Category Archives: Hindu culture

जांच किये बिना किसी को मित्र न बनायें-हिन्दी लेख (mitrata divas or friendship day par vishesh hindi likh)


देश में पश्चिमी सभ्यता से ओतप्रोत कथित सभ्रांत समाज आज मित्रता दिवस मना रहा है। आजकल पश्चिमी फैशन के आधार पर मातृ दिवस, पितृ दिवस, इष्ट दिवस, तथा प्रेम दिवस भी मनाये जाने लगे हैं। अब यह कहना कठिन है कि यह पश्चिमी फैशन का प्रतीक है या ईसाई सभ्यता का! संभवत हमारे प्रचार माध्यम अपनी व्यवसायिक मजबूरियों के चलते इसे किसी धर्म से जोड़ने से बचते हुए इसे फैशन और कथित नयी सभ्यता का प्रतीक बताते हैं ताकि उनको विज्ञापन प्रदान करने वाले बाज़ार के उत्पाद खरीदने के लिये ग्राहक जुटाये जा सकें।
भारतीय समाज बहुत भावना प्रधान है इसलिये यहां विचारधारा भी फैशन बनाकर बेची जाती है। रिश्तों के लेकर पूर्वी समाज बहुत भावुक होता है इसलिये यहां के बाज़ार ने सामाजिक और पारिवारिक रिश्तों के नाम पर लोगों की जेब ढीली करने के लिये-चीन, जापान, मलेशिया, पाकिस्तान तथा भारत भी इसमें शामिल हैं-ऐसे रिश्तों का हर साल भुनाने के लिये अनेक तरह के प्रायोजित प्रयास हर जारी कर लिये हैं। समाचार पत्र पत्रिकायें, टीवी चैनल तथा रेडियो-जो कि अंततः बाज़ार के भौंपू की तरह काम करते हैं-इसके लिये बाकायदा उनकी सहायता करते हैं क्योंकि अंततः विज्ञापन का आधार तो उत्पादों के बिकना ही है।
पश्चिमी समाज हमेशा दिग्भ्रमित रहा है-इसका प्रमाण यह है कि वहां भारतीय अध्यात्म के प्रति आकर्षण बढ़ रहा है-इसलिये वहां उन रिश्तों को पवित्र बनाने के प्रयास हमेशा किय जाते रहे हैं क्योंकि वहां इन रिश्तों की पवित्रता और अनिवार्यता समझाने के लिये कोई अध्यात्मिक प्रयास नहीं हुए हैं जिनको पूर्वी समाज अपने धर्म के आधार पर सामाजिक और पारिवारिक जीवन के प्रतिदिन का भाग मानता है। इसे हम यूं कह सकते हैं कि भले ही आधुनिक विज्ञान की वजह से पश्चिमी समाज सभ्य कहा जाता है पर मानवीय संवेदनाओं की जहां तक बात है पूर्वी समाज पहले से ही जीवंत और सभ्य है और पश्चिमी समाज अब उससे सीख रहा है जबकि हम उनके सतही उत्सवों को अपने जीवन का भाग बनाना चाहते हैं।
मित्र की जीवन में कितनी महिमा है इसका गुणगान आज किया जा रहा है पर हमारे अध्यात्मिक संत इस बात को तो पहले ही कह गये हैं। संत कबीर कहते हैं कि
‘‘कपटी मित्र न कीजिए, पेट पैठि बुधि लेत।
आगे राह दिखाय के, पीछे धक्का देति’’
कपटी आदमी से मित्रता कभी न कीजिये क्योंकि वह पहले पेट में घुस कर सभी भेद जान लेता है और फिर आगे की राह दिखाकर पीछे से धक्का देता है। सच बात तो यह है कि मित्र ही मनुष्य को उबारता है और डुबोता है इसलिये अपने मित्रों का संग्रह करते समय उनके व्यवहार के आधार पर पहले अपनी राय अवश्य अवश्य करना चाहिये। ऐसे अनेक लोग हैं जो प्रतिदिन मिलते हैं पर वह मित्र नहीं कहे जा सकते। आजकल के युवाओं को तो मित्र की पहचान ही नहीं है। साथ साथ इधर उधर घूमना, पिकनिक मनाना, शराब पीना या शैक्षणिक विषयों का अध्ययन करना मित्र का प्रमाण नहीं है। ऐसे अनेक युवक शिकायत करते हुए मिल जाते हैं कि ‘अमुक के साथ हम रोज पढ़ते थे पर वह हमसे नोट्स लेता पर अपने नोट्स देता नहीं था’।
ऐसे अनेक युवक युवतियां जब अपने मित्र से हताश होते हैं तो उनका हृदय टूट जाता है। इतना ही नहीं उनको सारी दुनियां ही दुश्मन नज़र आती है जबकि इस रंगरंगीली बड़ी दुनियां में ऐसा भी देखा जाता है कि संकट पड़ने पर अज़नबी भी सहायता कर जाते हैं चाहे भले ही अपने मुंह फेर जाते हों। इसलिये किसी एक से धोखा खाने पर सारी दुनियां को ही गलत कभी नहीं समझना चाहिए। इससे बचने का यही उपाय यही है कि सोच समझकर ही मित्र बनायें। अगर किसी व्यक्ति की आदत ही दूसरे को धोखा देने की हो तो फिर उससे मित्र धर्म के निर्वहन की आशा करना ही व्यर्थ है। इस विषय में संत कबीरदास जी का कहना है कि
‘कबीर तहां न जाईय, जहां न चोखा चीत।
परपूटा औगुन घना, मुहड़े ऊपर मीत।
ऐसे व्यक्ति या समूह के पास ही न जायें जिनमें निर्मल चित्त का अभाव हो। ऐसे व्यक्ति सामने मित्र बनते हैं पर पीठ पीछे अवगुणों का बखान कर बदनाम करते हैं। जिनसे हम मित्रता करते हैं उनसे सामान्य वार्तालाप में हम ऐसी अनेक बातें कह जाते हैं जो घर परिवार के लिये महत्वपूर्ण होती हैं और जिनके बाहर आने से संकट खड़ा होता है। कथित मित्र इसका लाभ उठाते हैं। अगर अपराधिक इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पायेंगे कि अपराध और धोखे का शिकार आदमी मित्रों की वजह से ही होता है।
अतः प्रतिदिन कार्यालय, व्यवसायिक स्थान तथा शैक्षणिक स्थानों पर मिलने वाले लोग मित्र नहीं होते इसलिये उनसे सामान्य व्यवहार और वार्तालाप तो अवश्य करना चाहिये पर मन में उनको बिना परखे मित्र नहीं मानना चाहिए।
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कवि,लेखक,संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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हिन्दू धर्म संदेश-अनाप शनाप बोलने से समाज विपरीत हो जाता है


अकस्मादेव यः कोपादभीक्ष्णं बहु भाषते।
तसमाबुद्धिजते लोकः सस््फुलिंगदिवानलात्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति अचानक ही क्रोध में अनापशनाप बकने लगता है वह संसार को वैसे ही अपने विपरीत बना लेता है जैसे आग से निकलने वाली चिंगारी से लोग उत्तेजित होकर उससे दूर हो जाते हैं।
वाक्पारुष्यपरं लोक उद्वेजनमनर्थम्।
न कुर्यात्प्रियया वाचा प्रकृर्यात्ज्जगदात्मताम्।।
हिंदी में भावार्थ-
जिस मनुष्य के वाक्यों में कठोरता है उससे लोग उत्तेजित हो जाते हैं। ऐसी अनर्थकारी वाणी न बोलें। इस जगत को अपने मधुर वाणी से वश में किया जा सकता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर इतिहास का अवलोकन करें तो अधिकतर संघर्ष अहंकार को लेकर हुऐ हैं वरना किसी को किसी पर आक्रमण करने की आवश्यकता क्या है? अपने आसपास होने वाली हिंसक वारदातों को देखें तो उनके पीछे बात का बतंगड़ अधिक होता है। हर समस्या का हल होता है पर उसे व्यक्त करने का अपना एक तरीका होता है। कहीं पानी को लेकर झगड़ा है तो कहीं जमीन का झगड़ा है। किसी की वजह से अगर पानी नहीं मिल रहा है तो उससे प्रेम से भी अपनी बात भी कही जा सकती है तो दूसरा व्यक्ति सहजता से मान भी जाये पर जहां दादागिरी, क्रोध या घृणा से बात कही गयी वहां अच्छे परिणाम की संभावना नगण्य हो जाती है। मनुष्य में अहंकार होता है और जहां उससे लगता है कि वह प्रेम से बोलने पर सामने वाले की आंखों में छोटा हो जायेगा या कड़ा बोलकर बड़प्पन दिखायेगा वहां विवाद होता है वहीं उसके अंदर अहंकार के कारण जो क्रोध पैदा होता है वही झगड़े का कारण बनता है।
इसलिये जहां तक हो सके मधुरवाणी बोलना चाहिये। इसे सज्जनता समझें या चालाकी पर इस संसार को इसी तरह ही जीता जा सकता है। आज जब मनुष्य में विवेक की कमी है वहां तो बड़ी सहजता से किसी में हवा से फुलाकर काम निकलवाया जा सकता है तब क्रोध करने की आवश्यकता है? दूसरी बात यह है कि लोगों में सहिष्णुता के भाव की कमी हो गयी है जिससे वह किसी की बात को सहन नहीं कर सकते। ऐसे समय में उनसे जरा सी कटु बात कहना भी उनको शत्रु बनाना है। अतः अच्छा यही है कि सभी से मधुरवाणी में बोलकर अपना काम निकालें।
संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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जनवाद को ब्रह्मज्ञान-हिन्दी व्यंग्य (janvad ko brahmagyan-hindi vyangya)


