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योग साधना को केवल व्यायाम न समझें-हिन्दू धर्म संदेश (yog sadhna no simple exercise-hindu dharm sandesh)


एक सर्वे के अनुसार 45 से 55 वर्ष की आयु के मध्य व्यायाम करने वालों में घुटने तथा शरीर के अन्य जोड़ों वाले भागों में दर्द होने की बात सामने आयी है। यह आश्चर्य की बात नहीं है पर यहां एक बात का उल्लेख करना आवश्यक है कि भारतीय योग पद्धति का हिस्सा दैहिक आसन इस तरह के व्यायाम की श्रेणी में नहीं आते। यह व्यायाम नहीं बल्कि योगासन हैं यह अलग बात है कि इसकी कुछ क्रियायें व्यायाम जैसी लगती हैं।
इसके संबंध में एक मजेदार बात याद आ रही है। एक गैर हिन्दू धार्मिक चैनल पर एक कथित विद्वान से भारतीय योग पद्धति के बारे में पूछा गया तो उसने जवाब दिया कि ‘हमारी पवित्र किताब में भी इंसान को व्यायाम करते रहने के लिये कहा गया है।’
उन विद्वान महोदय का बयान कोई आश्चर्य जनक नहीं था क्योंकि सभी धर्मों के विद्वान हमेशा अपनी पुरानी किताबों के प्रति वफादार रहते हैं और उनसे यह आशा करना बेकार है कि वह किसी भी हालत में दूसरे धर्म की किसी परंपरा की प्रशंसा करेंगे। फिर टीवी चैनलों ने भी कुछ विद्वान तय कर रखे हैं जिनके पास बहस करने के लिये आपके पास सुविधा नहीं है। बहरहाल सच बात यही है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसन कोई सामान्य व्यायाम नहीं बल्कि देह से विकार बाहर निकालने की एक प्रक्रिया है।
योगासनों में किसी भी शारीरिक क्रिया में शरीर ढीला नहीं होता। हर अंग में कसावट होती है और यह तनाव की बजाय राहत देती है इतना ही नहीं हर आसन में उसके अनुसार शरीर के चक्रों पर ध्यान भी लगाया जाता है-इस संबंध में भारतीय येाग संस्थान की पुस्तक उपयोग प्रतीत होती है। व्यायाम में जहां शरीर से ऊर्जा रस के निर्माण के साथ उसका क्षरण भी होता है पर योगासन में केवल देह मेें स्थित वात, कफ तथा पित के विकार ही निर्गमित होते। दूसरी बात यह है कि ध्यान की वजह से देह को ऐसी सुखानुभूति होती है जिसकी व्यायाम में नहीं की जाती। इसके अलावा व्यायाम जहां जमीन बैठकर या खड़े होकर किया जाता है जबकि योगसन में नीचे चटाई, दरी और चादर का बिछा होना आवश्यक है ताकि देह में निर्मित होने वाली ऊर्जा का बाहर विसर्जन न हो। योगासन के बारे में सबसे बड़ी दो बातें यह है कि एक तो वह इसमें शरीर को खींचा नहीं जाता बल्कि जहां तक सहजता अनुभव हो वहीं तक हाथ पांवों में तनाव लाया जाता है। दूसरा यह कि योगसन किसी भी आयु में प्रारंभ किया जा सकता है जबकि व्यायाम को एक आयु के बाद प्रारंभ करना खतरनाक माना जाता है। योगसन में सहजता का भाव आता है और व्यायाम में इसका अभाव साफ दिखाई दे्रता है क्योंकि उसमें शरीर के चक्रों पर ध्यान नहीं रखा जाता।
कहने का तात्पर्य यह है कि भारतीय येाग पद्धति के शारीरिक आसनों को भारतीय या पश्चिमी पद्धति के व्यायामों से तुलना करना ही ठीक नहीं है। दोनों ही एकदम पृथक विषय है-भले ही उनकी शारीरिक क्रियाओं में कुछ साम्यता दिखती है पर अनुभूति में दोनों ही अलग हैं। दूसरी बात यह है कि भारतीय योग पद्धति में आसन केवल एक विषय है पर सभी कुछ नहीं है और यही कारण है कि इसे व्यायाम मानना गलत है। अलबत्ता कुछ विद्वान इसे सीमित दृष्टिकोण से देखते हैं उनको इस बारे में जानकारी नहीं है। कई लोग अक्सर यह शिकायत करते हैं कि वह अमुक आसन कर रहे थे तो उनकी नसें खिंच गयी दरअसल वह आसनों को व्यायाम की तरह करते हैं जबकि इसके लिये पहले किसी योग्य गुरु का सानिध्य होना आवश्यक है।
कवि, लेखक और संपादक-दीपक भारतदीप, ग्वालियर
http://anantraj.blogspot.com

