Category Archives: हिंदी

भर्तृहरि नीति शतक-जागरुक लोग अपने अपमान का बदला लेते है


सवल्पस्नायुवशेषमलिनं निर्मासमप्यस्थिगोः श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये।

सिंहो जम्बुकंकमागतमपि त्यकत्वा निहन्ति द्विपं सर्वः कृच्छ्रगतोऽप वांछति जनः सत्तवानुरूपं फलम्।।

हिन्दी में भावार्थ-जिस तरह कुत्ता थोड़े रस और चरबी वाली हड्डी पाकर प्रसन्न हो जाता है किन्तु सिंह समीप आये भेड़िए को छोड़कर भी हाथी के शिकार की मानता करता है। हाथी का शिकार करने पर ही उसे संतुष्ट प्राप्ति होती है।

यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलित सवितुरिनकान्तः।

तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिं कथं सहते?।।

हिन्दी में भावार्थ-जैसे सूर्य की किरणों से जड़ सूर्यकांतमणि जल जाती वैसे ही चेतन और जागरुक पुरुष भी दूसरे लोगों के अपमान को सहन न कर उसका प्रतिकार करते हैं।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर व्यक्ति अपनी क्षमता और बुद्धि के अनुसार अपने लक्ष्य तय करता है। जिन लोगों की  अध्यात्मिक ज्ञान में रुचि नहीं होती वह केवल धन और माया के फेर में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। दान, धर्म परोपकार तथा सभी जीवों के प्रति उदारता के भाव का उनमें अभाव होता है। उनका एक ही छोटा लक्ष्य होता है अधिक से अधिक धन कमाना।  इसके विपरीत जो ज्ञानी और बुद्धिमान पुरुष होते हैं वह सांसरिक कार्य करते हुए न केवल अध्यात्मिक ज्ञान तथा सत्संग से अपने हृदय की शांति का प्रयास करते हैं तथा  साथ ही दान और परोपकार के कार्य कर समाज को भी संतुष्ट करते हैं।  उनका लक्ष्य न केवल धन कमाना बल्कि धर्म कमाना भी आता है।  उनकी रुचि अपने नियमित व्यवसायिक कार्यों के अलावा ज्ञान अर्जित करना भी होती है।  देखा जाये तो धन तो हरेक कोई कमा रहा है। हर कोई खर्च भी करता है पर फिर भी कुछ लोग अपने व्यवहार की वजह से समाज में लोकप्रिय होते हैं और कुछ अपने स्वार्थों के कारण बदनाम हो जाते हैं।

अक्सर वार्तालाप में लोग एक दूसरे को अपमानित करते हैं। यह अच्छी बात नहीं है।  एक बात याद रखें कि कोई व्यक्ति अगर अपमानित होकर चुप हो गया तो यह नहीं समझ लेना चाहिये कि वह डर गया।  हो सकता है कि वह आंतरिक रूप से गुण धारण करता हो और समय आने पर अपना बदला ले।  तेजस्वी पुरुष ज्ञानी होते हैं। अपमानित किये जाने पर समय और हालात देख चुप हो जाते हैं पर समय आने पर अपने विरोधी को चारों खाने चित्त करते हैं।  यह बात भी याद रखने लायक है कि यह प्रक्रिया केवल तत्वज्ञानियों द्वारा ही अपनायी जा सकती है।  अल्पज्ञानी तो थोड़ी थोड़ी बात पर उत्तेजित होकर अपने गुस्से को ही नष्ट करते हैं जबकि ज्ञानी समय आने पर अपने तेज को प्रकट करते हैं।  इसलिये अपने संपर्क में आने वाले व्यक्तियों के गुण अवगुण देखकर व्यवहार करना चाहिए। इसके अलावा समय आने पर अपने अपमान का बदला अवश्य लेना चाहिए। 

संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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समाज में राष्ट्रनिरपेक्षता का भाव लाना खतरनाक-हिन्दी लेख