जांच अधिकारी के ब्रह्मज्ञान से दुःखी जनवादी प्रेमी अपनी मृतक प्रेमिका की हत्या के मुकदमे में अपना दर्दभरा बयान करते हुए उसकी शिकायत करेगा-ऐसा कहीं पढ़ने को मिला। यह जनवादी प्रेमी पत्रकार है और अपनी पत्रकार प्रेमिका के माता पिता पर अपने सम्मान के लिये उसकी हत्या का आरोप लगा रहा है। इस जनवादी प्रेमी ने ही आर्यसमाज के एक मंदिर में अपनी उस स्वर्गीय प्रेमिका के साथ विवाह करने की तैयारी की थी, फिर प्रेमिका को अपने ही परिवार वालों की रजामंदी के लिये भेज दिया।

मामला यहीं से शुरु हुआ। यहीं से हम भी अपना विचार शुरु करते हैं। जनवादी दिखना एक शौक है पर यह कोई मुफ्त में नहीं पालता। इस तरह के शौक केवल भारतीय अध्यात्मवादी ही पाल सकते हैं कि बिना कुछ लिये दिये समाज निर्माण के लिये प्रयास करें। यह जनवादी कहीं न कहीं से प्रायोजित होने पर जोश के साथ सक्रिय होते हैं। कहीं कोई राजनीति, सामाजिक या गैर हिन्दू धार्मिक संगठन अपने आर्थिक स्त्रोत इनको उपलब्ध कराता है तो कहीं कोई विदेशी मानवाधिकार संगठन की इन पर कृपा होती है।

आमतौर से जनवाद और प्रगतिशील अलग अलग विचारधारायें मानी जाती हैं पर दोनों का मुख भारतीय दर्शन की दशा और दिशा के सामने विरोध में खुला रहता है। इनके बुद्धिजीवियों का देश पर इतना गहरा प्रभाव शैक्षणिक तथा सामाजिक संगठनों में रहा है कि परंपरावादी बुद्धिजीवी भले ही अलग सोचते हैं पर उनकी शैली भी इनकी तरह हो गयी है। जनवादी या प्रगतिशील समाज को एक शासित होने वाली इकाई मानते हैं और उनका प्रयास यही है कि जन कल्याण के सारे काम केवल राज्य डंडे के जोर पर करे। जबकि परंपरा के अनुसार राज्य और समाज एक पृथक इकाई है और दोनों के शिखर पुरुष अपने ढंग से काम करें यही श्रेयस्कर है। राज्य का जितना कम हस्तक्षेप समाज में होगा उतना ही वह विकसित हो सकेगा। मगर स्थिति यह है कि इन जनवादियों और प्रगतिशीलों ने परिवारों तक में कानून का हस्तक्षेप करा दिया है। हत्या एक जुर्म है पर कहीं दहेज हत्या को अलग कर नया कानून बनवा दिया। आतंकवाद की हत्या को अलग परिभाषित कर अलग से कानून बना। औरत और मर्द के जिंदगी के अलग अलग रूप दिखाये जाते हैं। मतलब जीने और मरने में की स्थितियों में भेद पैदा किया और बात करते हैं जबकि दावा यह कि समतावाद ला रहे हैं।

एक मजे की बात है कि समाज को आधार प्रदान करने वाले सक्रिय, कमाऊ तथा प्रतिभावान पुरुष इन जनवादियों और प्रगतिशीलों की दृष्टि से जारशाही का प्रतीक है जो केवल अपनी स्त्री तथा बच्चों पर अन्याय करता है। जनवादी और प्रगतिशील विचारकों के इस समूह को कथित विकासवादी भी मान सकते हैं जिनको ब्रह्मज्ञान तो अपना दुश्मन दिखाई देता है।

बहरहाल जनवादी प्रेमी इस समय ऐसे ही विकासवादियों का नायक बना हुआ है। वह शादी रद्द करने के पीछे जो तर्क दे रहा है वह ब्रह्मज्ञानियों को हज़म नहीं हो सकता। उसकी स्वर्गीय प्रेमिका ने माता पिता के इच्छा के बिना विवाह की तारीख तय की और फिर चली गयी। जनवादी प्रेमी चाहे कितना भी कहे कहीं न कहीं उसके प्रति दहेज की भारी रकम पाने का मोह जरूर उसमें रहा होगा। जहां तक जनवादी बुद्धिजीवियों का प्रश्न है वह बिना प्रायोजन के न तो किसी अभियान पर लिखते हैं न बोलते हैं ऐसे में वह प्रेमी बिना प्रायोजन के विवाह करता है इसमें संदेह है। विकासवादी तो प्रायोजित होकर काम करते हैं इसलिये यह संभव नहीं है कि कथित पत्रकार प्रेमी अपने अंदर के किसी कोने में दहेज का मोह न पालता हो। दूसरी बात यह है कि दिल्ली में उसकी स्थिति इतनी सुदृढ़ नहीं हो सकती थी जहां वह सभ्रांत परिवार का रूप प्रदर्शित कर सकता-संभव है शादी और बच्चे होने के बाद नमक रोटी के चक्कर में जनवाद का भूत साथ छोड़ देता।

विकासवादी बुद्धिजीवी युवक युवतियां ढाबों या होटलों पर जाकर काफी या चाय पीते हुए फोटो जरूर खिंचवाते हैं और उसके लिये पांच सौ से हजार तक की रकम उनके पास उपलब्ध भी हो जाती होगी पर घर गृहस्थी एक विशाल अंतहीन अभियान है जिसमें ढेर सारे रुपये चाहिये। फ्रिज, गाड़ी कूलर या ऐसी, टीवी तथा अन्य सामान न हो तो गृहस्थी किसी मज़दूर जैसी लगती है-यह अलग बात है कि महल बनाने वाले ईंटों की कच्ची झोंपड़ियों में रहते हुए कुछ मजदूरों के घर में भी आजकल यह सामान दिख ही जाता है-और विकासवादी बुद्धिजीवी कितना भी मज़दूरों, गरीबों तथा बेसहारों के कल्याण के लिये सक्रिय हो पर वह स्वयं वैसा दिख नहीं सकता। उसे तो जींस पहनना है और ढाबे या होटल में खाना है, सबसे बड़ी बात यह कि स्मार्ट दिखना है। इसके लिये चाहिए पैसा! शादी का मामला हो तो दहेज छोड़ने का काम कोई ब्रह्मज्ञानी ही विरला ही कर सकता है प्रायोजन के आदी विकासवादियों से ऐसी अपेक्षा निरर्थक है।

उस जनवादी पत्रकार की स्वर्गीय प्रेमिका की मासूम मां जेल में है और वह भी नारी है पर जनवादियों के सहयोगी नारीवादी बिना इसकी परवाह किये रोज प्रदर्शन किये जा रहे हैं। इनकी चालाकी कोई नहीं समझ पाता। यह अपना घर बचाये रखने और प्रचार पाने के लिये किसी भी बर्बाद घर की आग पर अपनी रोटी सैंक सकते है, कोई मर गया तो फिर तो इनकी पौ बारह है क्योंकि प्रचार माध्यमों में सहानुभूति लहर इनके पक्ष के अनुसार ही बहती है। उसे न्याय दिलवाना है! इन कथित बुद्धिमानों से कौन पूछ कि मरे हुए आदमी के लिये इस संसार में रह ही क्या जाता है जहां वह न्याय जैसी दुर्लभ चीज पाकर सजायेगा? मगर यह ब्रह्मज्ञान की बात है जो इनको विष तुल्य लगेगी।

जांच अधिकारी मृतक युवती के जनवादी मित्रों को ब्रह्मज्ञान दे रहा होगा उसे इसका आभास नहीं है कि सांप काटे हुए आदमी को पानी पिला रहा है जो कि उसके लिये विष तुल्य है। जनवाद ने जिसके दिमाग को काट लिया उसके लिये ब्रह्मज्ञान विष की तरह ही है। जिस तरह माया के शिखर पर बैठे आदमी को सत्य से डर लगता है वैसे ही जनवाद को ब्रह्मज्ञान से भय लगता है।
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कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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सांख्ययोग का प्रतीक हैं बाबा प्रह्लाद जानी-हिन्दी लेख


