीं बल्कि स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है।
एक सवाल यह है कि आखिर लोग क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता को क्यों देख रहे हैं? दरअसल मनोरंजन के लिये उत्सुक लोगों के लिये बाजार के सौदागरों तथा उनके प्रचार प्रबंधकों ने अधिक अवसर छोड़े ही नहीं हैं। जब भारत में निजी चैनलों का प्रवेश हो रहा था उसी समय ही दूरदर्शन पर कार्यक्रमों का स्तर एकदम गिर गया था। हालत यह हो गयी थी कि शनिवार और रविवार को भी कार्यक्रम अच्छे नहीं दिखते थे। उस समय मंडी हाउस क्या कर रहा था, कुछ पता नहीं जबकि वह देश मनोरंजन कार्यक्रमों के निर्धारण के लिये के लिये एक केंद्र बिंदु था-प्रसंगवश उसके मुखिया हिन्दी भाषा के एक विद्वान ही थे। नतीजा यह रहा कि निजी टीवी चैनल छा गये। इन चैनलों ने कार्यक्रम अच्छे प्रस्तुत किये पर जल्द ही उनकी कमाई जरूरत से ज्यादा हो गयी। अब बाजार के बंधक हो गये हैं। इसलिये वह बाजार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रमों को जनता के समक्ष लाने के लिये अपने कार्यक्रमों का स्तर गिरा रहे हैं। मनोरंजन और समाचार चैनलों में कोई अधिक अंतर नहीं  रहा है। मनोरंजन चैनलों के हास्य कार्यक्रमों में भी क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता का नाम किसी न किसी रूप में लिया जाता है ताकि उसके दर्शक जरूर याद रखें। मतलब वह मनोंरजन चैनल जो कि क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता का सीधा प्रसारण नहंी करते वह भी इस बात के लिये तैयार रहते हैं कि उनका दर्शक अगर वह मैच नहीं देखता तो जाकर देखे। यह कोई त्याग नहीं बल्कि बाजार और प्रचार तंत्र के अटूट संबंधों का प्रमाण है।
लोगों के पास इंटरनेट है पर उन्होंने उसे मनोरंजन के साधन के रूप में लिया है इसलिये हिन्दी के पाठक कम ही मिलते हैं पर जब क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता चलती है तब उनमें संख्या कम तो हो ही जाती है। लोग माउस से कष्ट उठाने से बच जाते हैं क्योंकि यह काम वह टीवी पर रिमोट के जरिये करते हैं। इस तरह रिमोट, माउस और मोबाइल के बीच में भारतीय समाज अपनी उंगलियां फंसाए हुए है। इन तीनों का अविष्कार अमेरिका की देन है जिसके स्वास्थ्य विशेषज्ञ लगातार अपनी उंगलियां बचाने के लिये सुझाव दे रहे हैं कि ऐसा काम करो जिससे दोनों हाथ सक्रिय रहे। यह काम तो केवल ब्लाग लेखन से ही हो सकता है। गनीमत हम यही कर रहे हैं अलबत्ता अनेक बार दूसरी वेब साईटें देखने के लिये माउस का सहारा लेते हैं पर अब सोच रहे है कि गूगल के फायरफाक्स के जरिये दोनों हाथों की सक्रियता से ही यह काम करें और अधिक से अधिक टेब और बैक स्पेस से काम करें। टीवी और क्लब स्तरीय क्रिकेट प्रतियोगिता के मैचों से इतना उकता गये हैं कि इंटरनेट के अलावा कोई दूसरा साधन हमारे समझ में ही नहीं आता। यह तो अपने गुरुजनों के आभारी है कि उन्होंने हमारे अंदर लेखक को स्थापित कर दिया जिससे यहां लिखने का मजा लेते हैं वरना तो बेकार में उंगलियों के सहारे माउस पर नाच रहे होते।

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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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आशिक, माशुका और नववर्ष-हास्य कविता (ashiq, mashuka and new year-hasya kavita in hindi)