संगठित प्रचार माध्यमों की-यथा टीवी, समाचार पत्र पत्रिकायें तथा रेडियो- राष्ट्रनिरपेक्षता बहुत दुःखद और चिंताजनक है। कालांतर में जब वह इसके परिणाम देखेंगे तब उनको बहुत निराशा होगी। जब इन प्रचार माध्यमों को देश हित में किसी अभियान जारी करने की आवयकता प्रतीत होगी तब पायेंगे कि उनके पाठक तथा दर्शक तो राष्ट्रनिरपेक्ष हो चुके हैं और वह उनकी देशभक्ति अभियान से प्रभावित नहीं हो रहे । जिस तरह देश के कानून की धज्जियां उड़ाने वालों तथा अपने संदिग्ध आचरण से समाज को विस्मित करने वालों के दोषों को अनदेखा कर ‘किन्तु परंतु’ शब्दों के साथ उनकी उपलब्धियां यह प्रचार माध्यम गिना रहे हैं उस पर कभी हंसी आती है तो कभी निराशा लगती है।
जिस तरह लिखने वाले सभी लेखक नहीं हो पाते उसी तरह प्रचार माध्यमों में काम करने वाले भी सभी पत्रकार नहीं कहला सकते। जिस तरह सरकारी तथा निजी कार्यालयों में पत्र लिखने वाले लेखक लिपिक ही कहलाते हैं लेखक नहीं। उसी तरह पत्रकार वही है जो समाचार, विचार तथा प्रस्तुति में अपना प्रत्यक्ष मौलिक योगदान देता है-इसके इतर जो केवल समाचार का दर्शक या पाठक के बीच पुल का काम करते हैं पत्रकार नहीं हो सकते बल्कि उनकी भूमिका लिपिक से अधिक नहीं रह जाती। इसमें सुधार तब तक नहीं हो सकता जब तक वह अपनी प्रस्तुति में अपने प्रयास से मौलिक उपस्थिति दर्ज नहीं कराते।
संगठित प्रचार माध्यमों में सक्रिय अनेक महानुभाव तो अब लिपिकीय या उद्घोषक से अधिक भूमिका नहीं निभाते-हालांकि उनको इसके लिये पूरी तरह जिम्मेदारी ठहराना गलत है क्योंकि उनके अधिकारी भी उनसे ऐसी ही अपेक्षा करते हैं। जब हम प्रचार कर्म में लगे लोगों के कार्यक्रमों या समाचारों की मीमांसा कर रहे हैं तो उस पूरे समूह की ही जिम्मेदारी है जो उनके प्रसारण या प्रकाशन में लगा है।
अभी क्रिकेट की एक क्लबस्तरीय प्रतियोगिता को लेकर भारत शासन के कुछ विभागों ने कानून की अवहेलना को लेकर कार्यवाही प्रारंभ की है। उसमें एक प्रसिद्ध व्यक्ति की तरफ उंगलियां उठ रही हैं जिसके कार्यालय में आयकर का छापा पड़ चुका है-बताया जाता है कि पूर्व में प्रवर्तन निदेशालय भी उनसे जानकारी मांग चुका है। इसमें कोई शक नहीं क्रिकेट की यह क्लब स्तरीय न केवल कानूनी दांव पैंचों में फंसी है बल्कि एक टीम के खेल पर तो सट्टे वालों के दबाव में खेलने का भी शक पुलिस ने जताया है। जिस व्यक्ति को इस क्लब स्तरीय प्रतियोगिता के आयोजन का श्रेय देकर श्रेष्ठ प्रबंधक का प्रशस्ति पत्र दिया जा रहा है उस पर नियम तोड़ने का आरोप है।
अब जरा प्रचार माध्यमों की उस व्यक्ति पर राय देखिए
‘भले ही उन पर आरोप लग रहे हैं पर सच यह है कि उन्होंने क्रिकेट के साथ मनोरंजन जोड़ने जैसा बड़ा काम कर दिखाया। उसको बड़े पर्दे के लोगों को जोड़ा।’
‘उसकी वजह से नये क्रिकेटरों को अवसर मिल रहा है।’
अब ऐसे प्रचार पर क्या कहा जाये? वह किसका महिमा मंडन कर रहे हैं और कैसे? 1983 में भारत ने विश्व कप क्रिकेट प्रतियोगिता जीती उसके बाद यहां यह खेल स्वाभाविक रूप से अधिक प्रसिद्ध हो गया। लोग खेलने वाले कम देखने वाले अधिक थे। मगर यह खेल था इसलिये आयकर से छूट मिलती रही पर जब यह मनोरंजन जोड़ा गया तो वह छूट नहीं मिल सकती-यह बात संगठित प्रचार माध्यमों में हुई चर्चाओं के आधार पर लिखी जा रही है। अब तो अनेक लोग मानने लगे हैं कि यह क्रिकेट प्रतियोगिता खेल नहीं बल्कि मनोरंजन है। मनोरंजन पर करों का हिसाब अलग है। उसमें कई जगह पहले पैसा अग्रिम रूप से कम के रूप में जमा करना पड़ता है। जो खिलाड़ी खेल रहे हैं उन पर आयकर में शायद ही छूट मिल पाये। दूसरी बात यह कि आयकर नियमों के अनुसार तो नियोक्ता को ही अपने अधीन काम करने वाले व्यक्ति को मिलने वाली देय रकम पर आयकर की राशि कटौती कर जमा करना चाहिए। क्या उनके उस ऊंचे व्यक्तित्व के स्वामी प्रबंधक ने ऐसा किया? इस प्रतियोगिता में करोड़ों की आयकर चोरी का शक किया जा रहा है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि चूंकि यह मैच राष्ट्रीय यह अंतर्राष्ट्रीय खेल का हिस्सा नहीं बल्कि मनोरंजन हैं इसलिये खिलाड़ियों तथा आयोजकों से ऐसे ही कर वसूलना चाहिये जैसे मनोरंजन उद्योग से वसूला जाता है।
हैरानी की बात है कि संगठित प्रचार माध्यम कानून के प्रावधानों को लेकर अपने निष्कर्ष निकलाने से बच रहे हैं या उनको इसका आभास नहीं है कि यह प्रकरण इतना संगीन है जहां चंद नये क्रिकेट खिलाड़ियों को मौका देने जैसा या उसमें मनोरंजन शामिल करने जैसा कार्य कोई महत्व नहीं रखता। हजारों करोड़ों के करचोरी के संदेह से घिरी यह प्रतियोगिता पचास से सौ खिलाड़ियों को अवसर देने के नाम पर कोई पवित्र नहीं हो जाती। वैसे क्या इससे पहले नये खिलाड़ियों को अवसर नहीं मिलते थे। देश की राजस्व की हानि एक बहुत बड़ा अपराध है।
किसी भी देश अस्तित्व उसके संविधान से होता है जिसके अनुसार चलने के लिये सरकार को धन की आवश्यकता होती है। यह धन सरकार अपनी ही प्रजा पर अप्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कर लगाकर वसूल करती है। इस प्रतियोगिता में यह महत्वपूर्ण नहीं है कि कौन आयोजित कर रहा है बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि मनोंरजन के रूप में चलने के बावजूद इसको कृषि की तरह करमुक्त नहीं माना जा सकता है। सुनने में आया है कि करों से बचने के लिये इसमें समाज सेवा जैसे शब्द भी जोड़े जा रहे। अभी तक यह पता नहीं चल पाया कि इस प्रतियोगिता से कहीं राजकीय तौर पर कर जमा किया गया या नहीं।
कहने का अभिप्राय यह है कि चाहे कोई व्यक्ति कितना भी अच्छा प्रबंधक या समाज सेवक क्यों न हो अगर वह सार्वजनिक रूप से ऐसा प्रायोजन करते हैं जो कर के दायरे में और वह उससे बचते हैं तो उनकी प्रशंसा तो कतई नहीं की जा सकती। देश में कानून का पालन होना चाहिये यह देखना हर नागरिक का दायित्व है इसलिये उसे ऐसे तत्वों की प्रशंसा कभी नहीं करना चाहिये जो नियमों को ताक पर रखते हैं। अगर ऐसा नहंी करते तो यह राष्ट्रनिरपेक्ष का भाव है जो खतरनाक है। आज कितने भी अच्छे निष्पक्ष दिखने का प्रयास करें पर जब ऐसे व्यक्तित्वों की प्रशंसा में एक भी शब्द कहते हैं तो यह निष्पक्षता नहीं बल्कि निरपेक्षता है जिसका सीधा सबंध राष्ट्र की अनदेखी करना है। यह ठीक है कि अभी तक आरोप है और उनकी जांच होनी है पर जिस तरह प्रचार माध्यम उसे अनदेखा कर रहे हैं वह कोई उचित नहीं कहा जा सकता।

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कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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भर्तृहरि नीति शतक-जागरुक लोग अपनी बेइज्जती नहीं सहते (jagruk aur apmaan-hindi sandesh)


भर्तृहरि महाराज कहते हैं कि
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यद चेतनोऽपिपादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृत निकृतिंक कथं सहते ।।
हिंदी में भावार्थ-
सूर्य की रश्मियों के ताप से जब जड़ सूर्यकांन्त मणि ही जल जाती है तो चेतन और जागरुक पुरुष दूसरे के द्वारा किये अपमान को कैसे सह सकता है।