आखिर हठयोगी प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से चिकित्सा विज्ञान हार गया। उसने मान लिया कि इस हठयोगी का यह दावा सही है कि उसने पैंसठ साल से कुछ न खाया है न पीया है। अब इसे चिकित्सा विज्ञानी ‘चमत्कार’ मान रहे हैं। मतलब यह कि बात घूम फिर कर वहीं आ गयी कि ‘यह तो चमत्कार है’, इसे हर कोई नहीं कर सकता और योग कोई अजूबा है जिसके पास सभी का जाना संभव नहीं है। यहां यह समझ लेना चाहिए कि बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ सांख्ययोग के पथिक हैं और अगर कोई कर्मयोग का पथिक है तो वह भी उतना ही चमत्कारी होगा इसमें संदेह नहीं हे।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ यकीनन एक महान योगी हैं और उन जैसा कोई विरला देखने में आता है। हमारे प्राचीन ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। सुदामा के चावल के दाने भी उनके भोजन के लिये पर्याप्त थे।
प्रसंगवश मित्रता के प्रतीक के रूप में भगवान श्री कृष्ण और सुदामा का नाम लिया जाता है। दोनों ने एक ही गुरु के पास शिक्षा प्राप्त की थी। पूरी दुनियां श्री सुदामा को एक गरीब और निर्धन व्यक्ति मानती है पर जिस तरह श्रीकृष्ण जी ने उनसे मित्रता निभाई उससे लगता है कि वह इस रहस्य को जानते थे कि सुदामा केवल माया की दृष्टि से ही गरीब हैं क्योंकि सहज योग ज्ञान धारण करने की वजह से उन्होंने कभी सांसरिक माया का पीछा नहीं किया। संभवत श्रीसुदामाजी ने एक दृष्टा की तरह जीवन व्यतीत किया और शायर यही कारण है कि उनके पास माया नहंी रही। अलबत्ता परिवार की वजह से उसकी उनको जरूरत रही होगी और उसके अभाव में ही श्रीसुदामा को गरीब माना गया।
जो खाना न खाये, पानी न पिये उसे संसार की माया वरण करे भी कैसे? यह ‘हठयोग’ भारतीय योग विज्ञान का बहुत ऊंचा स्तर है पर चरम नहीं है। यह ऊंचा स्तर पाना भी कोई हंसीखेल नहीं तो चरम पर पहुंचने की बात ही क्या कहना?
पहले हम योग का चरम स्तर क्या है उसे समझ लें जो इस पाठ के लेखक की बुद्धि में आता है।
इस संसार में रहते हुए अपने मन, विचार, और विचारों के विकार निरंतर निकालते रहने तथा तत्व ज्ञान को धारण करना ही योग का चरम स्तर है। इसमें आप देह का खाया अपना खाया न समझें। गले की प्यास को अपनी आत्मा की न समझें। अपने हाथ से किये गये कर्म को दृष्टा की तरह देखें। संसार में सारे कार्य करें पर उनमें मन की लिप्तता का अभाव हो।
हमारे देश के कुछ संतों द्वारा प्राचीन ग्रंथों का एक प्रसंग सुनाया जाता है। एक बार श्रीकृष्ण जी के गांव कहीं दुर्वासा ऋषि आये। उन्होंने उनके गांव से खाना मंगवाया। गांव वालों को पता था कि उनकी बात न मानने का अर्थ है उनको क्रोध दिलाकर शाप का भागी बनना। इसलिये गांव की गोपियां ढेर सारा भोजन लेकर उस स्थान की ओर चली जो यमुना के दूसरे पार स्थित था। किनारे पर पहुंचे कर गोपियों ने देखा कि यमुदा तो पानी से लबालब भरी हुई है। अब जायें कैसे? वह कृष्ण जी के पास आयीं। श्री कृष्ण जी ने कहा-‘तुम लोग यमुना नदी से कहो कि अगर श्रीकृष्ण ने कभी किसी स्त्री को हाथ न लगाया हो तो उनकी तपस्या के फल्स्वरूप हमें रास्ता दो।’
गोपियां चली गयीं। आपस में बात कर रही थीं कि अब तो काम हो ही नहीं सकता। इन कृष्ण ने दसियों बार तो हमको छूआ होगा या हमने उनको पकड़ा होगा।
यमुना किनारे जाकर उन्होंने श्रीकृष्ण जी बात दोहराई। उनके मुख से बात निकली तो यमुना वहां सूख गयी और गोपियां दुर्वासा के पास भोजन लेकर पहुंची।
दुर्वासा जी और शिष्यों ने सारा सामान डकार लिया और जमकर पानी पिया। गोपियां वहां से लौटी तो देखा यमुना फिर उफन रही थी। वह दुर्वासा के पास आयी। उन्होंने गोपियों से कहा-‘यमुना से कहो कि अगर दुर्वासा से अपने जीवन में कभी भी अन्न जल ग्रहण नहीं किया हो तो हमें रास्ता दो।’
गोपियों का मुंह उतर गया पर क्रोधी दुर्वासा के सामने वह कुछ न बोल पायीं। वहां से चलते हुए आपस में बात करते हुए बोली-यह कैसे संभव है? इतना बड़ा झूठ कैसे बोलें? इन्होंने तो इतना भोजन कर लिया कि यमुना उनकी बात सुनकर कहीं क्रोध में अधिक न उफनने लगे।
गोपियां ने यमुना किनारे आकर यही बात कहीं। यमुना सूख गयी और हतप्रभ गाोपियां उस पार कर गांव आयी।
हम इस कथा को चमत्कार के हिस्से को नज़रअंदाज भी करें ं तो इसमें यह संदेश तो दिया ही गया है कि सांसरिक वस्तुओं का उपभोग तथा उनमें लिप्तता अलग अलग विषय हैं। संकट उपभोग से नहींे लिप्तता से उत्पन्न होता है। जब कोई इच्छित वस्तु प्रापत नहीं होती तो मन व्यग्र होता है और मिलने के बाद नष्ट हो जाये तो संताप चरम पर पहुंच जाता है।
बाब प्रह्लाद जानी को सांख्ययोगी भी माना जा सकता है। श्रीमद्भागवत गीता में सांख्ययोग तथा कर्मयोग की दोनों को समान मार्ग बताया गया है। भगवान श्रीकृष्ण इसी कर्मयोग की स्थापना करने के लिये अवतरित हुए थे क्योंकि संभवतः उस काल में सांख्ययोग की प्रधानता थी और कर्मयोग की कोई सैद्धांतिक अवधारणा यहां प्रचलित नहीं हो पायी थी। आशय यह था कि लोग संसार को एकदम त्याग कर वन में चले जाते थे और संसार में रहते तो इतना लिप्त रहते थे कि उनको भगवत् भक्ति का विचार भी नहीं आता। लोग या तो विवाह वगैरह न कर ब्रह्म्चारी जैसा जीवन बिताते या इतने कामनामय हो जाते कि अपना सांसरिक जीवन ही चौपट कर डालते। कर्मयोग का सिद्धांत मध्यमार्गी और श्रेष्ठ है और इसकी स्थापना का पूर्ण श्रेय भगवान श्रीकृष्ण को ही जाता है।
बाबा प्रह्लाद जानी ने कम उमर में ही इस संसार के भौतिक पदार्थों का उपयोग त्याग दिया पर प्राणवायु लेते रहे। उनको बचपन में भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो गया पर उनको देखकर यह नहीं सोचना चाहिये कि योग साधना कोई बड़ी उमर में नहीं हो सकती। अनेक लोग उनकी कहानी सुनकर यह सोच सकते हैं कि हम उन जैसा स्तर प्राप्त नहीं कर सकते तो गलती पर हैं। दुर्वासा जी भोजन और जल करते थे पर उसमें लिप्त नहीं होते थे। वह आत्मा और देह को प्रथक देखते थे। मतलब यह कि हम जब खाते तो यह नहीं सोचना चाहिये कि हम खा रहे हैं बल्कि यह देखना चाहिये कि देह इसे खा रही है।
बात अगर इससे भी आगे करें तो हम विचार करते हुए देखें कि आंख का काम है देखना तो देख रही है, कानों का काम है सुनना तो सुन रहे हैं, टांगों का काम है चलना चल रही हैं, हाथों का काम करना तो करते हैं, मस्तिष्क का काम है सोचना तो सोचता है, और नाक का काम है सांस लेना तो ले रही है। हम तो आत्मा है जो कि यह सब देख रहे हैं।
बाबा प्रह्लाद जानी ने सब त्याग दिया सभी को दिख रहा है पर जिन्होंने बहुत कुछ पाया पर उसमें लिप्त नहीं हुए वह भी कोई कम त्यागी नहीं है। ऐसे कर्मयोगी न केवल अपना बल्कि इस संसार का भी उद्धार करते हैं क्योंकि जहां निष्काम कर्म तथा निष्प्रयोजन दया करने की बात आई वहां आपको इस संसार में जूझना ही पड़ता है।
प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ भारतीय दर्शन का महान प्रतीक हैं। उनसे विज्ञान हार गया पर भारतीय योग विज्ञान में ऐसे सूत्र हैं जिनको समझा जाये तो पश्चिमी विज्ञान का पूरा किला ही ध्वस्त हो जायेगा। बाबा प्रह्लाद जानी ‘माताजी’ से प्रेरणा लेना चाहिये। भले ही उनके सांख्ययोग के मार्ग का अनुसरण न करें पर कर्मयोग के माध्यम से इस जीवन को सहज बनाकर जीने का प्रयास करें।

कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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चाणक्य संदेश-अपनी तारीफ खुद कभी न करें (apni tarif khud na karen-chankya niti in hindi)


अतिक्लेशेन ये चार्था धर्मस्यातिक्रमेण तु।
शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवंतु में।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिस धन की प्राप्ति दूसरों को क्लेश पहुंचानेे या शत्रु के सामने सिर झुकाने से हो वह स्वीकार करने योग्य नहीं है।
पर-प्रोक्तगुणो वस्तु निर्गृणऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽ लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
चाहे कोई मनुष्य कम ज्ञानी हो पर अगर दूसरे उसके गुणों की प्रशंसा करते हैं तो वह गुणवान माना जायेगा किन्तु जो पूर्ण ज्ञानी है और स्वयं अपना गुणगान करता है तो भी वह प्रशंसनीय नहीं माना जा सकता चाहे भले ही स्वयं देवराज इंद्र हो।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-थोथा चना बाजे घना इसलिये ही कहा जाता है कि जिसके पास गुण नहीं है वह अपने गुणों की व्याख्या स्वयं करता है। यह मानवीय प्रकृत्ति है कि अपने घर परिवार के लिये रोटी की जुगाड़ में हर कोई लगा है और विरले ही ऐसे लोग हैं जो दूसरों के हित की सोचते हैं पर अधिकतर तो खालीपीली प्रशंसा पाने के लिये लालायित रहते हैं। धन, वैभव और भौतिक साधनों के संग्रह से लोगों को फुरसत नहीं है पर फिर भी चाहते हैं कि उनको परमार्थी मानकर समाज प्रशंसा प्रदान करे। वैसे अब परमार्थ भी एक तरह से व्यापार बन गया है और लोग चंदा वसूल कर यह भी करने लगे हैं पर यह धर्म पालन का प्रमाण नहीं है। यह अलग बात है कि ऐसे लोगों का कथित रूप से सम्मान मिल जाता है पर समाज उनको ऐसी मान्यता नही देता जैसी की वह अपेक्षा करते हैं। ऐसे लोग स्वयं ही अपनी प्रशंसा में विज्ञापन देते हैं या फिर अपनी प्रशंसा में लिखने और बोलने के लिये दूसरे प्रचारकों का इंतजाम करते हैं। कहीं कहीं तो ऐसा भी होता है कि ‘तू मुझे चाट, मैं तुझे चाटूं’, यानि एक दूसरे की प्रशंसा कर काम चलाते हैं। इसके बावजूद यह वास्तविकता है कि हृदय से केवल सम्मान उसी को प्राप्त होता है जो ईमानदारी सें परमार्थ का काम करते हैं।
धन प्राप्त तो कहीं से भी किया जा सकता है पर उसका स्त्रोत पवित्र होना चाहिये। दूसरों को क्लेश पहुंचाकर धन का संग्र्रह करने से पाप का बोझ सिर पर चढ़ता है। उसी तरह ऐसा धन भी प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिये जो शत्रु के सामने सिर झुकाकर प्राप्त होता है। आखिर मनुष्य धन किसी लिये प्राप्त करता है? यश अर्जित करने के लिये! अगर शत्रु के आगे सिर झुका दिया तो फिर वह कहां रह जायेगा।