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मनुस्मृति-गायत्री मंत्र से मिलती है मन को शांति (gaytri mantra se milti hai man ko shanti)


योऽधीतेऽहन्यहन्येतांस्वीणि वर्षाण्यतन्द्रितः।
स ब्रह्म परमभ्येति वायुभूतः खमूर्तिमान्।।
हिंदी में भावार्थ-
जो व्यक्ति सुस्ती का त्याग कर तीन वर्षों तक औंकार तीन व्याहृतियों सहित तीन चरणों वाले गायत्री मंत्र का जाप करता है वह भक्ति में सिद्धि प्राप्त कर लेता है। वह वायु के समान स्वतंत्र गति प्राप्त करते हुए प्रसिद्ध होता है। वह शरीर की सीमा से परे जाकर आसमान के समान व्यापक स्वरूप वाला बन जाता है।
एकक्षरं परं ब्रह्म प्राणायमः परं तपः।
सवित्र्यास्तु परं नास्ति मौनस्तयं विशष्यिते।।
हिंदी में भावार्थ-
ओंकार शब्द ही परमात्मा की प्राप्ति का सर्वश्रेष्ठ साधन है। प्राणायम से बड़ा कोई तप, गायत्री से बड़ा कोई मंत्र और मौन की तुलना में सत्य बोलना श्रेष्ठ है।
वर्तमान संदर्भ में संपादकीय व्याख्या-अक्षरों में सबसे बड़ा अक्षर ओउम ॐ कहा गया है। मंत्रों में गायत्री मंत्र श्रेष्ठ है। प्रतिदिन ओउम शब्द के उच्चारण का अभ्यास करने से व्यक्ति के मन में एकाग्रता और सुविचारों के प्रवाह का स्तोत्र का निर्माण होता है। उसी तरह हृदय को शीतलता, स्थिरता और दृढ़ता प्रदान करने के लिये गायत्री मंत्र एक तरह से उद्गम स्थल है। जब तीव्र गर्मी पड़ती है तब सूर्य की तेज किरणों से मनुष्य का मन और मस्तिष्क विचलित हो जाता है। कहने को मनुष्य विचारशील और विवेकवान है पर उस पर जलवायु का प्रभाव होता है और तीव्र गर्मी में मनुष्य के अंदर निराशा, क्रोध और हिंसा की प्रवृत्ति का स्वाभाविक रूप से निर्माण होता है। यह नहीं भूलना चाहिये कि गुण ही गुणों में बरतते हैं और जलवायु में अगर तीव्र उष्मा है तो मनुष्य उसे नहीं बच सकता। हां, जो लोग अध्यात्मिक रूप से कोई न कोई प्रयास करते हैं वह अपने को किसी तरह हिंसा, कुविचार और निराशा से बचाकर निकलते हैं। इसके लिये सर्वश्रेष्ठ प्रयास यही है कि गायत्री का मंत्र जाप किया जाये। इससे जो देह, मन और विचारों में शीतलता और पतित्रता आती है उससे मनुष्य तनाव से मुक्त रहता है। विशेष रूप से ग्रीष्मकालीन समय में जब आसपास के मनुष्यों में गर्मी का बुरा प्रभाव पड़ता है तब वह अपने बुरे व्यवहार से पूरे वातावरण को विषाक्त बना देते हैं तब जिसके मन में गायत्री मंत्र के जाप से उत्पन्न स्थिरता, दृढ़ता और प्रसन्नता के भाव होते हैं वह तनाव से मुक्त रहते हैं।
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