लांगल चालनमधश्चरणावपातं भू मौ निपत्य बदनोदर दर्शनं च।
श्चा पिण्डदस्य कुरुते गजपुंगवस्तु धीरं विलोकपति चाटुशतैश्चय भुंवते।।
हिंदी में भावार्थ-
श्वान भोजने देने वाले के आगे पूंछ हिलाते हुए पैरों में गिरकर पेट मूंह और पेट दिखाते हुए अपनी दीनता का प्रदर्शन करता है जबकि हाथी भोजन प्रदान करने वालो को गहरी नजर से देखने के बाद उसके द्वारा आग्रह करने पर ही भोजन ग्रहण करता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भले ही आदमी के पास अन्न और धन की कमी हो पर मनुष्य को स्वाभिमानी होना चाहिए नहीं तो अधिक धनवान, उच्च पदस्थ तथा बाहूबली लोग उसे गुलाम बनाये रखने के लिये हमेशा तत्पर रहते हैं। आजकल सुख सुविधाओं ने अधिकतर लोगों को शारीरिक और मानसिक तौर से सुस्त बना दिया है इसलिये वह उन्हें बनाये रखने के लिये अपने से अधिक शक्तिशाली लोगों की चाटुकारिता में लगना अपने लिये निज गौरव समझते हैं। यही कारण है कि निजी क्षेत्र में स्त्रियों और पुरुषों का शोषण बढ़ रहा है। हमारे यहां की शिक्षा कोई उद्यमी नहीं पैदा करती बल्कि नौकरी के लिये गुलामों की भीड़ बढ़ा रही है। कितनी विचित्र बात है कि आजकल हर आदमी अपने बच्चे को इसलिये पढ़ाता है कि वह कोई नौकरी कर अपने जीवन में अधिकतम सुख सुविधा जुटा सके। ऐसे में बच्चों के अंदर वैसे भी स्वाभिमान मर जाता है। उनका अपने माता पिता और गुरुजनों से अच्छा गुलाम बनने की प्रेरणा ही मिलती है।

ऐसी स्थिति में हम अपने देश और समाज के प्रति कथित रूप से जो स्वाभिमान दिखाते हैं पर काल्पनिक और मिथ्या लगता है। स्वाभिमान की प्रवृत्ति तो ऐसा लगता है कि हम लोगों में रही नहीं है। ऐसे मेें यही लगता है कि हमें अब अपने प्राचीन साहित्य का अध्ययन भी करते रहना चाहिये ताकि पूरे देश में लुप्त हो चुका स्वाभिमान का भाव पुनः लाया जा सके।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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मनु स्मृति-हृदय में यम साक्षी रूप में स्थित रहते हैं (jhooth mat bolo-manu smriti)


यमो वैवस्वतो देवो यस्तवैध हृदिस्थितः।
तेन चेदविवादस्ते मां गंगा मा कृरून गमः।।
हिंदी में भावार्थ-
सभी के हृदय में भगवान विवस्वान यम साक्षी रूप में स्थित रहते हैं। यदि उनसे कोई विवाद नहीं करना है तथा पश्चाताप के लिये गंगा या कुरुक्षेत्र में नहीं जाना तो कभी झूठ का आश्रय न लें।

एकोऽहमस्मीत्यातमानं यत्तवं कल्याण मन्यसे।
नित्यं स्थितस्ते हृद्येष पुण्यपापेक्षिता मुनिः।।
हिंदी में भावार्थ-
यदि कोई आदमी यह सोचकर झूठी गवाही दे रहा है कि वह अकेला है और सच्चाई कोई नहीं जानता तो वह भूल करता है क्योंकि पाप पुण्य का हिसाब रखने वाला ईश्वर सभी के हृदय में रहता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अपने स्वार्थ के लिये झूठ बोलना अज्ञानी और पापी मनुष्य का लक्षण है। सभी का पेट भरने वाला परमात्मा है पर लालची, लोभी, कामी और दुष्ट प्रवृत्ति के लोग झूठ बोलकर अपना काम सिद्ध करना अपनी उपलब्धि मानते हैं। अनेक लोग झूठी गवाही देते हैं या फिर किसी के पक्ष में पैसा लेकर उसका झूठा प्रचार करते हैं। अनेक कथित ज्ञानी तो कहते हैं कि सच बोलने से आज किसी का काम नहीं चल सकता। यह केवल एक भ्रम है।
यह दुनियां वैसी ही होती है जैसी हमारी नीयत है। अगर हम यह मानकर चल रहे हैं कि झूठ बोलने से अब काम नहीं चलता तो यह अधर्म की तरफ बढ़ाया गया पहला कदम है। कई लोग ऐसे है जो अपनी झूठी बेबसी या समस्या बताकर दूसरे से दान और सहायता मांगते हैं और उनको मिल भी जाती है। अब यह सोच सकते हैं कि झूठ बोलने से कमाई कर ली पर उनको यह विचार भी करना चाहिये कि दान या सहायता देने वाले ने अपनी धार्मिक प्रवृत्ति के कारण ही अपना कर्तव्य निभाया। इसका आशय यह है कि धर्म का अस्तित्व आज भी उदार मनुष्यों में है। इसे यह भी कहना चाहिये कि यह उदारता ही धर्म के अस्तित्व का प्रमाण है। इसलिये झूठ बोलने से काम चलाने का तर्क अपने आप में बेमानी हो जाता है क्योंकि अंततः झूठ बोलना धर्म विरोधी है।
आदमी अनेक बार झूठ बोलता है पर उसका मन उस समय कोसता है। भले ही आदमी सोचता है कि झूठ बोलते हुए कोई उसे देख नहीं रहा पर सच तो यह है कि परमात्मा सभी के हृदय में स्थित है जो यह सब देखता है। एक मजेदार बात यह है कि आजकल झूठ बोलने वाली मशीन की चर्चा होती है। आखिर वह झूठ कैसे पकड़ती है। होता यह है कि जब आदमी झूठ बोलता है तब उसके दिमाग की अनेक नसें सामान्य व्यवहार नहीं करती और वह पकड़ा जाता है। यही मशीन इस बात का प्रमाण है कि कोई ईश्वर हमारे अंदर है जो हमें उस समय इस कृत्य से रोक रहा होता है।
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भर्तृहरि नीति शतक-प्रतिष्ठा बनाती है घमंड के बुखार का शिकार (bhartrihari shatak-ghamand ka bukhar)


न नटा न विटा न गायकाः न च सभ्येतरवादचंचवः।
नृपमीक्षितुमत्र के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि न तो हम नट हैं न गायक न असभ्य ढंग से बात करने वाले मसखरे और न हमारा सुंदर स्त्रियों से कोई संबंध है फिर हमें राजाओं से क्या लेना देना?