संकलक, लेखक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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चाणक्य नीति-अपने गुण का खुद बखान करना कम ज्ञान का प्रमाण


पर-प्रौक्तगुणो वस्तु निर्गुणोऽपि गुणी भवेत्।
इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गृणैः।।
हिन्दी में भावार्थ-
जिसके गुणों की प्रशंसा अन्य लोग भी करें उसका ज्ञान भले ही अल्प हो पर फिर भी उसे गुणवान माना जायेगा। इसके विपरीत जिसे ज्ञान में पूर्णता प्राप्त हो वह अगर स्वयं उनका बखान करे तो गुणहीन माना जायेगा भले ही वह साक्षात देवराज इंद्र ही क्यों न हो।
गुणैरुत्तमतां याति नीच्चैरासनसंस्थिताः।
प्रासादशिखरस्थोऽपि काकः किं गरुडायते।।
हिन्दी में भावार्थ-
ऊंचे स्थान पर बैठने से कोई ऊंचा या महान नहीं हो जाता। गुणवान ही ऊंचा माना जाता। महल की अटारी पर बैठने से कौआ, गरुड़ नहीं कहलाने लगता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-आजकल की भौतिक दुनियां में संचार साधन अत्यंत प्रभावशाली हो गये हैं। अखबार, टीवी चैनल, मोबाईल, कंप्यूटर तथा अन्य साधनों से अधिकतर लोग जुड़े हुए हैं। अपनी व्यवसायिक बाध्यताओं के चलते प्रचार प्रबंधकों ने फिल्म, राजनीति, टीवी चैनल, साहित्य, कला, तथा पत्रकारिता में अनेक मिथक स्थापित कर दिये हैं। दुनियां भर में ऐसे मिथक एक दो हजार से अधिक नहीं होंगे। अपने ही देश में भी सौ दो सौ ऐसे अधिक प्रभावशाली नाम और चेहरे नहीं होंगे जो प्रचार माध्यमों में छाये हुए हैं। प्रचार माध्यम उनके चेहरे, नाम और बयान प्रस्तुत कर लोगों को व्यस्त रखते हैं। यह देखकर आजकल के अनेक युवा भ्रमित हो जाते हैं। उनको लगता है कि यह काल्पनिक चरित्र ही जीवन का सत्य है। राजनीति, अर्थतंत्र, प्रशासन, साहित्य, पत्रकारिता, फिल्म तथा कला के शिखर पर स्थापित लोग त्रिगुणमयी माया के गुणों से परे हैं-यह भ्रम पता नहीं कैसे लोगों में हो जाता है। जबकि सच यह है कि यह शिखर ही अपने आप में मायावी हैं इसलिये इन पर बैठे लोगों के सात्विक होने की आशा ही करना बेकार है। बाजार और प्रचार केवल उनके चेहरे, नाम और बयान भुनाने का प्रयास करते हैं। फिल्मों के कल्पित नायक सदी के महानायक और गायक सुर सम्राट कहलाते हैं पर सच यह है कि उनका कोई सामाजिक योगदान नहीं होता।
महान वही है जिसका कृत्य समाज में चेतना, आत्मविश्वास तथा दृढ़ता लाने का काम करता है। इतना ही नहीं उनका बदलाव लंबे समय तक रहता है। कहने का तात्पर्य यही है कि आर्थिक, सामाजिक तथा सामाजिक शिखरों पर विराजमान लोगों को महान समझने की गलती नहीं करना चाहिये। वह भी आम आदमी की तरह होते हैं। जिस तरह आम आदमी अपने परिवार की चिंता करता है वैसे ही वह करते हैं। महान आदमी वह है जो पूरी तरह से समाज की चिंता करते हुए उसे हित के लिये काम करता है। बड़े आदमी बनने के लिये यह आवश्यक है कि आप दूसरे लोगों के काम निस्वार्थ भाव से करें और अहंकार भी न दिखायें।
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भर्तृहरि नीति शतक-हर आदमी अभिनेता है (all men is a drama actor)


क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः क्षणं वितैहीनः क्षणमपि च संपूर्णविभवः।
जराजीर्णेंगर्नट इव वलीमण्डितततनुर्नरः संसारान्ते विशति यमधानीयवनिकाम्।।
हिन्दी में भावार्थ-
क्षण भर के लिये बालक, क्षणभर के लिये रसिया, क्षण भर में धनहीन और क्षणभर में संपूर्ण वैभवशाली होकर मनुष्य बुढ़ापे में जीर्णशीर्ण हालत में में पहुंचने के बाद यमराज की राजधानी की तरफ प्रस्थित हो जाता है। एक तरह से इस संसार रूपी रंगमंच पर अभिनय करने के लिये मनुष्य आता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अगर हम अपने जीवन को एक दृष्टा की तरह देखें तो इस बात का अहसास होगा कि हम वास्तव में इस धरती पर आकर रंगमचीय अभिनय की प्रस्तुति के अलावा दूसरा क्या करते हैं? अपने नित कर्म में लग रहते हुए हमें यह पता ही नहीं लगता कि हमारी देह बालपन से युवावस्था, अधेड़ावस्था और और फिर बुढ़ापे को प्राप्त हो गयी। इतना ही नहीं हम अपने गुण दोषों के साथ इस बात को भी जानते हैं कि अनेक प्रकार की दैहिक और मानसिक आवश्यकताओं की पूर्ति के बिना हम चल ही नहीं सकते। इसके बावजूद अपने आपको दोषरहित और कामनाओं से रहित होने का बस ढोंग करते हैं। अनेक मनुष्य अपने आपको श्रेष्ठ साबित करने के लिये हम आत्मप्रवंचना तो करते हैं पर उनके हाथ से किसी का भला हो, यह सहन नहीं करते।
गरीबों का कल्याण या बालकों को शिक्षा देने की बात तो सभी करते हैं पर कितने लोग अपनी कसौटी पर खरे उतरते हैं यह सभी जानते हैं। स्थिति यह है कि हमारे देश में अनेक लोग बच्चों को अध्यात्मिक शिक्षा इसलिये नहीं देते कि कहीं वह ज्ञानी होकर उनकी बुढ़ापे में उनकी सेवा करना न छोड़ दे। भले ही आदमी युवा है पर उसे बुढ़ापे की चिंता इतनी सताती है कि वह भौतिक संग्रह इस सीमा तक करता है कि उस समय उसके पास कोई अभाव न रहे। कहने का अभिप्राय है कि हर आदमी अपनी रक्षा का अभिनय करता है पर दिखाता ऐसे है कि जैसे कोई बड़ा परमार्थी हो।

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हमेशा द्वंद्व रस पीयें जरूरी नहीं-हिन्दी व्यंग्य