आशिका और माशुका ने मिलकर

अपने एकल और युगल ब्लाग पर

खूब पाठ लिखे,

कभी सप्ताह भर तो

कभी माह बाद दिखे

साल भर कर ली जैसे तैसे लिखाई।

दोनों अपने एकल ब्लाग पर दिखते थे,

साल के नंबर वन के ब्लागर का

खिताब पाने की दोनों को ललक थी

पर कहीं सामुदायिक ब्लागर पर भी

दाव चल जाये इसलिये

युगल ब्लाग भी लिखते थे,

कभी प्यार तो, कभी व्यापार पर तो,

कभी नारीवाद पर भी की खूब लिखाई।

जैसे तैसे वर्ष निकला

नव वर्ष के पहले दिन ही

सुबह आशिक ब्लागर ने

माशुका के फोन की घंटी बजाई।

नींद से उठी माशुका ने भी ली अंगड़ाई।

उधर से आशिक बोला

‘नव वर्ष की हो बधाई’,

माशुका ने बिना लाग लपेटे के कहा

‘छोड़ो सब यह बेकार की बात

यह तो ब्लाग पर ही लिखना,

अब तो नंबर वन के लिये कोशिश करते दिखना,

बहुत जगह बंटेंगे पुरस्कार

इसलिये तुम मेरा ही नाम आगे करना,

मैंने दूसरे लोगों से भी कहा है

वह भी मेरे लिये वोट जुटायेंगे

लग जाये शायद मेरे हाथ कोई इनाम

जब लोग लुटायेंगे,

वैसे तुम अपने नाम की कोशिश मत करना

क्योंकि हास्य कविताओं के कारण

तुम्हारी छवि अच्छी नहीं है

तुम्हारा मन न खराब हो

इसलिये तुम्हें यह बात नहीं बताई।’

आशिक बोला-

‘अरे, यह क्या चक्कर है

मैंने तुम्हें पास से कभी नहीं देखा

फोटो देखकर ही पहचान बनाई,

अब तुम कैसी कर रही हो चतुराई।

क्या इसी नंबर वन के लिये

तुमने यह इश्क की महिमा रचाई।

मैं लिखता रहा पाठ पर पाठ

तुमने वाह वाह की टिप्पणी सजाई।

अब आया है इनाम का मौका तो

मुझे अपनी औकात बताई।

वैसे तुमने भी क्या लिखा है

सब कूड़े जैसा दिखा है

शुक्र समझो मेरी टिप्पणियों में बसे साहित्य ने

तुम्हारे पाठ की शोभा बढ़ाई।

अब मुझे अपना हरकारा बनने के लिये

कह रहे हो

तुम ही क्यों नहीं मेरा नाम बढ़ाती

करने लगी हो मुझसे नंबर वन की लड़ाई।’

सुनकर माशुका भड़की

‘बंद करो बकवास!

तुमसे अधिक टिप्पणियां तो

मेरे ब्लाग पर आती हैं

तुम्हारी साहित्यक टिप्पणियों पर

मेरी सहेलियों ने मजाक हमेशा उड़ाई।

वैसे तुम गलतफहमी में हो

तुम जैसे कई पागल फिरते हैं अंतर्जाल पर

मैंने सभी पर नज़र लगाई।

एक नहीं सैंकड़ों मेरे नंबर वन के लिये लड़ेंगे

सभी तमाम तरह से कसीदे पढेंगे,

तुम अपना फोन बंद कर दो

भूल जाओ मुझे

तुम्हारे बाद वाले का  भी फोन आयेगा

वही मेरी नैया पार लगायेगा

तुम चाहो तो बन जाओ भाई।’

माशुका ब्लागर ने फोन पटका उधर

 इधर आशिक ब्लागर  आसमान की तरफ

आंखें कर लगभग रोता हुआ बोला

‘हे सर्वशक्तिमान यह क्या किया

इश्क  रचा तो  ठीक

पर नववर्ष की परंपरा क्या बनाई,

जिससे  इश्क में मैंने पाई विदाई।।

 


नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता मनोरंजन की दृष्टि से लिखी गयी है। इसक किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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जैसे लोग वफा खरीद लेते हैं-हिन्दी शायरी


अपने शब्दों से वह
हमारे दिल में कांटे चुभोते रहे,
हमने खामोशी अख्तियार कर ली
यह सोचकर कि समय और हालत
इंसान को बेवफा बना देते हैं।
जब होगी खरीदने की ताकत
हम भी खरीद लेंगे उनको
जैसे लोग वफा खरीद लेते हैं।
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प्यार के कितने पैगाम उनको भेजे
पर जवाब कभी नहीं आया।
जो झांककर देखा उनकी जिंदगी में
अपने लिये कोई रिश्ता वहां नहीं पाया।
———
अपने घर की तंगहाली
और दिल की बदहाली का
बयान किससे करें
सभी को परेशान हाल देखा है हमने।
तोला जो जिंदगी का हिसाब तराजू में
हमसे अधिक लोगों को घेरा था गम ने।

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