स जातः कोऽप्यासीनमदनरिमुणा मूध्निं धवलं कपालं यस्योच्चैर्विनहितमलंकारविधये।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना नमद्धिः कः पुंसामयमतुलदर्प ज्वर भरः।
हिंदी में भावार्थ-
महाराज भर्तृहरि कहते हैं कि भगवान शिव ने अपने अनेक खोपड़ियों की माला सजाकर अपने गले में डाल ली पर जिन मनुष्यों को अहंकार नहीं आया जिनके नरकंकालों से वह निकाली गयीं। अब तो यह हालत है कि अपनी रोजी रोटी के लिये नमस्कार करने वाले को देखकर उससे प्रतिष्ठित हुआ आदमी अहंकार के ज्वर का शिकार हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जिसे देखो वही अहंकार में डूबा है। जिसने अधिक धन, उच्च पद और अपने आसपास असामाजिक तत्वों का डेरा जमा कर लिया वह अहंकार में फूलने लगता है। अपने स्वार्थ की वजह से सामने आये व्यक्ति को नमस्कार करते हुए देखकर कथित बड़े, प्रतिष्ठित और बाहूबली लोग फूल जाते हैं-उनको अहंकार का बुखार चढ़ता दिखाई देता है। यह तो गनीमत है कि भगवान ने जीवन के साथ उसके नष्ट होने का तत्व जोड़ दिया है वरना वह स्वयं चाहे कितने भी अवतार लेते ऐसे अहंकारियों को परास्त नहीं कर सकते थे।
अधिक धन, उच्च पद और बाहूबल वालों को राजा मानकर हर कोई उनसे संपर्क बढ़ाने के लिये आतुर रहता है। जिसके संपर्क बन गये वह सभी के सामने उसे गाता फिरता है। इस तरह के भ्रम वही लोग पालते हैं जो अज्ञानी है। सच बात तो यह है कि अगर न हम अभिनेता है न ही गायक और न ही मसखरी करने वाले जोकर और न ही हमारी सुंदर स्त्रियों से कोई जान पहचान तब आजकल के नये राजाओं से यह आशा करना व्यर्थ है कि वह हमसे संपर्क रखेंगे। बड़े और प्रतिष्ठित लोग केवल उन्हीं से संपर्क रखते हैं जिनसे उनको मनोरंजन या झूठा सम्मान मिलता है या फिर वह उनके लिये व्यसनों को उपलब्ध कराने वाले मध्यस्थ बनते हों। अगर इस तरह की कोई विशेष योग्यता हमारे अंदर नहीं है तो फिर बड़े लोगों से हमारा कोई प्रयोजन नहीं रह जाता।
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नागपंचमी-पर्यावरण के लिये सांप और नाग की रक्षा जरूरी-हिंदी आलेख hindi article on nag panchami


आज नागपंचमी है जो कि भारतीय अध्यात्म की दृष्टि से बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इसके बावजूद इस दिन भी ऐसे कर्मकांड और अंधविश्वास देखने को मिलते हैं जिनको देखकर आश्चर्य और दुःख होता है।
सांप और नाग मनुष्य के ऐसे मित्र मित्र माने जाते हैं जो उसके साथ रहते नहीं है। सांप और नागों की खूबी यह है कि उनका भोजन मनुष्य से अलग है। आज के दिन सांप को दूध पिलाने के लिये अनेक लोग दान करते हैं जबकि वास्तविकता यह है कि दूध एक तरह से सांप के लिये विष है जो उसकी हत्या कर देता है। सांप को वन्य प्रेमी एक तरह से संपदा मानते हैं तथा पर्यावरण विद् तो सांप प्रजातियां लुप्त होने पर निरंतर चिंता जताते आ रहे हैं। सांप मनुष्य के भोजन के लिये पैदा होने वाली वस्तुओं को नष्ट करने वाले चूहों और कीड़ मकोड़ों को खाकर मनुष्य की रक्षा करता है। इसके बावजूद इंसान सांप से डरता है। यह डर इतना भयानक है कि वह सांप को देखकर ही उसे मार डालता है कहीं वह दोबारा उसे रास्ते में डस न ले।

आधुनिक वैज्ञानिकों ने यह सिद्ध कर दिया है कि अधिकतर सांप और नाग जहरीले नहीं होते मगर हमारे देश में इसके बावजूद अनेक निर्दोष सांप और नाग इसलिये जलाकर मार दिये जाते है कि वह इंसान के लिये खतरा है। यह इस देश में हो रहा है जिसमें नाग को देवता का दर्जा हासिल है और यह हमारे विचार, कथन और कर्म के विरोधाभासों को भी दर्शाता है कि हम एक दिन को छोड़कर सांप और नाग के प्रति डर का भाव रखते हैं। कहते हैं कि डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है और सांप के प्रति हम भारतीयों का व्यवहार इसका एक प्रमाण है।
हमारे देश के अध्यात्मिक दर्शन के अनसार शेष नाग ने इस धरती को धारण कर रखा है। महाभारत काल में जब दुर्योधन ने जहर देकर भीम को नदी में फिंकवा दिया था तब सांपों ने ही उनका विष निकाला था और बाद में वह सुरक्षित बाहर आये थे। जब वासुदेव महाराज अपने पुत्र श्रीकृष्ण के जन्म के बाद उनको वृंदावन छोड़ने जा रहे थे तब नाग ने ही उनके सिर पर रखी डलिया पर बरसात से बचाने के लिये छाया की थी। हमारे पौराणिक ग्रंथों में कहीं भी मनुष्य द्वारा सांप को भोजन कराने या दूध पिलवाने का जिक्र नहीं आता। इसका आशय यही है कि उनका भोजन जमीन पर फिरने वाले वह जीव जंतु हैं जो कि मनुष्य के लिये एक तरह शत्रु हैं। शायद यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनि मनुष्य को अहिंसा के लिये प्रेरित करते हैं क्योंकि सृष्टि ने उसकी देह और भोजन की रक्षा के लिये अन्य जीवों का सृजन कर दिया है जिनमें प्रमुख रूप से सांप और नाग भी शामिल है।
देश में बढ़ती आबादी के साथ जंगल कम हो रहे हैं और इसलिये वन्य जीवों के लिये रहना दूभर हो गया है। जहां नई कालोनियां बनती हैं वहां शुरुआत में सांप निकलते हैं और लोग डर के बार में उनको मार डालते हैं। अधिकतर सांप और नाग जहरीले नहीं होते हैं पर जो होते भी हैं तो वह किसी को स्वतः डसने जायें यह संभव नहीं है। जहां तक हो सके वह इंसान से बचते हैं पर अनजाने वह उनके पास से निकल जाये तो वह भय के मारे वह डस देते हैं। इसके विपरीत इंसान के अंदर जो वैचारिक विष है उसकी तो किसी भी विषैले जीव से तुलना ही नहीं है। धन-संपदा, प्रतिष्ठा और बाहुबल प्राप्त होने पर वह किसी विषधर से कम नहीं रह जाता। वह उसका प्रमाणीकरण को लिये निरीह और बेबस मनुष्यों को शिकार के रूप में चुनता है। वह धन-संपदा, प्रतिष्ठा और शक्ति के शिखर पर पहुंचकर भी संतुष्ट नहीं होता बल्कि वह चाहता है कि लोग उसके सामने ही उसकी प्रशंसा करेें।
सांप और नाग हमारे ऐसे मित्र हैं जो दाम मांगने हमारे सामने नहीं आते और न ही हम धन्यवाद देने उनके पास जा सकते। वैसे भी उनकी नेकी शहर में बैठकर नहीं जानी जा सकती। वह तो खेतों और खलिहानों में चूहों तथा अन्य कीड़ों का खाकर अप्रत्यक्ष रूप से मित्रता दिखाते हैं। इस नागपंचमी पर सभी ब्लाग लेखक मित्रों और पाठकों को बधाई। समस्त लोग प्रसन्न रहें इसकी कामना करते हुए हम यह अपेक्षा करते हैं कि वन्य प्राणियों की रक्षा के साथ पर्यावरण संतुलन बनाये रखने का उचित प्रयास करते रहें।
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कौटिल्य का अर्थशास्त्र-गिरने का भय और गिरा देता है (girne ka bhay-kautilya ka arthshastra