अगर आप हमसे पूछें कि सबसे अधिक किस विषय पर लिखना पढ़ना बोझिल लगता है तो वह है अपने देवी देवताओं फूहड़ चित्र बनाने या उन पर हास्य प्रस्तुति करने वालों का विरोध का विषय ऐसा है जिस पर कुछ कहना बोझिल बना देता है। अगर कहीं ऐसा देख लेते हैं तो निर्लिप्त भाव से देखकर मुख फेर लेते हैं। इसका कारण यह नहीं कि अपनी अभिव्यक्ति देने में कोई भय होता है बल्कि ऐसा लगता है कि एकदम निरर्थक काम कर रहे हैं। उनके कृत्य पर खुशी तो हो नहीं सकती, चिढ़ आती नहीं पर अगर केवल अभिव्यक्ति देनी है इसलिये उस पर लिखें तो ऐसा लगता है कि अपने को कृ़ित्रम रूप से चिढ़ाकर उसका ही लक्ष्य पूरा कर रहे हैं जिसमें हमें मिलना कुछ नहीं है। ऐसे में जब दूसरे लोग उनकी बात पर चिढ़कर अभिव्यक्त होते हैं तो लगता है कि वह ऐसे अप्राकृत्तिक लोगों का आसान शिकार बन रहे हैं-अपने कृत्यों से प्रचार पाना ही उन लोगों का लक्ष्य होता है भले ही उनको गालियां मिलती हों। उनका मानना तो यह होता है कि ‘बदनाम हुए तो क्या, नाम तो हुआ!’
भले ही कुछ लोग इससे सहमत न हों पर जब हम विचलित नहीं हो रहे तो दूसरों की ऐसी प्रवृत्ति पर कटाक्ष करने का अवसर इसलिये ही मिल पाता है। अभी दो प्रसंग हमारे सामने ऐसे आये जिनका संबंध भारतीय धर्मों या विचारधारा से नहीं है। वैसे यहां हम स्पष्ट कर दें कि हमारी आस्था श्रीमद्भागवत् गीता और योग साधना के इर्दगिर्द ही सिमट गयी है और इस देश का आम आदमी चाहे किसी भी धार्मिक विचाराधारा से जुड़ा हो हम भेद नहीं करते। हमारा मानना है कि हर धर्म, जाति, भाषा या क्षेत्रीय समूहों का आम इंसान अपने जीवन की तकलीफों से जूझ रहा है इसलिये वह ऐसे विवादों को नहीं देखना चाहता जो प्रायोजित कर उसके सामने प्रस्तुत किये जाते हैं। मतलब हम आम लेखक अपने आम पाठकों से ही मुखातिब हैं और उन्हें यह लेख पढ़ते हुए अपनी विचारधारायें ताक पर रख देना चाहिये क्योकि यह लिखने वाला भी एक आम आदमी है।
चीन की एक कंपनी ने किसी के इष्ट का चिन्ह चप्पल के नीचे छाप दिया। अब उसको लेकर प्रदर्शन प्रायोजित किये जा रहे हैं। उधर किसी पत्रिका में किसी के इष्ट को मुख में बोतल डालते हुए दिखाया गया है। उस पर भी हल्ला मच रहा है। इन गैर भारतीय धर्मो के मध्यस्थ-जी हां, हर धर्म में सर्वशक्तिमान और आम इंसान के बीच इस धरती पर पैदा हुआ ही इंसान मार्गदर्शक बनकर विचरता है जो तय करता है कि कैसे धर्म की रक्षा हो-भारत में पैदा हुए धर्मों पर अविकासवादी चरित्र, असहिष्णु, क्रूर तथा अतार्किक होने का आरोप लगाते हैं। हम उनके जवाब में अपनी सहिष्णुता, तार्किकता, विकासमुखी चरित्र या उदारता की सफाई देने नहीं जा रहे बल्कि पूछ रहे हैं कि महाशयों जरा बताओ तो सही कि अगर किसी ने चप्पल के नीचे या किसी पत्रिका में ऐसा चित्र छाप दिया तो तुम उसे देख ही क्यों रहे हो? और देख रहे हो तो हमारी तरह मुंह क्यों नहीं फेरे लेते।
ऐसा एक बार नहीं अनेक बार हुआ है कि भारतीय देवी देवताओं का मजाक उड़ाया गया पर हमने कभी भी उस इतना शोर नहीं मचाया। इतना ही नहीं सर्वशक्तिमान के स्वरूपों को पेंट या जींस पहनाकर की गयी प्रस्तुति का विरोधी करने वाले सहविचारकों को भी विरोध करने पर फटकारा और समझाया कि ‘यह सब चलता है।’
एक ने हमसे कहा था कि‘आप कैसी बात करते हो, किसी दूसरे समाज के इष्ट स्वरूप की कोई ऐसी प्रस्तुति करता तो पता लगता कि वह कैसे शोर मचा रहे हैं।’
हमने जवाब दिया कि ‘याद रखो, उनसे हमारी तुलना नहीं है क्योंकि हमारे देश में ही ब्रह्म ज्ञानी और श्रीगीता सिद्ध पैदा होते हैं। इनमें कई योगी तो इतने विकट हुए हैं कि आज भी पूरा विश्व उनको मानता है।’
सर्वशक्तिमान का मूल स्वरूप निराकार और अनंत है। जिसके हृदय प्रदेश में विराज गये तो वह हर स्वरूप में उसका दर्शन कर लेता है, भले ही वह धोते पहने दिखें या जींस! कहने का तात्पर्य यह है कि भक्ति की चरम सीमा तक केवल भारतीय अध्यात्मिक ज्ञानी ही पहुंच पाते हैं-यही कारण है कि भारत के सर्वशक्तिमान के स्वरूपों का कोई भद्दा प्रदर्शन प्रस्तुत करता है तो उस पर बुद्धिजीवियों का ही एक वर्ग बोलता है पर संत और साधु समाज उसे अनदेखा कर जाते हैं।
जाकी रही भावना जैसी! गुण ही गुणों बरतते हैं। शेर चिंघाडता है, कुत्ता भौंकता है और गाय रंभाती है क्योंकि यह उनके गुण है। हंसना और मुस्कराना इंसान को कुदरत का तोहफा है जिसका उसे इस्तेमाल करना चाहिये। भौंकने का जवाब भौंकने से देने का अर्थ है कि अपने ही ज्ञान को विस्मृत करना। हमारे यहां हर स्वरूप में भगवान के दर्शन में एक निरंकार का भाव होता है।
एक चित्रकार ने भारतीय देवी देवताओं के भद्दे चित्र बनाये। लोगों ने उसका विरोध कर उसे विश्व प्रसिद्ध बना दिया। अज्ञानता वश हम विरोध कर दूसरों का विश्व प्रसिद्ध बनाते जायें इससे अच्छा है कि मुंह फेरकर उनकी हवा निकाल दें। उस चित्रकार के कृत्य हमने भी विचार किया तब यह अनुभूति हुई कि उसका क्या दोष? जैसे संस्कार मिले वैसा ही तो वह चलेगा। बुढ़ापे में एक युवा फिल्म अभिनेत्री से आशिकी के चर्चे मशहुर करा रहा था? दरअसल भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से वह बहुत दूर था। जब भारतीय अध्यात्मिक दर्शन से जुड़े समाज में पैदा हुए लोग ही भूल जाते हैं तो वह तो पैदा ही दूसरे समाज में हुआ था। उसका उसे यह लाभ मिला कि वह आजकल विदेश में ऐश कर रहा है क्योंकि उसे यह कहने का अवसर मिल गया है कि मुझे वहां खतरा है।’
कहने का तात्पर्य यह है कि हम विरोध कर दूसरे को लोकप्रिय बना रहे हैं। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में उपेक्षासन का वर्णन है। यह पढ़ा तो अब हमने पर चल इस पर बरसों से रहे हैं। दूसरे समाजों के लिये तो यह नारा है कि ‘और भी गम हैं इस जमाने में’, पर हमारा नारा तो यह है कि ‘बहुत सारी खुशियां भी हैं इस जहां में’। देखने के लिये इतनी खूबसूरत चेहरे हैं। यहां कोई पर्दा प्रथा नहीं है। हम लोग सभी देवताओं की पूजा करते हैं और उसका नतीजा यह है कि वन, जल, तथा खनिज संपदा में दुनियां की कोई ऐसा वस्तु नहंी है जो यहां नहीं पायी जाती। विश्व विशेषज्ञों का कहना है कि ‘भूजल स्तर’ सबसे अधिक भारत में ही है। जहां जल देवता की कृपा है वहीं वायु देवता और अग्नि देवता-जल में आक्सीजन और हाईड्रोजन होता है-का भी वास रहता है। इतनी हरियाली है कि मेहनत कर पैसा कमाओ तो स्वर्ग का आनंद यहीं ले लो उसके लिये जूझने की जरूरत नहीं है। लेदेकर संस्कारों की बात आती है और भारतीय अध्यात्मिक दर्शन में योग साधना तथा मंत्रोच्चार के साथ एसी सिद्धि प्रदान करने की सुविधा प्रदान करता है कि दैहिक और मानसिक अनुभूतियां इतनी सहज हो जाती हैं कि उससे किसी भी अपने अनुकूल किसी अच्छी वस्तु, पसंदीदा आदमी, या प्रसन्न करने वाली घटना से संयोग पर परम आनंद की चीजें प्राप्त हो जाती हैं। बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो तथा बुरा मत कहो की तर्ज पर हमारे यहां लोग आसानी से चलते हैं न कि हर जरा सी बात पर झंडे और डंडे लेकर शोर मचाने निकलते हैं कि ‘हाय हमारा धर्म खतरे में है।’
आखिरी बात यह है कि भारतीय अध्यात्मिक दर्शन की महिमा ऐसी है कि यहां के आदमी बाहर जाकर भी इसे साथ ले जाते हैं और यहां रहने वाले दूसरे समाजों के आम लोग भी स्वतः उसमें समाहित होते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय अध्यात्मिक ज्ञान की यह खूबी है कि कुछ बाहर स्थापित विचारों को भले ही मानते हों पर उनमें संस्कार तो इसी जमीन से पैदा होते हैं। यही कारण है कि आम आदमी सभी समूहों के करीब करीब ऐक जैसे हैं पर उनको अलग दिखाकर द्वंद्व रस पिलाया जाये ताकि उनके जज़्बातों का दोहन हो सके इसलिये ही ऐसे शोर मचावाया जाता है। ऐसे लोगों का प्रयास यही रहता है कि आम आदमी एक वैचारिक धरातल पर न खड़ा हो इसलिये उनमें वैमनस्य के बीच रोपित किये जायें।
दरअसल प्रचार माध्यम आम आदमी के दुःख सुख तथा समस्याओं को दबाने के लिये ऐसे प्रायोजित कार्यक्रमों के जाल में फंस जाते हैं और इससे शोर का ही विस्तार होता है शांति का नहीं-जैसा कि वह दावा करते हैं।
इस लेखक का यह लेख उस गैरभारतीय धर्मी ब्लागर को समर्पित है जिसने अपने इष्ट पर कार्टून बनाने के विरोध में अपने समाज के ठेकेदारों द्वारा आयोजित प्रदर्शन पर व्यंग्य जैसी सामग्री लिखी थी। उसने बताया था कि किस तरह लोग उस प्रदर्शन में शामिल हुए थे कि उनको पता ही नहीं था कि माजरा क्या है? अनेक बार एक पत्रिका पर ब्लाग देखकर भी मन नहीं हुआ था पर उसके लेख ने ऐसा प्रेरित किया कि फिर लिखने निकल पड़े-क्योंकि पता लगा कि यह स्वतंत्र और मौलिक अभिव्यक्ति का एक श्रेष्ठ मार्ग है। अक्सर उसे ढूंढने का प्रयास करते हैं। संभावना देखकर अनेक ब्लाग लेखकों के तीन वर्ष पुराने पाठों तक पहुंच जाते हैं, पर अभी तक पता नहीं लगा पाये।

कवि,लेखक संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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अंतर्जातीय विवाहों से समाज में बदलाव की कितनी उम्मीद-हिंदी आलेख


कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
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देश की सामाजिक, आर्थिक तथा पारिवारिक संकटों के निवारण का एक उपाय यह भी सोचा गया है कि अंतर्जातीय विवाहों का स्वीकार्य बनाय जाये। जहां माता पिता स्वयं ही अपनी पुत्री के लिये वर ढूंढते हैं वहां अंतर्जातीय विवाह का प्रयास नहीं करते क्योकि बदनामी का भय रहता ह। पर प्रेमविवाहों को अब मान्यता मिलने लगी है कम से कम सहधर्म के आधार पर यह अब कठिन बात नहीं रही। मगर क्या इससे कोई एतिहासिक परिवर्तन होने जा रहा है और हम क्या अब अगले कुछ वर्षों में एक नया समाज निर्मित होते देखेंगे? अगर सब ठीक हो जाये तो अलग बात है पर अंतर्जातीय या प्रेम विवाहों से ऐसे आसार दिख नहीं रहे कि भारतीय समाज अपने अंदर कोई नई सोच विकसति करने जा रहा है। इस लेखक ने कम से कम पांच ऐसी शादियों को देखा है जो अंतर्जातीय होने के साथ ही पारिवारिक स्वीकृति के साथ धूमधाम से हुईं और जिस दहेज रूपी दानव से मुक्ति की चाहत सभी को है उसकी उपस्थिति भी वहां देखी गयी। कहने का तात्पर्य यह है कि अपने सोच की दिशा बदले बिना परिवर्तन की आकांक्षा सिवाय हवा में तीर चलाने के अलावा कुछ नहीं दिखाई देती।

नारियों को अपने वर की स्वतंत्रता की वकालत करने वाले विवाह के बाद की परिस्थितियों से अपनी आंखें बंद किये बैठे हैं। सच तो यह है कि लड़की माता पिता के अनुसार विवाह करे या स्वयं प्रेमविवाह उसकी हालातों में परिवर्तन नहीं देखने को मिलता-चिंतकों के लिये यही चिंता का विषय होता है।

मात्र 45 दिन में एक प्रेमविवाह करने वाली लड़की संदेहास्पद स्थिति में मौत के काल में चली जाती है-यह हत्या है या आत्महत्या इस पर विवेचना चल रही है-तब जो सवाल उठते हैं जिनकी अनदेखी करना अपनी संकीर्ण मानसिकता का प्रमाण होगी और इससे इस बात की पुष्टि भी होगी कि यह देश केवल नारे और बाद पर चलता है और उनको ही चिंतन मान लिया जाता है।

लड़की पढ़ी लिखी तथा अच्छे घराने की थी। इतना ही नहीं वह अच्छी आय कमाने वाली भी थी। जाति अलग थी पर उसके पिता ने उसकी पसंद को स्वीकार करते हुए परंपरागत ढंग से विवाह करते हुए उसके अंतर्जातीय प्रेम विवाह को स्वीकृति प्रदान की। । टीवी पर दे,खी गयी इस खबर को देखकर मन भर आया। यकीनन उसके पति और उसके बीच प्रेम संबंध तो वर्षों पुराने रहे होंगे। कहा जाता है कि माता पिता लड़की को अनजान लड़के के हाथ में सौंपना या किसी लड़की को विवाह बाद प्रेम में करने सोचने की दूट मिलना दकियानूसी विचारधारा है पर क्या इन अंर्तजातीय विवाहों से वह पौंगापन समाप्त हो जाता है। पारंपरिक ढंग से शादी में दहेज लेनदेन के चलते किसी आधुनिक सोच का विकास नहीं माना जा सकता। लंबे समय के प्रेम में भी वह लड़की अपने साथी को क्या समझ पायी? एक प्रतिभाशाली लड़की का इस तरह दहेज के लिये चला जाना अत्यंत दुःखःदायी लगता है।

वैसे सजातीय विवाहों में भी कोई अच्छी स्थिति नहंी रहती पर यह आशा तो की जाती है कि प्रेम विवाह भले ही अंतर्जातीय हों पर दहेज की समस्या का हल हो पर अब उसके भी निराशाजनक परिणाम आने लगे हैं। कुछ अंतर्जातीय विवाहों में बारातियों में एक अजीब सा परायापन लगता है पर यह सोचकर सभी सहज दिखते हैं कि चलो अच्छा हुआ कि प्रेमियों ं का मिलन हुआ पर उनका इस तरह टूटना अत्यंत कष्टकारक लगता है। अंतर्जातीय विवाह टूटने के अनेक प्रसंग भी सामने आने लगे हैं और यह माता पिता की स्वीकृति से हुए थे।

इस देश की समस्या यह नहीं है कि यहां जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के नाम पर समूह बने हैं। समस्या यह है कि पाश्चात्य सभ्यता के अंधानुकरण ने उनमें आपनी श्रेष्ठता का भाव पैदा किया है जिससे वैमनस्या फैल रहा हे। टीवी, फ्रिज, कूलर, मोटर साइकिल, कार, कंप्यूटर तथा अन्य आधुनिक साधनों का अनुसंधान भारत में नहीं हुआ पर दहेज जैसी पुरानी परंपरा में इनका जमकर उपयोग हो रहा है। जिस बाप को अपनी शादी में साइकिल भी नहीं मिली वह अपने बेटे की शादी में मोटर साइकिल या कार मांगता है। सबसे अधिक हैरानी तब होती है जब पढ़ीलिखी महिलायें भी बात तो आधुनिकता की करती हैं पर दहेज का मामला हो तो खलनाियका को रोल अदा करते हुए जरा भी नहीं हिचकती।

कहने का अभिप्राय यही है कि देश की कुपरंपरायें, रूढ़िवादिता, अंधविश्वास तथा अन्य कुरीतियों की भी उतनी ही पुरानी गंदी विचाराधाराएं बहती आ रही हैं जैसे कि पावन नदियां गंगा, यमुना और नर्मदा। हमने अपने लोभ लालच से इन पावन नदियों को भी गंदा कर दिया और अपनी कुत्सित विचारधाराओं को भी आधुनिकता का रूप देकर उनको अधिक भयावह बनाने लगे हैं। जिस तरह यह नदियां स्वच्छ करने के लिये अपने उद्गम स्थल से पवित्र करने की आवश्यकता है-बीच में कहीं से साफ करने की योजनाओं को कोई परिणाम नहीं निकलने वाला-वैसे ही समाज में बदलाव लाने का प्रयास तभी सफल हो सकता है जब लोगों को सोच बदलने के लिये प्रेरित किया जाये। अंतर्जातीय विवाह से नये समाज के निर्माण की बात या जाति पांत का भेद मिटने से धर्म की रक्षा की बात तब तक निरर्थक साबित होगी जब तक लोगों की सोच नहीं बदलेगी।

कितने आश्चर्य की बात है कि लड़की जब कमाने लगती है तो लोग सोचते हैं कि उसकी शादी बिना दहेज को हो जायेगी पर माता पिता को फिर भी योग्य वर के लिये पैसा खर्च करना पड़ता है फिर भी उसके खुश रहने की गारंटी नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि अनेक कथित संस्कृत और आधुनिक माता पिता और उनके लड़के पाश्चात्य सभ्यता की देखादेखी कमाऊ बीवी या बहु के लिये आंखें फैलाकर प्यार के नाम पर शिकार करने के लिये घूम रहे हैं पर दहेज लेना और फिर बहू से सामान्य गृहस्थ औरत की तरह कामकाज की भी अपेक्षा करते हैं। उसे ताने देते हैं। चंद दिन पहले ही उसे प्रेम करने वाला जब पति बन जाता है तो वह उसे संकट से उबारने की बजाय उसे बढ़ाने लगता है। उस लड़की की तब क्या व्यथा होती होगी जब जीवन भर साथ निभाने का वादा करने वाला प्रेमी जब पति बनता है तब अपने माता पिता या बहिन के तानों से उसे बचाने की बजाय

उनके साथ हो जाता है। मुश्किल यही है कि हम अपने यहां पाश्चात्य आधारों पर हम अपना समाज चलाना चाहते हैं पर उसके लिये सहनशीलता हमारे अंदर तब तक ही है जब तक हमें कष्ट नहीं उठाना पड़ता। जहां हमें कष्ट पहुंचता है वहां हम अपने संस्कारों का हवाला देकर अध्यात्मिक होने का प्रयास करते हैं। ऐसे विरोधाभासों से निकलने का कोई मार्ग भी नहीं दिखता क्योंकि हमारे देश के दिशा निर्देशक शादियो के स्वरूपों पर ही सोचते हैं उसके बाद चलने वाली गृहस्थी पर नहीं।

हमारे कहने का तात्पर्य यह नहीं कि अंतर्जातीय प्रेम विवाह होना ठीक नहीं या सभी का यही हाल है बल्कि इससे समाज में व्यापक सुधार की आशा करना अतिउत्साह का प्रतीक है यही आशय है। जब तक ऐसे विवाहों में दहेज और शादी के समय अनाप शनाप खर्च ये भी बचने का प्रयास करना चाहिये।

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हिन्दू धर्म सन्देश-दौलत की महिमा विचित्र (daulat ki vichitra mahima-hindi sandesh


 यसयास्ति वित्तं स नरः कुलीन स पण्डित स श्रुतवान्गुणज्ञः।

स एव वक्ता स च दर्शनीयः।

सर्वे गुणा कांचनमाश्रयन्ति।।

हिन्दी में भावार्थ-जिस मनुष्य के पास माया का भंडार उसे ही कुलीन, ज्ञानी, गुणवान माना जाता है। वही आकर्षक है। स्पष्टतः सभी के गुणों का आंकलन उसके धन के आधार पर किया जाता है।

तानीन्द्रियाण्यविकलानि तदेव नाम सा बुद्धिप्रतिहता वचनं तदेव।

अर्थोष्मणा विरहितः पुरुष क्षणेन सोऽप्यन्य एव भवतीति विचित्रमेतत्।।

हिन्दी में भावार्थ-एक जैसी इंद्रियां, एक जैसा नाम और काम, एक ही जैसी बुद्धि और वाणी पर फिर भी जब आदमी धन की गरमी से क्षण भर में रहित हो जाता है। इस धन की बहुत विचित्र महिमा है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-यह समाज भर्तृहरि महाराज के समय में भी था और आज भी है। हम बेकार में परेशान होकर कहते हैं कि ‘आजकल का जमाना खराब हो गया है।’ सच बात तो यह है कि सामान्य मनुष्य की प्रवृत्तियां ही ऐसी है कि वह केवल भौतिक उपलब्धियां देखकर ही दूसरे के गुणों का अंाकलन करता है। इधर गुणवान मनुष्य अपने अंदर गुणों का संचय करते हुए इतना ज्ञानी हो जाता है कि वह इस बात को समझ लेता है कि उनसे ही उसके जीवन की रक्षा होगी। इसलिये वह समाज में प्रतिष्ठा अर्जित करने के लिये कोई अधिक प्रयास नहीं करता। उधर अल्पज्ञानी और ढोंगी लोग थोड़ा पढ़लिखकर सामान्य व्यक्तियों के सामने अपनी चालाकियों के सहारे उन्हीं से धन वसूल कर प्रतिष्ठित भी हो जाते हैं। यह अलग बात है कि इतिहास हमेशा ही उन्हीं महान लोगों को अपने पन्नों में दर्ज करता है जिन्होंने अपने गुणों से वास्तव में समाज को प्रभावित किया जाता है।

इसका एक दूसरा पहलू भी है। अगर हमारे पास अधिक धन नहीं है तो इस बात की परवाह नहीं करना चाहिए। समाज के सामान्य लोगों की संकीर्ण मानसिकता का विचार करके अपने सम्मान और असम्मान की उपेक्षा कर देना चाहिए।  जिसके पास धन है उसे सभी मानेंगे। आप अच्छे लेखक, कवि, चित्रकार या कलाकार हैं पर उसकी अगर भौतिक उपलब्धि नहीं होती तो फिर सम्मान की आशा न करें। इतना ही नहीं अगर आप परोपकार के काम में लगे हैं तब भी यह आशा न करें  कि बिना दिखावे के आपको कोई सम्मान करेगा। सम्मान या असम्मान से उपेक्षा करने के बाद आपके अंदर एक आत्मविश्वास पैदा होगा जिससे जीवन में अधिक आनंद प्राप्त कर सकेंगे।

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सूर्य के उदय से चंद्रमा की चमक फीकी पड़ जाती है-हिन्दू धर्म संदेश


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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तारा मण्डल बैठि के, चांद बड़ाई खाय।
उदै भया जब सूर का, तब तारा छिपि जाय।।

आसमान के तारा मंडल में बैठकर चांद बढ़ाई प्राप्त करता है पर जैसे ही सूर्य नारायण का उदय होता है वैसे ही तारा मंडल और चंद्रमा छिप जाते हैं।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-जहां अज्ञान होता है वह थोड़ा बहुत ज्ञान रट लेते हैं और उसी के सहारे प्रवचन कर अपने आपको विद्वान के रूप में प्रतिष्ठत करते हैं। आज के भौतिकतावादी युग में विज्ञापन की महिमा अपरंपार हो गयी है। इसने आदमी की चिंतन, मनन, अनुसंधान और अभिव्यक्ति क्षमता लगभग नष्ट कर दिया है। मनोरंजन के नाम पर लोग टीवी, अखबार तथा इंटरनेट पर सामग्री तलाशते हैं जो कि बाजार और विज्ञापन के सहारे ही हैं। इन विज्ञापनों में आदमी का सोच का अपहरण कर लिया है। उनकी सहायता करते हैं वह धार्मिक लोग जिनके पास रटा रटाया ज्ञान है और वह लोगों को तत्व ज्ञान से दूर रहकर केवल परमात्मा के स्वरूपों की कथायें मनोरंजन के रूप में सुनाकर भक्ति करवाते हैं।

सच बात तो यह है कि ज्ञान का सपूर्ण स्त्रोत है ‘श्रीमद्भागवत गीता’। पर हमारे कथित धार्मिक ज्ञानियों ने उसका केवल सन्यासियों के लिये अध्ययन करना उपयुक्त बताया है। यही कारण है कि काल्पनिक फिल्मों के नायक और नायिकाओं को देवता के रूप में प्रतिष्ठत कर दिया जाता है। लोग सत्संग की चर्चा की बजाय आपसी वार्तालाप में उनकी अदाओं और अभिनय की चर्चा करते हुए अपना खाली समय बिताना पसंद करते हैं। इन अभिनय को सितारा भी कहा जाता है-अब इन सितारों में कितनी अपनी रौशनी है यह समझा जा सकता है। वह लोग संवाद दूसरों को लिखे बोलते हैं। नाचते किसी दूसरे के इशारों पर हैं। हर दृश्य में उनके अभिनय के लिये कोई न कोई निर्देशक होता है।

उसी तरह ऐसे लोग भी समाज सेवी के रूप में प्रतिष्ठत हो जाते हैं जिनका उद्देश्य उसके नाम पर चंदा वसूल कर अपना धंधा करना होता है। इतना ही नहीं वह लोग महान लेखक बन जाते हैं जो भारतीय अध्यात्म के विपरीत लिखते हैं और जो उस पर निष्काम भाव से लिखते हैं उनको रूढि़वादी और पिछड़ा माना जाता है। कुल मिलाकर इस दुनियां में एक कृत्रिम दुनियां भी बना ली गयी है जो दिखती है पर होती नहीं है।
हमारे देश के लोगों को कथित आधुनिक विचारों के नाम पर ऐसे जाल में फंसाया गया है जिसमें चंद्रमा की तरह उधार की रौशनी लेकर अपनी शेखी स्वयं बघारने वाले ही सम्मान पाते हैं। इस जाल में वह लोग नहीं फंसते जो भारतीय अध्यात्म में वर्णित तत्व ज्ञान के पढ़, सुन और समझ कर धारण कर लेते हैं। भारतीय अध्यात्म ज्ञान तो सूर्य की तरह है जिसमें इस प्रथ्वी पर मौजूद हर चीज की सत्यता को समझा जा सकता है। यही कारण है कि व्यवसायिक कथित समाजसेवी, विद्वान, लेखक और संत उससे लोगों को परे रखने के लिये अपना सम्मान करने की अप्रत्यक्ष रूप से देते हैं।
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संकलक एवं संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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इश्क और नंबर वन का चक्कर-हिन्दी हास्य कविता (love blogger copule and nambur one award-hindi comedy satire poem)


आशिका और माशुका ने मिलकर

अपने एकल और युगल ब्लाग पर

खूब पाठ लिखे,

कभी सप्ताह भर तो

कभी माह बाद दिखे

साल भर कर ली जैसे तैसे लिखाई।

दोनों अपने एकल ब्लाग पर दिखते थे,

साल के नंबर वन के ब्लागर का

खिताब पाने की दोनों को ललक थी

पर कहीं सामुदायिक ब्लागर पर भी

दाव चल जाये इसलिये

युगल ब्लाग भी लिखते थे,

कभी प्यार तो, कभी व्यापार पर तो,

कभी नारीवाद पर भी की खूब लिखाई।

जैसे तैसे वर्ष निकला

नव वर्ष के पहले दिन ही

सुबह आशिक ब्लागर ने

माशुका के फोन की घंटी बजाई।

नींद से उठी माशुका ने भी ली अंगड़ाई।

उधर से आशिक बोला

‘नव वर्ष की हो बधाई’,

माशुका ने बिना लाग लपेटे के कहा

‘छोड़ो सब यह बेकार की बात

यह तो ब्लाग पर ही लिखना,

अब तो नंबर वन के लिये कोशिश करते दिखना,

बहुत जगह बंटेंगे पुरस्कार

इसलिये तुम मेरा ही नाम आगे करना,

मैंने दूसरे लोगों से भी कहा है

वह भी मेरे लिये वोट जुटायेंगे

लग जाये शायद मेरे हाथ कोई इनाम

जब लोग लुटायेंगे,

वैसे तुम अपने नाम की कोशिश मत करना

क्योंकि हास्य कविताओं के कारण

तुम्हारी छवि अच्छी नहीं है

तुम्हारा मन न खराब हो

इसलिये तुम्हें यह बात नहीं बताई।’

आशिक बोला-

‘अरे, यह क्या चक्कर है

मैंने तुम्हें पास से कभी नहीं देखा

फोटो देखकर ही पहचान बनाई,

अब तुम कैसी कर रही हो चतुराई।

क्या इसी नंबर वन के लिये

तुमने यह इश्क की महिमा रचाई।

मैं लिखता रहा पाठ पर पाठ

तुमने वाह वाह की टिप्पणी सजाई।

अब आया है इनाम का मौका तो

मुझे अपनी औकात बताई।

वैसे तुमने भी क्या लिखा है

सब कूड़े जैसा दिखा है

शुक्र समझो मेरी टिप्पणियों में बसे साहित्य ने

तुम्हारे पाठ की शोभा बढ़ाई।

अब मुझे अपना हरकारा बनने के लिये

कह रहे हो

तुम ही क्यों नहीं मेरा नाम बढ़ाती

करने लगी हो मुझसे नंबर वन की लड़ाई।’

सुनकर माशुका भड़की

‘बंद करो बकवास!