कौटिल्य के अर्थशास्त्र के अनुसार
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प्रमाणश्चधिकश्यापि महत्सत्वमधष्ठितः।
पदं स दत्ते शिरसि करिणः केसरी यथा।।
हिंदी में भावार्थ-
प्रमाणित योग्यता से अधिक पद की इच्छा करने वाला व्यक्ति भी उस महापद पर विराजमान हो जाता है उसी प्रकार जैसे सिंह हाथी पर अधिष्ठित हो जाता है।
उच्चेरुच्चस्तरामिच्छन्पदन्यायच्छतै महान्।
नवैनींचैस्तरां याति निपातभयशशकया।।
हिंदी में भावार्थ-
जीवन में ऊंचाई प्राप्त करने वाला व्यक्ति महान पद् पर तो विराजमान हो जाता है पर उससे नीचे गिरने की भय और आशंका से वह नैतिक आधार पर नीचे से नीचे गिरता जाता है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-समाज के सभी क्षेत्रों में शिखर पर विराजमान पुरुषों से सामान्य पुरुष बहुत सारी अपेक्षायें करते हैं। वह उनसे अपेक्षा करते हैं कि आपात स्थिति में उनकी सहायता करें। ज्ञानी लोग ऐसी अपेक्षा नहीं करते क्योंकि वह जानते हैं कि शिखर पर आजकल कथित बड़े लोग कोई सत्य या योग्यता की सहायता से नहीं पहुंचते वरन कुछ तो तिकड़म से पहुंचते हैं तो कुछ धन शक्ति का उपयोग करते हुए। ऐसे लोग स्वयं ही इस चिंता से दीन अवस्था में रहते हैं कि पता नहीं कब उनको उस शिखर से नीचे ढकेल दिया जाये। चूंकि उच्च पद पर होते हैं इसलिये समाज कल्याण का ढकोसला करना उनको जरूरी लगता है पर वह इस बात का ध्यान रखते हैं कि उससे समाज का कोई अन्य व्यक्ति ज्ञानी या शक्तिशाली न हो जाये जिससे वह शिखर पर आकर उनको चुनौती दे सके। उच्च पद या शिखर पर बैठे लोग डरे रहते हैं और डर हमेशा क्रूरता को जन्म देता है। यही क्रूरता ऐसे शिखर पुरुषों को निम्न कोटि का बना देती है अतः उनमें दया या परोपकार का भाव ढूंढने का प्रयास नहीं करना चाहिए।
यही हाल उन लोगों का भी है जिनको योग्यता से अधिक सम्मान या पद मिल जाता है। मायावी चक्र में सम्मान और पद के भूखे लोगों से ज्ञानी होने की आशा करना व्यर्थ है। उनको तो बस यही दिखाना है कि वह जिस पद पर हैं वह अपनी योग्यता के दम पर हैं और इसलिये वह बंदरों वाली हरकतें करते हैं। अपनी अयोग्यता और अक्षमता उनको बहुत सताती है इसलिये वह बाहर कभी मूर्खतापूर्ण तो कभी क्रूरता पूर्ण हरकतें कर समाज को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि वह योग्य व्यक्ति हैं। ऐसे लोगों की योग्यता को अगर कोई चुनौती दे तो वह उसे अपने पद की शक्ति दिखाने लगते हैं। अपनी योग्यता से अधिक उपलब्धि पाने वाले ऐसे लोग समाज के विद्वानों, ज्ञानियों और सज्जन पुरुषों को त्रास देकर शक्ति का प्रदर्शन करते हैं। वह अपने मन में अपनी अयोग्यता और अक्षमता से उपजी कुंठा इसी तरह बाहर निकालते हैं। अतः जितना हो सके ऐसे लोगों से दूर रहा जाये। कहा भी जाता है कि घोड़े के पीछे और राजा के आगे नहीं चलना चाहिये।
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चाणक्य नीति-इंसान जैसा अन्न खाता है वैसे ही उसके विचार हो जाते है


अधमा धनमिच्छन्ति धनं माने च मध्यमा।
उत्तमा मानमिच्छन्ति मानो हि महतां धनम्।।
हिंदी में भावार्थ-
अधम केवल धन की कामना करता है जबकि मध्यम पुरुष धन और मान दोनों की इच्छा करता है किन्तु उत्तम पुरुष केवल मान की कामना करते हुए अपन कर्म करता है। उसके लिये मान ही धन्न है।
दीपो भक्षयते थ्वान्तं कज्जलं च प्रसूयते।
यदन्नं भक्षयतेन्नित्यं जायते तादृशी प्रजा।।
हिंदी में भावार्थ-
नीति विशारद चाणक्य कहते हैं कि जिस तरह दीपक अंधेरे को खाकर काजल को उत्पन्न करता है वैसे ही इंसान जिस तरह का अन्न खाता है वैसे उसके विचार उत्पन्न होते हैं और उसके इर्दगिर्द लोग भी वैसे ही आते हैं। उनकी संतान भी वैसी ही होती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या –यह एक तरह का दर्पण है जिसमें हर इंसान अपने चरित्र का चेहरा देख सकता है। केवल धन की कामना पूरी करने के लिये कोई भी कार्य करने के लिये तैयार होना निम्नकोटि होने का प्रमाण है। कहने को तो सभी कहते हैं कि यह पेट के लिये कर रहे हैं पर जिनके पास वास्तव में धन और अन्न का अभाव है वह आजकल किसी अपराध में नहीं लिप्त दिखते जितने धन धान्य से संपन्न वर्ग के लोग बुरे कामों में व्यस्त हैं। धन का आकर्षण लोगों को लिये इतना है कि वह उसके लिये अपना धर्म बदलने और बेचने के लिये तैयार हो जाते हैं। उनके लिये मान और अपमान का अंतर नहीं रह जाता। आजकल शिक्षित और सभ्रांत वर्ग के लोगों ने यह मान्यता पाल ली है कि धन से सम्मान होता है और वह स्वयं भी निर्धनों से घृणा करते हैं। सच बात तो यह है कि अधम प्रकृति के लोग धन प्राप्त कर उच्चकोटि का दिखने का प्रयास करते हैं।
समाज में अनैतिक धनार्जन की बढ़ती प्रवृति ने नैतिक ढांचे को ध्वस्त कर दिया है और जिस वर्ग के लोगों पर समाज का मार्गदर्शन करने का दायित्व है वही कदाचार और ठगी में लगे हुए हैं। परिणामतः उनके इर्दगिर्द ऐसे ही लोगों का समूह एकत्रित हो जाता है और उनकी संतानें भी अब ऐसे काम करने लगी हैं जो पहले नहीं सुने जाते थे। नयी पीढ़ी की बौद्धिक और चिंतन क्षमता का हृास हो गया है और कहीं पुत्र तो कहीं पुत्री ही माता पिता पर दैहिक आक्रमण के लिये आरोपित हो जाती है। नित प्रतिदिन समाचार पत्रों और टीवी चैनलों पर ऐसे समाचार आते हैं जिसमें संतान ही उस माता पिता को तबाह कर देती है जिसकों उन्होंने जन्म दिया है।
ऐसे में ज्ञानी लोगों को यह ध्यान रखना चाहिये कि जो धन वह कमा रहे हैं उनका स्त्रोत पवित्र हो। अल्प धन होने से कोई समस्या नहीं है क्योंकि चरित्र से सम्मान सभी जगह होता है पर बेईमानी और ठगी से कमाया गया धन अंततः स्वयं के लिये कष्टदायी होता है।
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विदुर नीति-अपने ही लोग पार लगायें और डुबोयें


श्रीमन्तं ज्ञातिमासाद्य यो ज्ञातिरवसीदति।
दिग्धहस्तं मृग इव स एनस्तस्य विन्दति।।
हिंदी में भावार्थ
-जिस तरह मृग विषैला बाण हाथ में लिये शिकारी के पास पहुंचकर कष्ट पाता है वैसे ही मनुष्य अपने धनी बंधु के पास कष्ट पाता है। वह धन देने से इंकार कर दे तो कष्ट होता है और दे तो उसके पाप का भागी बनता है।
ज्ञातयस्यतारयन्तीह ज्ञातयो मज्जयन्ति च।
सुवृत्तास्तारयन्तीह दुर्वंतत्ता मज्ज्यन्ति च।।
हिंदी में भावार्थ-
इस संसार में अपने ही जाति बंधु जीवन की नैया पार भी लगाते हैं तो डुबोते भी है। जो सदाचारी है वह तो तारने के लिये तत्पर रहते हैं और जो दुराचारी है वह डुबा देते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-पता नहीं कब कैसे जातियां बनी पर मनुष्य के स्वभाव को देखते हुये तो यही कहा जा सकता है कि अपनी सुरक्षा के लिये उसने जाति, भाषा, क्षेत्र और धर्म के नाम पर समूह बना लिये। यह पक्रिया इतने स्वाभाविक ढंग से हुई कि पता ही नहीं चला होगा। बहरहाल प्रत्येक मनुष्य में अपने समाज या समूह के प्रति लगाव होता है भले ही वह स्वार्थ के कारण हों। इसका उसे लाभ भी मिलता है जब कोई शादी या गमी का अवसर आता है तब अनेक लोग एक दूसरे से जुड़ते हैं। इसका दूसरा पक्ष यह भी है कि अगर किसी व्यक्ति के यहां कोई दुर्घटना हो जाये और वह अगर उससे छिपाना चाहे तो भी नहीं छिप सकती। वजह! जाति भाई जाकर सभी जगह वैसे ही बता देंगे। अगर किसी व्यक्ति के घर या परिवार में कोई दोष हो तो अन्य समाज या समूह के लोग नहीं जान पाते पर सजातीय बंधु यह काम करने में चूकते नहीं है-मतलब यह कि सजातीय लोग ही बदनाम करने में लग जाते हैं।
सदाचारी जातीय बंधु तो जीवन नैया तार देते हैं और दुराचारी डुबो देते हैं पर आजकल यह भी देखना चाहिये कि इस धरती पर कितने सदाचारी और कितने दुराचारी लोग विचरण कर रहे हैं। सजातीय बंधुओं से खतरा इस कारण भी बढ़ता है कि हम उन्हें अपना समझकर अपने घर की बात या घटना बता देते हैं ताकि समय पर वह हमारी सहायता करे। इसकी बजाय वह उसका प्रचार कर बदनाम करते हैं। अगर उनके साथ घर के राज की चर्चा ही नहीं की जाये तो फिर वह ऐसा नहीं कर सकते।

वैसे आजकल तो रहन, सहन, और व्यवहार का स्वरूप एक जैसा ही हो गया है अतः सजातीय बंधुओं से सहयोग और संपर्क की अपेक्षा करने की बजाय समस्त मित्रों और पड़ौसियों से-जातीय भाव की उपेक्षा कर-व्यवहार रखना चाहिये। पहले सजातीय बंधुओं से संपर्क स्वाभाविक रूप से इसलिये भी होता था क्योंकि सभी लोग मोहल्लों और गलियों में जातीय समूह की अधिकता देखकर बसते थे। अब तो कालोनियां बन गयी हैं जिसमें विभिन्न जातियों और समुदायों के लोग रहते हैं। ऐसे मेें सजातीय बंधुओं से एक सीमा तक ही संपर्क रह पाता है।
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कबीर के दोहे: भक्ति में बदलाव से संताप बढ़ता है