तुमसे अधिक टिप्पणियां तो

मेरे ब्लाग पर आती हैं

तुम्हारी साहित्यक टिप्पणियों पर

मेरी सहेलियों ने मजाक हमेशा उड़ाई।

वैसे तुम गलतफहमी में हो

तुम जैसे कई पागल फिरते हैं अंतर्जाल पर

मैंने सभी पर नज़र लगाई।

एक नहीं सैंकड़ों मेरे नंबर वन के लिये लड़ेंगे

सभी तमाम तरह से कसीदे पढेंगे,

तुम अपना फोन बंद कर दो

भूल जाओ मुझे

तुम्हारे बाद वाले का  भी फोन आयेगा

वही मेरी नैया पार लगायेगा

तुम चाहो तो बन जाओ भाई।’

माशुका ब्लागर ने फोन पटका उधर

 इधर आशिक ब्लागर  आसमान की तरफ

आंखें कर लगभग रोता हुआ बोला

‘हे सर्वशक्तिमान यह क्या किया

इश्क  रचा तो  ठीक

पर नववर्ष की परंपरा क्या बनाई,

जिससे  इश्क में मैंने पाई विदाई।।

 


नोट-यह एक काल्पनिक हास्य कविता मनोरंजन की दृष्टि से लिखी गयी है। इसक किसी घटना या व्यक्ति से कोई लेना देना नहीं है। किसी की कारिस्तानी से मेल हो जाये तो वही इसके लिये जिम्मेदार होगा।

 

कवि, लेखक एंव संपादक-दीपक भारतदीप,Gwalior
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अधिक धन होने पर अनुशासहीनता हानिकारक-हिन्दू धर्म संदेश (dhan aur anushasan-hindu dharma sandesh)


धर्मार्थोश्यः परित्यज्य स्यादिन्द्रियवशानगुः।
श्रीप्राणधनदारेभ्यः क्षिप्र स परिहीयते।।
हिन्दी में भावार्थ-
नीति विशारद विदुर के कथनानुसार जो मनुष्य धर्म और अर्थ इंद्रियों के वश में हो जाता है वह शीघ्र ही अपने ऐश्वर्य, प्राण, धन, स्त्री को अपने हाथ से गंवा बैठता है।
अर्थानामीश्वरो यः स्यादिन्द्रियाणमीनश्वरः।
इन्द्रियाणामनैश्वर्यर्दिश्वर्याद भ्रश्यते हि सः।।
हिन्दी में भावार्थ-
अधिक धन का स्वामी होने भी इंद्रियों पर अधिकार करने की बजाय उसके वश में हो जाने वाला भी मनुष्य ऐश्वर्य से भ्रष्ट हो जाता है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अनेक लोगों को यह लगता है कि अगर अधिक धन आ गया तो जैसे सारा संसार जीत लिया। इस भ्रम में अनेक लोग धन के कारण अनुशासहीनता पूर्वक जीवन व्यतीत करने लगते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि शीघ्र ही न केवल अपना वैभव गंवाते हैं बल्कि कहीं कहीं उनको शारीरिक हानि भी झेलनी पड़ती हैं। जीवन में दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन का होना जरूरी है। अधिक धन है तो भी समाज में सम्मान प्राप्त होता है पर इसका आशय यह कतई नहीं है कि अनुशासनहीनता बरती जाये। ऐसे ढेर सारे उदाहरण है जिसमें अनेक धनपतियों की औलादें मदांध होकर ऐसे अपराधिक कार्य इस आशय से करती हैं कि उनके पालक धन से कानून खरीद लेंगे। ऐसा होता भी है पर उसकी एक सीमा होती है जहां उसका अतिक्रमण होता है वहां फिर सींखचों के अंदर भी जाना पड़ता है। इस समय ऐसा दौर भी है जिसमें धनपति स्वयं और उनकी औलादें समाज में अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासन हीनता दिखाते हैं। धन उनकी आंखों बंद कर देता है और उनको यह ज्ञान नहीं रहता कि आजकल प्रचार माध्यम सशक्त हो गये हैं जिनकी वजह से हर समाचार बहुत जल्दी ही लोगों तक पहुंचता है। भले ही यह प्रचार माध्यम भी धनपतियों के हैं पर उनको अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिये सनसनीखेज खबरों की आवश्यकता होती है और ऐसे में किसी धनी, प्रतिष्ठित या बाहुबली द्वारा किसी प्रकार के अपराध की जानकारी मिलने पर उसे जोरदार ढंग से प्रसारित भी करते हैं।
कहने का तात्पर्य यह है कि अब वह समय चला गया जब धन और वैभव का प्रदर्शन करने के लिये अनुशासनहीनता बरतना आवश्यक लगता था।
आदमी के पास चाहे कितना भी धन हो उसे जीवन में अनुशासन अवश्य रखना चाहिये। याद रहे धन की असीमित शक्ति है पर देह की सीमायें हैं और किसी प्रकार की अनुशासनहीनता का दुष्परिणाम उसे ही भोगना पड़ता है।

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संत कबीर के दोहे-भक्ति स्वरूप बदलना अपराध जैसा


संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि
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मुख से नाम रटा करैं, निस दिन साधुन संग
कहु धौं कौन कुफेर तें, नाहीं लागत रंग

साधुओं के साथ नियमित संगत करने और रात दिन भगवान का नाम जाप करते हुए भी उसका रंग इसलिये नहीं चढ़ता क्योंकि आदमी अपने अंदर के विकारों से मुक्त नहीं हो पाता।

सौं बरसां भक्ति करै, एक दिन पूजै आन
सौ अपराधी आतमा, पड़ै चैरासी खान

कई बरस तक भगवान के किसी स्वरूप की भक्ति करते हुए किसी दिन दुविधा में पड़कर उसके ही किसी अन्य स्वरूप में आराधना करना भी ठीक नहीं है। इससे पूर्व की भक्ति के पुण्य का नाश होता है और आत्मा अपराधी होकर चौरासी के चक्कर में पड़ जाती है।

वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-भगवान का नाम लेना और साधुओं के आश्रमों में जाकर हाजिरी देना कोई भक्ति का प्रमाण नहीं हैं। भीड़ में बैठकर भगवान का नाम लेकर शोर मचाने से भी कोई भक्ति नहीं हो जाती। लोग बरसों तक ऐसा करते हैं पर मन में फिर भी चैन नहीं पाते। मन में शांति तभी संभव है जब एकाग्र होकर हृदय भगवान के नाम का स्मरण किया जाये। ऐसा नहीं कि आंखें बंद कर मूंह से भगवान का नाम जाप कर रहे हैं और अंदर कुछ और ही विचार आ रहे हैं। कुछ लोग विशेष अवसर पर प्रसिद्ध मंदिरों और आश्रमों में जाकर मत्था टेक कर अपनी भक्ति को धन्य समझते हैं-ऐसा करना भगवान को नहीं बल्कि अपने आपको धोखा देना है। सबसे बड़ी बात यह है कि अगर अपने आचरण में पवित्रता नहीं है तो इसका मतलब यह है कि भक्ति एक धोखा है। जब तक आचार विचार और व्यवहार में पवित्रता नहीं रहेगी तब तक भगवान के नाम लेने का सकारात्मक प्रभाव नहीं हो सकता।

कुछ लोग अपने जीवन में बरसों तक भगवान के किसी एक ही स्वरूप की आराधना करते हैं। धीरे धीरे उनके अंदर भक्ति का रंग चढ़ने लगता है पर अचानक ही उनको कोई दूसरे स्वरूप या गुरु को पूजने के लिये प्रेरित करता है तो वह उसकी तरफ मुड़ जाते हैं। यह उनकी बरसों से की गयी भक्ति की कमाई को नष्ट कर देता है। जब सभी कहते हैं कि भगवान तो एक ही फिर उसके लिये स्वरूप में बदलाव करना केवल धोखा है यह अलग बात है कि उसकी प्रेरणा देने वाला भक्त को कोई दे रहा है या भक्त स्वयं ही उसकी लिये उत्तरदायी है। इतना तय है कि भगवान का रूप बदलकर उसका स्मरण करना अपने कष्ट का कारण बनता है।
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संत कबीर दर्शन-पैसे देखकर सभी प्यार करते हैं (paisa aur pyar-sant kabir darshan)


गुणवेता और द्रव्य को, प्रीति करै सब कोय
कबीर प्रीति सो जानिये, इनसे न्यारी होय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि गुणवेताओ-चालाक और ढोंगी लोग- और धनपतियों से तो हर कोई प्रेम करता है पर सच्चा प्रेम तो वह है जो न्यारा-स्वार्थरहित-हो।

प्रेम-प्रेम सब कोइ कहैं, प्रेम न चीन्है कोय
जा मारग साहिब मिलै, प्रेम कहावै सोय

संत शिरोमणि कबीरदास जी कहते हैं कि प्रेम करने की बात तो सभी करते हैं पर उसके वास्तविक रूप को कोई समझ नहीं पाता। प्रेम का सच्चा मार्ग तो वही है जहां परमात्मा की भक्ति और ज्ञान प्राप्त हो सके।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-टीवी चैनलों और पत्र पत्रिकाओं में आजकल प्रेम पर बहुत कुछ दिखाया और लिखा जाता है। यह प्रेम केवल स्त्री पुरुष के निजी संबंध को ही प्रोत्साहित करता है। हालत यह हो गयी है कि अप्रत्यक्ष रूप से विवाहेत्तर या विवाह पूर्व संबंधों का समर्थन किया जाने लगा है। यह क्षणिक प्रेम एक तरह से वासनामय है मगर आजकल के अंग्रेजी संस्कृति प्रेमी और नारी स्वतंत्रता के समर्थक विद्वान इसी प्रेम में शाश्वत जीवन की तलाश कर हास्यास्पद दृश्य प्रस्तुत करते हैं। एक मजे की बात यह है कि एक तरफ सार्वजनिक स्थलों पर प्रेम प्रदर्शन करने की प्रवृति को स्वतंत्रता के नाम पर प्रेमियों की रक्षा की बात की जाती है दूसरी तरफ प्रेम को निजी मामला बताया जाता है। कुछ लोग तो कहते हैं कि सब धर्मों से प्रीति का धर्म बड़ा है। अब अगर उनसे पूछा जाये कि इसका स्वरूप क्या है तो कोई बता नहीं पायेगा। इस नश्वर शरीर का आकर्षण धीमे धीमे कम होता जाता है और उसके साथ ही दैहिक प्रेम की आंच भी धीमी हो जाती है। इसलिए कहा जाता है कि सच्चा प्रेम केवल परमात्मा से किया जा सकता है।

वैसे सच बात तो यह है कि प्रेम तो केवल परमात्मा से ही हो सकता है क्योंकि वह अनश्वर है। हमारी आत्मा भी अनश्वर है और उसका प्रेम उसी से ही संभव है। परमात्मा से प्रेम करने पर कभी भी निराशा हाथ नहीं आती जबकि दैहिक प्रेम का आकर्षण जल्दी घटने लगता है। जिस आदमी का मन भगवान की भक्ति में रम जाता है वह फिर कभी उससे विरक्त नहीं होता जबकि दैहिक प्रेम वालों में कभी न कभी विरक्ति हो जाती है और कहीं तो यह कथित प्रेम बहुत बड़ी घृणा में बदल जाता है।
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