सौ वर्षहि भक्ति करि, एक दिन पूजै आन
सो अपराधी आत्मा, पैर चौरासी खान

संत शिरोमणि कबीर दास जी कहते हैं कि सौ वर्ष तक अपने इष्ट या गुरु की भक्ति करने के बाद एक दिन किसी दूसरे देवी देवता की पूजा कर ली तो समझ लो कि पहले की भक्ति गड़ढे में गयी और अपनी आत्मा ही रंज होने लगती है।
कामी तिरै क्रोधी तिजै, लोभी की गति होय
सलिल भक्त संसार में, तरत न देखा कोय

कामी क्रोधी और लोभी व्यक्ति थोड़ी भक्ति करने के बाद भी इस भवसागर को तैर कर पार कर सकता है पर शराब का सेवन करने वालों की कोई गति नहीं हो सकती।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-एक बार जिस इष्ट की आराधना करना प्रारंभ किया तो फिर उसमें परिवर्तन नहीं करना चाहिये। सभी जानते हैं कि परमात्मा का एक ही है पर इंसान उसे अलग अलग स्वरूपों में पूजता है। जिस स्वरूप की पूजा करें उसमें पूर्ण रूप से विश्वास करना चाहिये। जीवन में उतार चढ़ाव आते रहते हैं पर दूसरों के कहने में आकर इष्ट का स्वरूप नहीं बदलना चाहिये। दरअसल विश्वास में बदलाव अपने अंदर मौजूद आत्मविश्वास का ही कमजोर करता है और हम अपने जीवन में आयी परेशानियों से लड़ने की क्षमता खो बैठते हैं।
अपने देश में जितना भक्तिभाव है उससे अधिक अधविश्वास है। किसी की कोई परेशानी हो तो दस लोग आते हैं कि अमुक जगह चलो वहां के पीर या बाबा तुम्हारी परेशानी दूर कर देंगे और परेशान आदमी उनके कहने पर चलने लगता है और अपने इष्ट से उसका विश्वास हटने लगता है। कालांतर में यही उसके लिये दुःखदायी होने लगता है। इस तरह अनेक प्रकार की सिद्धों की दुकानों बन गयी हैं जहां लोगों की भावनाओंं का दोहन जमकर दिया जाता है। सच बात तो यह है कि जीवन का पहिया घूमता है तो अनेक काम रुक जाते हैं और रुके हुए काम बन जाते हैं किसी सिद्ध के चक्कर लगाने से कोई काम नहीं बनता। इस तरह का भटकाव जीवन में तनाव का कारण बनता है। कोई एक काम बन गया तो दूसरे काम के लिये सिद्ध के पास भाग रहे हैं। इस तरह विश्वास में बदलाव हमारी संघर्ष की भावना का कमजोर करता है।

अपनी जिंदगी में हमेशा एक ही इष्ट पर यकीन करना चाहिये। यह मानकर चलें कि अगर कोई काम रुका है तो उनकी मर्जी से और जब समय आयेगा तो वह भी पूरा हो जायेगा। वैसे जीवन में प्रसन्न रहने का सबसे अच्छा उपाय तो निष्काम भक्ति ही है पर उसके लिये दृष्टा बनकर जीना पड़ता है। यह मानकर चलना पड़ता है कि इस तरह के उतार चढ़ाव जीवन का एक अभिन्न अंग है। साथ में निष्प्रयोजन दया भी करते रहना चाहिये यह सोचकर कि पता नहीं इस देह पर आये संकट के लिये कब कौन सहायता करने आ जाये।
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भर्तृहरि शतकः कामदेव के प्रहार कौन झेल पाता है?


तावन्महत्त्वं पाण्डित्यं कुलीन्त्वं विवेकता।
यावज्ज्वलति नांगेषु पंचेषु पावकः

हिंदी में भावार्थ-विद्वता,सज्जनता,कुलीनता तथा बुद्धिमानी का ज्ञान तब तक ही मनुष्य के हृदय में रहता है जब तक कामदेव का हमला उस पर नहीं होता। उसक बाद तो सभी पवित्र भाव नष्ट हो जाते है।
संपादकीय व्याख्या-समाचार पत्र पत्रिकाओं और टीवी चैनलों में अनेक ऐसे समाचार आते हैं जिसमें कथित साधु संतों, धनपतियों,प्रतिष्ठित परिवारों और समाजसेवा में रत लोगों के यौन प्रकरणों की चर्चा होती है। उस समय हमारे मन में यह बात आती है कि ‘अमुक व्यक्ति तो बहुत प्रसिद्ध,ज्ञानी,कुलीन और धनी है भला वह कैसे ऐसे प्रकरण में लिप्त हो सकता है।’ सच बात तो यह है कि जब मनुष्य पर काम भावना का प्रहार होता है तब वह विपरीत लिंग के आकर्षण के जाल में ऐसा फंस जाता है कि वहां से उसका निकलना कठिन है।’
वैसे तो हमारा समाज भी यह बात मानता है कि आम आदमी को यहां किसी प्रकार की आजादी नहीं है पर बड़े आदमी को सभी प्रकार की छूट है। कहते हैं न कि ‘बड़े आदमियों को कौन कहता है। पर हम तो छोटे आदमी है इसलिये समाज को देखकर चलना पड़ता है।’ यही कारण है कि जो समाज के शिखर पर बैठे हैं पर इसकी परवाह नहीं करते कि उनके यौन प्रकरणों पर सामान्य लोग क्या कहेंगे? वैसे भी काम भावना समाज, नैतिकता और आदर्श पर चलने किसे देती है उस पर धन,प्रसिद्धि, और बाहूबल आदमी को वैसे ही मंदाध बना देता है। ऐसे में कामदेव का आक्रमण तो घुटने टेकने को बाध्य कर देता है।
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मनु स्मृतिः घर का कार्य करने से स्त्रियों को होती है प्रसन्न्ता


अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयत्
शौचे धर्मेऽन्नपक्तयां च पारिणाहृास्य योजने

धन का संग्रह करना एवं खर्च करना, घर की स्वच्छता, भोजन बनाना तथा घर की सभा वस्तुओं को संभालने का दायित्व स्त्रियों को सौप देना चाहिए। इस तरह स्त्रियों को अपने दायित्व का निर्वहन से सुखद अनुभूति होती है और उनका मन घर में लगा रहता है।

स्वां प्रसूति चरित्रं च कुलमात्मानमेव च
स्वं च धर्म प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति

जो पुरुष प्रयत्नपूर्वक अपनी स्त्री की रक्षा करता है वही अपनी संतान, चरित्र, परिवार तथा अपने साथ अपने धर्म की रक्षा कर पाता है।

संपादकीय व्याख्या-आजकल स्त्रियों को सार्वजनिक रूप से अपमानित करने केे समाचार आये दिन अखबारों में छपते और टीवी चैनलों पर दिखाये जाते है। इससे यह जाहिर होता है कि उनके परिवार के पुरुष सदस्य उनके प्रति अपने दायित्वों में कहीं न कहीं कमी रखते है। स्त्रियों पर दैहिक आक्रमण ही नहीं बल्कि वाणी से भी कोई अभद्र शब्द कहना निषेध है। अब तो सरकार ने स्त्रियों के रक्षा के करने के लिये अनेक प्रकार के कानून भी बना दिये हैं। स्त्री के सम्मान की रक्षा ही धर्म की रक्षा है। कई लोग इस प्रकार के अहंकार में रहते हैं कि वह चूंकि पुरुष हैं इसलिये वहीं घर का खर्च चलाने के साथ धन का संग्रह करेंगे। ऐसे लोग स्वयं ही परेशानी बुलाते है। उनको घर चलाने का जिम्मा अपनी गृहिणी को ही सौंपना चाहिए। वह उससे बचत भी करतीं हैं और समय आने पर अपने ही पति और परिवार की सहायता करतीं हैं।
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भर्तृहरि शतकः कामदेव करते हैं इस विश्व में अद्भुत लीला



कृशः काणः खञ्ज श्रवणरहितः पुच्छविकलो
व्रणी पूयक्लिनः कृमिकुलशतैरावुततनु
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरककापालार्पिततगलः
शनीमन्वेति श्वा हतमपि निहन्त्येव मदनः

हिंदी में भावार्थ-देह से दुर्बल, खुजली वाला, बहरा काना, पुंछ विहीन, फोड़ों से भरा, पीव और कीट कृमियों से लिपटा, भूख से व्याकुल, बूढ़ा मिट्टी के घड़े में फंसी हुई गर्दन वाला कुत्ता भी नई तथा युवा कुतिया के पीछे पीछे दुम हिलाता हुआ फिरता है। यह कामदेव की लीला है कि वह मरे हुए में भी काम भावना लाकर उसे गहरी खाई में ढकेल कर मार देते हैं।
संपादकीय व्याख्या-कामदेव की विचित्र लीला है। कोई भी कितना तपस्वी या ज्ञानी क्यों
न हो उसे अपने मन में कभी अपने भाव लाकर विचलित कर ही देते हैं। ऐसा कोई जीव इस धरती पर नहीं है जो काम वासना के आधीन हैं होता हो। सच बात तो यह है की इस जीवन का आधार ही काम देव महाराज निर्मित करते हैं। मनुष्य हो या पशु अपनी जाति की नवयौवना को देखते उत्तेजित हो जाता है। यह अलग बात है की मनुष्यों में कुछ लोग कनखियों से देखकर आह भरते हैं पर प्रदर्शित ऐसे करते हैं कि कि वह तो सामान्य दृष्टि से देख रहे है।

भर्तृहरि नीति शतक:आशंका और भय से मुक्त करता है वैराग्य भाव


भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्

हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
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भर्तृहरि नीति शतक:आशंका और भय से मुक्त करता है वैराग्य भाव


भोग रोगभयं कुले च्यूतिभयं वित्ते नृपालाद् भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभर्य रूपे जरायाः भयम्
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद् भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्

हिंदी में भावार्थ- इस संसार में आने पर रोग का भय, ऊंचे कुल में पैदा हानेपर नीच कर्मों में लिप्त होने का भय, अधिक धन होने पर राज्य का भय, मौन रहने में दीनता का भय, शारीरिक रूप से बलवान होने पर शत्रु का भय, सुंदर होने पर बुढ़ापे का भय, ज्ञानी और शास्त्रों में पारंगत होने पर कहीं वाद विवाद में हार जाने का भय, शरीर रहने पर यमराज का भय रहता है। संसार में सभी जीवों के लिये सभी पदार्थ कहीं न कहीं पदार्थ भय से पीडि़त करने वाले हैं। इस भय से मन में वैराग्य भाव स्थापित कर ही बचा जा सकता है

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-हर आदमी कहीं न कहीं भय से पीडि़त होता है। अगर यह देह है तो अनेक प्रकार के ऐसे कार्य करने पड़ते हैं जिससे उसका पालन पोषण हो सके पर इसी कारण अनेक त्रुटियां भी होती हैं। इन्हीं त्रुटियों के परिणाम का भय मन को खाये जाता है। इसके अलावा जो वस्तु हमारे पास होती है उसके खो जाने का भय रहता है। इससे बचने का एक ही मार्ग है वह वैराग्य भाव। श्रीमद्भागवत गीता मेें इसे निष्काम भाव कहा गया है। वैराग्य भाव या निष्काम भाव का आशय यह कतई नहीं है कि जीवन में कोई कार्य न किया जाये बल्कि इससे आशय यह है कि हम जो कोई भी कार्य करें उसके परिणाम या फल में मोह न पालेंं। दरअसल यही मोह हमारे लिये भय का कारण बनकर हमारे दिन रात की शांति को हर लेता है। हमारे पास अगर नौकरी या व्यापार से जो धन प्राप्त होता है वह कोई फल नहीं है और उससे हम अन्य सांसरिक कार्य करते हैं-इस तरह अपने परिश्रम के बदल्र प्राप्त धन को फल मानने का कोई अर्थ ही नहीं है बल्कि यह तो कर्म का ही एक भाग है। हम अपने पास पैसा देखकर उसमें मोह पाल लेते हैं तो उसके चोरी होने का भय रहता है। अधिक धन हुआ तो राज्य से भय प्राप्त होता है क्योंकि कर आदि का भुगतान न करने पर दंड का भागी बनना पड़ता है।

इसी तरह ज्ञान हो जाने पर जब उसका अहंकार उत्पन्न होता है तब यह डर भी साथ में लग जाता है कि कहीं किसी के साथ वाद विवाद में हार न जायें। यह समझना चाहिये कि कोई सर्वज्ञ नहीं हो सकता है। भले ही एक विषय के अध्ययन या कार्य करने में पूरी जिंदगी लगा दी जाये पर सर्वज्ञ नहीं बना जा सकता है। समय के साथ विज्ञान के स्वरूप में बदलाव आता है और इसलिये नित नये तत्व उसमें शामिल होते हैं। जिस आदमी में ज्ञान होते हुए भी नयी बात को सीखने और समझने की जिज्ञासा होती है वही जीवन को समझ पाते हैं पर ज्ञानी होने का अहंकार उनको भी नहीं पालना चाहिये तब किसी हारने का भय नहीं रहता।

कुल मिलाकर सांसरिक कार्य करते हुए अपने अंदर निष्काम या वैराग्य भाव रखकर हम अपने अंदर व्याप्त भय के भाव से बच सकते हैं जहां मोह पाला वह अपने लिये मानसिक संताप का कारण बनता है।
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